सभ्यता की एक महान समस्या कचरा है. कचरा सर्वत्र है. वह खेत में है और कारखानों में है. जब खेतों में प्राकृतिक खाद पड़ती थी, तब खेत उसे सोख लेते थे. लेकिन आजकल खेत में रासायनिक खाद नाईट्रेट और फॉस्फेट डाली जाती है, जो नालियों और नहरों में घुल कर बड़े जलाशयों में जाती है. और सारा पानी काई की बहार से मर जाता है. पश्चिम के कुछ तालाब ऐसी काई से नष्ट हो गये हैं. फिर कीट-नाशक दवाइयां हैं. और कोई नहीं जानता कि पृथ्वी पर ज़हर की एक परत बिछाने का क्या नतीजा होगा?
उद्योगों का तो कहना ही क्या. हर कारखाना आजकल कचरा पैदा करता है, जिसे फेंकना एक समस्या बन गया है. उद्योग का कचरा प्रायः नदियों में फेंका जाता है, जिससे नदियां औद्योगिक गटर बन गयी हैं. अमेरिका ने कारखाने की चिमनियों का धुआं छानकर फेंकना शुरू किया है, लेकिन काला धुआं अब अदृश्य ज़हरीली गैसों के रूप में निकलता है और फेफड़ों के अंदर घुसता है. गटरों की गंदगी को साफ़ करने के उसने कारखाने बनाये हैं, लेकिन फिर भी कई रसायन नदियों में बह जाते हैं. मोटरों का धुआं लगातार शहर की हवा को दूषित कर रहा है और एक वैज्ञानिक का कहना है कि सम्भवतः अगली पीढ़ी को सूरज दिखाई नहीं देगा. ऐसे दिन तो अमेरिका में आते हैं, जब धुएं और कुहरे का एक काला पर्दा शहरों पर बिछ जाता है, जो सूरज को छिपा लेता है. कुछ लोगों ने अंदाज़ लगाया है कि कुहरे और कार्बन डाई ऑक्साइड का यह मिश्रण ध्रुवों की बर्फ पिघला देगा और स्वयं समुद्र 300 फीट ऊपर चढ़ जाएगा. और अब जम्बो जेट विमानों का जमाना आने वाला है, जो ऊपरी वातावरण में ज़हर की लकीरें बनाते हुए गुजरेंगे. जितनी अधिक सभ्यता, उतने अधिक डिब्बे और खोके और बोतलें. कहते हैं हर अमेरिकी आदमी एक दिन में ढाई सेर कचरा पैदा करता है, जिसे न जला सकते हैं, न गाड़ सकते हैं. मोटरें स्वयं वहां पर कचरा हैं.
वातावरण के खिलाफ़ मनुष्य का पहला महायुद्ध जब छिड़ा तो जंगल खेत बन गये और सारे पशु मनुष्य की दया के मोहताज हो गये. लेकिन अब औद्योगिक क्रांति के बाद मनुष्य ने दूसरा महायुद्ध छेड़ा है, जिसमें वह ज़मीन, हवा और पानी तीनों को मनमाने ढंग से दूषित कर रहा है. इन दो महायुद्धों का दूरगामी परिणाम क्या होगा, यह कोई नहीं कह सकता. पशु-पक्षियों का उन्मूलन करके तो आदमी ने डार्विन के विकासवाद का सारा खेल ही बिगाड़ दिया है. अगर किसी दुर्घटना से पृथ्वी पर मनुष्य जाति का विलोप हो जाए, तो जगत-नियंता परमात्मा के सामने शायद इतने वैकल्पिक प्राणी ही नहीं बचेंगे कि वह विकास के नृत्य को आगे बढ़ा सके. विकासवाद में यह होता अवश्य है कि सक्षम जंतु अक्षम प्राणियों का सफाया कर देते हैं. लेकिन जानवरों में क्षमता प्रकृति की देन है. चीते ने किसी दर्जी के यहां जाकर चितकबरा सूट नहीं बनवाया, जिसे पहनकर वह जंगल में छिप सके. उसकी चमड़ी उसकी बुद्धि में नहीं उपजी है. कहां से उपजी है, हम नहीं कह सकते. लेकिन जंग में शिकार करने के लिए आदमी ज़रूर दर्जी से कपड़े सिलवाता है. वह कपड़े ही नहीं, दांत, हाथ, गुर्दे, हृदय, सब कुछ सिलवा सकता है. बुद्धि की ये विजयें बहुत उम्दा हैं. लेकिन प्रश्न यह है कि मनुष्य की बुद्धि ज्यादा ऊंची है या विकासवाद की वह अंधी ताकत ज्यादा ऊंची है, जिसने मनुष्य को वह शरीर दिया, वे इंद्रियां दीं, वह बुद्धि दी, जिनके बूते पर वह विकासवाद का खेल उलट सका? प्रश्न यह भी है कि जब दर्जी, डॉक्टर और एयर कंडीशनर नहीं होंगे और कभी आदमी को चितकबरी चमड़ी की ज़रूरत पड़ेगी, तब क्या वह अंधी प्रेरणा हममें बाकी होगी, जो हमें वातानुकूलित (याने प्रकृति के अनुकूल) बना सके? और यदि उस अंधी ताकत का मनुष्य में जीवित रहना ज़रूरी है, तो अन्य सभी जानवरों में क्यों नहीं? सक्षमता और अक्षमता के तोल में क्या हम बुद्धि को तराजू पर रख सकते हैं? क्या ऐसा विश्वास स्वागत योग्य है, जिसमें हर पशु-पक्षी का कोटा मनुष्य की ज़रूरतों के अनुसार तय हो, फिर वे चाहे चूहे हों या बंदर हों या कीड़े हों या
शेर हों?
लेकिन ये प्रश्न और भी तीखे हो जाते हैं, जब आदमी ज़मीन, हवा और पानी को अपने खातिर बदलने लगा. इस सारी प्रक्रिया की शुरूआत जंगल कटने से हुई. सारी पृथ्वी आज या तो मनुष्य की मांद है या भोजनागार है. जब जंगल थे, तब वनस्पति जगत में समय का पैमाना बहुत धीमा और लम्बा था. एक-एक पेड़ हजार वर्षों तक खड़ा रहता, आंधी पानी सहता और हर साल नये पत्ते लेकर जवान हो जाता. आदमी के पहले योग किसी को आता था तो पेड़ों को आता था. योग उनके लिए विद्या नहीं था, सहज वृत्ति था. पता नहीं विकास का देवता पेड़ों के माध्यम से कौन-सा प्रयोग कर रहा था, कौन-सी सम्भावना की वह तैयारी कर रहा था.
आदमी उस प्रयोगशाला में घुसा और उसने सारे यंत्र तितर-बितर कर दिये. आदमी का समय का पैमाना छोटा और उसकी भूख विशाल थी. उसने फसलें पैदा कीं, जो छह-छह महीने में मरने-जीने लगीं. कृत्रिम गर्भाधान और त्वरित प्रसव का ऐसा सिलसिला चला कि बेचारी वनस्पतियों को लगा होगा कि आदमी ने समय के पहिये का हत्था पकड़ लिया है और उसे ज़ोर-ज़ोर से घुमा रहा है. और अब हवा और पानी की बारी है. समुद्र भी कचरा फेंकने का विशाल गड्ढा बन चुका है. कहते हैं 5 लाख रसायन उसमें हर साल फेंके जाते हैं. पेट्रोल से निकलने वाला ढाई लाख टन सीसा हवा से समुद्र में गिरता है. कीटनाशक ज़हर समुद्र में जाते हैं. सेनाएं जो युद्ध रसायन बनाती हैं, उनकी कचरा पेटी समुद्र है.
आदमी अधिक आराम के लिए (यानी अनुकूलता के लिए) मशीन बनाता है, लेकिन वे मशीनें वातावरण को कुछ और प्रतिकूल कर देती हैं. तूलिका लेकर हम चित्र बनाते हैं. चित्र तो बन जाता है, लेकिन रंग में ऐसे तेजाब हैं कि शनैः शनैः केनवास ही फट जाता है. हम उर्वरक छिड़कते हैं तो ज़मीन बांझ हो जाती है. क्या न्यूटन का सिद्धांत सभ्यता पर भी लागू होता है जो कहता है कि क्रिया और प्रतिक्रिया दोनों बराबर और विपरीत होंगी? जितने ऊंचे हम उठ रहे हैं, उतना गहरा गड्ढा क्या हम अपने पतन के लिए भी खोद रहे हैं?
विकासवाद क्या है? चर का अचर के साथ तालमेल. चर जगत को तो आदमी सचमुच चर गया. लेकिन अब वह अचर को भी बदल रहा है. जो ज़मीन, हवा और पानी विकासवाद की पृष्ठभूमि थी, संदर्भ शर्त थी, वही अब बदल रही है. भविष्य के प्राणियों के लिए आवश्यक होगा कि वे प्रकृति के अनुकूल नहीं, बल्कि मनुष्य द्वारा निर्मित विकृति के अनुकूल हों. आदमी वह जानवर है जिसने ईश्वर के सफेद केनवास को काला कर दिया है और इस काले केनवास पर भी चित्र बनाने की इजाज़त आदमी के सिवा किसी को नहीं है. उसने खिलाड़ी खत्म कर दिये और खेल की ज़मीन भी खोद दी. उसने ईश्वर का स्थान ले लिया है, क्योंकि ईश्वर का प्रयोगशाला भवन भी अब नष्ट है और उसके यंत्र भी.
क्या दुनिया का इतना काला चित्र खींचना सही है? शायद न हो. लेकिन समय-समय पर ऐसी घटनाएं हो जाती हैं, जो हमें सभ्यता के कचरे की याद दिलाती हैं. ऐसी ही एक भयावह घटना तब घटी थी जब पश्चिम यूरोप की सबसे बड़ी मछलियां पेट ऊंचा करके मर गयीं और राइन के किनारे जा लगीं. शुरू में तो अधिकारियों ने ध्यान नहीं दिया. लेकिन दो-तीन दिन में सारी नदी मछलियों का कब्रिस्तान बन गयी. साढ़े सात हज़ार टन सड़ी हुई मछलियां पूरी नदी को सड़ाने लगीं. वैज्ञानिक इस ज़हर को पहचानने में भिड़ गये, लेकिन कुछ दिन किसी को समझ में नहीं आया कि माजरा क्या है. अखबारों ने छापा कि हिटलर के सेनापति ने शायद ज़हरीली गैस के कनस्तर नदी में कहीं छिपा दिये थे, जो अब फट रहे हैं. सारे देश में इसी आशंका से तहलका मच गया, क्योंकि युद्ध रसायन से घातक कोई चीज़ नहीं हो सकती. लेकिन जर्मनी से ज्यादा डर हालैंड को लगा. हालैंड अनगिनत नहरों का देश है, जिनमें राइन का पानी जाता है. राजधानी एंस्टरडम के आधे लोग राइन का पानी पीते हैं. हालैंड ने तुरंत नहरों के दरवाजे लगा लिये और राइन के पानी के बजाय दूसरे संकटकालीन इंतजाम किये.
हालैंड के वैज्ञानिकों ने ही पता लगाया कि सल्फ्यूरिक एसिड से बनी एक कीटनाशक दवा राइन में घुल गयी थी, जो मनुष्यों के लिए अपेक्षया निरापद होते हुए भी मछलियों के लिए घातक थी. इसका 200 पौंड का सिर्फ एक बोरा सारी नदी की मछलियों का सफाया करने के लिए पर्याप्त था, क्योंकि पानी के एक अरब हिस्से में यदि इस दवा का एक हिस्सा भी हो तो मछली मर सकती थी. अंदाज़ लगाया गया कि नदी में चल रही किसी नाव से इस दवा का थैला अचानक गिर गया और नदी दूषित हो गयी. कहते हैं कि नदी को अब पुनः मछलियों से आबाद करने में चार साल लगेंगे.
यह घटना नाटकीय थी, इसलिए सारे यूरोप का ध्यान उस पर गया. लेकिन राइन की मछलियां जिस पानी में रहती हैं, उसमें सात देशों के कारखाने कचरा उंडेलते हैं. इस कचरे से वे मरती नहीं. किंतु उसके जीवन पर इसका दूरगामी असर क्या होगा, यह कौन जानता है? दूषित वातावरण का आदमी पर तथा प्रकृति के संतुलन पर क्या असर होगा, यह कौन जानता है?
भविष्य में वन महोत्सव या वन्य पशु सप्ताह मनाने से आदमी का काम नहीं चलेगा. उसे एक वातावरण बचाओ अभियान चलाना पड़ेगा. राष्ट्र संघ के महामंत्री उंथांत ने कहा भी था कि समूचा विश्व वातावरण के संकट का सामना कर रहा है, जिसका यदि हल नहीं हुआ, तो हम विश्वव्यापी आत्महत्या की ओर कदम बढ़ाएंगे. अमेरिका में प्रस्ताव रखा जा रहा है कि एक राष्ट्रीय वातावरण- परिषद बने, जिसकी इजाज़त के बिना न कोई कारखाना खुले, न कचरा फेंका जाए, न वैज्ञानिक आविष्कार हों. विज्ञान अगर इस पृथ्वी को चर कर बंजर और बियाबान बना देगा, तो हमें चांद पर जाने की ज़रूरत नहीं होगी, क्योंकि यह धरती ही एक मृत नक्षत्र बन जाएगी, जहां सब कुछ कृत्रिम रूप से बनाना होगा.
जब गरीबी-अमीरी की लड़ाई खत्म हो जाएगी, तब यही लड़ाई बचेगी. कार्ल मार्क्स और पूंजीवाद की जगह निसर्ग और विज्ञान के द्वंद्व की राजनीति शुरू होगी.
]]>मुद्दत से रोटी कपड़ा मकान, इन्हीं बुनियादी ज़रूरतों पर इंसानी ज़िंदगी मज़े से टिकतीआयी है. बची-खुची ज़रूरतें किस्से-कहानी, भजन-कीर्तन से पूरी होती रही हैं. अब इंसान की ज़िंदगी खुद उसकी पॉकिट में आ गयी है, बदौलत ऑल इन वन मोबाइल! खाते-पीते तबके में आज कितने आदमी ऐसे मिलेंगे जिनकी जेब में मोबाइल फोन न हो, बल्कि यह पूछें कि किस आदमी के पास बाकी पांच-दस इलेक्ट्रॉनिक गैजट नहीं हैं, मसलन टीवी, फ्रिज, रेडिओ, ट्रांजिस्टर, वाशिंग मशीन, रसोई-उपकरण, हेयर-ड्रायर, एसी, आई-पॉड, लैपटॉप, कम्प्यूटर, फैक्स मशीन, इलेक्ट्रॉनिक खिलौने, श्रवण-यंत्र वगैरह, यानी एक लम्बी फेहरिस्त.
आज की तारीख में तमाम लोगों के पास पचासों ई-गैजट या जुगतें मौजूद होती हैं, कुछ इस्तेमाल के, कुछ दिखावे के और फिर फेंकने के लिए, जिनका गंतव्य कबाड़खाना हो सकता है. जितनी कमाई, जितना लालच उतने ही ज्यादा ई-गैजट लिये जाते हैं! इसमें हर्ज कुछ भी नहीं, बशर्ते अपनी इकलौती साझी पृथ्वी पर इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट या ई-कचरा फैलाने के गुनहगार हम न बनें!
इस बहुरंगी दुनिया में इलेक्ट्रॉनिकी मानव-मित्र साबित हुई है. उद्योग, संचार, चिकित्सा, खेल, मनोरंजन, शिक्षा, संस्कृति वगैरह, बल्कि अन्य सभी क्षेत्रों में भी ई-जुगतों के बगैर सही ढंग से काम चलाने की आज कल्पना भी नहीं कर सकते. आई टी, कम्प्यूटर के अभूतपूर्व विस्तार और नयी ईजादों के चलते ई-उपकरणों के उत्पादन में भारी एड़ लगी है. नया खरीदो, पुराना फेंको का क्रम जारी है. साथ ही जो ऐसे उपकरण खराब या मरम्मत के अयोग्य, अप्रचलित, अनुपयोगी या गलत जगह पर हैं, वे सभी ई-कचरा की श्रेणी में आते हैं. आज ई-कचरा एक विकृति ही नहीं है, यह भीषण रूप पा चुका है जो खतरे की दस्तक दे रहा है, क्योंकि इसका सुरक्षित निपटान या निस्तारण एक बड़ी समस्या है. यह कचरा पर्यावरण-प्रदूषक, गम्भीर बीमारियों का स्रोत और आनुवंशिक क्षति आदि का कारण बनता जा रहा है. इसकी छंटाई, निस्तारण या पुनर्चक्रण में लगे लाखों मज़दूर जाने-अनजाने विषैले रसायनों या रेडियोधर्मी विकिरण की चपेट में आ रहे हैं.
भारत में ई-कचरा बहुत चर्चित ज़रूर हुआ है किंतु फिलहाल इसकी तथ्यात्मक जागरुकता आम जनता तक नहीं पहुंच पायी है. कभी-कभार कबाड़खाने में रखे ई-कचरे के अंदर कोई विस्फोट या रेडियोधर्मी दुर्घटना होती है तो भी इसे इक्का-दुक्का हादसा मानकर जनता ई-कचरे की पूरी समस्या से वाकिफ होने से रह जाती है. दरअसल हमारे यहां ई-कचरा समस्या के कुछ अपने ही विशेष कारण हैं. एक लम्बे समय से जाने-अनजाने भारत कुछ अन्य विकासशील देशों सहित पश्चिमी देशों में अप्रचलित हुए या चीन में सस्ते में बने निम्न गुणवत्ता के ई-उपकरणों के कूड़ों की जगह बनता जा रहा है. गैर सरकारी संगठन टाक्सिक-लिंक के अनुसार हाल के वर्षों में 80 फीसदी तक ई-कचरा भारत और इसके पड़ोसी देशों को निर्यात किया गया था. जर्मनी, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, नीदरलैंड आदि देश भी अपने ई-कचरे को दूसरे देशों के हवाले करते रहे हैं. दुर्भाग्य यह है कि आमदनी की खातिर भारत में ई-कचरे का कुछ निजी इकाइयों द्वारा अनधिकृत रूप से आयात किया जाता
रहा है.
ई-कचरे में सोना, चांदी, प्लेटिनम, तांबा आदि कीमती धातुओं के अलावा विषाक्त पारा, सीसा, आर्सेनिक आदि और क्रोमियम, सेलेनियम, कैडमियम, कोबाल्ट वगैरह मौजूद होते हैं और साथ ही नाभिकीय और रेडियोधर्मी अपशिष्ट भी. निस्तारण यदि तकनीकी दक्षता के बगैर हुआ तो घूम-फिर कर यह विषाक्त पदार्थ मृदा, जल, हवा और खाद्य को संदूषित करते हैं. कचरे के निस्तारण में लगे कर्मी तो सीधे कुप्रभावित होते हैं और खासकर त्वचा के क्षय कैंसर और स्नायु विकृतियों के शिकार होते हैं.
ई-कचरे के भयानक दुष्परिणामों का जायजा इस हकीकत से ले सकते हैं कि दुनिया के 60 करोड़ से ज्यादा कम्प्यूटरों में तकरीबन 300 करोड़ किलोग्राम प्लास्टिक, 3-4 लाख किलोग्राम. पारा, 75 करोड़ किलोग्राम सीसा और बाकी 25-30 लाख किलोग्राम क्रोमियम, कैडमियम आदि हो सकते हैं. यद्यपि कुछ नये उपकरणों में इनकी मात्रा को घटाने की कोशिशें की जा रही हैं, पर समस्या की गम्भीरता कम होने के बजाए बढ़ती जा रही है.
उपभोक्तावाद के दबाव और बाज़ार में प्रतिस्पर्धा के चलते ई-उपकरणों के नये-नये माडलों का बहुजनन सारी दुनिया में कायम है. सीसा-रहित सोल्डरिंग, कैथोड रे मॉनीटर की जगह एल सी डी मॉनीटर आदि नयी तकनीकों से बने बेहतर उपकरणों के चलते पुराने उपकरणों को बढ़ती तादाद में कबाड़खाने का रास्ता दिखाया गया है.
मोबाइल फोन ई-कचरा का एक बड़ा हिस्सा है. अनुमानतः हर महीने दो करोड़ से भी ज्यादा मोबाइल हैंडसेट बेकार हो जाते हैं जिनमें भारत की भागीदारी जनसंख्या के अनुपात में सर्वाधिक है. दुनिया में हर वर्ष मोबाइल की खरीददारी में दोगुना तक इजाफा होता है. सिर्फ अमेरिका में हर साल 15 लाख टन ई-कचरा उत्पन्न होता है. भारत में घरेलू इस्तेमाल कर्मियों के फ्लोरसेंट बल्ब, ट्यूब आदि सर्वाधिक संस्था में कचरे में फेंके जाते हैं. असंगठित क्षेत्र के द्वारा इनके पुनर्चक्रण हेतु शीशे की ट्यूब को धोया-सुखाया जाता है, धातु की कैप हटायी जाती है और इसकी मरम्मत की जाती है, ट्यूब को नया स्वरूप दिया जाता है और उसमें कम दबाव पर पारे की गैस भरी जाती है. सुरक्षा के अभाव में कर्मी विषाक्तता के शिकार होते हैं और पर्यावरण प्रदूषित होता है.
मुम्बई में धारावी, दिल्ली में ओखला, गुजरात में राजकोट आदि स्थानों में ई-कचरे का निस्तारण प्रायः असंगठित क्षेत्र में होता है. यदि चाहें कि ई-कचरे को ज़मीन में गाड़कर छुटकारा पा लें तो यह गलत तरीका होगा, क्योंकि यह नष्ट तो होता नहीं और भूमिगत जल को प्रदूषित करता है. साथ ही मिट्टी की उर्वरक क्षमता भी नष्ट होती है. ई-कचरे को तेल में डुबाकर सोना, चांदी, प्लेटिनम, तांबा आदि अलग करने के प्रयास किये जाते हैं. इस दौरान ज़हरीली गैसें बनती हैं जिससे पर्यावरण विषाक्त होने के साथ असहाय कर्मी खतरे में पड़ते हैं. इसी प्रकार झुग्गी झोपड़ियों में चल रहे ऐसे छोटे-मोटे व्यवसायों की स्थिति दयनीय है.
दरअसल प्रदूषण की शुरूआत ई-उपकरण के निर्माण से ही हो जाती है क्योंकि इनका कार्बन फुटप्रिंट बहुत ज्यादा होता है. मसलन एक पी. सी. बनाने में इसके वजन का दसगुना अधिक रसायन, ईंधन, भारी धातुएं आदि खपती हैं. एक छोटी-सी सिलिकन चिप बनाने में 10-15 किलोग्राम धन कचरा और काफी अन्य अपशिष्ट (द्रव, गैस, वाष्प) बनते हैं. निर्माण, उपयोग और निस्तारण, यानी ई-उपकरण के पूरे जीवन चक्र का हिसाब लगाएं तो इनका कार्बन फुटप्रिंट अन्य उपकरणों के मुकाबले कहीं ज्यादा होता है.
खतनाक ई-कचरा के नियमित निपटान के लिए एक वैश्विक समझौता है जिसके अनुसार कोई देश ई-कचरे का निर्यात नहीं कर सकता, बल्कि हर देश में कचरे के प्रबंधन हेतु सुविधाओं का विकास करना ज़रूरी है. लेकिन हकीकत कुछ और है. दुष्प्रचार किया गया है कि भारत में ई-कचरे का निस्तारण आसान और किफायती है. ऐसी गलतफहमी फैलाकर कुछ निर्यातक अवैध रूप से ई-कचरा आयात करते हैं. भारत इस समझौते के तहत आता है जब कि अमेरिका इसे मानने में टाल-मटोल करता रहा है.
भारत में कचरा प्रबंधन और निगरानी कानून बहुत पहले से लागू होने के बावजूद कुछ औद्योगिक इकाइयों द्वारा ई-कचरे का आयात जारी है. दरअसल ई-कचरे के आयात पर सीधे तौर पर रोक लगाने के प्रभावी उपाय नहीं हो पाये हैं. उपभोक्ता संगठनों द्वारा इस समस्या के हल के लिए एक विस्तृत कार्य-योजना बनाने की मांग की गयी है. ई-कचरे की उत्पत्ति पर नियंत्रण, सही निपटान न होने पर दंड, आयात रोकने के सख्त उपाय, ई-कचरा के निपटान हेतु वहनीय अधिकृत केंद्रों की स्थापना और जन जागरूकता का प्रसार, यही अपेक्षित कार्य-योजना के अंग हो सकते हैं. ई-कचरा-नियंत्रण बगैर इलेक्ट्रॉनिक क्रांति असफल हो जाएगी.
गौरतलब है कि भारत में ई-सिगरेट का चलन बढ़ रहा है और युवा वर्ग इसकी चपेट में आ रहा है. इस गैजट में बैटरी द्वारा निकोटीन वाष्प बनाने की व्यवस्था होती है, प्रायः यह जल्द ही खराब हो जाते और फेंके जाते हैं. इससे ई-कचरा बढ़ना स्वाभाविक है. तम्बाकू रहित होने के बावजूद यह हानिकारक है. समय रहते ई-सिगरेट नियंत्रण की व्यवस्था करना ज़रूरी है.
इलेक्ट्रॉनिकी ने मानव जीवन को नये आयाम और तेज़ रफ्तार दी है. लेकिन इस तेज़ी के साथ ही विकास की विध्वंसकता भी तेज़ हो रही है. इस खतरे की गम्भीरता को न समझने का मतलब एक ऐसे विनाश को निमंत्रण देना है, जिसका दायित्व भी स्वयं पर ही होगा.
(फ़रवरी, 2014)
]]>परमाणु ऊर्जा के कबाड़ को लेकर एक डर सारे विश्व में पसरता जा रहा है. अब तो विश्व की महाशक्ति का डर भी सामने आ गया है. अमेरिका ने अब तक जितना परमाणु कबाड़, कचरा इकट्ठा कर लिया है, उसको लेकर इस तथाकथित महाशक्ति के वैज्ञानिक भी सकते में हैं. इन वैज्ञानिकों को अब डर सताने लगा है कि हजारों टन इकट्ठे हो चुके इस कचरे को ठिकाने कैसे लगाएं? उससे लगातार निकलती रेडियो तरंगों का नुकसान बराबर सामने आ रहा है. महाप्रयोगों के द्वारा ब्रड्मांड की गुत्थी सुलझाने वाले वैज्ञानिकों की चिंता के कई पहलू हैं. एक बड़ा पहलू तो इस विराट कचरे को खपाना है, दूसरा यह कि इस कचरे तक कोई पहुंचे न, तीसरा यह कि जहां इस कचरे को दफनाया जाए, वहां खतरा बताने वाले कुछ ऐसे शब्दों की तख्तियां टांगी जाएं, जिन्हें देखकर भविष्य की पीढ़ियों को अंदाज़ा लग सके कि यह कचरा कितना भयावह है.
वैज्ञानिकों की चिंता मात्र इतनी नहीं कि परमाणु कचरा कहां रखा जाएगा. उनकी चिंता यह भी है कि आने वाली पांच-हजार या पचास हजार साल बाद की पीढ़ी किस लिपि में इस खतरे को समझ पाएगी.
आज से पांच हजार साल या पचास हजार साल बाद इन खतरों को कैसे लिखा या समझाया जाएगा यह सवाल आज के आदमी के लिए फिजूल हो सकता है, लेकिन अमेरिका के परमाणु कबाड़ को समेटने में दुबले हो रहे अमेरिकी वैज्ञानिकों के मन में इन प्रश्न को लेकर बहुत चिंता है. परमाणु तकनीक के अत्यधिक इस्तेमाल के कारण विकसित माने गये और अंगुली से दूसरे देशों को चांद दिखाने वाले चंद देशों के पास हजारों टन परमाणु कचरा जमा हो चुका है. इसे दफनाने के लिए वहां के वैज्ञानिक ऐसे भूमिगत भवनों, भंडारगृहों के निर्माण में लगे हैं जहां उजाले का भ्रम बांटने वाले इस अंधेरे को गर्क किया जा सके. हरेक ऊर्जा, ईंधन जल चुकने के बाद कुछ अंश छोड़ जाता है. इसका सबसे सरल उदाहरण है हमारे चूल्हे में जलने वाली लकड़ियां या कंडे. इनका कुछ भाग कोयले की तरह बच जाता है तो कुछ पूरा जला भाग राख की तरह. यह राख हमारे लिए समस्या नहीं होती. ईंधन शुद्ध है, इसलिए उसका बचा अंश भी शुद्ध ही होता है. यह राख हाथ धोने के काम आती है. खाने-पीने के बतन साफ किये जाते हैं. खुद भगवान की मूर्तियां चमकाई जा सकती हैं इससे. दंतमंजन में राख का उपयोग होता है. खाद की तरह भी यह नयी पौध का संरक्षण और संवर्धन करती है. कीटनाशक के रूप में भी यह काम आती है.
पर परमाणु ऊर्जा की राख! तौबा-तौबा! हाथ भी नहीं लगा सकते. सो भी दो-चार दिन नहीं, सैकड़ों हजारों बरसों तक इस राख का बुरा असर, रेडिएशन बना रहता है. हाथ लगाना तो दूर, इस कचरे से, राख से बहुत दूर रहने वाले पर भी इसकी विकिरण का, ज़हरीली किरणों का बुरा असर पड़ता है.
इन वैज्ञानिकों की चिंता के कई पहलू हैं. सबसे बड़ा प्रश्न ऐसे मज़बूत ठोस गोदामों का, अति आधुनिक कचराघरों का निर्माण है, जहां परमाणु कचरा बंद कर रखा जा सके. ऐसे गोदाम ज़मीन के ऊपर नहीं, कई फुट नीचे बनाने पड़ेंगे. ठोस ज़मीन, ठोस दीवार ठोस छत. न दरवाजा, न खिड़की, न रोशनदान. इन्हें ऐसे इलाकों में बनाना होगा, जहां भूकंप, बाढ़ आदि की आशंका हो ही नहीं.
फिर इस सारी प्रक्रिया का एक पहलू ऐसा भी है, जो इन तमाम चतुर-सुजान वैज्ञानिकों का सिर-दर्द बना हुआ है. वह है ऐसे शब्दों, बल्कि खतरनाक शब्दों, की तलाश जिन्हें भविष्य की पीढ़ियां पढ़कर इस कचरे की ओर मुंह न करें. परमाणु कचरे जैसे ही भयावह शब्दों की तलाश है, जिन्हें पढ़कर आगत पीढ़ियां उन गोदामों को न खोलें.
हम सभी जानते हैं कि हमारी भाषाएं तेज़ी से बदलती हैं. अपनी ही आज की हिंदी में अभी कुछ ही सौ बरस पहले लिखे गये सरल दोहों, चौपाइयों का अर्थ समझाने के लिए हमें शिक्षक की, अध्यापक की ज़रूरत पड़ती है. अंग्रेज़ी वाले तो कुछ ही बरस पहले के शेक्सपीयर को समझ नहीं पाते. यों तो यह भी कहा जा सकता है कि आज लिखी जा रही सरकारी हिंदी आज भी नहीं समझ आती!
फिर भाषा के बाद लिपि का प्रश्न है. सम्राट अशोक के जन कल्याणकारी शिलालेख पढ़ने के लिए भी पुरातत्त्वविदों को मालूम नहीं, महान विशेषज्ञों की ज़रूरत पड़ती ही है. ब्राह्मी लिपि, खरोष्ठी लिपि, देवनागरी तो है ही. रोमन है. पर सब भाषाएं सब नहीं जानते और सब लिपियां सब नहीं पढ़ पाते. इसलिए इन वैज्ञानिकों का डर स्वाभाविक है. उन्हें लगता है कि कहीं वर्तमान की तरह आने वाली पीढ़ियों को भी परमाणु कचरे के अंधेरे में न रखा जाए. इसलिए आने वाली पीढ़ियों को साफ़-साफ़ बताना है कि यहां खतरा है. सो कैसे बताएं?
अब अमेरिका ने ही एक दौर में परमाणु ऊर्जा से खूब बिजली बनायी. फिर बंद भी की. और अब उसके पास ही शायद सबसे गगज्यादा कचरा एकत्र है. इसे ठिकाने लगाना है. अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा ऐजेन्सी इस चुनौती से निपटने के लिए भाषा, इतिहास, मानव-विज्ञान आदि की जानकारी का इस्तेमाल कर रही है. आज खतरे का संकेत देने वाला चिह्न हैः एक डरावनी खोपड़ी और उसके नीचे हड्डियों के दो टुकड़े, जो अंग्रेज़ी वर्णमाला के एक्स अक्षर की तरह रखे जाते हैं. ज़रूरी नहीं कि यह चिह्न सौ पचास वर्ष से ज्यादा चले. परमाणु विकिरण के खतरे का अंदाज़ देने वाला आज प्रचलित चिह्न तो और भी कमज़ोर है. इसमें छोटे-छोटे तीन त्रिकोण बने रहते हैं. हो सकता है कि कोई इसे ज्यामिती का चिह्न मान बैठे.
इसलिए भयानक खतरा बताने वाले शब्द भी खोजने हैं, निशान भी खोजने हैं और ये दोनों चीज़ें जिस पर उकेरी जाएंगी, वह आधार भी खोजा जाना बाकी है. कुछ वैज्ञानिकों ने पत्थर के बड़े शिलाखंडों पर हज़ारों साल रहने वाले खतरे के निशान खोदने की बात भी सुझायी है. ऐसी जानकारी कई भाषाओं तथा कई संचार विधाओं का इस्तेमाल करके दी जा सकती है. सभी को लगता है कि यह खतरनाक कचरा आज की आबादी से बहुत दूर निर्जन में, वनों में कहीं दफना कर रखा जाना चाहिए. पर इसमें भी एक खतरा है. आज जिस तेज़ी से शहर फैल रहे हैं, उद्योग पसर रहे हैं, क्या ऐसी जगह बची रह पायेगी? इसलिए एक राय यह भी सामने आ रही है कि नहीं, ऐसा कचरा तो बड़े शहरों के बीच ही गाड़ कर रखो ताकि हर पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को सीधे बताती चले कि यहां पिछली पीढ़ियों की भयानक भूल, भयानक गलतियां दफन की गयी हैं.
विज्ञान जगत के इन बुद्धिजीवियों की समस्या परमाणु कचरे के बजाय वे खतरनाक शब्द बन चुके हैं, जो अभी खोजे जाने शेष हैं. आज विश्व-परिस्थितियों तथा अपने देश को मृत्यु देने वाले जीवित प्रश्नों या संकटों पर गौर करें तो इन तमाम खतरनाक संकटों के पीछे खतनाक योजनाओं का ही हाथ है.
खतरनाक परमाणु ऊर्जा कुछ दिन तो उजाला दे ही सकती है, लेकिन उसके बाद पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानसिक विकलांगता बढ़ती चलेगी. समाज को जगाने के नाम पर भी जो ‘खतरनाक शब्द’ तलाशे जा रहे हैं, वे शब्द कुछ दिन तो अहंकार का प्रकाश कर सकते हैं, लेकिन यह उजाला ज्यादा दिन चलता नहीं.
आज के वैज्ञानिक आज की पीढ़ी पीछे- छोड़ भविष्य की पीढ़ियों के प्रति आत्मीयता दिखाने का छलावा कर रहे हैं. हमारी राजनीति तो छलावों से ही भरी है.
शायद ही कोई राजनेता कभी कहेगा कि हमने अपनी आने वाली पीढ़ियों को एक ऐसे खतरे में धकेल दिया है, जिसका वर्णन कर सकने वाला खतनाक शब्द अभी खोजा ही नहीं जा सका है!
(फ़रवरी, 2014)
]]>कोई नब्बे बरस पहले हमारी दुनिया में प्लास्टिक नाम की कोई चीज़ नहीं थी. आज शहर में, गांव में, आसपास, दूर-दूर जहां भी देखो प्लास्टिक ही प्लास्टिक अटा पड़ा है. गरीब, अमीर, अगड़ी-पिछड़ी पूरी दुनिया प्लास्टिकमय हो चुकी है. सचमुच यह तो अब कण-कण में व्याप्त है- शायद भगवान से भी ज्यादा!
मुझे पहली बार जब बात समझ में आयी तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं एक प्रयोग करके देखूं- क्या मैं अपना कोई एक दिन बिना प्लास्टिक छुए बिता सकूंगी. खूब सोच समझ कर मैंने यह संकल्प लिया था. दिन शुरू हुआ. नतीजा आपको क्या बताऊं, आपको तो पता चल ही गया होगा. मैं अपने उस दिन के कुछ ही क्षण बिता पायी थी कि प्लास्टिक ने मुझे छू लिया था!
फिर मैं सोचती रही कि इस विचित्र चीज़ ने कैसे हम सबको, हमारे सारे जीवन को बुरी तरह से घेर लिया है. सब जानते हैं, या कुछ तो जानते ही हैं कि यह बड़ा विषैला है. पर इस विषैली प्रेम कहानी ने हमें जन्म से मृत्यु तक बांध लिया है. अब हम सब इस बात को भी भूल चुके हैं कि हमारा जीवन कभी बिना प्लास्टिक के भी चलता था, ठीक से चलता था. प्लास्टिक की थैली नहीं थी, प्लास्टिक की बोतल नहीं थी पर हम थे, हमारा जीवन तो था. यही सब सोचते-सोचते मैंने इस विचित्र पदार्थ की जानकारी एकत्र करना शुरू किया. इसके बारे में कुछ सोचना-समझना, पढ़ना-लिखना शुरू किया.
तब मुझे यह जानकर बड़ा ही अचरज हुआ कि दुनिया में तेल की, पेट्रोल की खोज के बाद प्लास्टिक का उदय हुआ था. तेल और प्राकृतिक गैस की खुदाई के बाद उनकी सफाई की जाती है. उस सफाई में जो कचरा बच निकलता है- हमारा यह प्लास्टिक उसी का हिस्सा है. यों देखा जाए तो सिद्धांत तो अच्छा ही था. कचरे को यों ही कहीं फेंक देने के बदले उसमें से कोई और काम की चीज़ बन जाए तो कितनी अच्छी बात है. इस तरह पेट्रोल की सफ़ाई से निकले कचरे से हमारा यह प्लास्टिक बन गया. पर शायद साध्य और साधन दोनों ही गड़बड़ थे. इसलिए सिद्धांत भले ही ठीक था, परिणाम भयानक ही निकला!
फिर धीरे-धीरे मुझे यह भी समझ में आने लगा कि ये प्लास्टिक महाराज एक नहीं हैं, उनके तो कई रूप हैं, कई अवतार हैं. और इनके हर रूप के जन्म की कहानी अलग-अलग है. फिर इन कहानियों में से और कहानियां निकलती हैं.
उदाहरण के लिए प्लास्टिक का पहला प्रकार सैलुलाइड नामक एक उत्पादन था. इससे तरह-तरह के कंघे कंघियां और बटनें आदि बनी थीं. इस उत्पादन के पहले ऐसी चीज़ें प्रायः कुछ जानवरों की हड्डियों से बनायी जाती थीं. उस काम के लिए ऐसे जानवरों को मारा जाता था. कच्चा माल आसानी से नहीं मिल पाता था तो पक्का माल भी कम ही बनता था. वह सबकी पहुंच से दूर ही रहता था. जैसे ही यह प्लास्टिक आया, ये सारी चीज़ें एकदम सस्ती हो गयीं और खूब मात्रा में मिलने लगीं. हरेक की पहुंच में भी आ गयीं. हर कमीज़, कुरते, कुरती में करीने से बनी रंग बिरंगी बटनें लगने लगीं और फिर कई जेबों में हल्की, मज़बूत कंघियां भी रखा गयीं. इस सरल-सी बात को कठिन बना कर कहना हो तो बताया जा सकता है कि इस दौर में इन चीज़ों का ‘लोकतांत्रीकरण’ हो गया था अचानक.
फिर भी उस दौर में प्लास्टिक कण-कण में व्याप्त नहीं हो पाया था. इसकी शुरूआत तो सन् 1920 के आसपास हुई. इसके पीछे विश्वयुद्ध का भी बड़ा हाथ था. अमेरिका और यूरोप के युद्धरत देशों ने अपने-अपने यहां के उद्योगों को इस बात के लिए बड़ा सहारा दिया, प्रोत्साहन दिया कि वे धातु आदि से बनने वाली भारी भरकम चीज़ों के बदले उतनी ही मज़बूत, पर बेहद हल्की चीज़ों के उत्पादन में शोध करें. युद्ध में काम आने वाली चीज़ों का वज़न गगज्यादा होता था. इस कारण उनको यहां-वहां ले जाना कठिन और महंगा भी था. ऐसे विकल्प सामने आने लगे तो फिर उनका उत्पादन बढ़ाया जाने लगा- कहीं युद्ध में ज़रूरत की कोई चीज़ कम न पड़ जाए, किसी कमी की वजह से युद्ध ही न हार जाएं- इस भय से इन चीज़ों का उत्पादन बढ़ा कर रखा गया.
फिर जब युद्ध खत्म हुआ तो समझ में नहीं आया कि अब युद्ध के लिए लगातार सामान बना रहे इन कारखानों का क्या किया जाए. तब उन्हें एक दूसरे मोर्चे की तरफ मोड़ दिया- बाज़ार की तरफ. इस तरह प्लास्टिक से बन रही चीज़ों को युद्ध के मैदान से हटाकर बाज़ार की तरफ झोंक दिया गया. यही वह दौर है जिसमें अब तक तरह-तरह की धातुओं से, लकड़ी आदि से बन रही चीज़ें प्लास्टिक में ढलने लगीं. कुर्सी-मेज, कलम-दवात, खेल-खिलौने, चौके के डिब्बे-डिब्बी और तो और कपड़े-लत्ते भी प्लास्टिक से बनने लगे, बिकने लगे.
इसके बाद तो प्लास्टिक उत्पादन की लहर पर लहर आती गयी. दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद दुनिया के कई भागों में थोड़ी बहुत शांति स्थापित हुई, कई देश नये-नये आज़ाद हुए और नागरिकों के मन में, जीवन में भी थोड़ी शांति, थोड़ा स्थायित्व आने लगा था. ठीक युद्ध की तरह ही इस शांति का भी प्लास्टिक उद्योग ने भरपूर लाभ उठाया. अब तक जम चुके व्यापार को उसने तेज़ गति दी.
अब उद्योग ने घर-गिरस्ती के दो-तीन पीढ़ी चल जाने वाले सामानों पर अपना निशाना साधा. थाली-कटोरी, बर्त्तन, कप-बशी, चम्मच, भगोने, बाल्टी, लोटे आदि न जाने कितनी चीज़ों को बस एक पीढ़ी के हाथ सौंपना और फिर छीन लेना उसने अपना लक्ष्य बनाया. वह पीढ़ी भी इस काम में, अभियान में खुशी-खुशी शामिल हो गयी. फिर घर भी अब पहले से छोटे हो चले थे, संयुक्त परिवार भी टूटने की कगार पर थे. ऐसे में बाप-दादाओं-दादियों के भारी भरकम वज़नी बर्तनों को कहां रखते. इनके बदले बेहद हल्के, शायद उतने ही मज़बूत बताये गये रंग-बिरंगे प्लास्टिक के बर्तन आ गये.
फिर तो जैसे एक-एक चीज़ चुनी जाने लगी. जहां-जहां प्लास्टिक नहीं है, वहां-वहां बस यही हो जाए- इस सधी हुई कोशिश ने फिर हमारे पढ़े-लिखे समाज का कोई भी कोना नहीं छोड़ा. हमारे कंधों पर टंगे जूट, कपड़े, कैनवस के थैलों से लेकर पैर के जूते-चप्पल सब कुछ प्लास्टिकमय हो गया. प्लास्टिक की थैलियां सब जगह फैल गयीं.
आज पूरी दुनिया, नयी, पुरानी, पढ़ी-लिखी, अनपढ़ दुनिया भी इन्हीं प्लास्टिक की थैलियों को लेकर एक अंतहीन यात्रा पर निकल पड़ी है. छोटे-बड़े बाज़ार, देसी-विदेशी दुकानें हमारे हाथों में प्लास्टिक की थैली थमा देती हैं. हम इन थैलियों को लेकर घर आते हैं. कुछ घरों में ये आते ही कचरे में फेंक दी जाती हैं तो कुछ साधारण घरों में कुछ दिन लपेट कर सम्भाल कर रख दी जाती हैं, फिर किसी और दिन कचरे में डालने के लिए. इस तरह आज नहीं तो कल कचरे में फेंक दी गयी इन थैलियों को फिर हवा ले उड़ती है, एक और अंतहीन यात्रा पर. फिर यह हल्का कचरा ज़मीन पर उड़ते हुए, नदी नालों में पहुंच कर बहने लगता है. और फिर वहां से बहते-बहते समुद्र में. यहां भी एक और अंतहीन यात्रा शुरू हो जाती है.
खोज करने वालों ने इस प्लास्टिक की समुद्री यात्रा को भी समझने की कोशिश की है. उन्हें यह जानकर अचरज हुआ कि हमारे घरों से निकला यह प्लास्टिक का कचरा अब समुद्रों में भी खूब बड़े-बड़े ढेर की तरह तैर रहा है न वह ज़मीन पर गलता है, सड़ता है. न समुद्र में ही. यह प्लास्टिक तो आत्मा की तरह अजर-अमर है और प्रशांत महासागर में एक बड़े द्वीप की तरह धीरे-धीरे जमा हो चला है.
जिन लोगों को आंकड़ों में ही गगज्यादा दिलचस्पी रहती है, उन्हें तो इतना बताया ही जा सकता है कि अमेरिका में हर पांच सेकेंड में प्लास्टिक की कोई 60,000 थैलियां खप जाती हैं. इस तरह के आंकड़ों को किसी विशेषज्ञ ने पूरी दुनिया के हिसाब के भी देख कर बताया है कि हर दस सेकंड में कोई 2,40,000 थैलियां हमारे हाथों में थमा दी जाती हैं. थोड़ी ही देर बाद फेंक दी जाने वाली ये थैलियां फिर गिनी नहीं जातीं. कचरा बन जाने पर गिनने के बदले इन्हें तोला जाता है. वह तोल हजारों टन होता है.
ऐसा भी नहीं है कि इस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया हो. प्लास्टिक के फैलते, पसरते व्यवहार को कई देशों ने, कई समाजों ने अपनी-अपनी तरह से रोकने के कई प्रयत्न किये हैं. कुछ देशों ने इस पर प्लास्टिक टैक्स लगा कर देखा है. ऐसा टैक्स लगते ही खपत में एकदम गिरावट भी देखी गयी है. कहीं-कहीं इन पर सीधे प्रतिबंध भी लगाया गया है. इसके बदले फिर अखबार, कागज़, कपड़े की थैलियां, लिफाफे भी चलन में आये हैं.
पर हमारा दिमाग इन चीज़ों को भी तुरंत कचरा बनाकर फेंक देता है. तब कचरे का ढेर, पहाड़ प्लास्टिक का न होकर कागज़ का बन जाता है. दूकानों से घर तक चीज़ें लाने का माध्यम इतनी कम उमर का क्यों हो, वह चिरंजीव क्यों न बने- प्लास्टिक के कारण अब ऐसे सवाल भी हमारे मन में नहीं उठ पाते.
कुल मिलाकर हम सब प्लास्टिक के एक बड़े जाल में फंस गये हैं. यह जाल इतना बड़ा है और हम उसके मुकाबले इतने छोटे बन गये हैं कि अब हमें यह जाल दिखता ही नहीं. उसी में फंसे हैं. पर हम अपने को आज़ाद मानते रहते हैं.
प्लास्टिक अब एक नया भगवान बन गया है. वह हमारे चारों ओर है. और शायद भगवान की तरह ही वह हमें दिखता नहीं.
हे भगवान प्लास्टिक.
(जापान से प्रकाशित सोका गकाई इंटरनेशनल त्रैमासिक पत्रिका में छपे
एक लम्बे इंटरव्यू पर आधारित. अनुपम मिश्र द्वारा प्रस्तुत.)
(फ़रवरी, 2014)
]]>अंग्रेज़ी के महत्त्वपूर्ण लेखक थॉमस ब्राउन ने करीब 500 साल पुरानी अपनी प्रसिद्ध कृति ‘रिलीजियो मेडिसी’ में तर्क और आस्था के बीच का द्वंद्व बड़े दिलचस्प ढंग से रेखांकित किया है और दोनों के बीच समन्वय के सूत्र खोजने की कोशिश की है. दरअसल बीते एक हज़ार साल से विज्ञान और धर्म के बीच जैसे एक सतत संग्राम जारी है. विज्ञान ने धर्म की बहुत सारी ज़मीन छीन ली है. 12वीं सदी में आग, हवा, पानी- सबकुछ पर ईश्वर का नियंत्रण था. वही तूफ़ान लाता था और वही बारिश करवाता था. लेकिन विज्ञान ने धीरे-धीरे उसे अपदस्थ करना शुरू किया. इंद्र से हमने बारिश का विशेषाधिकार छीन लिया, वरुण से अग्नि के राज़ छीन लिये, ईश्वर की जगह धीरे-धीरे सिमटती गयी. औद्योगिक क्रांति का दौर आते-आते ईश्वर की बनायी व्यवस्था बहुत कुछ छिन्न-भिन्न हो चली थी- बिजली और इंजन के आविष्कार ने रही-सही कसर पूरी कर दी. आदमी अब बिल्कुल आत्मनिर्भर और प्रकृति का नियंता हो गया. उसने कारखाने बनाये, उसने पानी और हवा को रफ़्तार के साथ चीरने वाले जहाज़ बनाये, बीसवीं सदी का उत्तरार्ध आते-आते वह अंतरिक्ष की सैर कर आया, चांद पर पांव रख आया, अब मंगल और शनि तक की शिनाख्त में लगा है.
अब तो विज्ञान की वे सारी महागाथाएं भी पुरानी पड़ चली हैं. आज की तारीख में हमारी ज़िंदगी जैसे विज्ञान के बूते ही चलती है. सुबह से शाम तक, सोते-जागते, बल्कि अपनी नींद में भी, हम उन उपकरणों की मदद लेते हैं जो विज्ञान के बिना मुमकिन नहीं होते. इस ढंग से देखें तो लगता है कि विज्ञान ने धर्म पर अंतिम जीत हासिल कर ली है. ईश्वर मन की किन्हीं कंदराओं में जा छुपा है और धर्म राजनीति या कर्मकांड का स्थूल उपकरण बन कर रह गया है.
लेकिन क्या यह सच है?
वाकई विज्ञान ने धर्म को बेदखल करने में कामयाबी हासिल की है?
सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश करें तो हम पाते हैं कि हमारे चारों तरफ वैज्ञानिक साधन चाहे जितने बढ़ गये हों, वैज्ञानिक सोच जैसे सिकुड़ता जा रहा है. धर्म भी जैसे विज्ञान के साधनों से अपने पांव फैला रहा है. लाउडस्पीकर बने तो उससे राजनीतिक भाषणों और गीतों की तरह धार्मिक भजन और जगरातों के गीत भी गूंजने लगे. कंप्यूटर आया तो उसके साथ कुंडली गणना का सॉफ्टवेयर भी चला आया. टीवी चैनल आये तो आस्था और संस्कार को आवाज़ देने वाले धार्मिक चैनल चले आये. समाचार चैनलों पर भी सितारे बताने का चलन चल पड़ा है. ये सिलसिला सूचना क्रांति के साथ आयी मोबाइल क्रांति तक चला आया है.
ज़ाहिर है, थॉमस ब्राउन को याद करते हुए हमें धर्म और विज्ञान को एक दूसरे के विलोम की तरह पेश नहीं करना चाहिए. धर्म आस्था और अध्यात्म का मामला होते हुए भी असंदिग्ध तौर पर अवैज्ञानिक हो, यह ज़रूरी नहीं. गांधी धार्मिक थे, मगर अवैज्ञानिक नहीं. उनकी आस्था उन्हें रास्ता दिखाती थी, लेकिन उनका विवेक उस रास्ते की परीक्षा करता था. मगर हमारी और हमारे समय की मुश्किल दूसरी है. हमसे न धर्म निभ रहा है, न विज्ञान सध रहा है. हमारे भीतर ऐसी आस्था नहीं बची है जो विज्ञान के नियमों के बीच भी विचरण करती हुई बनी रहे. और हमारे भीतर ऐसा गहरा तर्कवाद भी नहीं है जो हमें धर्म या ईश्वर को बिल्कुल खारिज करने का साहस दे. तो सच्चाई यह है कि हमारा लालच हमें विज्ञान की तरफ ले जाता है, हमारा डर हमें धर्म की तरफ ले जाता है. विज्ञान हमारे लिए वैज्ञानिक सोच या अवधारणा का मामला नहीं, बस उपभोक्ता सामग्री का सहारा भर रह गया है- कंप्यूटरों और स्मार्टफोन की जादुई दुनिया से हमारा वास्ता सिर्फ़ इतना ही है कि हम उनसे बात कर लेते हैं, संदेश भेज लेते हैं, इंटरनेट के ज़रिये बहुत कुछ बड़ी आसानी से हासिल कर लेते हैं. विज्ञान ने जो एक सर्वसुलभता दी है, उसने हमें एक अघाया हुआ उपभोक्ता भर बनाकर छोड़ दिया है. हम यह जानने-समझने की परवाह नहीं करते कि जो नये साधन हमारे जीवन में आये हैं, उनसे हमारा जीवन कैसे बदल सकता है या बेहतर हो सकता है. वह हमारे लिए बस तकनीक है जिससे जीवन की पुरानी जड़ताओं को हम नयी गति दे रहे हैं. कर्मकांड अब नयी ताकत हासिल कर रहे हैं, अंधविश्वास को नयी मदद मिल रही है और अविचार को नये सहारे मिल रहे हैं. इसका खामियाजा काफी कुछ विज्ञान को भी भुगतना पड़ रहा है जहां सिद्घांतों के क्षेत्र में नये काम नहीं हो रहे, विज्ञान का व्यावसायिक इस्तेमाल और दोहन हो रहा है. हर रोज़ एक उपभोक्ता सामग्री पुरानी पड़ती जाती है और हर रोज़ एक नया सामान जुड़ता जाता है.
शायद इसी का नतीजा है कि इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे दशक में हमारे पास एक तरफ वैज्ञानिक-व्यावसायिक उपकरणों का- जिन्हें हम अंग्रेज़ी में गैजट्स बोलने के आदी हैं- कबाड़ है तो दूसरी तरफ उस अवैज्ञानिक सोच का कचरा जो हमारी पूरी जीवनशैली में एक हिंसक अराजकता पैदा कर रहा है जो धीरे-धीरे आत्महंता साबित हो रही है. इस अवैज्ञानिक सोच का वास्ता सिर्फ उन स्थूल अंधविश्वासों और कर्मकांडों भर से नहीं है जिन्हें हम बिना जाने-समझे दुहराते रहते हैं, बल्कि उन सूक्ष्म प्रक्रियाओं से भी है जो हमारी निजी और सार्वजनिक चेतना को कई स्तरों पर नियोजित और नियंत्रित कर रही है.
यही वजह है कि विचारों और सामानों से लदी-फदी जो नयी सदी है, वह अपने-आप में एक विराट कबाड़खाने के बीच घट रही त्रासदी है. तकनीक के जंगल में हम अकेले हैं और सामूहिकता की तलाश में भी तकनीक पर निर्भर. संगीत-कला-साहित्य-विचार की ऐसी विराट सर्वसुलभता किसी ज़माने में नहीं रही, लेकिन इतनी घनघोर उपेक्षा भी पहले कभी नहीं दिखी. पूरी नयी सभ्यता जैसे विवेकविहीन बुद्घि और आस्थाविहीन भक्ति के चाक पर गढ़ी जा रही है. स्मृति, संवेदना, धीरज, अनुभव, आश्चर्य सब जैसे किन्हीं बीते ज़मानों की चीज़ हैं. बहुत ही संकरे अर्थों में मापी जाने वाली सफलता इस सभ्यता का उपजीव्य है जो सिर्फ पैसे से बनती है, विचार से नहीं. इस स्मृतिशिथिल, संवेदनक्षीण समय में इस अवैज्ञानिकता से मुठभेड़ कैसे करें, यह शायद हमारे आने वाले दिनों का एक ज्वलंत प्रश्न है.
प्रश्न भले ही आनेवाले समय का हो लेकिन इसकी आहट आज गूंज रही है, इसलिए इसे अनसुना नहीं किया जा सकता. इस आहट का सीधा रिश्ता हमारे अस्तित्व की सार्थकता से है. इसे सुन-समझकर ही हम उन उत्तरों की तलाश प्रारम्भ कर सकते हैं जो हमारे आज की समस्याओं को तो सुलझाएंगे ही आनेवाले कल के लिए भी हमारा मार्ग प्रशस्त करेंगे. सवाल सिर्फ अंधविश्वासों और कर्मकाण्डों तक ही सीमित नहीं है, जिनके चलते हमारी आधुनिकता और वैज्ञानिकता, दोनों पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं. त्रासदी तो यह है कि हमारी चेतना भी कहीं न कहीं, उस अवैज्ञानिक सोच से संचालित अथवा नियंत्रित हो रही है जिसने मनुष्य की प्रगति की अवधारणा को संकुचित बना दिया है. अवैज्ञानिक सोच के कचरे को साफ़ करना वस्तुतः वैज्ञानिक सोच को विस्तार देना है. मनुष्य का वास्तविक विकास इसी विस्तारित राह से आयेगा.
(फ़रवरी, 2014)
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