Deprecated: Optional parameter $depth declared before required parameter $output is implicitly treated as a required parameter in /home3/navneeth/public_html/wp-content/themes/magazine-basic/functions.php on line 566

Warning: Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home3/navneeth/public_html/wp-content/themes/magazine-basic/functions.php:566) in /home3/navneeth/public_html/wp-includes/feed-rss2.php on line 8
स्त्री-कामना – नवनीत हिंदी https://www.navneethindi.com समय... साहित्य... संस्कृति... Sat, 01 Nov 2014 10:31:57 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.8 https://www.navneethindi.com/wp-content/uploads/2022/05/cropped-navneet-logo1-32x32.png स्त्री-कामना – नवनीत हिंदी https://www.navneethindi.com 32 32 नारी जापान की https://www.navneethindi.com/?p=1065 https://www.navneethindi.com/?p=1065#respond Sat, 01 Nov 2014 10:31:57 +0000 http://www.navneethindi.com/?p=1065 Read more →

]]>
♦  गोविंद रत्नाकर     

      जापान का स्त्री-वर्ग दो स्पष्टतः विभागों में विभक्त है-एक पत्नी वर्ग, दूसरा है रमणी वर्ग. यह विभाजन उस देश की मूलभूत वृत्तियों का एक रोचक विवरण है और विदेशियों के लिए अत्यंत अचरजभरा. जापान जाने वाले पर्यटक इधर-उधर कि बातों से इतना तो जान पाते हैं कि जापानी गृहलक्ष्मियां घर में ही रहती हैं, पति की दुनियादारी से उनका कोई सम्बंध नहीं होता, परंतु प्रायः वे यह नहीं जान पाते कि पति-पत्नी के सम्बंधों में वहां एक विचित्र समन्यव है, जो सभ्य कहलाने वाले संसार में तो कहीं नहीं पाया जाता. स्पष्ट शब्दों में कहें तो जापानी पत्नी पति के परस्त्री-सम्पर्क को स्वाभाविक समझती है और उससे उसे विशेष दुख नहीं होता.

     जापानी पुरुष कर्तव्य-पालन और अपने हिस्से के काम को जी-जान से करने के लिए मशहूर है. पुरुष के इस श्रमजन्य मानसिक भार को हल्का करने के लिए वहां की समाज-व्यवस्था ही ऐसी बन गयी है कि वह अपनी यौनवृत्तियों की निर्बाध तृप्ति कर सके.

     जापान जाने वाले पर्यटक को वहां पद-पद पर आधुनिक नृत्य-मद्यशालाएं दिखाई देती हैं. वह समझता है कि पश्चिम या अमरीका की भांति ये ही वासना-तृप्ति के जापानी केंद्र हैं. वह गीशा-वर्ग का भी यत्किचित परिचय प्राप्त करता है, जो पर्यटकों को उपलब्ध हैं. परंतु गीशा-वर्ग की सृष्टि के आधारभूत कारणों को जानना, उनका परिचय प्राप्त करना, उसकी शक्ति से परे ही होता है.

     यों पुरुष की स्वाभाविक और अदम्य स्त्री-कामना की पूर्ति के साधन सभी सभ्य-असभ्य समाजों में प्रस्तु किये गये हैं. परंतु जापान ने उसे जो रूप दिया है और जिस तरह स्वीकार किया है, वह जापान का अपना ही दृष्टिकोण है.

     यह बहुर्चित बात है कि जापान के व्यवसायाधिकारियों को कम्पनी के खर्च से सालाना करोड़ों-अरबों रुपये मनोरंजन में व्यय करने का अधिकार प्राप्त है. बेशक इसका कुछ भाग कम्पनी के ग्राहकों पर व्यय होता है, परंतु अधिकांश भाग तो स्वयं अधिकारी अपने लिए व्यय करते हैं. जैसा अधिकारी और उस पर जितना कार्यभार, वैसा ही उसका व्ययाधिकार. कम्पनी मानती है कि अमुक कर्मचारी इतना भार वहन करता है, तो उस भार को हल्का करने के लिए उसे विविध आमोद-प्रमोदों में अपने को कुछ समय के लिए अबाध बहने देना चाहिए. इन चित्तवृत्तियों की निवृत्ति के पश्चात वह कम्पनी के कार्य में और भी मनोयोग और क्षमता दिखायेगा.

     है न अनोखा ‘एप्रोच’? पत्नियां भी यही मानती हैं कि जिस प्रकार घर के भोजन से तृप्ति नहीं होती और बाहर जाकर खाने को मन करता है, उसी प्रकार पति यदि अपनी यौनवृत्तियों की तृप्ति बाहर कर आता है, तो उसमें ऐसा अनौचित्य क्या? उस भूख को बुझा लेने के बाद पत्नी के प्रति पति का मनोभाव स्निग्ध रहेगा, वह उतनी ज्यादा मांगें नहीं  करेगा.   

     कर्तव्य के प्रति अत्यंत निष्ठावान और कर्तव्यच्युत होने पर आत्महत्या तक को वांछनीय समझने वाला उद्योग-विज्ञान-सम्पन्न जापान ऐसा क्यों सोचता है? सम्भव है, यह वृत्ति भी उसकी सफलता का कारण हो. जब यह समाज-व्यवस्था की गयी थी, तब उतने प्रलोभन नहीं थे, जितने आज हैं. उतनी स्वच्छंदता नहीं थे, जितनी आज है. और कौन जाने इस परम उद्योगी देश को यह वासना-परायणता कभी ले डूबेगी.

     यूरोप और अमरीका की तरह और आज के प्रगतिशील नगरों की तरह नाचघर और शराबखाने तो वहां बहुतायत से हैं ही, किंतु रात बाहर बिताने वाले गृहस्थों के लिए वहां ऐसे हजारों रैन-बसेरे भी हैं, जो विदेशियों की पहुंच से परे हैं. वहां की मधुशाला की साकी ग्राहक की आवश्यकता और जेब को समझने-परखने में अत्यंत कुशल होती है. मनचाहा संतोष देखर वे उसकी जेब को भी पूरी तरह टटोल लेती हैं और उससे प्राप्ति नहीं होती तो दूसरे दिन उसके घर या दफ़्तर पहुंचकर हंगामा मचाकर पूरी वसुली कर लेती हैं. ऐसी घटना से न पत्नी के चेहरे पर शिकन आती है, न दफ़्तर के सहकारी नाक-भौंह सिकोड़ते हैं.

     इस प्रवृत्ति का स्रोत रहा है गीशा-वृत्ति. अमीर-उमरावों ने उस वृत्ति को स्थापित किया, उसे एक ललित-कला की कोटि में पहुंचा दिया. पुरुष के मनोरंजन में जापानी गीशा सरीखा कुशल नारी-वर्ग शायद ही कहीं हो. गीशा-वृत्ति अब अपना स्थान-मान खोती जा रही है. समय की गति दूसरी होती जा रही है न! गीशा-कला की सच्ची ज्ञाताओं पर उसके पारखी धनिक एक-एक रात में हजारों-लाखों निछावर कर देते हैं.

     पुरुष की स्त्री-साहचर्य की कामना और मनोरंजन प्रियता का गीशा-वृत्ति के विकास और पनपने में जबर्दस्त हाथ रहा है. पर वह अन्य समयों व स्थानों की वेश्यावृत्ति जैसी न कभी रही, न आज है. गीशा अपने ग्राहक को भोजन परोसेगी, उससे मीठी-मीठी मनोरंजक बातें करेगी, उसे गाना सुनायेगी, उसे मीठी चुटकियां भी लेने देगी, पर उससे आगे नहीं. उससे आगे की प्रक्रियाएं अन्य श्रेणी के सुपुर्द हैं, जो आज जापान की गली-गली में मौजूद हैं.

     आपको पढ़कर आश्चर्य होगा कि जापानी भाषा में ‘मैं तुम्हें प्रेम करता हूं,’ का सही पर्यायवाची वाक्य नहीं है. वहां स्त्री के साथ पुरुष का सम्बंध दो भागों में विभक्त है. एक है, पत्नी अर्थात गृहस्थी की संचालिका और संतान की जननी के रूप में, और दूसरा है, रमणी अर्थात वासना-वृत्तियों को संतुष्ट करने वाली के रूप में. थोड़े बहुत अंश में यह विभाजन प्राचीन काल से आज तक सर्वत्र ही रहा है. परंतु जिस प्रकार जापान ने इसे सामाजिक व्यवस्था में ही गूंथ दिया है, वैसा और कहीं नहीं हुआ.

     एक सफल उद्योगपति ने अपना जीवन-वृत्तांत सुनाते हुए बताया कि यद्यपि वह अपने धन का उपयोग गीशा-गृह बनवाने के बजाय मंदिर-निमार्ण में करना पसंद करेगा, किंतु यदि गीशा-वृत्ति का उन्मूलन करने का प्रयास किया गया, तो वह अपने बाग में गीशा-गृह बनवाकर उस वृत्ति को सजीव रखेगा और उससे लाभान्वित होता रहेगा.

     उसकी मान्यता है कि संदुर युवती का सान्निध्य कार्यतत्परता और स्फूर्ति प्रदान करता है और जीवन को आनंदमय बनाता है वह मानता है कि पत्नी और परनारी के क्षेत्र अलग-अलग हैं, परंतु दोनों में से कोई प्रेमविहीन नहीं है, हां, दोनों के प्रेमों का स्वरूप भिन्न होता है. पति यदि परनारी के पाश में फंसकर पत्नी की अवहेलना करने लगे, तो पत्नी हीन-भावना में ग्रस्त हो जाती है, जो कि वह पुरुष के सुखमय जीवन के लिए सर्वथा अवांछनीय है. गीशा या उस जैसी रमणी के साथ कालयापन तो महज कामनापूर्ति के लिए है, उसके पीछे गृह-जीवन को दुखी करके झगड़े मोल लेने वाला निरा मूर्ख ही है.

     ऐसी भावना है वहां के धनिक वर्ग की, राजवर्ग की, वही भावना निचले वर्गों में भी है अपनी-अपनी औकात के अनुसार.

     सारे संसार में औद्योगीकरण हो रहा है. पुरुष हो या स्त्री, हर कोई उस गाड़ी का चक्का बनता जा रहा है, चक्के की तरह चलता हुआ और बोझा ढ़ोता हुआ. मानसिक तनाव बढ़ता जाता है. फलतः काम-काज का दैनिक भार ढो लेने के बाद लोग मनोरंजन की ओर दौड़ते हैं. परिवार में, घर-गृहस्थी में, बाल-बच्चों में मन लगाने और सुख पाने की वृत्ति का ह्रास होता जा रहा है. सुरा-पान द्वारा मस्तिष्क को उत्तेजित या सुन्न बना लेने और घड़ी-दो-घड़ी तथाकथित शरीर-सौंदर्य के प्रदर्शन को देखकर अपनी हीन वासना-वृत्तियों को जगाने और शांत करने के पीछे नर-नारी पागल हैं.

     यूरोप और अमरीका में नारी पुरुष को अकेले यह सब नहीं करने देती है, वह भी उसकी समभागिनी है. जापान में ऐसा नहीं है. यही बड़ा अंतर दीखता है. आज का व्यवसायोद्योग-प्रधान शहरी जीवन सर्वत्र इस अभिशाप के चंगुल में फंसता जा रहा है. अपने देश भारत के शहरों में भी उसके हेय उदाहरण देखने को मिलने लगे हैं.

     इन सब आकर्षणों के जिस रीति से विज्ञापन और प्रदर्शन होते हैं, और उनसे आज स्त्री-पुरुष जिस दिशा की ओर अग्रसर हो रहे हैं, वह घोर भौतिक सुखवाद की दिशा है. जापान का अतिशय भौतिक सुखवादी भले ही यह माने कि स्त्री-संसर्ग पुरुष को कर्मशीलता प्रदान करता है, पर वस्तुतः यह ऐसा ही है, जैसे रोज शाम को शराब पीकर अगले दिन काम में जुटना और उससे अपने शरीर का क्षय करना.

     यह आज की सबसे बड़ी विडम्बना है कि औद्योगीकरण जितना तीव्र और जितना व्यापक होता है, उसी परिणाम में यौन-वृत्ति और वासनामयता की भी वृद्धि होती जा रही है. जापान औद्योगीकरण में सबसे आगे है, तो वहां यौन-वृत्ति और वासना-मयता का भी सर्वाधिक बोलबाला है. फर्क बस यही है कि वहां इस वृत्ति  को एक अलग दृष्टि से देखा जाता है. परंतु इतने मात्र से उसका औचित्य सिद्ध नहीं होता.

(अप्रैल 1971)

]]>
https://www.navneethindi.com/?feed=rss2&p=1065 0