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शेख-पीर सत्तार – नवनीत हिंदी https://www.navneethindi.com समय... साहित्य... संस्कृति... Mon, 03 Nov 2014 05:55:08 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.8.1 https://www.navneethindi.com/wp-content/uploads/2022/05/cropped-navneet-logo1-32x32.png शेख-पीर सत्तार – नवनीत हिंदी https://www.navneethindi.com 32 32 चिरागों की दुकान https://www.navneethindi.com/?p=1099 https://www.navneethindi.com/?p=1099#respond Mon, 03 Nov 2014 05:54:28 +0000 http://www.navneethindi.com/?p=1099 Read more →

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♦  प्रभाकर गुप्त     

     सत्रहवीं सदी के सूफी संत शेख-पीर सत्तार जिनकी दरगाह मेरठ में है, एक किस्सा सुनाया करते थे.

    एक रात किसी सूनी गली में दो राहगीर मिले. उनमें परस्पर यह वार्त्तालाप हुआ-  

पहला- यहीं कहीं एक दुकान है, जिसे ‘चिरागों की दुकान’ कहते हैं, मैं उसे ढूंढ़ रहा हूं.

दूसरा- मैं यहीं का रहने वाला हूं, आपको वहां पहुंचा दूंगा.

पहला- नहीं, मैं खुद ही ढूंढ़ लूंगा. मुझे रास्ता बताया गया है और मैंने सब लिख रखा है.

दूसरा- फिर भी स्थानीय आदमी से राह पूछ लेना अच्छा है, खासकर इसलिए कि आगे का रास्ता ज़रा कठिन है.

पहला- नहीं, मुझे जो कुछ बताया गया है, उस पर मुझे पूरा भरोसा है और उसी के बल पर मैं यहां तक पहुंच सका हूं. यों भी मैं नहीं जानता कि मैं दूसरे किसी पर विश्वास कर सकता हूं, या नहीं.

दूसरा- यानी पहली बार जिसने तुम्हें सूचना दी, उसे तो तुमने मान लिया, मगर तुम्हें यह पता लगाने का तरीका उसने नहीं बताया कि किस पर विश्वास किया जा सकता है?

पहला- हां, यही बात है.

दूसरा- क्या मैं पूछ सकता हूं कि तुम चिरागों की दुकान क्यों ढूंढ़ रहे हो?

पहला- क्योंकि मुझे बहुत विश्वसनीय रूप से बताया गया है कि वहां ऐसी कोई चीज बिकती है, जिससे अंधेरे में भी पढ़ा जा सकता है.

दूसरा- ठीक ही कहते हो. मगर उसके साथ एक शर्त है, साथ ही एक सूचना भी. शर्त यह है कि चिराग से वही पढ़ सकेगा, जिसे पढ़ना आता हो.

पहला- यह बात तो तुम नहीं सिद्ध कर सकते! पर सूचना क्या है?

दूसरा- सूचना यह है कि चिरागों की दुकान तो वहीं है, मगर चिराग वहां से हटाये जा चुके हैं.

पहला- मैं क्या जानूं. चिराग क्या है, मैं नहीं जानता. मुझे तो दुकान खोजनी है. चिराग वहीं होंगे, तभी तो उसे ‘चिरागों की दुकान’ कहा जाता है.

दूसरा- तो ढूंढ़ते रहो. लोग तुम्हें मूर्ख समझेंगे.

पहला- तुम्हें मूर्ख कहने वाले भी बहुत से लोग निकल आयेंगे. या शायद तुम मुर्ख नहीं हो. बल्कि तुम्हारी और कोइ नीयत है. शायद तुम मुझे अपने किसी दोस्त की दुकान पर भेजना चाहते हो, जो चिराग बेचता है. या तुम चाहते हो कि मुझे चिराग मिले ही नहीं. और यह कहकर पहला राहगीर दूसरे राहगीर से मुंह फेरकर चल दिया.

    ज्ञान की, सत्य की खोज में बहुधा क्या यही नहीं होता? जो भी पहली बात हमारे दिमाग में भर दी जाती है, वह चित्त को इस तरह ग्रस लेती है कि ज्ञान और सत्य के बारे में कुछ अजीब कल्पनाएं करके उनसे बुरी तरह चिपक जाते हैं. उन कल्पनाओं की प्रामाणिकता, विश्वसनीयता को परखने की शक्ति न तो हमारे पास होती है, न उसे हम विकसित करना ही चाहते हैं. फलतः हर नया अनुभव, हर नया संकेत, हर नयी जानकारी, हमारे लिए संदिग्ध, दुर्भावनामूलक और अनुपयोगी हो जाती है. और सत्य की खोज के नाम पर हम अपने अज्ञान और अपने असत्य को छाती से चिपकाये अंधकार से अंधकार में भटकते रहते हैं.

(मई  2071) 

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