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कविता क्या है – नवनीत हिंदी https://www.navneethindi.com समय... साहित्य... संस्कृति... Mon, 05 May 2014 04:48:45 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.8 https://www.navneethindi.com/wp-content/uploads/2022/05/cropped-navneet-logo1-32x32.png कविता क्या है – नवनीत हिंदी https://www.navneethindi.com 32 32 कविता क्या है https://www.navneethindi.com/?p=453 https://www.navneethindi.com/?p=453#respond Mon, 05 May 2014 04:46:37 +0000 http://www.navneethindi.com/?p=453 Read more →

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     बालपन से ही मैं कुछ ऐसा अनुभव करता था कि शारीरिक या ऐन्द्रिक साधनों और माध्यमों से जो कुछ मैं अनुभव करता हूं, उसके अनुसार हर वस्तु, हर घटना, भौतिक संसार की हर झलक एक आंतरिकता और रहस्यमयता रखती है, हर चीज़ अपनी सीमाओं में रहते हुए भी उन सीमाओं से आगे निकल जाती है.

    घरेलू जीवन और उससे सम्बंधित साधारण-से-साधारण चीज़ें और बातें और परिचित दृश्य, नदी-नाले, फलों के बाग, हरे-भरे खेत और खिलौने जो कुछ भी मैं छूता था, देखता था, सुनता था और जिनका मैं अनुभव करता था, उनमें एक आंतरिक जीवन है और यही उनका बहुमूल्य सत्य है- यह मैं अनुभव करता था.

    भौतिक संसार की रहस्यमयता बार-बार मेरी चेतना पर छा जाया करती थी. मुझे भौतिक संसार में ही भौतिक संसार की दिव्यता का आभास होता था और यह आभास मुझे किसी बाहरी, अलग-थलग ईश्वर पर विश्वास लाने की ज़रूरत से क्रमशः मुक्त करता जाता था. संसार का काव्यात्मक अनुभव, संसार की दिव्यता और उसकी ऐश्वर्यमय सत्ता का साक्षात्कार है.

    जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती जाती थी और मैं होश सम्भालता जाता था, मैं आत्मिकता में पगी भौतिका, स्पिरिच्युअलाइज्ड मैटीरियलिज्म को अपने अंदर विकसित होता हुआ देखता था. मुझे ऐसा लगा कि मेरा यह अनुभव केवल जाती या व्यक्तिगत अनुभव नहीं है, बल्कि हिंदू संस्कृति का आधार यही अनुभव है.

    प्रकृति के कण-कण से खून का रिश्ता महसूस करना, प्रत्येक वस्तु से अपनी एकता का अनुभव करना, और इस अनुभव से जिस शांति और आनंद, जिस अपनत्व को हम महसूस करते हैं- वह दृष्टि भारतीय संस्कृति के अमर और सुनहरे जमाने की सबसे बड़ी देन है. अलगाव या गैरीयत हमारी आत्मा और चेतना को दरिद्र बना देती है.

    इसी रहस्य को भारतीय संस्कृति में पाकर जर्मन विचारक और दार्शनिक शोपनहार कह उठा था कि उपनिषदों से मेरे जीवन को बहुत अधिक सांत्वना मिली, और मेरी मृत्यु के क्षण में भी अत्यंत सांत्वना मिलेगी.

    हिंदू संस्कृति की यह खोज हिंदू समाज में जन्म लेनेवालों तक सीमित नहीं रही. प्रत्येक युग में दूसरी जातियों और दूरे देशों की सिद्ध और मुक्त आत्माओं ने भी बिलकुल यही अनुभव किया. मैं यह अनुभव करने लगा कि केवल हिंदू समाज ही एक खुला हुआ समाज है- चाहे इसका कोई अंग कृषक हो, व्यापारी हो, पूंजीपति हो, या समाजवादी हो. दूसरी संस्कृति हमारी आत्मा को, हमारी दृष्टि को, हमारी हमदर्दियों को तंग या संकीर्ण बना देती हैं और मानव-परिवार को विभाजित करती हैं. केवल हिंदू संस्कृति मत-मतांतरों की जकड़बंदियों से छुटकारा देती है.

    विश्व-साहित्य का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण हिस्सा मानवीय है, जातीय या साप्रदायिक नहीं है. हिंदू होने के नाते विश्व का महान साहित्य पढ़ते हुए हम यह अनुभव कर ही नहीं सकते कि लेखक अहिंदू है- चाहे वह लेखक होमर हो, वर्जिल हो, फिरदौसी हो, शेक्सपियर हो या कोई दूसरा ही लोकप्रिय कवि या साहित्यकार हो. कविता का लक्षण या उद्देश्य है- हमें मानवीय संस्कृति देना. कविता मानव-राष्ट्र की स्थापना है, हिंदूराष्ट्र की स्थापना नहीं है.

    कवि की हैसियत से मैंने अपना काम कच्ची उम्र में नहीं, बल्कि प्रौढ़ावस्था में शुरू किया. इस बीच मेरा जीवन उजड़ चुका था और बरबाद हो चुका था. इस नाज़ुक वक्त में कविता आरम्भ करते हुए मुझे इस समस्या का सामना करना पड़ा कि जिस शांति और आनंद की ओर मैंने इशारा किया है, उसका समझौता अपने दुखमय जीवन से कैसे करूं. दुख को सुख का संदेश कैसे बनाऊ, यह काम था यह सिलसिला बहुत धीरे-धीरे कायम हो सका.

  •     न पूछ कैसे किये हज्म जीस्त के दुख-सुख
  •     कोई उतार ले इनको तो हड्डियां उड़ जायें
  •     जो जहरे हलाहल है अमृत भी वही लेकिन
  •     मालूम नहीं तुझको अंदाज हैं पानी के।।

 

    प्रेम को साहित्य का स्वेच्छाचारी, क्रूर या सर्वशक्तिमान् शासक कहा गया है. मेरा पहला काम तो इस देव या दैत्य से समझौता करना था. इस जालिम ने मेरे जीवन पर जो-जो चोटें की थी या करता जा रहा था, उन्हें मरहम में बदल देना था.

    मनुष्य की अंतरात्मा जब भीष्म पितामह की तरह घायल हो जाती है, तब शांतिपर्व की बारी आती है. कविता के संसार में धीरे-धीरे मेरा प्रेम-काव्य शांति और सांत्वना प्रदान करने का साधन माना जाने लगा.

    हर प्रेम-कथा एक दुखांत नाटक होती है. प्रेम की पीड़ाओं को एक ऐसी हालत में बदल देना, जो पीड़ा और दुख की गाथा से ऊपर चला जाये और उसे झुठलाया भी न जाये, भौतिक प्रेम को स्वर्गीय प्रेम बनाना बड़ी कठिन चढ़ाइयों का चढ़ना है. ऐसा करने में लोहे गल जाते हैं. अशांति की सीमाएं पार करने पर ही शांति की सीमाएं आरम्भ होती हैं. धर्मराज युधिष्ठिर को भी देवदूत ने पहले नरक के ही दर्शन कराये थे.

    प्रकृति, बाल-जीवन, नारीत्व, घरेलू जीवन, समाजिक जीवन और जीवन के मर्म धीरे-धीरे मेरी कविता के विषय बनते गये.

    मानव की गाथा, सभ्यता की कहानी, इतिहास की महान क्रांतियां भी मेरी कविता में वाणी पाने लगीं और मुखरित होने लगीं. इतिहास की शक्तियां मेरी रचनात्मक शक्तियों को तेज़ी से अपनी ओर खींचने लगी.

    काव्य-रचना व्यक्तित्व दुख-सुख की सूची तैयार करना नहीं है, बल्कि मानवीय दुख-सुख की व्याख्या है.

( फरवरी 1971 )

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