सीधी चढ़ान (आठवीं क़िस्त)

सन् 1897 में चिमनभाई ओरिजिनल साइड के एडवोकेट हुए. अंग्रेज़ बैरिस्टरों से भरपूर उस साइड में इकतीस वर्ष की आयु के इस वकील का आगमन ज़रा धृष्टतापूर्ण था. 1899 में वे डाकोरजी के केस में विलायत गये. थोड़े समय में ही ओरिजिनल साइड में भी चिमनभाई अग्रगण्य माने जाने लगे.

गर्विष्ट न्यायमूर्ति केंडी के साथ एक बार उनकी टक्कर हो गयी. उक्त न्यायमूर्ति हाईकोर्ट में आये और एक आवश्यक अरजी देने के लिए चिमनभाई उनके चेंबर में गये. न्यायाधीश उसी समय भोजन करके उठे थे और खड़े होकर सिगरेट पूंक रहे थे. ओरिजिनल साइड की शिष्टता से केंडी अपरिचित थे. न वे स्वयं बैठे, न चिमनभाई से बैठने के लिए कहा. चिमनभाई आराम से कुरसी पर बैठ गये.

न्यायमूर्ति ने गुस्सा होकर अपमानजनक ढंग से पूछा- ‘मैं खड़ा हूं, फिर आप बैठ कैसे गये?’

एक पलक भी झपकाये बिना चिमनभाई ने निश्चिंतता से कहा- ‘मुझे अफसोस है, परंतु मैंने समझा कि आप बैठ जायेंगे. अब आप बैठ सकते हैं.’

न्यायमूर्ति केंडी बैठ गये और अरजी सुनी.

न्यायमूर्ति द्वारा किया हुआ अपमान सहने के लिए चिमनभाई तैयार नहीं थे. उन्होंने मुख्य न्यायाधीश सर लॉरेंस जेकिन्स के पास जाने का विचार किया और उस समय के अग्रगण्य धारा-शास्त्री मेक्फर्सन से इस विषय में बात की. उसने कहा- ‘ सीतलवाड, इसकी चिंता मत करो. केंडी को कभी किसी ने सभ्यता का पालन करने का अपराध करते देखा है?’

चिमनभाई मुख्य न्यायाधीश जेकिन्स के पास गये और उनसे बात की. उसने केंडी से बात की होगी, अतः केंडी ने अपने चोबदार को चिमनभाई को बुलाने के लिए भेजा! चिमनभाई ने कहा- ‘तुम्हारे साहब को मुझसे काम हो, तो कहो कि चिट्ठी लिखकर मुझे बुलायें.’

चोबदार तुरंत चिट्ठी ले आया. चिमनभाई केंडी से मिलने गये. केंडी ने अपने व्यवहार के लिए माफी मांगी.

केंडी के घमंड की बात तो उस समय भी सुनाई पड़ती थी, जब वे नौकरी से अलग होकर विलायत चले गये.

लंदन में रेलवे अफसर जिस प्रकार बंद कालर का कोट पहनते हैं, उसी प्रकार का छोटा कोट पहनकर वे वाटरलू के स्टेशन पर ट्रेन की राह देखते घूम रहे थे. इतने में एक फक्कड़ युवक मार्निंग कोट और हैट पहने वहां आया. उसने केंडी को रोककर कहा- ‘स्टेशन मास्टर. दूसरी गाड़ी कब आ रही है?’

बम्बई हाईकोर्ट के भूतपूर्व न्यायमूर्ति गुस्से से देखते रहे और उग्र स्वर में बोले- ‘तुम क्या समझते हो? मैं स्टेशन मास्टर नहीं हूं.’

उस फक्कड़ युवक पर इन भूतपूर्व न्यायमूर्ति के रोष का शायद ही कोई असर हुआ हो. उसने शांति से एक आंख की ऐनक आंख पर चढ़ायी. भूतपूर्व न्यायाधीश को सिर से लेकर पैर तक निहारा और शांत आवाज़ में कहा- ‘तुम स्टेशन मास्टर नहीं? सचमुच नहीं? तो फिर स्टेशन-मास्टर जैसे क्यों दीख रहे हो?’

भूतपूर्व न्यायमूर्ति के पद की परवाह किये बिना वह फक्कड़ युवक वहां से चला गया और केंडी जहां थे, वहीं खड़े रह गये.

चिमनभाई पहले से ही अनेक विषयों के रसिक हैं. उन्होंने युवावस्था में एक-दो अंग्रेज़ी पुस्तकों का गुजराती अनुवाद किया था. सर फीरोज़ शा मेहता के वे दाहिने हाथ थे- धारासभा में, बम्बई की म्युनिसिपैलिटी में और बम्बई विश्वविद्यालय में.

1902 से 1921 तक म्युनिसिपैलिटी की शाला-समिति के प्रमुख रहकर उन्होंने बम्बई में प्राथमिक शिक्षण की नींव डाली. 1915 में गोखले के स्थान पर वे धारा-सभा में मध्यस्थ चुने गये. 1917 में बम्बई-विश्वविद्यालय के वाइस-चांसलर का पद सुशोभित किया, उस पद पर 1930 तक काम किया और उस संस्था को सुदृढ़ बनाया. 1918 में नये सुधार अमल में लानेवाली समिति में उन्होंने काम किया, हंटर-समिति के सदस्य बने, 1920 के अक्टूबर में न्यायासन से निवृत्त होकर नयी मध्यस्थ धारा-सभा में गये, बम्बई सरकार के मंत्री-पद पर आसीन हुए, उन्होंने जीवन-बीमा-कम्पनी खोलने में सहायता की. 1919 में आग के बीमे की कम्पनी खोली. आज वे दोनों कम्पनियों के प्रमुख हैं. 1922 के बाद हम अधिक निकट परिचय में आये.

जब मैं हाईकोर्ट में आया, तब चिमनभाई आज से बहुत भिन्न मालूम होते थे. वे लम्बा कोट, भड़ौंची पगड़ी पहनते थे. छतरी तो हमेशा ही हाथ में रखते थे. उसे कभी खोलते थे या नहीं, बहुत कम लोग जानते हैं. अभी उन्होंने यूरोपियन पोशाक पहननी शुरू नहीं की थी. उनकी बड़ी-बड़ी भरी हुई मूंछों ने अभी चार्ली चेपलिन की मूंछों का अनुकरण करना आरम्भ नहीं किया था. उनके सिर के बाल 1913 में जैसे देखे थे, आज भी वैसे ही बिल्कुल काले हैं. आयु बढ़ने पर परमेश्वर औरों के सिर बेशक सफेद कर दें, पर चिमनभाई उन्हें सफल होने देने वाले नहीं थे, और न हैं. चिमनभाई ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः’ हैं. अपनी शक्ति का माप उन्हें ठीक-ठीक पता है. उनके अभिप्राय स्पष्ट और सीधे होते हैं. उनका जीवन-क्रम अपना निश्चित किया हुआ होता है. सब अपने आप हो जायेगा यह उनका प्रिय सूत्र है. कोर्ट में कितनी ही दौड़-भाग हो, परंतु वे जिस प्रकार हमेशा चलते हैं, उसी प्रकार धीर-गम्भीर गति से चलते रहते हैं. चाहे न्यायाधीश उतावला हो रहा हो, पर वे अपने आशय को जिस प्रकार चाहते हैं, उसी प्रकार पेश करते हैं.

एक बार मुख्य न्यायाधीश मेक्लाउड ने उनसे जिस विषय पर वे बोल रहे थे, उससे भिन्न विषय पर आने के लिए कहा.

‘माननीय, जरा ठहरिए, मैं अपने क्रम के अनुसार उसी विषय पर आ रहा हूं.’

‘परंतु इस विषय में आपको क्या कहना है?’ मेक्लाउड ने पूछा.

‘प्रत्येक विषय अपने क्रम अनुसार चलेगा.’ कहकर चिमनभाई ने अपने सुगठित रूप में ही अपने अभिप्राय प्रकट किये.

मेरे देखे हुए धाराशास्त्रियों में वास्तविक शास्त्री य-गौरव और अदालत के योग्य वाक्पटुता केवल चिमनभाई में ही थी. सूरजमल के विरुद्ध हार्निमेन की अपील में बड़े दिनों तक उन्होंने मानहानि के कानून की समीक्षा की.

हार्निमेन ने ‘बाम्बे क्रानिकल’ के सम्पादक के रूप में सूरजमल सालिसिटर पर टीका की थी. सूरजमल ने अपमान के लिए हार्निमेन पर मानहानि का दावा किया. पहले कोर्ट में न्यायाधीश मेक्लाउड ने सूरजमल को तीन हजार हरजाने की रकम और खर्च दिलवाया. अपील में मुख्य न्यायाधीश स्काट और न्यायाधीश हिटन में मतभेद हो गया. परिणाम स्वरूप स्थानापन्न मुख्य-न्यायाधीश बेचलर, न्यायाधीश बीमन और न्यायाधीश मार्टिन के सामने फिर से सुनवाई हुई. स्ट्रैंगमेन सूरजमल की ओर से और चिमनभाई हार्निमेन की ओर हाजिर हुए और बहुत दिनों तक मुकदमा चला.

चिमनभाई ने बचाव में कहा कि हार्निमेन ने जो लेख लिखा था, वह शुद्ध बुद्धि से की हुई टीका थी, बदनीयती से नहीं.

सिद्धांत की विशुद्धि और उसे पेश करने की अपूर्व निश्चयात्मकता से भरा हुआ वह व्याख्यान अपने तीस वर्षों के अनुभव में मैं अद्वितीय समझता हूं.

मुकदमा जीतने के लिए चिमनभाई सस्ते साधनों का उपयोग नहीं करते. मुवक्किल या सालिसिटर को खुश रखने के लिए वे किसी तरीके को स्वीकार नहीं करते. माननीय को बहलाने की पद्धति को वे अधम मानते हैं. अपनी बुद्धि के प्रभाव से और मनुष्य स्वभाव के ज्ञान से वे कोर्ट को वश में करना चाहते हैं. दूसरे पक्ष के लिए वे हमेशा शिष्टता प्रदर्शित करते हैं. कच्चे बैरिस्टर की निर्बलता से लाभ उठाते हुए मैंने उन्हें कभी नहीं देखा.

अनेक बड़े मुकदमों में वे मेरे सीनियर थे. सीनियर के रूप में वे हमेशा प्रोत्साहक, विश्वासी और विश्वसनीय रहते हैं, परंतु उनके जूनियर बनने वाले को हमेशा बड़ा ध्यान रखना पड़ता है. वे साम्यवादी ढंग पर काम करने वाले हैं. सप्ताह में पांच दिन और वह भी एक घंटे से अधिक काम करना उनके लिए सदा वर्ज्य है.

जूनियर के रूप में मुझे सारा मुकदमा पहले से तैयार करना पड़ता. रोज़ रात के साढ़े नौ बजे भोजन करके चिमनभाई कान्फ्रेंस करते, कागज़ और पेन लेकर तैयार हो जाते. मैं अपने नोटों में से सारे विवरण और अभिप्राय बोलता जाता. उनकी तीक्ष्ण बुद्धि उसे सुनती, व्यवस्थित करती, चुनती, स्वीकार करती और फेंक देती. फिर अपनी व्यवस्थित रीति से वे सब लिख लेते और ब्रीफ पढ़े बिना उस लिखे हुए पर से दूसरे दिन केस चलाते. उसमें यदि पदपूर्ति की आवश्यकता होती, तो वह जूनियर को कोर्ट में करनी पड़ती.

उनका मस्तिष्क व्यवस्थित रूप से काम करता था. जो वस्तु उसमें गठित हो जाती वह सदा उचित समय पर और योग्य रीति से ही बाहर निकालती. विचार सम्भ्रम की सम्भावना ही नहीं थी. इसलिए थोड़ी मेहनत में ही वे अधिक परिणाम निकाल लेते थे.

कभी-कभी वे कहते- ‘मुनशी, इतने नोट्स कल पांच घंटे काम देंगे. अब कल रात को देखा जायेगा,’ और अधिकतर उनका अनुमान सत्य निकलता था.

एक बार उन्होंने जाने या अनजाने में एक न्यायाधीश को छकाया था. नोट्स में जो लिखा था, वह चार बजे समाप्त हो गया. न्यायाधीश ने आगे की बात पूछी. चिमनभाई के नोट में आगे कुछ भी नहीं था. वहीं-के-वहीं मैं उनसे कहूं और वे अभिप्राय प्रकट करें, यह कैसे सम्भव था? चिमनभाई ने मुझसे कान में कहा- ‘मुनशी, नोट तो खतम हो गये हैं.’

वे क्या करेंगे, इसकी मुझे चिंता होने लगी. परंतु उनका तो एक रोम भी हिलना सम्भव नहीं था.

न्यायाधीश की कही किसी बात से लाभ उठाकर वे उसे भिन्न तरीके से समझाने लगे. पहले कही हुई बातों को ही नये स्वरूप में, नये संकलन में उन्होंने उपस्थित कर दिया. न्यायाधीश को पता भी न लग सका कि चिमनभाई का खज़ाना खाली हो गया था कि इतने में साढ़े पांच बज गये.

उनके पास जो सामग्री होती थी, उसके आधार पर वे बड़े-बड़े न्यायाधीशों के लिए भी दुप्राप्य विद्वत्तापूर्ण निश्चयात्मकता से अभिप्राय पेश करते थे. अपनी व्यवहार-बुद्धि, विशाल अनुभव और सिद्धांतों के ज्ञान से जो कमी होती, उसे वे पूरा कर लेते थे. उनके उपस्थित किये हुए अभिप्रायों में कोई तत्त्व नहीं था, ऐसा प्रभाव डालने की भी उनमें कला थी.

1920 में वे हाईकोर्ट के न्यायाधीश हुए- थोड़े ही समय के लिए. मैंने अनेक न्यायाधीश देखे हैं, पर चिमनभाई के जोश का कोई नहीं देखा. वे न्यायासन पर हों, तो अपना भार हल्का हुआ समझिए. किसी प्रकार का आडम्बर नहीं, घमंड नहीं, अधीरता नहीं; वे आपकी मुश्किलों को समझते, आपकी क्षतियों की पूर्ति करते और उनके आगे आपको ऐसी निश्चिंतता मालूम होती, जैसे आप घर में बैठकर बात कर रहे हैं. उन्होंने दुनिया देखी थी, इसलिए उनके आगे किसी का आडम्बर नहीं चलता था और किसी बात के रहस्य को वे तुरंत पकड़ लेते थे. जब वे न्यायासन पर बैठे, तब उनके स्वागत में हुए व्याख्यान के उत्तर में उन्होंने मंत्र उच्चारण किया-‘न्याय करना ही पर्याप्त नहीं है. संसार से यह अनुभव करवाना चाहिए कि न्याय हो रहा है.’

आदर्श न्यायाधीश के लिए इससे अधिक उच्च मुद्रालेख और क्या हो सकता है?

कौन जाने क्यों, बम्बई के अपराध करने वालों के हृदय में मैं स्थान न बना सका. मेरे पास होने के थोड़े दिनों बाद पंद्रह रुपये देकर एक मनुष्य मुझे पुलिस चौकी पर ले गया. मौलवी साहब को मेरी योग्यता पर विश्वास था, यह मैं बता चुका हूं. इसके सात वर्षों बाद एक खून के आरोपी को मेरी वकालत पर एकाएक विश्वास उत्पन्न हुआ. यह मैं अभी तक नहीं समझ सका हूं कि जब चिमनभाई फौजदारी कोर्ट में बैठे थे, तब भी वह केस मेरे पास क्यों आया. न्यायाधीश और मैं दोनों भड़ौंची पगड़ी पहनते थे. यही कारण हो तो कोई आश्चर्य नहीं.

मेरे मुवक्किल के विरुद्ध यह आरोप था कि उसने परेल की चाल में शाम के समय एक मनुष्य का खून किया था, गुंडों के दो विरोधी पक्षों में से एक के साथ मेरे मुववक्ल का सम्बंध था, इसलिए उसका भविष्य अंधकारपूर्ण हो गया; परंतु उसके सेठ ने उसे बचाने का निश्चय कर लिया था. मैंने कहा- ‘मुवक्किल नहीं बचेगा.’

सेठ ने कहा, ‘साहब, बचाने का रास्ता बताइए. मेरा आदमी उस समय परेल की चाल में था ही नहीं.’

मैंने उसे सबूत लाने के लिए कहा. सेठ ने जी-तोड़ परिश्रम किया और मुवक्किल, पांच घंटों तक भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न मनुष्यों के साथ कुछ-न-कुछ करता रहा, ऐसा बयान लिखकर वकील द्वारा मेरे हाथ में दिया.

चिमनभाई पहले से ही मेरे विरुद्ध मालूम हो रहे थे. जब मैंने गैरहाजिरी का बचाव करना शुरू किया, तब वे बोल उठे- ‘इससे तुम्हें ज्यूरी के आगे अंतिम भाषण देने का हक नहीं रहेगा, यह जानते हो?’

‘जी हां’, मैंने उत्तर दिया.

चिमनभाई ने समझा था कि सरकार की ओर का बयान दृढ़ था और उसका कोई उत्तर नहीं हो सकता था. मैंने अपने गवाहों को बुलाया. एक के बाद एक, पांच-छह अच्छे आदमियों के बयान उपस्थित हुए. प्रत्येक गवाह पर चिमनभाई बाघ की तरह टूट पड़ते, और उसे दबोच डालते, परंतु कोई टस-से-मस न होता. मैं तो यह माने ही बैठा था कि इतने पूर्वाग्रह के पश्चात चिमनभाई अभियुक्त का कचूमर निकाल डालेंगे. पर अंतिम गवाह आया और चिमनभाई ने पूर्वाग्रह छोड़कर मेरे मुवक्किल की निर्दोषता के पक्ष में ज्यूरी को दृढ़ता से सम्बोधन किया. मेरा मुवक्किल छूट गया.

जलियांवाला बाग में जनरल डायर के किये हुए गोलीकांड की जांच करने के लिए हंटर समिति बनी. चिमनभाई उसके सदस्य थे. उस समिति के सम्मुख जनरल डायर और अन्य गवाहों की भयंकर और अन्वेषणात्मक जिरह चिमनभाई की शक्ति की पराकाष्ठा थी.

उनकी जिरह का मुख्य लक्षण था भीषण सख्ती. उनके सवाल गवाह को सनसी की तरह दबा लेते थे. हंटर कमेटी का प्रमुख लार्ड हंटर पहले स्वतंत्र विचारों का था, परंतु लाहौर जाकर वह बदल गया. एक ओर चार अंग्रेज़ और दूसरी ओर तीन हिंदुस्तानी; उनके अग्रणी थे चिमनभाई. अंत में रिपोर्ट लिखने के लिए सब आगरा जाकर एक बंगले में रहे. दोनों पक्षों का आपसी सम्बंध भी बिगड़ गया. उन्होंने एक साथ खाना भी छोड़ दिया. एक दिन बात करते-करते हंटर गरम हो गया. उसने चिमनभाई से कहा- ‘आप अंग्रेज़ों को देश से बाहर निकालना चाहते हैं?’

चिमनभाई ने उत्तर दिया- ‘अवश्य, यदि अंग्रेज़ों के प्रतिनिधि आप जैसे हों!’

अंग्रेज़ों ने बहुमत की रिपोर्ट लिखी. न्यूनमत की रिपोर्ट पर हिंदुस्तानियों ने हस्ताक्षर किये. यह रिपोर्ट भी अधिकतर चिमनभाई की लिखी हुई थी.

चिमनभाई का स्वभाव रंगीला था- भड़ौंचियों जैसा. लगभग अस्सी वर्षों में भी उनकी आत्मा आज भी जवान है. हाईकोर्ट की लायब्रेरी में बैठकर नये धारा-शास्त्रियों के उत्साह से वे गप्पे लड़ा सकते हैं, चुटकले सुनाते हैं, मजाक चल रहा हो तो उसमें दिलचस्पी लेते हैं; स्वयं विनोद के विषय बन रहे हों तो भी आनंद लेते हैं. धाराशास्त्रियों की प्रतिष्ठा की बात जहां आती है, वहां आज भी लड़ लेते हैं. बम्बई-धाराशास्त्री -मंडल के ये भीष्मपितामह, सबकी प्रशंसा, सम्मान और सद्भाव के धनी हैं. भूलाभाई भी इन्हें गुरु मानते थे, अतः मेरे लिए तो ये गुरुणां गुरु हैं.

1927 में लीला और मैं, विवाह के बाद, थोड़े दिन मसूरी के होटल में रहे थे. हम दोपहर में भोजन कर रहे थे, तभी अचानक वहां चिमनभाई आ पहुंचे. आकर वे हमारे टेबल पर बैठे. लीला ने मुझसे उनके विषय में बहुत बातें सुनी थीं, पर उन्हें देखा पहली ही बार था. चिमनभाई बड़ी दिलचस्पी से बातें करने लगे. जब हम अलग हुए तब लीला ने कहा-

‘ये चिमनभाई हैं? मैंने तो समझा कि न जाने कितने गम्भीर और बुड्ढे होंगे!’

मैंने कहा- ‘चिमनभाई की आयु चाहे जितनी हो, परंतु वे सनातन युवक हैं.’

एक गम्भीर और वृद्ध बुढ़िया भोजन के समय हमारे टेबल पर हमारे साथ बैठा करती थी. उन्होंने भी वृद्ध-जैसे इस युवक की हल्की-फुल्की बातों से घबराकर हमारे साथ न बैठने का संकल्प प्रकट किया. बुढ़ापा आयु पर अवलम्बित नहीं, जीवन का उपभोग करने की शक्ति पर अवलम्बित है.

राजनीति में चिमनभाई के और मेरे रास्ते अलग-अलग ही रहे हैं. वे फीरोजशाही थे और अब तक भी हैं. मैं फीरोजशाही सप्रदाय का बचपन से विरोधी हूं. 1919 में चिमनभाई ने कांग्रेस को छोड़ दिया और नेशनल लिबरल फेडरेशन के अग्रणी बने. मैंने 1915 से 1920 तक एनी बएसेंट और जिन्ना के नेतृत्व में कांग्रेस में काम किया. परंतु राजनीति सम्बंधी मतभेद हमारे निजी सम्बंध के बीच में नहीं आया. 1927-28 से मैं गांधीजी के प्रभाव में आ गया. गांधीजी और चिमनभाई पिछले तीस वर्षों में बड़े-से-बड़े गुजराती हैं. दोनों के स्वभावों में मूलभूत विसंवाद है. जहां गांधीजी की व्यावहारिकता उनकी ज्वलंत भावनाशीलता की दासी थी, वहां चिमनभाई की व्यावहारिकता एक चक्र से राज्य करती हुई साम्राज्ञी है.

मैं चिमनभाई के लिए मान और प्रेम रखता हूं, यह कांग्रेस के मेरे अनेक सहयोगियों को पसंद नहीं था. इस विषय में टीकाएं भी होतीं, ‘तुम्हारा सीतलवाड क्या कहता है?’ ऐसे चुभते हुए प्रश्न मुझे अनेक बार सुनने पड़ते.

चिमनभाई जानते हैं कि मैं गांधीजी का भक्त हूं, गांधीजी जानते थे कि चिमनभाई मेरे लिए परिवार के गुरुजन की तरह पूज्य हैं. आपस के स्नेह सम्बंध मैं तोड़ नहीं सकता. स्नेह-सम्बंध जीवन की सुवास है- पैसे से, विवेक से और पक्ष-विपक्ष से विभिन्न. मेरे इस सिद्धांत से अनेक लोगों को मेरे प्रति असंतोष और अविश्वास उत्पन्न हो गया है, पर इसका मुझे दुख नहीं है.

1914-15 में एक दिन मैं हाईकोर्ट के दूसरे जीने पर जाने के लिए नीचे लिफ्ट के पास खड़ा था, वहीं दीनशा मुल्ला आ गये. उन्होंने पूछा- ‘तुम्हीं मुनशी हो क्या?’ ‘जी हां,’ मैंने कहा.

‘मैं तुम्हारी दावा अरजी का जवाब लिख रहा था. उसके लिए मेरी बधाई. तुमने दावा-अरजी बड़ी अच्छी लिखी थी.’

उनके स्वभाव की मधुरता निराली थी और और वह मधुरता भी व्यर्थ की नहीं; कठिनाई आ पड़ने पर पूर्णरूप सहायक बननेवाली थी. उन्होंने मुझे सचमुच बधाई दी थी या केवल परिचय करने के लिए शिष्टाचार किया था, यह कहना कठिन था, परंतु इस बात का ज्ञान मुझे तभी हुआ कि आत्म-विश्वासहीन भटकते हुए नये बैरिस्टर को जब कोई सीनियर इस प्रकार बधाई दे, तो उसके जीवन में कितना परिवर्तन हो जाता है.

न्यायवादी की अपेक्षा वे न्यायाधीश के रूप में अधिक सफल हुए. न्यायाधीश की अपेक्षा कानून के सिद्धांतों के टीकाकार के रूप में वे विशेष प्रसिद्ध हुए. जब वे वकालत करते थे, तब मुकदमा चलाने की अपेक्षा मुकदमा तैयार करने का काम अधिक अच्छा लगता था. शाम को जब वे अपने चेम्बर में कान्फ्रेंस करते, तब समस्त ‘भूतों’ को वे साथ ही रखते और प्रत्येक को कोई न कोई ऐसा काम सौंपते, जिसमें उसे दिलचस्पी होती. उनके शिष्यों में और उनमें परस्पर अद्भुत स्नेह था. वास्तव में देखा जाये, तो सारे ‘बार’ में उन्हीं का गुरुकुल असली था.

न्यायाधीश के रूप में उनकी बराबरी करने वाले मैंने बहुत कम देखे हैं, उनसे अच्छे कदाचित ही.

दीनशा जी जहां जाते, वहीं लोकप्रिय हो जाते थे. जब धाराशास्त्रियों का भोज होता था, तब उनकी बातों पर हम लोग हंस-हंसकर दुहरे हो जाते थे.

दीनशा जी ने भी गरीबी से जीवन शुरू किया था. पहले वे मास्टर थे और कॉलेज में पढ़ाई जानेवाली पुस्तकों के विषय में विवरण लिखकर प्रकाशित करते थे. वे कवि भी थे. एक बार उन्होंने रुस्तम और सोहराब की कहानी पर अंग्रेज़ी में एक लम्बा काव्य लिखकर अंग्रेज़ राजकवि टेनिसन के पास सम्मति के लिए भेजा. दिन-पर-दिन बीते परंतु उत्तर न आया. इस उगते हुए कवि को उत्तर के लिए आतुरता हुई. अंत में उत्तर आ पहुंचा. दीनशा जी प्रसन्न हो उठे. उन्होंने लिफाफा खोला. टेनिसन ने लिखा था- ‘कविता पढ़ी. आप काव्य लिखते हैं या सालिसिटर का व्यवसाय करते हैं? धाराशास्त्री के व्यवसाय में आपकी सफलता की कामना करता हूं.’

फैशनपूजक शिमला में भी वे बड़े लोकप्रिय बन गये थे. 1929 में जब मैं वहां था, तब हम अनेक बार मिला करते थे. एक बार न्यायमंत्री सर ब्रजेंद्र मित्र के यहां हम सब खाने के लिए इकट्ठे हुए थे. भोजन के बाद संगीत आरम्भ हुआ. अंत में दीनशाजी प्रतियोगिता में उतरे. लेडी दीनशा पियानो बजाने बैठीं और दीनशाजी ने ‘गजरा बेचनेवाली नादान, ये तेरा नखरा….’ इस प्रकार के दो-चार गाने छेड़े. सब लोग हंसते-हंसते लोट-पोट हो गये.

बम्बई के समस्त धारा-शास्त्रियों में महत्त्वपूर्ण काम यदि किसी ने किया था, तो वह दीनशाजी ने. उन्होंने कानून के बड़े-बड़े निबंधों पर विद्वत्तापूर्ण टीकाएं लिखी हैं. आज भी उनकी पुस्तकों का प्रत्येक कोर्ट में उपयोग होता है. हिंदू विधवाओं के वे उद्धारकर्ता थे. जब वे प्रिवी कौन्सिल में न्यायाधीश थे, तब उन्होंने निर्णय दिया कि हिंदी विधवा संयुक्त परिवार के पुरुषों की आज्ञा के बिना लड़का गोद ले सकती हैं. इस निर्णय से हिंदू विधवाओं की निराधार स्थिति में बड़ा सत्कार पाने योग्य परिवर्तन हो गया.

 

सर लल्लूभाई आशाराम शाह बेजोड़ न्यायाधीश थे. उनकी नैतिक महानता और प्रबल न्यायवृत्ति ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला था. इतना ही नहीं, मैंने उनके कोर्ट में काम करते-करते यह भी सीखा कि न्यायवादी का प्रथम लक्षण विशुद्धता होनी चाहिए.

4 फरवरी 1873 को अहमदाबाद के निकटवर्ती विलासपुर गांव में अपने ननिहाल में लल्लूभाई का जन्म हुआ था. आशाराम भाई उस समय मोरबी स्टेट के स्कूल के हेडमास्टर थे. गुजरात कॉलेज में 1890 में ऐच्छिक विषय के स्थान पर फारसी भाषा लेकर वे बी.ए. हुए.

सन् 1892 में एम.ए. की परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी में आये. 1894 में एल.एल.बी. हुए और 1895 में उन्होंने हाईकोर्ट में वकालत आरम्भ की.

उन्नीसवें वर्ष में जब उन्होंने एम.ए. किया, तब उनके पिता ने उन्हें आई.सी.एस. करने के लिए विलायत भेजने का विचार किया था, परंतु उनकी माता की अनिच्छा से यह विचार स्थगित कर दिया गया. उसी वर्ष प्राविन्शियल सिविल सर्विस में बैठने की लल्लूभाई ने तैयारी की परंतु अपने भाई की बीमारी के कारण उनकी आशा पूर्ण न हो सकी. वकालत आरम्भ करने के बाद उन्होंने मुनसिफ बनने के लिए अरजी दी. तीन वर्ष के बाद उस अरजी के परिणामस्वरूप जब निमंत्रण आया, तब बम्बई में व्यवसाय जम चुकने के कारण उन्होंने अस्वीकृति भेज दी.

1907 में जब मैं बम्बई आया, तब विल्सन हाईस्कूल के सामने उनके घर के आगे से आते-जाते, मित्रों से इस विषय में बातें करके कि वे कैसी स्थिति में बम्बई आये थे और किस प्रकार व्यवसाय कर रहे थे, कठिनाइयों के भार में डूबते हुए अपने हृदय में आशा का संचार किया करता था.

एक बार कुछ महीने ठहरकर, मैं फीजी में वकालत करने वाले मणिलाल भाई से मिलने उनके घर गया. मैंने पहली बार लल्लूभाई को देखा. धोती और कुरता पहनकर, कुरसी पर चौकड़ी मारे वे बैठे थे. उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट था. ये थे लल्लूभाई शाह! भड़ौंच और सूरत के महापुरुषों के रहने के निरालेपन से मैं परिचित था, परंतु इस घर की सामग्री देखकर मैं क्षण-भर के लिए निराश हो गया.

मुझे देखकर लल्लूभाई ने कागज़ों पर से मुख उठाकर पूछा- ‘भाई, किससे मिलना चाहते हो?’

‘मणिलाल भाई से’ मैंने कहा, ‘घर में हैं?’

‘बैठो अभी आते हैं तुम्हारा नाम क्या है?’

‘कनैयालाल मुनशी’

लल्लूभाई के ममतापूर्ण मुख पर ज़रा हास्य आ गया. उन्होंने पूछा- ‘भड़ौंच के मुनशी या सूरत के?’

सूरत और डुम्मस में रहने पर भी सूरत के होशियार मुनशियों की ख्याति से मैं अनजान था. उनके प्रश्न का भेद मेरी समझ में न आया. मैंने कहा- ‘मैं भड़ौंच का’

‘तब तो अधुभाई मुनशी के सम्बंधी होंगे’

मैंने ‘हां’ कहा.

सर नारायण चंदावरकर के खाली हुए हाईकोर्ट के न्यायासन पर 1 अप्रैल 1913 को लल्लूभाई बैठे. उस समय स्वयं भाई विभाकर का और मेरा हाईकोर्ट के साथ थोड़े ही दिन हुए सम्बंध हुआ था. एक गुजराती व्यक्ति न्यायासन पर बैठे, इस गौरवप्रद दृश्य को देखने हम दोनों गये थे.

1920 के पश्चात, सर नार्मन मेक्लाउड की अनुपस्थिति में लल्लूभाई ने दो-तीन बार मुख्य न्यायाधीश का काम किया था. उस समय जितने दिन मैंने अपील कोर्ट में बिताये हैं, वे मेरे व्यवसाय के अनुभव में चिर स्मरणीय बन गये हैं.

1920 में सरकार ने लल्लूभाई को ‘सर’ बनाया. 1922 में लल्लू भाई ‘रेशल डिस्टंक्शन कमेटी’ में नियत हुए थे. यदि उनकी चमड़ी गोरी होती, तो वे कभी के मुख्य न्यायाधीश बन गये होते! यह बात भी चल रही थी कि वे प्रिवी कौन्सिल में भी नियुक्त होने वाले हैं. धारा-शास्त्री के रूप में लल्लूभाई तेजस्वी की अपेक्षा लगन वाले अधिक थे; अचूक युक्तियों की अपेक्षा स्पष्टीकरण को अधिक महत्त्व देते थे.

लल्लूभाई की वकालत पद्धति चिमनभाई और भूलाभाई की पद्धति की अपेक्षा भिन्न प्रकार की थी. शांत और गौरवपूर्ण उनकी वकालत केवल सत्य के संशोधन में मग्न, अतिशयोक्ति से डरती और दिखलावे से दूर भागती थी. उनका उद्देश्य एक ही था- न्यायासन पाकर न्याय करना.

लल्लूभाई के न्यायासन पर बैठने के बाद उनकी यह वृत्ति दिन-ब-दिन दृढ़ होती गयी. उन्होंने अटल न्यायवृत्ति का परिपोषण करने का आदर्श बनाया था. तेजस्विता, शब्द सामर्थ्य, दृढ़ अन्वेषण, चपल बुद्धिवाद, स्पष्ट व्यक्तित्व-दर्शन जैसे वकालत के बाह्याडंबरों से अस्पष्ट रहने का वे सदा प्रयत्न करते थे.

कोई कठोर टीका करता या ज़ोरदार विवाद करता, तो लल्लूभाई को न्याय की तुला के हिल उठने का भय मालूम होता था. तुरंत वे अपना प्रिय वाक्य बोलते- ‘यू मे से सो बट’ परिणाम स्वरूप ज़ोर से बोलने वाले का ज़ोर आधा घट जाता था.

गवाह चाहे कितना ही झूठा क्यों न हो, वे उसे जहां तक सम्भव होता, कभी झूठा नहीं कहते थे. मुझे एक घटना याद आती है. मैं उनके आगे एक अपील चला रहा था. प्रतिपक्षी निचले कोर्ट में इतना झूठ बोला था कि उस कोर्ट के न्यायाधीश ने उसके लिए बड़े कठोर शब्दों का प्रयोग किया था. मैंने बयान पर से यह बताने के बाद कि प्रतिपक्षी कितना झूठ बोला था, कहा- ‘माननीय, इस मनुष्य के लिए यदि किसी कोमल विशेषण का प्रयोग करना हो, तो निचले कोर्ट का प्रयोग किया हुआ ‘झूठ की कला का कुशल कारीगर’ ही उचित है.’

सर लल्लूभाई ने अपनी दृष्टि उठायी और पूछने लगे- ‘मि. मुनशी, क्या आप यह कहना चाहते हैं कि इससे अधिक कठोर विशेषण भी कोई हो सकता है?’

मैंने उत्तर दिया- ‘माननीय, अंग्रेज़ी भाषा इतनी असमृद्ध नहीं है कि आवश्यकता पड़ने पर उसमें इससे भी अधिक कठोर विशेषण न मिले.’

लल्लूभाई ने घबराकर हाथ ऊपर उठाये- ‘नहीं, नहीं, मैं इससे अधिक कठोर शब्द सुनना नहीं चाहता. यही पर्याप्त है.’

भूल-चूक से भी अतिशयोक्ति हो जाती, तो उन्हें आघात पहुंचता था. उनकी मृत्यु के लगभग पंद्रह दिन पूर्व वे बड़ौदा यूनिवर्सिटी कमीशन के सामने बयान देने गये थे. रात को हमने बड़ा भोज किया. दो घंटे गपशप की और गरबा सुनने के लिए गये. हम खुले दिल से बातें कर रहे थे. कई वर्षों से लल्लूभाई ने गरबा नहीं देखा था. मैं तो बम्बई के अनेक गरबा-मंडलों से परिचित था. रात के कोई बारह-एक बजे लल्लूभाई ने पूछा- ‘बम्बई में इतना अच्छा गरबा होता है न?’

कुछ महीनों पूर्व ही बम्बई में एक समारम्भ हुआ था. उसका गरबा मुझे याद आ गया. रायल ओपेरा हाउस की रंगभूमि का रंग-बिरंगा प्रकाश, पीछे का अनुरूप दृश्य, विशेष रूप से बनवाये हुए संवादी रंगों के कपड़े, लम्बे समय के अभ्यास से एक धारा में बहनेवाले संवादी स्वर, ताल और पैरों की झंकार तथा छटापूर्ण वैभव की मोहकता- सब मेरी आंखों के आगे फिरने लगे.

‘बम्बई का गरबा इससे बहुत हद तक बेहतर है!’ मैंने जवाब दिया.

‘बहुत हद तक बेहतर है…’ उनकी न्यायवृत्ति को आघात पहुंचा और वे बुदबुदाये.

रात के दो बजे हम मोटर में राज्य के अतिथि-गृह में वापस आये. मोटर रुकने पर लल्लूभाई ने पूछा- ‘तुमने बम्बई का गरबा बहुत हद तक बेहतर बताया, यह बात तुमने न्यायपूर्वक कही है?’ उन्होंने अपनी चोट खायी हुई न्यायवृत्ति से जिज्ञासा की.

भारी भोज, गरबा, आधी रात के बाद नशा और उसमे प्रकट की हुई सम्मति की परीक्षा होते देखकर मेरी रसिकता मूर्छित हो गयी. ‘लल्लूभाई साहब, मैंने तो गरबे तैयार होते देखे हैं और उनकी पद्धति में सुधार करने की सम्मतियां भी दी हैं.’

‘हां’ न्यायमूर्ति ने कहा, ‘तब बात जुदा है; तुमने विचारपूर्वक शब्दों का प्रयोग किया है.’

यह था उनकी तीव्र न्यायवृत्ति का एक उदाहरण.

उनकी युवावस्था की एक बात है; सच होगी या झूठ, इसका निश्चय नहीं है. परंतु उनकी उत्तरावस्था के नैतिक स्वातंत्र्य को देखते हुए सच भी न हो, तो भी उन पर लागू होने वाली अवश्य मालूम होती है.

आशाराम भाई जब सफर करते, तब स्वयं दूसरे दर्जे में बैठते और लड़के को तीसरे में बिठाते. एक बार जब युवक लल्लूभाई इस प्रकार तीसरे दर्जे में सफर कर रहे होंगे, तब पिता ने उन्हें दूसरे दर्जे में बुला लिया. लल्लूभाई की नैतिकता अकुला उठी. उन्होंने ट्रैफिक सुपरिटेंडेंट को दूसरे और तीसरे दर्जे के किराये में जितनी रकम का अंतर था, उतनी रकम मनीआर्डर से भेज दी. ट्रैफिक सुपरिटेंडेंट खुश हो गया और ऐसे नीतिवान पुत्र के पिता होने के लिए आशाराम भाई को बधाई दे भेजी. इस प्रकार की वृत्ति और स्वातंत्र्य को उन्होंने अंत तक स्थिर रखा.

कई वर्षों तक वे मेक्लाउड के साथ अपील कोर्ट में बैठे. मुख्य न्यायाधीश से मुख्य अभिप्राय को पकड़ने वाला. उसकी उतावलेपन की आदत से रोज़ मुकदमा तुरंत पूरा हो जाता था. परंतु जब लल्लूभाई साथ बैठते, तब मेक्लाउड की मजाल नहीं थी कि वह छला लगा सके. जहां समझ में न आता, वहीं से वे पुनः छानबीन शुरू करते, प्रश्नावली चलाते और भली-भांति समझ लेने पर ही केस को आगे बढ़ने देते. मुख्य न्यायाधीश ही जब जल्दबाजी कर रहा हो, तब अन्य न्यायाधीश कदाचित ही धीमे चलना चाहते हैं. परंतु लल्लूभाई वस्तव में न्याय करने बैठते और किसी की भी परवाह न करते हुए अपने तरीके से न्याय करते थे.

उनकी दृष्टि कानून के विषय में अचूक थी परंतु जहां दुनिया के दाव-पेंच आते, वहां फंस जाती थी. मनुष्य किसलिए बुराई करे, सामान्य रूप से उसे भलाई करनी ही चाहिए- इस मान्यता से अनेक बार उनके मर्म-दर्शन की झांकी मिलती थी.

हिंदू-धर्मशास्त्र के विषय में उनके फैसलों ने हिंदू संसार पर चिर-स्थाई प्रभाव डाला है. न्यायाधीश बनने के बाद, शास्त्री से संस्कृत पढ़कर उन्होंने धर्मशास्त्राsं का अध्ययन किया था. हिंदू धर्मशास्त्र के विषय में उनके आगे मैंने मुकदमे चलाये थे और तब से मुझे धर्मशास्त्र का शौक लग गया था.

एक पैसे वाला हिंदू, गणिका के यहां बीमार पड़ गया और थोड़े दिनों बाद मर गया. उस गणिका नागूबाई ने हिंदी कानून के अनुसार यह कहकर कि वह उसकी हमेशा की रखैल है, खाने-कपड़े के लिए दावा किया.

मुकदमा न्यायमूर्ति कांगा के पास आया. मैं मृतक के स्त्राr-बच्चों की ओर से हाजिर हुआ. वादी गणिका है, मृतक का अनेक गणिकाओं से सम्बंध था, स्त्राr-बच्चों को क्या पता कि यह रखैल हमेशा की थी; या कामचलाऊ, इस प्रकार की अनेक दलीलें  हमने उपस्थित कीं; परंतु न्यायमूर्ति कांगा ने हमारे विरुद्ध निर्णय दिया और हम अपील में गये.

लल्लूभाई तब स्थानापन्न न्यायमूर्ति थे. उनके और न्यायमूर्ति कम्प के आगे केस चला. धर्मशास्त्र के आधार पर मैंने दलील की कि केवल हिंदू शास्त्र ही रखैल को खाना-कपड़ा देकर परिणीता स्त्री की भूमिका पर रखता है; परंतु प्रत्येक रखैल को नहीं, वरन् ‘अवरुद्ध स्त्राr’ अर्थात प्रकट रूप में रखी हुई और परिवार में स्वीकृत हुई स्त्री को ही.

लल्लूभाई को इस दलील में दिलचस्पी हुई. वे ऐसे अनेक आधार ले आये जो मैंने भी नहीं देखे थे.

‘यदि ऐसा न हो, तो कोई भी रखैल दावा कर दे और बेचारे स्त्राr-बच्चे यह कैसे साबित करें कि यह रखैल कितने पुरुषों के साथ सम्बंध रखती थी?’

यह दलील उनके गले उतरी. लल्लूभाई ने हमारे पक्ष में फैसला दिया.

गणिका प्रिवी कौन्सिल तक गयी. लार्ड डार्लिंग के गले हिंदू-शास्त्र क्यों उतरने लगा? ‘आज के जमाने में भला रखैल को परिवार वाले स्वीकार कर सकते हैं,’ उन्होंने पूछा. और लल्लूभाई के फैसले को अस्वीकार कर दिया.

मैं अब भी मानता हूं कि लल्लूभाई सच्चे थे और इस विषय में कानून में सुधार की आवश्यकता है. यदि दखैल को पत्नी के कई अधिकार प्राप्त हों, तो वह अवरुद्ध होने चाहिए. रखने वालों के समाज की स्वीकार की हुई होनी चाहिए, अन्यथा अनेक झूठे दावे खड़े होंगे और स्त्री बच्चों के साथ अन्याय होगा.

लल्लूभाई के जाने के बाद तो हमारे हाईकोर्ट में नया सिद्धांत दाखिल हो गया है. दीनशा मुल्ला के ‘हिंदू ला’ के अतिरिक्त यदि कोई अन्य आधार कोई धारा-शास्त्री देने जाता है, तो वह तुरंत अयोग्य माना जाता है. इसलिए इस प्रकार के अनुभव बहुत कम हो गये हैं.

लल्लूभाई जब गुजराती फार्ब्स-सभा के प्रमुख बने तब उन्होंने मुझे उसका सदस्य बनाया और तब से हमारा आपसी परिचय बढ़ गया.

लल्लूभाई की जीवनचर्या केवल आडम्बर रूप नहीं थी; दृढ़ता से पोषित की हुई न्यायवृत्ति का वह परिणाम थी. इस वृत्ति के पोषण के लिए उन्होंने समाज के साथ लगभग सारा व्यवहार बंद कर दिया था.

मित्रों से वे शायद ही मिलते; सगे-सम्बंधियों के साथ कदाचित ही व्यवहार रखते और न्याय करते समय इस बात का ख्याल रखकर सचेत रहते कि कहीं कोई भी दृष्टि-बिंदु वास्तविक या काल्पनिक उसकी आड़ में न आ जाये.

अनुभवी धारा-शास्त्री सरलता से बहुत-सी बातें समझ सकता है. वर्षों के अभ्यास से वह तुरंत सच-झूठ को परख सकता है और वह स्वयं सच्चा ही है, इस प्रकार की मनोदशा का अनुभव करता है. ऐसे पुरुषों को अपना किया हुआ कार्य सदा न्यायपूर्ण ही मालूम होता है; परंतु वे अपना अभिप्राय बनाने से पहले, सारी बातें सुनने तक, अपनी न्यायवृत्ति को अनिश्चित दशा में नहीं रख सकते, मानव-जाति की निर्बलता को नहीं सह सकते और अपना मत झूठा हो सकता है, ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते परंतु जब तक ये तीन लक्षण पूरी तरह परिपुष्ट नहीं होते, तब तक न्यायवृत्ति सम्पूर्ण दशा में प्रकट नहीं होती.

सर लल्लूभाई शाह ने इस प्रकार की न्यायवृत्ति पोषित करके उसे सदा सतेज रखा और आदर्श स्वतंत्रता से सुशोभित किया. भारत और इंग्लैंड की अनेक अदालतों में वकालत करने वाले एक अंग्रेज़ धाराशास्त्री ने मुझसे कहा था कि उसने भारत और इंग्लैंड के अनेक न्यायाधीश देखे हैं, परंतु लल्लूभाई शाह जैसे स्वतंत्र और शुद्ध न्यायवृत्ति वाले न्यायाधीश नहीं देखे.

उन्हें सत्य के लिए जितना प्रगाढ़ प्रेम था, प्रत्येक के दृष्टि बिंदु से सत्य क्या हो सकता है, यह खोज करने की उनती ही प्रगाढ़ सहानुभूति पूर्ण उत्कंठा थी. परिणाम स्वरूप वे प्रत्येक की कठिनाइयों को देख सकते थे, उदारता से भूलों को बिसरा सकते थे. और फिर भी सबमें सत्य क्या है इसे खोजने का धीरज रख सकते थे.

16 नवंबर 1926, देवोत्थानी एकादशी के सबेरे स्वर्गद्वार खुलते ही इस महान गुजराती ने देवलोक प्राप्त किया. और इस शोक समाचार को बम्बई ने निःश्वासपूर्वक सुना. सुबह पांच बजे वे उठे, अस्वस्थ हुए और चल बसे.

जिस प्रकार वे जिये, उसी प्रकार चल दिये- गौरव के साथ, कृष्णलाल काका, पकवासा और छोटू काका जैसे प्रतिष्ठित धारा-शास्त्रयों के कंधों पर चढ़कर, न्यायमूर्तियों और सचेत धाराशास्त्रियों द्वारा वंदित होकर. वह दर्शन अद्भुत था. बम्बई के धाराशास्त्रयों की दुनिया अपने सहस्रमुखी गौरव के साथ, भरी दोपहरी में पेडर रोड से उतर रही थी- न्याय की इस आदर्शमूर्ति के प्रति अंतिम बार पूज्यभाव प्रदर्शित करने के लिए.

(क्रमशः)

जून  2014 

 

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