चिट्ठी नाम की ‘चीज़’ हमारे हाथों से फिसलती जा रही है- ठीक वैसे ही जैसे रेत हाथों की उंगलियों से फिसल जाती है. पता ही नहीं चलता कब मुट्ठी खाली हो जाती है. संचार-क्रांति के इस युग में चिट्ठियां बीते…
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जी ! मैं बचपन बोलता हूं…
♦ रमेश थानवी > जी… हलो, हलो… जी मैं बचपन बोलता हूं. आपके घर से ही बोल रहा हूं. उन तमाम लोगों से बोलता हूं जो 25 के पार हो गये हैं, 55 के पार हो गये हैं या 75…
नवम्बर 2008
शब्द-यात्रा भाषा में आतंक आनंद गहलोत पहली सीढ़ी ओ सूरज! स्वामी संवित् सोमगिरि आवरण-कथा कब अपने कहलायेंगे अपनी बस्ती के बच्चे रमेश थानवी मासूम बचपन पर कुपोषण की मार भुवेंद्र त्यागी बच्चों को छोटे हाथों से चांद -सितारे छूने दो सरोज…
नवम्बर 2014
सारी योजनाओं, कार्यक्रमों, वादों, दावों के बावजूद आज भी देश के, कम से कम ग्रामीण भारत के सरकारी स्कूलों में न बच्चों के बैठने के लिए पर्याप्त व्यवस्था है, न पीने के लिए पानी, न शौचालय. शिक्षा के नाम पर…
जनवरी 2014
रंग चाहे तितली के हों या फूलों के, जीवन में विश्वास के रंग को ही गाढ़ा करते हैं. पर कितना फीका हो गया है हमारे विश्वास का रंग? पता नहीं कहां से घुल गया है यह मौसम हवा में कि…