चिट्ठी नाम की ‘चीज़’ हमारे हाथों से फिसलती जा रही है- ठीक वैसे ही जैसे रेत हाथों की उंगलियों से फिसल जाती है. पता ही नहीं चलता कब मुट्ठी खाली हो जाती है. संचार-क्रांति के इस युग में चिट्ठियां बीते…
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मुकाबला ईश्वर से था…
बड़ों का बचपन ♦ अमृता प्रीतम > क्या यह कयामत का दिन है? ज़िंदगी के कई वे पल, जो वक्त की कोख से जन्मे और वक्त की कब्र में गिर गये, आज मेरे सामने खड़े हैं… ये सब कब्रें…
जनवरी 2014
रंग चाहे तितली के हों या फूलों के, जीवन में विश्वास के रंग को ही गाढ़ा करते हैं. पर कितना फीका हो गया है हमारे विश्वास का रंग? पता नहीं कहां से घुल गया है यह मौसम हवा में कि…