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सब्र और सहिष्णुता – नवनीत हिंदी https://www.navneethindi.com समय... साहित्य... संस्कृति... Fri, 31 Oct 2014 11:21:50 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.8 https://www.navneethindi.com/wp-content/uploads/2022/05/cropped-navneet-logo1-32x32.png सब्र और सहिष्णुता – नवनीत हिंदी https://www.navneethindi.com 32 32 सब्र और सहिष्णुता https://www.navneethindi.com/?p=1021 https://www.navneethindi.com/?p=1021#respond Fri, 31 Oct 2014 11:21:50 +0000 http://www.navneethindi.com/?p=1021 Read more →

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    ♦    कन्हैयालाल कपूर     

      महात्मा बुद्ध से लेकर महात्मा गांधी तक हर दार्शनिक ने सब्र और सहिष्णुता का उपदेश दिया है. उनकी आज्ञा सिर आंखों पर. लेकिन इसका क्या किया जाये कि कभी-कभी ऐसे व्यक्तियों से वास्ता पड़ता है कि सब्र और सहिष्णुता से काम लेना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जाता है. उर्दू शाइरी के महबूब को ही लीजिए. कमबख्त वादों के सब्ज बाग दिखाकर आशिकों को सब्र और सहिष्णुता की कड़ी परीक्षा में फंसाता रहता है, यहां तक कि उन्हें मजबूर होकर कहना पड़ता है-

तेरे वादे पर सितमगर कुछ और सब्र करते
अगर अपनी जिंदगी का हमें एतबार होता.

     यद्यपि हमारा पाला इस किस्म के संगदिल महबूब से कभी नहीं पड़ा, फिर भी कुछ दूसरे लोगों से ज़रूर मुलाकात हुई, जिन्होंने बार-बार हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि सब्र और सहनशीलता से काम लेना खून के घूंट पीकर रह जाने के समान है.

     हमारे एक मेहरबान दुर्भाग्य से कलाकार हैं. वे जब भी हमारे यहां पधारते हैं, हमें एशिया महाद्वीप का सबसे बड़ा चुगद साबित करने की कोशिश की करते हैं. उदाहरण के लिए, हमारी टाई की ओर इशारा करके फरमाते हैं- ‘हाय! गुलाबी रंग की टाई! गरीबपरवर, अगर अपने पर नहीं तो दोस्तों पर रहम किया होता! आपको कई बार समझाया उम्र के जिस हिस्से में से आप गुजर रहे हैं, उसका तकाजा है कि शोख रंगों से परहेज किया जाये. लेकिन आप भी बखुदा चिकना घड़ा हैं. नसीहत की बूंद पड़ी और फिसल गयी. मेहराबानी करके इसे फौरन उतार दीजिये और हल्के रंग की टाई पहनिये.’

     टाई के बाद आपकी नजर आतिशदान पर रखी हुई मूर्ति पर जा पड़ी और उन्होंने दांत पीसते हुए कहा- ‘लाहौल वला! यह किस मनहूस की बुत है? इसे आप कहा से उठा लाये हैं? तोबा! इसे तो देखते ही वहशत होने लगती है. हम तो कल्पना भी नहीं कर सकते, कोई शख्त इस कमरे में कैसे बैठ सकता है, जहां यह बुत रखी हो. वंदा-नवाज, आर्ट-वार्ट आपके बस की नहीं. आप बस छोकरों को पढ़ाया कीजिये.’

     एक दिन हमने ऐनक का फ्रेम बदला. दुर्भाग्य से आप शाम को हाजिर हो गये. ऐनक देखकर मानो उनके तन-बदन में आग लग गयी. कहने लगे- ‘हद हो गयी हिमाकत की. यकीन मानिये, यह ऐनक पहनकर आप प्रोफेसर के बजाय बैंक के चपरासी नजर आते हैं. खुदा के लिए इसे मेरे सामने मत पहनिये. उतारिये इसे फौरन…’

     हमने ऐनक उतारने में हील-हुज्जत की. उन्होंने लपककर ऐनक उतार ली और उसे फर्श पर पटकते हुए कहा- ‘हम जानते हैं, आपसे जब तक फौजदारी न की जाये, आप किसी की बात नहीं मानते.’ फ्रेम के साथ शीशे भी चकनाचूर हो गये. चालीस रुपये पर पानी फिर गया. लेकिन सब्र के सिवा और क्या उपाय था.

     हमारे एक अन्य कृपालु बुजुर्ग ऊंचा सुनते हैं. उनसे बातचीत करते समय सख्त कोफ्त उठानी पड़ती है. एक तो चीख-चीखकर बोलना पड़ता है. दूसरे उनसे कुछ भी कहें, वे कुछ और ही समझेंगे. एक दिन हमसे समय पूछा. हमने चिल्लाकर कहा- ‘दस बजकर पचीस मिनिट!’

     फरमाने लगे- ‘पच्चीस बजकर दस मिनिट! यह क्या कह रहे हैं आप?’

     हमने फिर ऊंची आवाज़ में कहा- ‘दस बजकर पचीस मिनिट.’

     ‘हां-हां! सुन लिया. लेकिन इतना तो आपको भी मालूम होगा कि दिन में चौबीस घंटे होते हैं. इसलिए पचीसवें घंटे के बजने का सवाल ही पैदा नहीं होता.’

     परसों आकर पूछने लगे- ‘सेहत का क्या हालत है?’   

     ‘पायरिया हो गया है.’

     ‘डायरिया! यह बड़ा नामुराद मर्ज़ है!’

     ‘डायरिया नहीं, पायरिया!’

     ‘हां-हां! डायरिया! यह मर्ज़ अक्सर खतरनाक साबित होता है.’

     एक और दिन हमें बिस्तर बांधते देखकर पूछा- ‘कहां की तैयारी है?’

     ‘जम्मू जा रहा हूं.’

     ‘बन्नू? पासपोर्ट बनवा लिया क्या?’

     ‘बन्नू नहीं, जम्मू!’

     ‘किस काम से जा रहे हो?’

     ‘एक महात्मा की बरसी है.’

     ‘मातमपुरसी! कौन मर गया है?’

     हमारे एक पड़ोसी को सूई से लेकर स्कूटर तक हर चीज़ उधार लेने की आदत है. सितम यह कि जो चीज मांगकर ले जाते हैं, उसे या तो वापस नहीं करते, या उस हालत में वापस करते हैं कि वह कोई दूसरी चीज़ लगती है. एक बार एक किताब मांग ले गये. कुछ दिन के बाद मुझे उसकी ज़रूरत पेश आयी. जब उनसे मांगी, तो बड़ी गंभीरता के साथ कहा- ‘अव्वल तो मैं यह किताब ले ही नहीं गया. अगर मैं ले गया था, तो ज़रूर वापस कर दी होगी. और अगर वापस नहीं की, तो मुझसे ज़रूर खो गयी है. बहरहाल आप नयी किताब खरीद लीजिए.’

     एक दिन साइकल मांगकर ले गये. जब वापस की, तो उसका हैंडल टेढ़ा, एक टायर फटा हुआ और लैंप गायब था. फरमाने लगे- ‘इस पर सवारी करने से पहले किसी मिस्री से ठीक करवा लीजियेगा. वरना एक्सिडेंट हो जायेगा.’

     एक अन्य महाशय हैं, जो बड़ी नियमितता से हमारे यहां अखबार पढ़ने आते हैं. सवाल-जवाब करने की आदत है. इधर सुर्खी पढ़ा, उधर हम पर सवालों की बौछार शुरू कर दी- ‘क्यों साहब! यह वियतनाम में युद्ध क्यों हो रहा है? यह सर्दी की लहर क्यों आती है? एल.बी.डब्लू. के क्या अर्थ हैं? जनसंख्या-गणना का क्या लाभ है? मैकमोहन लाइन को मैकमोहन लाइन क्यों कहते है? यह कृत्रिम नक्षत्र धरती के गिर्द किस रफ्तार से घूमते हैं?’

     लुत्फ यह कि जब किसी बात का स्पष्टीकरण किया जाये, तो उस पर फिर जिरह करने लगते हैं. एक दिन उन्हें जनगणना के लाभ समझाये. कहने लगे- ‘अगर यह इतनी लाभदायक चीज है, जितनी आप बता रहे हैं, तो हर साल क्यों नहीं की जाती?’

     एक अन्य अवसर पर उन्हें पंचवर्षीय योजना के बारे में जानकारी दी. अंत में उन्होंने कहा- ‘आपने सब कुछ तो बता दिया, लेकिन यह बताना भूल गये कि पंचवर्षीय योजना को पंचवर्षीय योजना क्यों कहते हैं?’

     अब आप ही बताइये कि अगर आदमी महात्मा बुद्ध न हो, न महात्मा गांधी, और उसका वास्ता इस किस्म के व्यक्तियों के साथ पड़ जाये, तो वह कैसे सब्र और सहिष्णुता से काम ले सकता है?

     हमें तो सब्र और सहिष्णुता के बजाय प्रायः उस पादरी का किस्सा याद आ जाता है, जिसने दोस्तों के समझाने पर गाली देने से तोबा कर ली थी. लेकिन जब उसकी पतलून पर एक महिला से गर्म चाय का प्याला गिर पड़ा था, तो उसने उठकर कहा था-

     ‘भाइयों और बहनों! मैं गाली देने से तोबा कर चुका हूं, लेकिन क्या आपमें से कोई व्यक्ति इस समय वे शब्द कहेगा कि जो इस प्रकार के अवसर पर कहे जाते हैं.’

(मार्च 1971)

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