हममें से अधिकांश अपने आपसे बचने का निरंतर प्रयास करते रहते हैं और चूंकि कला इसका सम्मानपूर्ण एवं सरल मार्ग प्रस्तुत करती है, इसलिए अनेक व्यक्तियों के जीवन में कला का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है. आत्मविस्मृति के लिए कुछ लोग कला का सहारा लेते हैं, तो कुछ शराब का, और कई लोग रहस्यमय एवं कल्पनापूर्ण धार्मिक सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं.
जब हम जान-बूझकर या अनजाने में अपने आपसे बचने के लिए किसी वस्तु का उपयोग करते हैं, तो हमें उसका व्यसन हो जाता है. अपनी चिंताओं और परेशानियों से छुटकारा पाने के लिए किसी व्यक्ति या कविता या अन्य किसी वस्तु पर निर्भर होना, क्षणभर के लिए भले ही हमारे जीवन को समृद्ध कर दे, परंतु वह हमारे जीवन में संघर्ष और विरोध ही पैदा करता है.
जहां संघर्ष है, सृजन की स्थिति नहीं रह सकती. इसलिए सही प्रकार की शिक्षा को समस्याओं का सामना करने में व्यक्ति की सहायता करनी चाहिए, पलायन के मार्गों को महिमा से नहीं मढ़ना चाहिए. उसे संघर्ष को समझने तथा उसका निराकारण करने में व्यक्ति की सहायता करनी चाहिए, क्योंकि केवल तभी व्यक्ति में सृजनात्मक स्थिति उत्पन्न हो सकती है.
जीवन से कटी हुई कला का कोई खास महत्त्व नहीं. जब कला हमारे दैनंदिन जीवन से भिन्न हो जाती है, और हमारे सहज जीवन एवं कैन्वास, संगरमर या शब्दों में हमारे कला-प्रयास के बीच खाई-सी खुद जाती है, तब हमारी कला यथार्थ से बचने की हमारी सतही इच्छा की अभिव्यक्ति मात्र रह जाती है. इस खाई को पाटना बहुत कठिन है, विशेषतः उनके लिए, जिनमें प्रतिभा और तकनीकी कौशल है. परंतु इस अंतर को पाट देने पर ही हमारा जीवन पूर्ण बनता है और कला हमारी सच्ची अभिव्यक्ति बन जाती है.
मन में भ्रम उत्पन्न करने की शक्ति है. मन के तौर-तरीकों को जाने-समझे बिना अंतः स्फूर्ति खोजना आत्मप्रवंचना को निमंत्रण देना है. अंतः स्फूर्ति तब आती है, जब हमारा हृदय उसके लिए खुला हुआ हो, न कि तब जब हम उसे तलाश रहे होते हैं. किसी प्रकार की उत्तेजना द्वारा अंतः स्फूर्ति पाने का प्रयास विभ्रमों को जन्म देता है.
यदि हम अस्तित्व के महत्त्व को नहीं समझते, तो क्षमता और प्रतिभा अहं और उसकी कामनाओं पर ही बल और महत्त्व देती है. यह व्यक्ति को आत्मकेंद्रित एवं समाज से पृथकतावादी बना देती है. वह अपने आपको एक पृथक हस्ती और श्रेष्ठ समझने लगता है, जिससे अनेक बुराइयां, अंतहीन संघर्ष एवं कष्ट उत्पन्न होते हैं.
‘अहं’ अनेक परस्पर विरोधी चीजों का पुलिंदा है. वह संघर्षरत इच्छाओं की रणस्थली है, ‘मम’ और ‘न मम’ के निरंतर संघर्ष की केंद्र-भूमि. जब तक हम ‘अहं’ को, ‘मुझे’ और ‘मेरे’ को महत्त्व देते रहेंगे, हमारे और जगत् के बीच संघर्ष बढ़ता ही जायेगा.
सच्चा कलाकार अहंभाव एवं उसकी महत्त्वकांक्षाओं से परे होता है. प्रखर अभिव्यंजना शक्ति से सम्पन्न होते हुए भी दुनियाबी चीजों में फंसे रहना जीवन को विसंवाद और संघर्ष से भर देता है. प्रशंसा और चापलूसी जब हृदय में पैठ जाती हैं, ‘अहं’ का गुब्बारा फूल जाता है और ग्रहण-शीलता नष्ट हो जाती है.
दूसरों से अलगाव करने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति और प्रतिभा, चाहे कैसी भी उत्तेजक क्यों न हो, संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति को विकृत कर देती है एवं संवेदन हीनता को उत्पन्न करती है. जब प्रतिभा निपट वैयक्तिक हो जाती है, जब ‘मैं’ और ‘मेरा’ को महत्त्व दिया जाने लगता है (मैं चित्र बना रहा हूं, मैं लिख रहा हूं, मैं आविष्कार कर रहा हूं), तो संवेदनशीलता मंद पड़ जाती है. जब हम दूसरों से- व्यक्तियों वस्तुओं और प्रकृति से- सम्बंधित अपने विचारों और भावनाओं की प्रत्येक गति के प्रति समान होते हैं, तभी हमारा मन खुला हुआ, लचीला और आत्मसुख की आवश्यकताओं और प्रयासों से विमुक्त होता है, और केवल तभी असुंदर और सुंदर के प्रति हमारी संवेदनशीलता ‘अहं’ से अबाधित रह पाती है.
सौंदर्य और असौंदर्य के प्रति संवेदनशीलता आसक्ति से नहीं आती, प्रत्युत वह प्रेम से आती है, जहां अहंजनित संघर्ष नहीं होते. जब हम अंदर से दरिद्र होते हैं, तो हम धन, अधिकार और पदार्थों के आडंबर और प्रदर्शन में प्रवृत्त होते हैं. जब हमारे हृदय छूंछे होते हैं, तो हम चीजें बटोरने, जमा करने लगते हैं. यदि हममें आर्थिक क्षमता है, तो हम चारों ओर ऐसी चीजें जुटा लेते हैं, जिन्हें हम सुंदर समझते हैं.
परिग्रह (बाटोरने की भावना) सौंदर्य-प्रेम नहीं है, वह सुरक्षा-भावना से उपजता है और सुरक्षित होना संवेदन-शून्य होना है. सुरक्षा की कामना भय उत्पन्न करती हैं, अलगाव की प्रक्रिया को जन्म देती है, जो हमारे चारों ओर प्रतिरोध की दीवारें खड़ी कर देती है और ये दीवारें संवेदनशीलता का रोकती हैं. कोई वस्तु कैसी भी सुंदर क्यों न हो, जल्दी ही उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है. हम उसके अभ्यस्त हो जाते हैं, और जो चीज आनंद देती थी, वह छूंछी और नीरस हो जाती है. सौंदर्य तो अब भी वहां है, किंतु हम उसके लिए खुले हुए नहीं हैं.
क्योंकि हमारे हृदय मुरझा गयें हैं और हम करुणा करना, सितारों, पेंड़-पौधों और पानी झिलमिलाती परछाइयों को निहारना भूल गये हैं, इसलिए हमें चित्रों और आभूषणों, पुस्तकों और अंतहीन आमोद-प्रमोदों की आवश्यकता पड़ती है. हम निरंतर नये-नये उद्दीपनों, नयी गुदगुदियों को खोजते रहते हैं, अधिकाधिक प्रकार के संवेदनों के लिए तरसते रहते हैं. यह तृष्णा और उसकी तृप्ति की हृदय को क्लांत और मंद कर देती है.
जब तक हम संवेदन के पीछे पड़े रहते हैं, तब तक जिन्हें हम सुंदर या असुंदर कहते हैं, उनका अर्थ बिलकुल सतही होता है. स्थायी आनंद तभी मिलता है, जब हम हर चीज को ताजगी के साथ देख सकें और यह तब तक सम्भव नहीं, जब तक हम कामनाओं में जकड़े हुए हैं. संवेदना की तृष्णा और उसकी तृप्ति, जो चिरनवीन है, उसका अनुभव नहीं होने देती. संवेदना खरीदे जा सकते हैं. मगर सौंदर्य-प्रेम नहीं खरीदा जा सकता.
जब हम अपने मन एवं हृदय के छूंछेपन को जान जाते हैं और उत्तेजनाओं और संवेदनों के पीछे नहीं भागते, तब हम पूर्णतया खुले हुए एवं नितांत संवेदनशील होते हैं. तभी हमें सृजनात्मक आनंद मिल सकता है.
तकनीक को सीख लेने से हमें नौकरी भले मिल जाये, मगर वह हमें सृजनशील नहीं बना सकती, जबकि यदि हममें आनंद है, सृजन की ज्वाला है, तो वह अभिव्यक्ति का मार्ग स्वयं खोज लेंगी, तब अभिव्यक्ति की रीति सीखने की आवश्यकता नहीं रह जाती. जो सचमुच कविता रचना चाहता है, कविता रच डालता है. अगर उसके पास तकनीक है, तो अच्छी बात है. लेकिन यदि कहने को कुछ पास में नहीं है, तो कहने के साधन पर क्यों इतना जोर दिया जाये? जब हृदय में प्रेम भरा है, हम शब्द जोड़ने की फिक्र में नहीं पड़ते.
महान कलाकार एवं महान लेखक स्रष्टा हो सकते हैं, किंतु हम स्रष्टा नहीं, हम निरे दर्शक हैं. हम बड़ी संख्या में पुस्तकें पढ़ते हैं, दिव्य संगीत सुनते हैं, कलाकृतियों को देखते हैं, किंतु दिव्य की प्रत्यक्ष अनुभूति हमें कभी नहीं हो पाती. हमारी अनुभूति सदैव किसी कविता, किसी चित्र अथवा किसी संत के व्यक्तित्व के माध्यम से होती है. गाना है, तो हमारे हृदय में गीत होना चाहिए. किंतु गीत को गंवाकर हम गायक का पीछा करते हैं. किसी बिचौलिये के अभाव में हम खोये हुए-से हो जाते हैं, मगर कुछ भी खोज पाने से पहले हमें स्वयं खो जाना होगा ही. अन्वेषण सृजन का प्रारम्भ है, और सृजन के बिना चाहे हम कुछ भी कर लें, मनुष्य को शांति या सुख नहीं मिल सकता.
हम सोचते हैं कि कोई रीति, तकनीक या शैली सीखकर हम सुखपूर्वक एवं सृजन-शीलतापूर्वक जी सकते हैं, किंतु सृजनात्मक आनंद तो तभी आता है, जब हम में आंतरिक समृद्धि हो और यह किसी प्रणाली द्वारा नहीं प्राप्त की जा सकती. आत्मसुधार, जो ‘मुझे’ और ‘मेरे’ की सुरक्षा को पक्की करने का ही एक मार्ग है, सृजनशील नहीं होता और न वह सौंदर्यानुराग ही है. सृजनशीलता तब आती है, जब मन के तौर-तरीकों का और मन के रचे हुए अवरोधों का सतत मान होता रहे.
सृजन-स्वातंत्र्य अपने आपके ज्ञान से आता है, किंतु आपका ज्ञान प्रतिभा नहीं है. बिना किसी विशेष प्रतिभा के भी मनुष्य सृजनशील हो सकता है. सृजनशीलता एक अवस्था है, जिसमें ‘स्व’ के संघर्ष और संताप नहीं रह जाते, ऐसी अवस्था, जिसमें मन इच्छाओं की मांग और उनकी पूर्ति के प्रयत्न में फंसा हुआ नहीं होता.
सृजनशील होना सिर्फ कविताओं, मूर्तियों या बच्चों का उत्पादन करना ही नहीं है, सृजनशीलता का अर्थ ऐसी अवस्था में आना है, जिसमें सत्य स्फुरित हो सके. सत्य मनुष्य में तभी स्फुरित होता है, जब विचारों का पूरी तरह उपशम हो जाता है और विचार उपशम तभी होते हैं, जब ‘अहं’ न रह जाये. जब मन सिरजना बंद कर दे अर्थात अपनी ही व्याप्तियों में उलझा न रहे. जब शाम को ऊपर से लादने या उसका अभ्यास कराये बिना ही मन निश्चल हो, जब वह इसलिए निःशब्द हो कि आत्मा हलचलहीन है, तब भी सृजन होता है.
सौंदर्य-प्रेम गीत में, मुस्कान में, मौन में अभिव्यक्त हो सकता है, किंतु हममें से अधिकांश मौन होना चाहते ही नहीं. पक्षियों को, तिरते हुए बादलों को देखने के लिए हमारे पास समय ही नहीं होता, क्योंकि हम अपने ही कामों एवं भौतिक सुखों में व्यक्त रहते हैं.
जब हमारे हृदय में सौंदर्य है ही नहीं, तब हम अपने बच्चों को सजग एवं संवेदनशील होने में कैसे सहायता पहुंचा सकते हैं? असुंदर से बचते हुए हम सौंदर्य के प्रति संवेदनशील होने का प्रयास करते हैं, किंतु असुंदरता से बचना असंवेदनशीलता को जन्म देना है. यदि हम बच्चों में संवेदनशीलता विकसित करना चाहते हैं, तो पहले स्वयं हमें सौंदर्य एवं असुंदरता के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, और बच्चों में मानव-रचित सौंदर्य को ही नहीं, प्रकृति के सौंदर्य को भी निहारने का आनंद जगाने के हर अवसर का उपयोग करना चाहिए.
(मई 2071)
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