सीधी चढ़ान (पांचवीं क़िस्त)

सन 1915 ई. की 12 वीं मार्च को, जब मैं माथेरान बम्बई के लिए चला, तब हर्षोन्मत्त-सा

हो रहा था. ‘सेकंड क्लास’ में आया, मैंने नोट किया- हुरै फॉट सक्सेस एडवोकेट की परीक्षा में उस समय बहुत कम लोग बैठते और उनमें से बहुत कम पास होते थे.

‘बैरिस्टर बने बिना एडवोकेट बने, यह कैसे?

क्यों, चिमनलाल सीतलवाड के जैसे!’

यह प्रश्नोत्तर प्रचलित होने से भड़ौंच-सूरत के लोगों में इस परीक्षा का बड़ा मान था. जीजी-मां की अटल श्रद्धा और तपश्चर्या सफल हुई. उन्होंने खबर सुनते ही तुरंत पत्र लिखा-

चि. भाई कनुभाई,

तापी बहन का आशीर्वाद. …तूने तन और मन से बहुत परिश्रम किया, उसका फल तुझे पहले वर्ष ही मिला, इसके लिए तुझे बधाई. अब प्रत्येक कार्य में तुझे विजय मिले, यही मेरी कामना है.”

फिर माता का हृदय आनंद-विभोर होकर अनायास ही पद्य में गा उठता है.

अंतर आशिष आपतां, हरखे उलटे मन,

जननी जठरे ऊपनी, सफल कर्युं जीवन।

कुलदीपक हो दीकरा, काला मारा कहान;

विद्याभोग तम भोगवो, पावो जग मां मान।

तन मन धन सुख मां रहो, करो परमारथ काम;

यश पावो आ जगत मां, धरो सदा चित हाम।

राज-काज हाथे धरो, मलो आबरू अनंत;

जोइ ठरे मुज आंखड़ी, भले मींचे लोचन।

(हृदय से आशीर्वाद देते हुए हर्ष से मन लोट रहा है; जननी ने जन्म देकर जीवन सफल किया है. मेरा बेटा, मेरा काला कृष्ण, कुलदीप हो और विद्या का उपभोग करके जगत में मान पाये. तन, मन, धन से सुख भोगे, परमार्थ करे, संसार में यश पाये, चित्त में विश्वास रखे. राज-काज हाथ में रहे और अनंत प्रतिष्ठा मिले; देखकर मेरी आंखें ठंडी हों और फिर भले ही वे मुंद जाएं.)

इसके बाद सगे-सम्बंधी और मित्रों की बधाइयां मिलीं. मेरे स्वजातियों ने भी मेरी विजय में अपनी विजय देखी.

तीसरे दिन मेरे ही स्थापित किये हुए बम्बई के भार्गव-समाज ने मुझे मान पत्र दिया. मेरे गुणों का- वे मुझमें थे या नहीं, इसका विचार किये बिना-वर्णन किया गया. ‘तालियों की गड़गड़ाहट’ के बीच मुझे सम्मानित किया गया. ‘भड़ौंच के एडवोकेट का बम्बई में सम्मान’ इस शीर्षक से ‘मुंबई समाचार’ ने टिप्पणी लिखी.

मुझ पर लक्ष्मी की कितनी कृपा थी, यह तो ईश्वर, जीजी-मां और मैं ही जानता था; परंतु ‘हम हैं आपका उत्कर्ष चाहने वाले’ ऐसे लोगों ने तो कालिदास के शब्दों में लिख डाला-

निसर्गभिन्नास्पदमेकसंस्थं अस्मिद्वयं श्रीश्च सरस्वतीश्च

(स्वभाविक रूप में भिन्न स्थानों में निवास करने वाली लक्ष्मी और सरस्वती इनमें एक ही स्थान पर रहती हैं.)

मैंने भड़ौंच जाकर नोट किया-

‘20 मार्च को मैं भड़ौंच आया. स्टेशन पर साठ-सत्तर आदमी लेने आये… रंगीलादास सूरत स्टेशन पर मिलने आये… परंतु जिससे मिलने के लिए तरसता हूं, वह कहां है?’

20 मार्च के ‘भरुच समाचार’ के अंक ने, ‘श्री भृगुपुरनिवासी ब्रह्म-कुलोत्पन्न मान्यवर मुन्शी-कुटुम्ब में उदित हुए प्रथम एडवोकेट मि. कनैयालाल माणेकलाल मुनशी बी.ए., एल. बी. का अभिनंदन’ किया.

21 को बड़ौदा में रहने वाले मित्रों और सम्बंधियों ने समारम्भ किया. 23 मार्च को ‘दादाभाई नौरोजी फ्री लायब्रेरी’ के सदस्य और सहायक भी मेरा ‘उत्कर्ष चाहने वाले’ बन गये और ‘परम-कृपालु परमेश्वर’ से प्रार्थना की कि श्री नानालाल कवि की आकांक्षा ‘महान उद्देश्य की कर्मसिद्धि में जीवन की सार्थकता है; दिव्यता का उच्च प्रस्फुरण जीवन का उद्देश्य है,’ यही मेरी भी आकांक्षा हो.

उस दिन भार्गव कवियों ने हद कर दी. हमारी जाति के संगीत-शिरोमणि एक मित्र ने रागिनी जौनपुरी में छेड़ा-

‘हमरो उमंग न माय, कन्हैया’

और गाते-गाते अंतरे की एक पंक्ति गा डाली- ‘Godly son of a Godly father’

 मेरा कौन-सा लक्षण  Godlyson

माना गया, यह मैं अब तक निश्चय नहीं कर सका हूं.

30 मार्च को आर्यसमाज मंदिर में ‘यूनियन’ ने अभिनंदन-समारंभ किया. 19 मई को पिताजी के सूरतवासी मित्रों ने नगीनचंद हाल में मान-पत्र दिया. उन्होंने इस बात का गर्व किया- ‘तुम्हारी कालेज की कार्य-कुशलता की नींव ऐतिहासिक शहर सूरत में मज़बूती से पड़ी और सूरत की संतानों द्वारा पैदा किये गये बौद्धिक वातावरण का प्रभाव तुम्हारे कालेज जीवन पर कुछ कम नहीं पड़ा है.’

मुझे क्या पता था कि खरसाड, दिहेव और वीरआव से सीधे बड़ौदा कालेज में आये हुए मेरे अनाविल मित्रों के प्रताप से मेरी कालेज की कार्य-कुशलता बढ़ कर इतनी तेजस्विनी हो पायी थी!

इन सब प्रथा के अनुसार किये गये समारम्भों और अतिश्योक्तिपूर्ण मान-पत्रों में जाति का गर्व था और मेरे परिवार के प्रति सद्भाव व्यक्त किया गया था. उन सब में समाई हुई विचित्रता पर आज मैं हंस सकता हूं. प्रत्येक वस्तु के विनोदी स्वरूप को देखने की मुझे बान पड़ गयी है; परंतु उसमें समाया हुआ स्नेह, जो मेरे जीवन की सच्ची समृद्धि है उसे मैं कैसे भूल सकता हूं?

इन सब अभिनंदनों और मान-पत्रों में कही गयी बातों में एक ही बात शब्दशः सच थी- यह सारा यश जीजी-मां के प्रताप से था.

जाति विचित्र वस्तु है. इसके बंधन टूट जाने पर भी इसकी शक्ति ओझल नहीं होती; आज वर्षों गुजरे, मैं जाति के बंधन त्याग कर बैठा हूं, जाति से बाहर हूं, मेरे मन से जातीयता की सीमाएं मिट गयी हैं. फिर भी मेरी समझ में जाति मेरी है; जाति की समझ में मैं उसका हूं.

अंत में मान-पत्रों का तांता समाप्त हुआ. अभिनंदनों से उपजने वाला गर्व भी चला गया और मैं डरते-डरते अपने व्यवसाय की ओर घूमा.

15 वीं मार्च को सबेरे साढ़े ग्यारह बजे मैं किसी का गाऊन और किसी के ‘फर फरियां’ (बैरिस्टन लोग कालर पर दो छोटी पट्टियां बांधते हैं. उन ‘बेंड्स’ का मैंने यह नाम रखा था.) पहन कर कोर्ट में न्यायमूर्ति बीमन के साथ हाथ मिलाकर, एडवोकेट- ओ. एस.  की पंक्ति में आगया. हाईकोर्ट में बम्बई शहर के झगड़े जिस विभाग में उपस्थिति होते है, उसे ‘ओरिजिनल साइड- ओ. एस.’ कहा जाता है. उसमें वकीलों के दो विभाग होते हैः सालिसिटर- जो मुकदमा तैयार करता है और एडवोकेट, जो कोर्ट में काम करता है. वहां से अपनी लघुता और अपूर्णता से घबराया हुआ मैं बैरिस्टरों के बीच में जाकर बैठा और मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे मैं डूब रहा हूं.

शामराव, मिनोचहेर और हीरालाल सालिसिटर्स की ओर से मुझे वहीं पहली ‘ब्रीफ’ मिली.

सामान्य रूप से एडवोकेट को वर्षों बाद जाकर कहीं ब्रीफ मिलती थी.

यह ब्रीफ मुझे नरुभाई की सिफारिश से मिली थी, परंतु इसका बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा.

कोर्ट में इस प्रकार श्रीगणेश करके, एक मित्र का कोट उधार लेकर मैंने फोटो खिंचवाया. फोटो खिंचवाये बिना बड़े कामों की पूर्णहूति नहीं होती, इस अर्वाचीन मान्यता का मैंने इस प्रकार आदर किया.

जमीयतराम काका ने अपने आफिस के पास वाले सालिसिटर के आफिस में पंद्रह रुपये महीना किराये का एक चेंबर मुझे दिलवाया.

“देखो भाई, और जो जी चाहे करना”, काका ने कहा, “परंतु चेंबर का किराया हर महीने ठीक समय पर सलिसिटर को दे देना चाहिए. वरन् सम्बंध टिक नहीं सकता. चेंबर का किराया फीस के बदले में देने का लोभ कभी न करना.”

काका की शिक्षा न मानने वाले अनेक एडवोकेटों को मैंने बाद में पछताते देखा है.

मैं आगे जाकर बीजापुर की जिस कोठरी में रहा था, मेरा यह चेंबर उससे भी अधिक भद्दा था. बिना खिड़की के इस अंधेरे छोटे से कमरे में, ऊपर छत में एक शीशे की छोटी-सी खिड़की थी, जिसमें थोड़ी-सी रोशनी आती थी. बगल के हिस्से में पुरानी फाइलें पड़ी रहती थीं. बरसात में उसमें से अनेक कीड़े-मकोड़े मेरे चेंबर में आते और मेरे शरीर पर, सिर में और भवों में घुस जाते. इससे मुझे रात को बहुत ही खुजली होती और सारी रात बिना सोये बितानी पड़ती थी. कभी-कभी तो सोने से पहले फिनायल के पानी से मुझे नहाना पड़ जाता था!

इस गुफा में मैं अपने कठिन वर्षों की विकट तपश्चर्या करता और उसमें से भूखे भेड़िये की तरह ‘ब्रीफों’ की खोज में निकलता था.

मेरी असली दुर्दशा तो मेरे क्षुब्ध स्वभाव के कारण हुई. चारों ओर कलफ लगे कपड़े, चमकते हुए सफेद कालर, सीधी क्रीज वाली पतलूनें और मुलायम रुमाल देखकर मुझे अपनी दरिद्रता का तीव्र भान होता था.

कपड़े हमारे व्यक्तित्व के अनिवार्य अंग बन बैठे हैं. जब तक मन में यह ख्याल होता है कि हमारी पोशाक दूसरे से मामूली है, तब तक हम में आत्मविश्वास उत्पन्न नहीं होता. मुझे देखकर पास बैठा हुआ बैरिस्टर मेरे विषय में क्या सोचेगा, ब्रीफ देने वाला सॉलिसिटर, मुवक्किल और न्यायाधीश क्या सोचेंगे, यह प्रश्न मेरे मन में उठते रहते. इससे मैं परेशान होता और जैसे ही हाथ में पैसे आते, अच्छे कपड़े बनाने की ओर ध्यान देता. सोने से पहले पतलून की तह लगाकर तकिये के नीचे रखने की और जूतों पर पालिश करने की क्रिया मैंने सावधानी से जारी रखी.

मेरी दूसरी कठिनाई थी मेरी अंग्रेज़ी की. मैं अच्छी अंग्रेज़ी लिखता और आलंकारिक अंग्रेज़ी में व्याख्यान देता था; परंतु बड़ौदा कालेज में गुजराती में ही बोलने की आदत पड़ी होने से मैं अंग्रेज़ी में बातचीत नहीं कर सकता था. मेरा उच्चारण भी बेढंगा था और सामान्य सरल बात तो मैं कर ही नहीं सकता था.

1911 में मैं न्यायमूर्ति बीमन के कोर्ट में अपनी हाजिरी देने बैठा हुआ था. उस समय मेरे पास बैठे हुए एक पारसी युवक ने मुझसे  पूछा- “तुम यह क्या लिख रहे हो?”

“यह पक्की आढ़त का मुकदमा है, इसे नोट कर रहा हूं.”

“क्यों?”

“मैं एडवोकेट की परीक्षा की तैयारी कर रहा हूं.” मैंने उत्तर दिया. उसने मेरा नाम और पता लिख लिया और रात को वह मेरे पास आया.

इस बरजोरजी रतनजी बामनजी के नाम सेंट लेजर की लाटरी निकली थी. उस पैसे से इसने भगवानदास परशुराम की आढ़त के साथ अलसी का बड़ा सट्टा किया था. उसमें इसे बड़ा नुकसान हुआ. यह जानना चाहता था कि यदि आढ़तिया दावा करे, तो स्वयं मैंने सट्टा किया है इसे साबित करने के लिए कौन-कौन से सबूत चाहिए.

बरजोरजी के हजारों टन के सौदे में, पक्के आढ़तिये ने पक्का व्यापार साबित करने के लिए तीन सौ टन तैयार अलसी तोली थी. हमने योजना बनायी और मैंने बरजोरजी का ‘प्रजामित्र’ के सम्पादक रतनलाल शाह से परिचय कराया. योजना के अनुसार रतनलाल को परदे के पीछे बिठाकर, बरजोरजी ने भगवानदास परशुराम के मुनीम को बुलाया और बात करनी शुरू की.

“तुमने किसलिए तीन सौ टन माल लिया? मैंने कब कहा था? हमने तो सट्टा किया था. डिलीवरी न लेने की शर्त थी.”

“अदालत की कार्रवाई के लिए.” मुनीम ने कहा. पीछे बैठे रतनलाल ने सब लिख लिया.

बाद में भगवादास परशुराम ने बरजोरजी पर दावा किया.

बरजोरजी के सॉलिसिटर मेसर्स मुल्ला और मुल्ला थे और उसके सहायक नसरवान जी इन्जीनियर (आगे जा कर एडवोकेट और न्यायमूर्ति) मुकदमे का काम सम्भालते थे. मैं बरजोरजी के साथ दो-तीन बार उनसे मिलने गया.

1911 की 12 अप्रैल को मैंने नोट किया-

‘हाईकोर्ट बंद हुआ. बी. आर. बी. के साथ मुल्ला और मुल्ला के यहां ईरानी और इन्जीनियर से मिला. शांति के साथ और प्रभाव डालने वाले तरीके से मुझे बात करना नहीं आता. अपनी बात-चीत करने की अयोग्यता से मैं तिरस्कृत-सा मालूम होता हूं, शब्दों का मैंने बड़ा दुरुपयोग किया. मुझे शर्मिंदा होना चाहिए.’

बरजोरजी के मुकदमे का 1912 में न्यायमूर्ति बीमन ने फैसला सुनाया. रतनलाल के गवाही देने पर भी बीमन ने यह निर्णय किया कि ये सौदे पक्के हैं, सट्टे के नहीं. अपील-कोर्ट में बरजोर जी की जीत हुई और प्रिवी कौन्सिल में भी. मेरे परिश्रम के बदले में बरजोरजी ने मुझे काफी अच्छी रकम दी.

अपनी वक्तृत्व-शक्ति के अभाव का मान मुझे बहुत खटकने लगा. तलियारखान, जिन्ना और स्ट्रेंगमेन जैसे बैरिस्टरों के पीछे खड़े रह कर मैं उनके अंग्रेज़ी शब्दों के उच्चारण ध्यान में लाता और उनकी नकल करता. घर में बैठकर उपन्यास की पुस्तकों के संवाद ज़ोर से पढ़ता. छोटे-छोटे चुटकुले इकट्ठे करके उन्हें लिखता, फिर जबानी याद करता और उनमें कुछ परिवर्तन करके भिन्न-भिन्न मित्रों को सुनाया करता. इस प्रकार मैंने अंग्रेज़ी बोलने का अभ्यास करना शुरू किया.

पहले जिस प्रकार छुट्टी के दिनों में नाटक पढ़ा करता, उसी प्रकार अब शीशे के सामने खड़े होकर प्रिवी-कौन्सिल के निर्णय पढ़ता; और पुस्तक बंद करके उसका सारांश अच्छे उच्चारण में बोलता. फिर भी उच्चारण में काफी अरसे तक भूलें होती रहीं, विशेषकर उन शब्दों के उच्चारण में, जो कानून के शब्दकोष में नहीं थे.

छह वर्षों के बाद एक बार जब हम दार्जिलिंग जा रहे थे, मैं  शब्द का उच्चारण बड़ौदा के ढंग पर ‘जुइस’ कर बैठा. भूलाभाई ज़रा हंसे, मेरे ढंग से ‘जुइस’ कहा और तीसरे आदमी ने आंख का इशारा किया. मुझे लगा कि मैंने कुछ भूल की है. रात को मैंने अंग्रेज़ी शब्दकोष में देखा, तो उच्चारण ‘जूस’ था. बहुत दिनों तक बात मेरे मन में खटकती रही और इससे बात करने के लिए मुंह खोलने की हिम्मत नहीं पड़ती थी.

एक डायरी में मैं अनेक शब्दों का उच्चारण, कानून के शब्द और चुटकुलों की सूची लिख कर रख छोड़ता था. बैरिस्टरों में जो बड़ी सरसता से चुटकुले कहता, उसका तरीका सीखने का भी मैं प्रयत्न करता था.

अंग्रेज़ी भाषा हमारी पराधीनता की कठिन-से-कठिन बेड़ी है. दुर्दैव से अपनी भूमि में भी विदेशी भाषा के बिना प्रतिष्ठा नहीं मिलती. और इस बेड़ी को सुव्यवस्थित करने में मैंने अपने जीवन के अच्छे-से-अच्छे वर्ष बिताये हैं. इससे मुझे एक लाभ हुआ. इस विदेशी भाषा को सीखते हुए शैली और साहित्य-रचना, वाक-पटुता और वार्तालाप के अनेक सनातन रहस्य मेरी समझ में आ गये और जगत के साहित्य-सम्राटों का परिचय प्राप्त हुआ.

1914 के बाद नियमित रूप से डायरी लिखने की आदत मैंने छोड़ दी, परंतु जब कोई बड़ी घटना घटती या मैं कोई आवश्यक संकल्प करता, तब उसे लिख लेता था. अंग्रेज़ी में भाषण देने का मेरा तरीका कृत्रिम होता था. जब भाषण देना होता, तब मैं अंग्रेज़ी में सारांश लिख लेता, उसे बार-बार ज़ोर से पढ़ डालता और फिर बोलते समय उन वाक्यों को अपने वक्तव्य में ज्यों-का-त्यों उतार लेता. कभी-कभी तो सारा भाषण रट कर सभा में बोल दिया
करता था.

इस तरीके से मेरा व्याख्यान बढ़िया अंग्रेज़ी शब्दों के प्रयोग से शानदार बन जाता था और थोड़ी अंग्रेज़ी जानने वाले श्रोतावृंद प्रभावित हो जाते थे. असल में देखा जाय, तो यह तरीका शब्द-प्रदर्शन करना मात्र था. इसमें सजीव वाक-पटुता का अंश नहीं था.

वाग्-वैभव की सेवा में मैं निमग्न रहता था. परंतु वाक-पटुता का उद्देश्य प्रशंसा प्राप्त करना नहीं, वरन अभीष्ट कार्य करवाना है, इसका ज्ञान तो मुझे तभी हुआ जब मैं हाईकोर्ट में गया. मेरा शब्दाडम्बरगूर्ण वाग्वैभव कानून के अभ्यस्त न्यायमूर्तियों के आगे व्यर्थ था.

मैंने नयी पद्धति सीखनी शुरू की और उसके सूत्र लिखकर मेज पर सामने रखता-

1) भाषा की सादगी का अभ्यास करना; हमेशा सरल शब्द पसंद करना.

2) छोटे वाक्य व्यवहार में लाना.

3) शुद्ध उच्चारण करना.

4) अपने ध्येय ठीक हैं या नहीं, इसकी पहले से जांच करना; उसमें दूसरों द्वारा दोष निकाले जाने की प्रतीक्षा न करना.

5) विषय का इतना ज्ञान प्राप्त करना कि उसमें लीन हो सका जाय और इस प्रकार सिद्ध की गयी एकरूपता को अपने आप ही शब्द प्रेरित करने देना और शब्दों की पहले से तैयारी न करना.

6) श्रोता का हृदय जीतना हो तो बोलने के तरीके की अपेक्षा इस वात का ध्यान रखना कि वह किस प्रकार जीता जा सकेगा.

7) श्रोता को थकने न देना; या तो उसके थकने से पहले बोलना बंद कर देना, या ऐसी सामग्री उपस्थित करना, जिसमें उसे दिलचस्पी पैदा हो.

1917-19 तक इन सूत्रों का मैंने अभ्यास किया, परंतु पुरानी आदतें इससे उलटी थीं, वे एकदम जा न सकीं और नया तरीका पूर्णतया आ न सका.

मंछाशंकर काका मुझमें पहले से ही दिलचस्पी ले रहे थे; अब जमीयत-राम काका भी लेने लगे. उन्हें अपनी जाति के प्रति बहुत प्रेम था. कोई भी स्वजातीय उनसे सहायता मांगने आता, तो शायद ही खाली हाथ वापस जाता. फिर मैं तो उनकी जाति का, भड़ौंच की जाति के युवकों में अग्रणी और आशाप्रद, जाति का कार्यकर्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा का स्वामी था.

भड़ौंच और सूरत के भार्गवों में ‘कन्याव्यवहार’ एकपक्षीय था. हम सूरत की कन्या ले लेते पर देते नहीं थे. इस रिवाज को दो पक्षीय करके जाति का संगठन करने का मैं प्रयत्न कर रहा था. इस सुधार के विषय में दो वर्षों से हम परिचय में आये थे. इससे मेरे प्रति उनका आकर्षण बढ़ गया था और जब मुझे अचानक पहले ही प्रयत्न में पास हुआ देखा, तब तो उन्होंने मुझे अपना ही लिया.

वे मेरा भविष्य इस प्रकार बनाने लगे कि मुझे उसका पता न लग सके. पहली मई को जब उनकी ओर से पहली ‘ब्रीफ’ मिली, तब मैंने नोट किया-

‘जमीयतराम काका की ममता मुझपर बढ़ती जा रही है. आज ‘ब्रीफ’ भेजी. मुझे आशा नहीं थी.’

बात यह थी कि मैं उन्हें भली-भांति पहचानता नहीं था. उन्होंने और नरुभाई ने छोटी-छोटी ‘ब्रीफ’ भेजनी शुरू की और यह निर्णय हुआ कि मैं भूलाभाई जीवनजी देसाई के चेम्बर में पढ़ा करूं. मुझे मि. जिन्ना के प्रति बड़ा आकर्षण था. उनका नाम बड़ा, देखने में सुंदर और उनके कपड़े मोहक थे. परंतु काका टस-से-मस न हुए.

“भूलाभाई के पास अच्छी तरह सीख सकोगे” उन्होंने कहा.

विलायत में बैरिस्टरों की ‘चेम्बरिंग-पद्धति’ बड़ी सुंदर है. जो नया बैरिस्टर बनता है, वह पुराने बैरिस्टर के चेम्बर में शामिल होता है, उसका ‘डेविल’, उसका ‘भूत’ बनता है; जब से वह शामिल होता है, तब से चेंबर का अंग बनता और गुरु की वकालत की पद्धति सीखना शुरू करता है. चेंबर गुरुकुल समान बन जाता है. गुरु और शिष्य कुटुम्बी के समान हो जाते हैं. गुरु शिष्यों की प्रगति में दिलचस्पी लेता है; उनके समस्त जीवन में प्रवेश करता है. सहपाठी परस्पर बंधुभाव से व्यवहार करते हैं, गुरु के जाने पर भी गुरुकुल के महत्त्व और कीर्ति को व्यवसाय में कायम रखते हैं, और अपना समय आने पर शिष्यों को यह उत्तराधिकार में सौंप जाते हैं. इस प्रथा का अधूरा अनुकरण हाईकोर्ट के एडवोकेट (ओ. एस.) भी करते हैं.

भूलाभाई विलायत से आये और 12 जून की शाम को काका मुझे हाईकोर्ट की तीसरे मंजिल पर उनके चेंबर में ले गये. काका ने मेरा परिचय कराया. भूलाभाई हंसे. छोटे बालक को गुरु के घर पढ़ने के लिए छोड़ आने पर उसकी जो मनोदशा होती है, वैसी ही कुछ-कुछ मेरी हुई. काका मुझे छोड़कर चले गये.

“देखो, लाउन्डूस ने (भूलाभाई सर जार्ज लाउन्डूस के शिष्य थे) मुझसे पहले दिन जो कहा था, वही मैं तुम से कहता हूं- ‘यदि तुम मेरे लिए उपयोगी बनोगे, तो मैं तुम्हारे लिए उपयोगी बन जाऊंगा.’ और देखो तुम साढ़े छह बजे के लगभग आना.” भूलाभाई ने कहा, और आगे बोले- “कान्फ्रेंस में किसी तीसरे का होना सालिसिटर लोग पसंद नहीं करते, इसलिए उन सब के जाने पर मुझसे मिलना. जाओ, कल आना.”

बम्बई के हाईकोर्ट के नियम के अनुसार जब कोर्ट खत्म हो जाता है, तब सालिसिटर एडवोकेट से सलाह लेने आते हैं, उस अवसर को ‘कान्फ्रेंस’ कहा जाता है.

भूलाभाई के ‘गुरुकुल’ में उस समय ‘कान्फेंस’ में ‘भूतों’ को न बैठने देने का नियम था. दूसरे गुरुकुलों में ऐसा नियम नहीं था. रात को मैंने डायरी में लिखा-

‘भूलाभाई के यहां काम करना आरम्भ किया; देखना चाहिए, मुझे क्या लाभ होता है! ऐसा चपल और चंचल मनुष्य मेरे लिए कुछ करेगा कि नहीं, इस विषय में मुझे सचमुच बड़ा संदेह होता है.’

दूसरे दिन से मेरे जीवन की कठिन तपश्चर्या आरम्भ हुई. मैं सुबह दस बजे घर से निकलता, सारा दिन हाईकोर्ट की लायब्रेरी में पढ़ता, कोर्ट उठने पर अपने चेम्बर में बैठता और साढ़े छह बजे भूलाभाई के चेम्बर के बाहर उपस्थित हो जाता. उनकी कान्फ्रेंस सात-आठ बजे तक चलती रहती. कभी-कभी तो जब आठ बजे उनकी गाड़ी उन्हें लेने आती, तब तक वे फंसे रहते. इसके बाद मैं चेम्बर में जाता; एक दो साधारण प्रश्न पूछकर उनका ध्यान खींचने का निष्फल प्रयत्न करता. वे हैट उठा लेते- “अच्छा मुनशी, अब कल आना, कुछ दूंगा.”

सवा आठ पर मैं टावर पर से ट्राम पकड़ता और थका-मांदा ब्रीफ की राह देख-देखकर अकुलाया हुआ, चोट खाये हुए अभिमान से रुआंसा होकर घर पहुंचता. रोज़-रोज़ इस प्रकार के अनुभव से मैं क्षुब्ध हो उठा.

भूलाभाई के चेम्बर में जाना छोड़ देने की रोज़ इच्छा होती, फिर भी मैं जाता. उनकी शिक्षा बिना मुझसे हाईकोर्ट में वकालत नहीं हो सकती थी, इसलिए इस घानी में पेरे बिना छुटकारा कहां था? रोज़ शाम को जब मैं उनके चेम्बर में जाता, तब मन समझाने के लिए विचार करता- ‘किस लिए भूलाभाई को मुझसे बात करनी चाहिए? किसलिए मेरे प्रति दिलचस्पी लेनी चाहिए? वे तो  वकालत के शिखर पर पहुंच गये हैं. हज़ारों रुपये कमाते हैं. मैं उनके किस काम आता हूं, जो वे मेरी परवा करें? काका का वे लिहाज़ करते हैं, इसके सिवा उनपर क्या अधिकार है?’ इस प्रकार अपने जीवन को सांत्वना देकर, ठीक साढ़े छह बजे मैं पहरेदार की तरह उपस्थित हो जाता.

रात को अपने आकुल हृदय के भाव मैं डायरी में अंकित करता. परंतु गुरु के मुझे दिये हुए दान के आगे इन अंकनों का क्या मूल्य है? वे तो विसर्जन करने के ही योग्य हैं.

थोड़े दिनों बाद भूलाभाई ने अरज़ी दावा का जवाब तैयार करने की एक ब्रीफ मुझे दी. मैंने अपनी आडम्बरपूर्ण अंग्रेज़ी में पहले जवाब मसविदा तैयार कर दिया. तीसरे दिन भूलाभाई ने कहा- “इस प्रकार की अंग्रेज़ी काम नहीं देगी.” हताश होकर मैंने पंद्रह घंटों की मेहनत से तैयार किये हुए मसिवदे को अंत में रद्दी की टोकरी में पड़ा हुआ देखा.

उस समय भूलाभाई मुझे प्रगति का मार्ग दिखलाने में दिलचस्पी नहीं लेते थे, इसलिए मैंने अपने तरीके पर तैयारी करनी शुरू की. मैंने बड़े बैरिस्टरों और भूलाभाई के लिखे जितने भी मसविदे मिल सके, उन्हें इकट्ठा किया, उनकी नकलें कीं, और उनकी भाषा का अनुकरण करना शुरू किया, उनमें कौन-सी फरियाद किन शब्दों में की गयी थी, इसकी डायरी बनायी. साथ-ही-साथ भूलाभाई के लिए भी बार-बार मसविदे तैयार करता रहा. इस परिश्रम में मुझे तीन बेजोड़ पुस्तकों से बड़ी सहायता मिली. और बाद में मैंने नियम बनाया कि किसी विषय का मसविदा तैयार करना है तो उस पुस्तक में से उक्त विषय के सम्बंध में लिखा हुआ सब पढ़ जाना, उसे नोट करना और फिर चीज़ तैयार करने का काम आरम्भ करना चाहिए.

हाईकोर्ट के क्षितिज पर भूलाभाई नवोदित सूर्य की ज्योति की तरह चमकते थे. बड़े-बड़े बैरिस्टर उनसे ईर्ष्या करते थे. गुजराती सालिसिटर तो उनके सिवा अन्य किसी को देख ही नहीं सकते थे. पारसियों में वे पारसी तुल्य बन गये थे और ‘भूला’ का प्रेम-भरा उपनाम उन्होंने पाया था. न्यायाधीश भी उनकी मीठी वकालत से पानी-पानी हो जाते थे.

हाईकोर्ट की सारी दुनिया को किसी अन्य धारा-शात्री पर इस प्रकार पागल होते मैंने नहीं देखा. विजय-प्राप्ति के इस शिखर से एक कांपते हुए निर्जीव नौसिखिये की ओर वे अधिक ध्यान से देखें, मेरी यह आशा दो वर्ष तक तो बिलकुल निष्फल रही. दूसरे व्यक्ति के भावों को सहानुभूति पूर्वक समझने की शक्ति, उनकी न्याय शक्तियों के मुकाबले में मर्यादित थी.

सर बेसिल स्कॉट उस समय मुख्य न्यायाधीश थे. वे थोड़ा बोलते थे और वह भी गम्भीरता से. ज़रा उकताने पर धारा-शात्री की टीका-टिप्पणी करने बैठ जाते. परंतु नये धारा-शात्री की ओर वे धैर्यपूर्ण और प्रोत्साहक प्रवृत्ति दिखलाते थे. बड़े धारा-शात्रियों के पलड़े में बैठने की वृत्ति अनेक न्यायाधीशों में देखने को मिलती है. परंतु स्कॉट इसके विपरीत थे. बड़ों को छोटों पर वे ज़रा भी आक्रमण नहीं करने देते थे.

9 जुलाई को थाना-कोर्ट की एक अपील में मैं पहली बार उनके कोर्ट में उपस्थित हुआ. बहुत दिनों से मैंने तैयारी की थी. कई नोट तैयार करके मैंने फाड़ डाले थे. घबराहट के कारण पिछली रात को नींद भी नहीं आयी थी. जब मैं कोर्ट में खड़ा हुआ, तब मैंने जाना कि मेरे सामने एडवोकेट-जनरल स्ट्रैंगमेन खड़े हैं.

स्ट्रैंगमेन (बाद में सर टॉमस) उस समय सारे कोर्ट को कंपाते थे. वे पतलून की जेब में हाथ डालकर उसमें रखी हुई चाबियां खनखनाते, ज़ोर से हंसकर बीच में बोल पड़ते और विपक्षी की ज़रा-सी भूल पर उसकी सख्ती-से खबर लेते थे. अनेक न्यायाधीश भी उनसे डरते थे. उन्हें अपने सामने आया देखकर मेरे होश उड़ गये.

जब मैं अपील चलाने के लिए खड़ा हुआ, तब मेरी दृष्टि के आगे कोर्ट घूमता मालूम होता था. मेरी आवाज़ गले से बाहर नहीं निकल सकती थी. कानों में ज़ोर से घंटे का नाद-सा सुनाई दे रहा था. पंद्रह-बीस मिनटों के बाद मुझे होश आया और मैं ठीक-ठीक बोलने लगा.

सम्भवतः मैं कुछ गलत बोल गया हूंगा, इससे स्ट्रैंगमेन कूदकर बीच में बोले उठे. स्कॉट कठोरता से स्ट्रैंगमेन की ओर देखते रहा.

“Mr. Advocate-General, your innings are still to come.”

उन्होंने निश्चयात्मक आवाज़ में स्ट्रैंगमेन की वाग्धारा को काट दिया. वे ज़रा उलझन में पड़कर, वाक्य अधूरा छोड़कर बैठ गये.

“Mr. Munshi, you may now proceed.”

स्कॉट ने मुझे आगे बढ़ने की अनुमति दी और नोट लेना शुरू किया.

मेरे पैरों में ज़ोर आ गया और मैं आगे बढ़ा. स्ट्रैंगमेन ने फिर बोलने की हिम्मत
नहीं की.

स्कॉट के साथ न्यायाधीश बेचलर थे. वे बड़े मितवादी थे. मैं अपनी दलीलों के सिलसिले में कह बैठा- “There is almost no evidence.”

बेचलर ने तुरंत कहा- “There is no ‘almost’ in evidence; either there is or there is not.”

मेरे अनिश्चत बोलने के तरीके को इससे चांटा लगा.

मैंने उसे समाप्त करते हुए हिम्मत से कहा-

“My lord, this is my first appearance before your Lordship, As I felt nervous while placing my first point, may I have your Lordship’s permission to repeat it?”

स्कॉट ने अपने शांत और शुद्ध उच्चारण में कहा-

“You may repeat.”

मैंने अपना पहला आशय पुनः दुहराया.

उसके जवाब में स्ट्रैंगमेन ने फिर उछल-उछलकर अपना दृष्टि-बिंदु उपस्थित किया. रात को मैंने अंकित किया-

‘मैंने अपील चलायी; थाना से आयी थी- जीत गया. मैं कितना घबराने वाला हूं! यह क्षोभ कब दूर होगा? मुझे इसे जीत लेना चाहिए.’

थोड़े दिनो बाद कांगां (अब सर जमशेदी) मुझे लायब्रेरी में मिले.

“आप मि. मुंशी हैं?”

“जी हां.”

“कुछ दिनों पहले स्कॉट के सम्मुख आपने ही केस चलाया था?”

“जी हां.”

“आपके लिए उनका अच्छा मत बन गया है, कल क्लब में उन्होंने मुझसे बात की. लॉ कालेज में जब प्रोफेसरों की नियुक्ति करनी थी, तब आप उन्हें याद आये थे, परंतु आप एकदम नये हैं.’

मैं बड़ा खुश हुआ और जब शाम को मैं भूलाभाई के चेम्बर में गया, तब अपने गुरु को अपनी प्रसन्नता का समभागी बनाने के लिए अधीर हो रहा था. मौका देखकर मैंने बात की.

भूलाभाई अनमने से सुनते रहे और बोले-

“These fellows always talk like that.

मुझे जो अभिमान-ज्वर चढ़ गया था, वह उतर गया.

इसके बाद मैं अनेक बार स्कॉट के कोर्ट में छोटी-छोटी अपीलों के लिए उपस्थित होता था. धारा-शात्रियों के बीच-बीच में गुर्राने न देने की उनकी आदत से मुझे संकोच को जीतने के अनेक अवसर मिले.

दूसरे न्यायाधीश, जो मेरी मदद को आते थे, वे थे सर दीनशा दावर. उनका मिजाज बड़ा तेज़ था. उनके कोर्ट में बड़े-बड़े कांपते थे, परंतु मेरे जैसे घबराने वाले को देखते ही, वे तुरंत उसकी मदद करते थे.

एक सज्जन विलायत से हाल में ही आये थे. वे करारदाद (Consent Decree)  लेने के लिए रोब के साथ खड़े हुए. बस बहुत हो गया. दावर तनकर खड़े हुए, ऐनक ठीक से लगाया और उन्हें झाड़ दिया.

“जाओ, तैयार होकर फिर आना.”

एक बार स्ट्रैंगमेन ने चाबियां खनखनाकर, कूद-कूदकर एक साक्षी से असभ्यता से जिरह करना शुरू कर दिया. दोपहर की छुट्टी के बाद जब न्यायाधीश दावर आये, तब ऐनक साफ करके उसे ठीक तरह लगाकर, उन्होंने ओंठ पीसकर कहा-

“मि. एडवोकेट जनरल, सुबह से मैं यह अनुभव कर रहा हूं कि केस चलाने का यह तरीका कुछ गलत है. मेरी बीमारी के कारण मेरा स्वभाव खराब हो गया है या आपके इस जिरह करने के तरीके से, इसका मुझे अब तक पता नहीं लगा था; पर अब मुझे निश्चय हो गया है कि आपका यह तरीका ही इसके लिए ज़िम्मेदार है. जिरह के इस ढंग से आपकी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ती और आप के ‘बार’ को भी इससे गर्वित होने का आधार नहीं मिलता.”

मैंने अपनी डायरी में लिखा-

‘दूसरों की अपेक्षा मैं अधिक सौभाग्यशाली हूं, परंतु कुछ भी कमाये बिना रोज-रोज बैठे रहने से मुझे बहुत दुःख होता है. और कितनी अधिक बातों में मैं अभी पिछड़ा हुआ हूं! मुझे अधिक योग्यता प्राप्त करनी चाहिए. मैं गगज्यादा परिश्रम नहीं करता. मैं मूर्ख हूं. मुझे जल्दी-जल्दी सब सीख लेना चाहिए; परंतु मैं क्या करूं? मेरे साथ बात करने वाला भी कोई नहीं है. मेरी मुसीबत का अंत नहीं है.’

अक्तूबर में छुट्टी आयी. मुझे माथेरान जाना था, पर पास पैसे नहीं थे. मेरी फीस के लगभग डेढ़ सौ रुपये काका की फर्म में जमा थे; उन्हें लेने मैं काका के पास गया. काका ने सदा की तरह त्रस्त करने वाले रोब मेरी ओर देखा और बोले-

“देखो भाई, मेरे फर्म से अगले महीने की दस तारीख को फीस मिलेगी. सालिसिटर्स से समय से पहले फीस नहीं मांगी जाती.”

मुझे बहुत बुरा लगा और जैसे-तैसे अपने रोष को काबू में करके वहां से चल पड़ा. मुझे इस व्यवहार से कठोर आघात पहुंचा. इसे सहन करने की अपेक्षा भूखों मरना अच्छा, ऐसा संकल्प करके मैंने काका के नाम एक कठोर पत्र लिखकर डाक में डाल दिया.

एक मित्र से थोड़े रुपये उधार लेकर दूसरे दिन मैं माथेरान चल दिया. सारे समय मैं अपना प्रिय श्लोक गुनगुनाता रहा-

अम्भोजिनीवन निवासविलासमेव

हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता।।

न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां

वैदग्धकीर्तिमपहर्तेमसौ समर्थः।।

(हंस पर कुपित ब्रह्मा, उससे कमलवन में रहने के सुख को अवश्य छीन सकते हैं, परंतु दूध और जल को भिन्न करने में प्रसिद्ध हंस के चातुर्य की कीर्त्ति को वे नहीं छीन सकते.)

दूसरे दिन काका का उत्तर मिला. उन्होंने लिखा कि आवेश में आकर पत्र लिखकर डाक में डालने की इच्छा यदि मैंने एक रात के लिए रोक ली होती, तो ठीक होता. उनकी  कही बात में पैसे का सवाल नहीं था; पैसे तो वे जितने चाहिए, देने को तैयार थे. परंतु वे मुझे यह पाठ पढ़ाना चाहते थे कि सालिसिटर से फीस मांगने जाना, बैरिस्टर के लिए अनुचित कहा जाता है. इससे मेरी मानहानि होती है. इतने सम्बंध के बाद हम लोगों के बीच अपमान का सवाल पैदा होना सम्भव ही नहीं है. अंत में उन्होंने थोड़ा-सा अंश बड़े प्रेम से लिखा था. पत्र के छिपे हुए स्नेह और ममता को देखकर मैं लज्जित हो गया.

इस पत्र-व्यवहार के पश्चात काका और मेरे बीच का अंतर दूर हो गया. उन्होंने मेरा पितृ-पद स्वीकार कर लिया.

साढ़े नौ महीनों में मैंने ग्यारह सौ रुपये कमाये थे.

इस तरह 1913 का वर्ष पूरा हुआ.

(क्रमशः)

मार्च  2014 

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