राग, भय और क्रोध, यह केंद्र-विमुख शक्तियां हैं और चित्त को कर्म से चिपटने न देकर इधर-उधर खींच ले जाती हैं. स्वभाव की जो सहज शक्तियां हैं, वे केंद्रविमुख हैं. ध्यान इन शक्तियों को सर्जन शक्ति के तनतनाते किसी केंद्र…
जाति-व्यवस्था या अन्य कोई कड़ी व्यवस्था, जो किसी भी व्यक्ति को उसके स्वभाव का पूरा विकास करने का अवसर न दे, वह गीता के विपरीत आचरण करती है. ऐसा प्रतिबंध प्राकृतिक क्रम के विपरीत है. ऐसी व्यवस्था व्यक्ति का नाश…
सत्य सामुदायिक नहीं, व्यक्तिगत वस्तु है. यह सत्य सिखाने से नहीं सीखा जा सकता. जीवन में इसका अनुशीलन प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए करना चाहिए. मनुष्य को योगी बनना हो तो एकांत-प्रिय बनना चाहिए. पग-पग पर उसे यह जानकर घबराहट…
सत्य का अर्थ सर्वदा एक ही मत रखना नहीं है. ज्यों-ज्यों दृष्टि-बिंदु विशाल बनता है, सत्य बदलता रहता है. ऐसे समय एक ही अभिमत को पकड़े रहना, असत्य बन जाता है. सर्वदा एक ही मत बनाये रखना कोई सद्गुण नहीं…