जाह्नवी

-जैनेंद्र

आज तीसरा रोज़ है. तीसरा नहीं, चौथा रोज़ है. वह इतवार की छुट्टी का दिन था. सबेरे उठा और कमरे से बाहर की ओर झांका तो देखता हूं, मुहल्ले के एक मकान की छत पर कांओं-कांओं करते हुए कौओं से घिरी हुई एक लड़की खड़ी है. खड़ी-खड़ी बुला रही है, “कौओ आओ, कौओ आओ.” कौए बहुत काफ़ी आ चुके हैं, पर और भी आते-जाते हैं. वे छत की मुंडेर पर बैठ अधीरता से पंख हिला-हिलाकर बेहद शोर मचा रहे हैं. फिर भी उन कौओं की संख्या से लड़की का मन जैसे भरा नहीं है. बुला ही रही है, “कौओ आओ, कौओ आओ.”

देखते-देखते छत की मुंडेर कौओं से बिल्कुल काली पड़ गयी. उनमें से कुछ अब उड़-उड़कर उसकी धोती से जा टकराने लगे. कौओं के खूब आ घिरने पर लड़की मानो उन आमंत्रित अतिथियों के प्रति गाने लगी-

“कागा चुन-चुन खाइयो…”

गाने के साथ उसने अपने हाथ की रोटियों में से तोड़-तोड़कर नन्हें-नन्हें टुकड़े भी चारों ओर फेंकने शुरू किये. गाती जाती थी. “कागा चुन-चुन खाइयो…” वह मग्न मालूम होती थी और अनायास उसकी देह थिरक कर नाच-सी जाती थी. कौए चुन-चुन खा रहे थे और वह गा रही थी-

“कागा चुन-चुन खाइयो…”

आगे वह क्या गाती है, कौओं की कांव-कांव और उनके पंखों की फड़फड़ाहट के मारे साफ सुनाई न दिया. कौए लपक-लपक कर मानो छूटने से पहले उसके हाथों से टुकड़ा छीन ले रहे थे. वे लड़की के चारों ओर ऐसे छा रहे थे मानो वे प्रेम से उसको ही खाने को उद्यत हों. और लड़की कभी इधर कभी उधर झुककर घूमती हुई ऐसे लीन भाव से गा रही थी कि जाने क्या मिल रहा हो.

रोटी समाप्त होने लगी. कौए भी यह समझ गये. जब अंतिम टुकड़ा हाथ में रह गया तो वह गाती हुई, उस टुकड़े को हाथ में फहराती हुई ज़ोर से दो-तीन चक्कर लगा उठी. फिर उसने वह टुकड़ा ऊपर आसमान की ओर फेंका, “कौओ खाओ, कौओ खाओ.” और बहुत-से कौए एक ही साथ उड़कर उसे लपकने झपटे. उस समय उन्हें देखती हुई लड़की मानो आनंद में चीखती हुई-सी आवाज़ में गा उठी –

“दो नैना मत खाइयो, मत खाइयो…

पीउ मिलन की आस”

रोटियां खत्म हो गयीं. कौए उड़ चले. लड़की एक-एक कर उनको उड़कर जाता हुआ देखने लगी. पलभर में छत कोरी हो गयी. अब वह आसमान के नीचे अकेली अपनी छत पर खड़ी थी. आसपास बहुत से मकानों की बहुत-सी छतें थीं. उन पर कोई होगा, कोई न होगा. पर लड़की दूर अपने कौओं को उड़ते जाते हुए देखती रह गयी. गाना समाप्त हो गया था. धूप अभी फूटी ही थी. आसमान गहरा नीला था. लड़की के ओंठ खुले थे, दृष्टि थिर थी. जाने भूली-सी वह क्या देखती रह गयी थीं.

थोड़ी देर बाद उसने मानो जागकर अपने आसपास के जगत को देखा. इसी की राह में क्या मेरी ओर भी देखा? देखा भी हो; पर शायद मैं उसे नहीं दिखा था. उसके देखने में सचमुच कुछ दिखता ही था, यह मैं कह नहीं सकता. पर, कुछ ही पल के अनंतर वह मानो वर्तमान के प्रति, वास्तविकता के प्रति, चेतन हो आयी. तब फिर बिना देर लगाये चट-चट उतरती हुई वह नीचे अपने घर में चली गयी.

मैं अपनी खिड़की में खड़ा-खड़ा चाहने लगा कि मैं भी देखूं, कि कौए कहां-कहां उड़ रहे हैं, और वे कितनी दूर चले गये है. क्या वे कहीं दिखते भी हैं? पर मुश्किल से मुझे दो-एक ही कौए दिखे. वे निरर्थक भाव से यहां बैठे थे, या वहां उड़ रहे थे. वे मुझे मूर्ख और घिनौने मालूम हुए. उनकी काली देह और काली चोंच मन को बुरी लगी. मैंने सोचा कि ‘नहीं, अपनी देह मैं कौओं से नहीं नुचवाऊंगा छिः, घुन-घुनकर इन्हीं के खाने के लिए क्या मेरी देह है? मेरी देह और कौए? -छीः.’

जान पड़ता है खड़े-खड़े मुझे काफी समय खिड़की पर ही हो गया; क्योंकि इस बार देखा कि ढेर-के-ढेर कपड़े कंधे पर लादे वही लड़की फिर उसी छत पर आ गयी है. इस बार वह गाती नहीं है, वहां पड़ी एक खाट पर उन कपड़ों को पटक देती है और उन कपड़ों में से एक-एक को चुनकर फटककर, वहीं छत पर फैला देती है. छोटे-बड़े उन कपड़ों की गिनती काफी रही होगी. वे उठाये जाते रहे, फटके जाते रहे, फैलाये जाते रहे; पर उनका अंत ही आता न दिखा. आखिर जब खत्म हो गये तो लड़की ने सिर पर आये हुए धोती के पल्ले को पीछे किया. उसने एक अंगड़ाई ली, फिर सिर को ज़ोर से हिलाकर अनबंधे अपने बालों को छिटका लिया और धीमे-धीमे वहीं डोलकर उन बालों पर हाथ फेरने लगी. कभी बालों की लट को सामने लाकर देखती फिर उसी को लापरवाही से पीछे फेंक देती. उसके बाल गहरे काले थे और लंबे थे. मालूम नहीं उसे अपने इस वैभव पर सुख था या दुःख था. कुछ देर वह उंगलियां फेर-फेरकर अपने बालों को इकट्ठा समेटकर झटपट जूड़ा-सा बांध; पल्ला सिर पर खींच, वह नीचे उतर गयी.

इसके बाद मैं खिड़की पर नहीं ठहरा. घर में छोटी साली आयी हुई है. इसी शहर के दूसरे भाग में रहती है और ब्याह न करके कालिज में पढ़ती है. मैंने कहा, “सुनो, यहां आओ.”

उसने हंसकर पूछा, “यहां कहां?”

खिड़की के पास आकर मैंने पूछा, “क्यों जी, जाह्नवी का मकान जानती हो?”

“जाह्नवी! क्यों; वह कहां है?”

“मैं क्या जानता हूं कहां है? पर देखो, वह घर तो उसका नहीं है?”

उसने कहा, “मैंने घर नहीं देखा. इधर उसने कालिज भी छोड़ दिया है.”

“चलो अच्छा है,” मैंने कहा और उसे जैसे-तैसे टाला. क्योंकि वह पूछने-ताछने लगी थी कि क्या काम है, जाह्नवी को मैं क्या और कैसे और क्यों जानता हूं. सच यह था कि मैं रत्तीभर उसे नहीं जानता था. एक बार अपने ही घर में इसी साली की कृपा और आग्रह पर एक निगाह एक को देखा था. बताया गया था कि वह जाह्नवी है, और मैंने अनायास स्वीकार कर लिया था कि अच्छा, वह जाह्नवी होगी. उसके बाद की सचाई यह है कि मुझे कुछ नहीं मालूम कि उस जाह्नवी का क्या बन गया और क्या नहीं बना. पर किसी सचाई को बहनोई के मुंह से सुनकर स्वीकार कर ले तो साली क्या! तिस पर सचाई ऐसी कि नीरस. पर ज्यों-त्यों मैंने टाला.

बात-बात में मैंने कहना भी चाहा कि ऐसी ही तुम जाह्नवी को जानती हो, ऐसी ही तुम साथ पढ़ती थी  कि ज़रा बात पर कह दो ‘मालूम नहीं.’ लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं.

इसके बाद सोमवार हो गया, मंगलवार हो गया और आज बुध भी होकर चुका जा रहा है. चौथा रोज़ है. हर रोज़ सबेरे खिड़की पर दिखता है कि कौवे कांव-कांव, छीन-झपट कर रहे हैं और वह लड़की उन्हें रोटी के टुकड़ों के मिस कह रही है-

“कागा चुन, चुन खाइयो…’

मुझको नहीं मालूम कि कौए जो कुछ उसका खायेंगे उसे कुछ भी उसकी सोच है. कौओं को बुला रही है, “कौओ आओ, कौओ आओ.”, साग्रह कह रही है, “कौओ आओ, कौओ आओ.” वह खुश है कि कौए आ गये हैं और वे खा रहे हैं. पर एक बात है कि ओ कौओ, जो तन चुन-चुनकर खा लिया जायगा, उसको खा लेने में मेरी अनुमति है. वह खा-खूकर तुम सब निबटा देना. लेकिन ए मेरे भाई कौओ! इन दो नैनों को छोड़ देना. इन्हें कहीं मत खा लेना. क्या तुम नहीं जानते कि उन नैनों में एक आस बसी है जो पराये के बस है. वे नैना पीउ की वाट में हैं. ए कौओ, वे मेरे नहीं हैं, मेरे तन के नहीं हैं. वे पीउ की आस को बनाये रखने के लिए हैं. सो, उन्हें छोड़ देना.”

आज सबेरे भी मैंने यह सब-कुछ देखा. कौओं को रोटी खिलाकर वह उसी तरह नीचे चली गयी. फिर छोटे-बड़े बहुत से कपड़े धोकर लायी. उसी भांति उन्हें झटककर फैला दिया. वैसे ही बाल छितराकर थोड़ी देर डोली. फिर सहसा ही उन्हें जूड़े में संभालकर नीचे भाग गयी.

जाह्नवी को घर में एक बार देखा था. पत्नी ने उसे खास तौर पर देख लेने को कहा था और उसके चले जाने पर पूछा था, “क्यों, कैसी है?”

मैंने कहा था, “बहुत भली मालूम होती है. सुंदर भी है. पर क्यों?”

“अपने बिरजू के लिए कैसी रहेगी?”

बिरजू दूर के रिश्ते मेरा भतीजा होता है. इस साल एम.ए. में पहुंचा है.

मैंने कहा, “अरे, ब्रजनंदन! वह उसके सामने बच्चा है.”

पत्नी ने अचरज से कहा, “बच्चा है. बाईस बरस का तो हुआ.”

“बाईस छोड़ बयालीस का भी हो जाय. देखा नहीं कैसे ठाठ से रहता है. यह लड़की देखो, कैसी बस सफेद साड़ी पहनती है. बिरजू इसके लायक कहां है! यों भी कह सकती हो कि वह बेचारी लड़की बिरजू के ठाठ के लायक नहीं है.”

बात मेरी कुछ सही, कुछ व्यंग्य थी. पत्नी ने उसे कान पर भी न लिया. कुछ दिनों बाद मुझे मालूम हुआ कि पत्नीजी की कोशिशों से जाह्नवी के मां-बाप से (मां के द्वारा बाप से) काफी आगे तक बढ़कर बातें कर ली गयी हैं. शादी के मौके पर क्या देना होगा, क्या लेना होगा, एक-एक कर सभी बातें पेशगी तय होती जा रही हैं.

इतने में सारे किये-किराये पर पानी फिर गया. जब बात कुल किनारे पर आ गयी थी, तभी हुआ क्या कि हमारे ब्रजनंदन के पास एक पत्र आ पहुंचा. उस पत्र के कारण एकदम सब चौपट हो गया. इस रंग में भंग हो जाने पर हमारी पत्नीजी का मन पहले तो गिरकर चूर-चूर सा होता जान पड़ा; पर, फिर वह उसी पर बड़ी खुश मालूम होने लगीं!

मैं तो मानो इन मामलों में अनावश्यक प्राणी हूं ही. कानों-कान मुझे खबर तक न हुई. जब हुई तो इस तरह-

पत्नीजी एक दिन सामने आ धमकीं. बोलीं, “यह तुमने जाह्नवी के बारे में पहले से क्यों नहीं बतलाया?”

मैंने कहा, “जाह्नवी के बारे में मैंने पहले से क्या नहीं बतलाया भाई?”

“यह कि वह कैसी है?”

मैंने पूछा, “ऐसी कैसी?”

उन्होंने कहा, “बनो मत. जैसे तुम्हें कुछ नहीं मालूम.”

मैंने कहा, “अरे, यह तो कोई हाईकोर्ट का जज भी नहीं कह सकता कि मुझे कुछ भी नहीं मालूम. लेकिन, आखिर जाह्नवी के बारे में मुझे क्या-क्या मालूम है, यह तो मालूम हो.”

श्रीमतीजी ने अकृत्रिम आश्चर्य से कहा, “बिरजू के पास खत आया है, सो तुमने कुछ नहीं सुना? आजकल की लड़कियां, बस कुछ न पूछो. यह तो चलो भला हुआ कि मामला खुल गया. नहीं तो-”

क्या मामला, कहां, कैसे खुला और भीतर से क्या कुछ रहस्य बाहर हो पड़ा सो सब बिना जाने मैं क्या निवेदित करता? मैंने कहा, “कुछ बात साफ भी कहो.”

उन्होंने कहा, “वह लड़की आशनाई में फंसी थी- पढ़ी-लिखी सब एक जात की होती हैं.”

मैंने कहा, “सबकी जात-बिरादरी एक हो जाय तो बखेड़ा टले. लेकिन असल बात भी तो बताओ.”

“असल बात जाननी है तो जाकर पूछो उसकी महतारी से. भली समधिन बनने चली थी. वह तो मुझे पहले ही से दाल में काला मालूम होता था. पर देखो न, कैसी सीधी-भोली बातें करती थी. वह तो, देर क्या थी, सब हो ही चुका था. बस लगन-मुहूर्त की बात थी. राम-राम, भीतर पेट में कैसी कालिख रक्खे हैं, मुझे पता न था. चलो, आखिर परमात्मा ने इज्ज़त बचा ली. वह लड़की घर में आ जाती तो मेरा मुंह अब दिखने लायक रहता?”

मेरी पत्नी का मुख क्यों किस भांति दिखने लायक न रहता, उसें क्या विकृति आ रहती, सो उनकी बातों से समझ में न आया. उनकी बातों में रस कई भांति का मिला, तथ्य न मिला. कुछ देर बाद उन बातों से मैंने तथ्य पाने का यत्न ही छोड़ दिया और चुपचाप पाप-पुण्य धर्म-अधर्म का विवेचन सुनता रहा. पता लगने पर मालूम हुआ कि ब्रजमोहन के पास खुद लड़की यानी जाह्नवी का पत्र आया था. पत्र मैंने देखा. उस पत्र को देखकर मेरे मन में कल्पना हुई कि अगर वह मेरी लड़की होती तो? मुझे यह अपना सौभाग्य मालूम नहीं हुआ कि जाह्नवी मेरी लड़की नहीं है. उस पत्र की बात कई बार मन में उठी है और घुमड़ती रह गयी है. ऐसे समय चित्त का समाधान उड़ गया है और मैं शून्य-भाव से, हमें जो शून्य चारों ओर से ढके हुए है उसकी ओर देखता रहा गया हूं

पत्र बड़ा नहीं था. सीधे-सादे ढंग से उसमें यह लिखा था कि, ‘आप जब विवाह के लिए यहां पहुंचेंगे तो मुझे प्रस्तुत भी पायेंगे. लेकिन मेरे चित्त की हालत इस समय ठीक नहीं है और विवाह जैसे धार्मिक अनुष्ठान की पात्रता मुझमें नहीं है. एक अनुगता आपको विवाह द्वारा मिलनी चाहिए- वह जीवन-संगिनी भी हो. यह मैं हूं या हो सकती हूं, इसमें मुझे बहुत संदेह है. फिर भी अगर आप चाहें, आपके माता-पिता चाहें, तो प्रस्तुत मैं हूं. विवाह में आप मुझे लेंगे और स्वीकार करेंगे तो मैं अपने को दे ही दूंगी, आपके चरणों की धूलि माथे से लगाऊंगी. आपकी कृपा मानूंगी. कृतज्ञ होऊंगी. पर निवेदन है कि यदि आप मुझ पर से अपनी मांग उठा लेंगे, मुझे छोड़ देंगे तो भी मैं कृतज्ञ होऊंगी. निर्णय आपके हाथ है. जो चाहें, करें.’

मुझे ब्रजनंदन पर आश्चर्य आकर भी आश्चर्य नहीं होता. उसने दृढ़ता से साथ कह दिया कि मैं यह शादी नहीं करूंगा. लेकिन उसने मुझसे अकेले में यह भी कहा कि चाचाजी, मैं और विवाह करूंगा ही नहीं, करूंगा तो उसी से करूंगा. उस पत्र को वह अपने से अलहदा नहीं करता है. और देखता हूं कि उस ब्रजनंदन का ठाठ-बाट आप ही कम होता जा रहा है. सादा रहने लगा है और अपने प्रति सगर्व बिल्कुल भी नहीं दिखता है. पहले विजेता बनना चाहता था, अब विनयावनत दिखता है और आवश्यकता से अधिक बात नहीं करता. एक बार प्रदर्शिनी में मिल गया. मैं तो देखकर हैरत में रह गया. ब्रजनंदन एकाएक पहचाना भी न जाता था. मैंने कहा, “ब्रजनंदन, कहो क्या हाल है?”

उसने प्रणाम करके कहा, “अच्छा है.”

वह मेरे घर पर भी आया.

पत्नी ने उसे बहुत प्रेम किया और बहुत-बहुत बधाइयां दीं कि ऐसी लड़की से शादी होने से चलो भगवान ने समय पर रक्षा कर दी. जाह्नवी नाम की लड़की की एक-एक छिपी बात बिरजू की चाची को मालूम हो गयी है. वह बातें- ओह! कुछ न पूछो, बिरजू भैया! मुंह से भगवान किसी की बुराई न करावे. लेकिन-

फिर कहा, “भई, अब बहू के बिना काम कब तक हम चलायें, तू ही बता. क्यों रे, अपनी चाची को बुढ़ापे में भी तू आराम नहीं देगा? सुनता है कि नहीं?”

ब्रजनंदन चुपचाप सुनता रहा.

पत्नी ने कहा, “और यह तुझे क्या हो गया है? अपने चाचा की बातें तुझे भी लग गयी हैं क्या? न ढंग के कपड़े, न रीत की बातें. उन्हें तो अच्छे कपड़े-लत्ते सोभते नहीं है. तू क्यों ऐसा रहने लगा है रे?”

ब्रजनंदन ने कहा, “कुछ नहीं, चाची. और कपड़े घर रखे हैं.”

अकेले पाकर मैंने भी उससे कहा, “ब्रजनंदन, बात तो सही है. अब शादी करके काम में लगना चाहिए और घर बसाना चाहिए. है कि नहीं?”

ब्रजनंदन ने मुझे देखते हुए बड़े-बूढ़े की तरह कहा, “अभी तो उमर पड़ी है, चाचाजी!”

मैंने इस बात को ज़्यादा  नहीं बढ़ाया.

अब खिड़की के पार इतवार को, सोमवार को, मंगलवार को और आज बुधवार को भी सबेरे-ही-सबेरे छत पर नित रोटी के मिस कौओं को पुकार-पुकार कर बुलाने-खिलानेवाली यह जो लड़की देख रहा हूं सो क्या जाह्नवी है? जाह्नवी को मैंने एक ही बार देखा है, इसलिए, मन को कुछ निश्चय नहीं होता. कद भी इतना ही था; लावण्य शायद उस जाह्नवी में अधिक था. पर यह वह नहीं है, जाह्नवी नहीं है, ऐसी दिलासा मैं मन को तनिक भी नहीं दे पाता हूं. सबेरे-सबेरे इतने कौए बुला लेती है कि खुद दिखती ही नहीं, काले-काले-वे-ही-वे दिखते हैं. और वे भी उसके चारों ओर ऐसी छीना झपट-सी करते हुए उड़ते रहते हैं मानो बड़े स्वाद से, बड़े प्रेम से, चोंथ-चोंथकर उसे खाने के लिए आपस में बदाबदी मचा रहे हैं. पर उनसे घिरी वह कहती है, “आओ कौओ, आओ.” जब वे आ जाते हैं तो गाती है-

“कागा चुन-चुन खाइयो”

और जब जाने कहां-कहां के कौए इकट्ठे-के इकट्ठे कांऊं-कांऊं करते हुए चुन-चुनकर खाने लगते हैं और फिर भी खाऊ-खाऊ करके उससे, उससे भी ज़्यादा  मांगने लगते हैं, तब वह चीख मचाकर चिल्लाती है कि ओरे कागा, नहीं, ये-

“दो नैना मत खाइयो!

मत खाइयो-

पीउ मिलन की आस!”

(January 2013)

 

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