होना कुछ नहीं का

बोर्ड लगा है. खादी भंडार. आयताकार काउंटर, लम्बे, पीछे आलमारियों में खादी के थान. हल्के रंगों में मोटे कपड़े. कोसा, साड़ियां, खादी, रेशम और कुछ रेडिमेड कपड़े. आलमारी पर यहां-वहां धूल, बाहर कभी-कभी अंधड़-सा चल जाता है. अभी सुबह के साढ़े नौ ही बज रहे हैं. काउंटर के पीछे एक आदमी सुस्त झुका हुआ है, सिर टिकाये बाहर सड़क की ओर देखता. खादी पहने है, कुर्ता-पायजामा. एक और व्यक्ति है. कुर्ता-पायजामा के साथ काली जाकेट भी पहने है. हिसाब लगा रहा है. अंदर कम्बल के ढेर के सहारे एक और व्यक्ति लेटा हुआ है. टोपी से आंखें ढके हुए. काउंटर के एक कोने पर टेलीफोन रखा है. उस पर भी हल्की धूल चढ़ रही है. ऊपर नेताजी की तस्वीरें हैं. आलमारियों पर खादी सम्बंधी आदर्श वाक्य लिखे हुए हैं. सभी गांधीजी के. खादी की महत्ता बतानेवाले.

टेलीफोन की घंटी बजती है. काली जाकेटवाला टेलीफोन की ओर देखता है. “सुनिए, टेलीफोन है”, वह दूसरे से कहता है, जो सुस्त बैठा सड़क की ओर देख रहा है. “अब आप ही उठाइए, हम हिसाब कर रहे हैं.” काली जाकेटवाला जोड़ लगाने लगता है. “हिसाब बाद को कर लीजिएगा, कौन जल्दी है, अभी फोन तो सुन लीजिए. उत्तर मिलता है, “आप तो कुछ कर नहीं रहे, फिर आप ही क्यों नहीं सुन लेते?”-काली जाकेटवाला कहता है- “आप जहां बैठे हैं उसके पास ही है, हाथ बढ़ायेंगे तो सुन लेंगे. हम यहां दूर बैठे हैं.” सुस्त व्यक्ति सड़क से बिना नज़र हटाये बोलता रहता है, “सवाल दूर-पास का नहीं है, हम हिसाब कर रहे हैं, यहां से ध्यान नहीं तोड़ सकते. आप कुछ नहीं कर रहे. आप टेलिफोन पर जवाब दे सकते हैं.” काली जाकेटवाले ने उसे इस बार स्पष्ट समझाया. “प्रश्न यह नहीं है. हम उठ भी सकते हैं. पर सोचते हैं, कोई ज़रूरी फोन हो, तो आप ही उचित उत्तर दे सकेंगे.” दूसरे ने जवाब दिया. इस पर काली जाकेटवाला मुस्कराया और बोला, “अब उठ भी जाइए, घंटी बज रही है, जवाब दे दीजिए.” इस पर दूसरे व्यक्ति ने सड़क से नज़रें हटाकर उसकी ओर देखा और कहा, “क्या जवाब देना है?” “अब फोन सुनिएगा तभी न कहिएगा कि क्या जवाब होगा. अभी से कोई कैसे बता सकता है?” इस पर वह सुस्ती से गम्भीर चेहरा लिये फोन की तरफ बढ़ा और उसे उठाने के पहले काली जाकेटवाले से बोला, “हम समझे शायद आप जानते हों. हलो, हलो. हां हम बोल रहे हैं खादी भंडार से. खादी भंडार. हां-हां क्या कहा, कपड़ा चाहिए? तो यहां कपड़ा ही तो बिकता है और क्या, आइए और ले जाइए. जी, हां जी, कहां से बोल रहे हैं? थियेटर से?

“थियेटर का भी कपड़ा है, पड़दा-उड़दा लगाना है क्या? शौक से लगाइए. रंगीन कपड़ा है छापादार, जौन रंग का कपड़ा चाहिए, तौन रंगों का कपड़ा ले लीजिए. या चाहें तो रंगवा लीजिए. थिएटर का कपड़ा तो बहुत है. क्या कहा? आपरेशन थियेटर से बोल रहे हैं? कहां लगा है यह आपका थिएटर. अरे हमहू देखेंगे. ऐसी क्या बात है साहेब. हैं! अस्पताल में! अस्पताल में थिएटर लगा है! वाह, आप अस्पताल से बोल रहे हैं! और क्या. थियेटर में फोन नहीं होगा ना! अरे साहेब, हम क्या गलत समझ रहे! आप जो बोल रहे सो ही समझ रहे. आपको थिएटर के के लिए कपड़ा चाहिए सो है रंगीन. छापादार. ऐं, सफेद चाहिए, अस्पताल के लिए, थियेटर में अस्पताल का सीन बनाइएगा क्या? कोई डाक्टर-आक्टर का तमाशा है, नर्स-उर्स. नहीं, अरे, हम क्या गलत समझे, जो आप बोल रहे सो ही समझे. थियेटर में तो रंगीन कपड़ा चलता है. देखिए श्रीमान्जी, आप यहां आ जाइए और जैसा चाहिए, ले जाइए. आपरेशन थियेटर या जौन भी थियेटर हो. नमस्कार, हां जी, नमस्कार!” उसने फोन रख दिया.

“क्या पूछ रहे थे?” काली जाकेटवाले ने पूछा.

“आप अपना हिसाब-किताब में लगे रहिए. आपको क्या करना, कोई क्या बोल रहा है. हमने फोन सुना और जो उचित जवाब था, सो दे दिया. पर इतना बता देते हैं कि अब से फोन आयेगा तो आप उठिएगा.” और वह व्यक्ति फिर काउंटर से सिर टिका सड़क की तरफ देखने लगा.

कम्बलों के सहारे लेटे व्यक्ति ने आंख पर से टोपी हटाकर पूछा, “क्या बात हुई?”

“कुछ नहीं. टेलिफोन सुना नंदरामजी ने. हम पूछ रहे हैं कि काहे बात का फोन था, तो जबाब नहीं दे रहे हैं. कह रहे हैं आपको मतलब!”

“प्राइवेट फोन होगा?”

“अरे नहीं, दुकान का था.”

“भाई नंदरामजी, आपको बताना चाहिए. “जब मंनेजर साहब न हों, तो सदाशिव ही मैनेजर हैं. आपको बताना चाहिए. वे प्रधान हैं.”

“प्रधान हैं तो स्वयं जाकर टेलीफोन क्यों नहीं उठाते? जबाब हमको देने को क्यों कहते हैं,” नंदरामजी ने कहा.

“हम हिसाब कर रहे हैं.”

“तो आप हिसाब ही कीजिए. फिर यह क्यों जानना चाहते हैं कि हमारी फोन पर क्या बातचीत हुई?”

“प्रश्न सिद्धांत का है,” कम्बलों से टिककर लेटे व्यक्ति ने पुनः टोपी आंखों पर खिसका ली और सो गया.

“हां, सिद्धांत का ही है,” नंदरामजी ने दुहराया, “जो टेलीफोन करेगा वह अपनी बात को अपने पास रखेगा. आप हिसाब करिए.”

“कोई गुप्त बात है क्या?”

“गुप्त हो, चाहे न हो.”

नंदरामजी यह बात कह ही रहे थे कि एक लड़का, जो टेरेलीन का बुश्शर्ट और नैरो पैंट पहने हुए था, खादी भंडार में घुसा. उसने आते ही पूछा, “आपके यहां रेडीमेड कपड़े हैं?” लड़के ने नंदरामजी को देखकर ही यह बात पूछी थी सो उत्तर नंदरामजी को ही देना पड़ा. उन्होंने दिया, “हैं क्यों नहीं? तमाम रेडीमेड कपड़ा है, आपको दिखाई नहीं देता!”

“मुझे क्या मालूम!” लड़का बोला.

“ईश्वर ने आपको आंखें दी हैं. आप स्वयं देख सकते हैं. सामने आलमारी में तमाम रेडीमेड कपड़ा है. आपको क्या चाहिए, सो बताइए?”

“कुर्ता-पाजामा चाहिए.”

“किस नाप का? आपके ही लिए चाहिए या किसी दूसरे के लिए?”

“आपकी नाप का कुर्ता-पाजामा निकाल दीजिए,” नंदरामजी ने काली जाकेटवाले सदाशिव से कहा.

“आप ही निकाल दीजिए, हम हिसाब कर रहे हैं.”

“आप हमेशा हिसाब ही किया करते हैं. फोन आये तो आप हिसाब कर रहे हैं और ग्राहक आये तो आप हिसाब कर रहे हैं.”

“हां भाई,” सदाशिवजी ने गम्भीर होकर कहा, “हिसाब ज़रा बड़ा है.”

“सो तो हम नहीं जानते. हम तो यह देखते हैं कि जो कोई ग्राहक आये तो आप हिसाब कर रहे हैं और जो कोई फोन आये तो आप हिसाब कर रहे हैं,”- नंदरामजी ने सदाशिवजी को घूरते हुए कहा.

“अब आप कुर्ता-पाजामा तो निकाल दीजिए आपको.”

“हां सो तो दे ही रहे हैं. उसमें क्या बात है.” नंदरामजी ने आलमारी से कुर्ता-पाजामा निकाल टेरेलीन की बुश्शर्ट पहने लड़के की ओर बढ़ाया और सिर खुजाने लगे. लड़के ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए उन कपड़ों को देखा और कहा, “मुझे लगता है यह बड़ा पड़ जाएगा.”

“सो तो अच्छी बात है,” नंदरामजी बोले.

“ढीला होगा न.”

“शुरू में होगा. बाद में एक धुलाई हो जाने पर थोड़ा सिकुड़ेगा, सो फिट आ जाएगा.”

“मुझे अभी इंटरव्यू में जाना है. बिल्कुल फिट चाहिए.”

“कहां जाना है?”

“इंटरव्यू में.”

“क्या होता है इंटरजू?”

“नौकरी के लिए होता है भाई. मुझे बिल्कुल फिट चाहिए. आप इससे छोटा नम्बर निकालिए.”

“एक बार की बात है. थोड़ा ढीला ही पहन लीजिए. बाद में ठीक हो जाएगा.”

“आप बाद की फिक्र न करें. मुझे इससे छोटा नम्बर निकाल कर दें.”

“सोच लीजिए, हम तो आपके ही लाभ के लिए कह रहे हैं.”

“धन्यवाद. आप दूसरा निकालिए.” लड़के ने कहा.

“अजीब बात है. आप धन्यवाद भी देते हैं और अपने ही फायदे की बात भी नहीं मानते.” नंदरामजी दूसरे नम्बर का कुर्ता-पाजामा निकालने लगे.

“जो कपड़ा ग्राहक चाहता है, सो ही न देंगे आप. या अपनी मर्जी का देंगे.” सदाशिवजी बोले.

“आप अपना हिसाब-उसाब कीजिए.”

“मैं क्या यहां कपड़े पहनकर देख सकता हूं?” लड़के ने पूछा.

“ज़रूर पहन सकते हैं. अंदर लंगोट-उंगोट तो पहने होगे ना? फिर क्या? शौक से पहन लीजिए. आप कोई महिला हैं! चाहे उधर से घूमकर अंदर चले जाइए, वहां पहन लीजिए.”

लड़का कुर्ता-पाजामा हाथ में ले काउंटर से घूमकर अंदर गया, जहां कम्बलों के ढेर से टिककर एक व्यक्ति लेटा था. नंदरामजी ने उस व्यक्ति को ज़रा सम्बोधित करते हुए कहा, “भाईजी, ज़रा बाबू साहब कपड़ा बदलने आ रहे हैं.”

“अरे तो आयें, सुसरे हम कौन उन्हें देख रहे हैं.” लेटे हुए व्यक्ति ने टोपी को और अधिक आंखों पर खिसकाते हुए कहा. तब तक लड़का अंदर पहुंच गया था.

तभी टेलीफोन की घंटी बजी.

“अब आप सुनिए.” नंदरामजी ने सदाशिवजी से कहा. सदाशिवजी ने उत्तर नहीं दिया. वे हिसाब लगाते रहे.

“हम कह रहे हैं अब आप ही सुनिए. हम ज़रा ग्राहक में लगे हैं.” उन्होंने फिर दुहराया.

“ग्राहक तो अंदर कपड़ा बदल रहा है. आप उसमें क्या लगे हैं?”

“हमने कपड़ा निकालकर दिया तभी न बदल रहा है, नहीं तो कैसे बदलता? हम कह रहे हैं हम ग्राहक में लगे हैं. आप स्वयं देख रहे हैं. वे सज्जन अभी कपड़े बदलकर आ सकते हैं.” दूसरा कुछ मांग सकते हैं. आप देख रहे हैं. हम काम में हैं. आप खुद उठिए और टेलीफोन पर जबाब दीजिए.”

“हमें तो आप कोई काम करते दिखाई नहीं देते अभी. आप फोन पर बात कर सकते हैं.”

“यों तो आप भी हमें कोई काम करते दिखाई नहीं देते.”

इसी समय दूकान के अंदर एक नेताजी घुसे, तो सदाशिवजी खड़े हो गये और नमस्कार करने लगे.

“आप फोन सुनिए, नमस्कार हम कर लेंगे.” नंदरामजी ने उन्हें टोका और स्वयं नेताजी को नमस्कार करने लगे. नेताजी कुछ बोले नहीं. वे घूम-घूम कर कपड़ा देखने लगे. सदाशिवजी ने फोन उठाकर कहा, “रांग नम्बर था.”

“होगा, हमें क्या. हम तो यह जानते हैं कि आप जब फोन उठाते हैं, रांग नम्बर होता है.”

सदाशिवजी फिर हिसाब करने बैठ गये. वह लड़का अंदर से निकला, तो कुर्ता-पाजामा पहने था. उसने नंदरामजी से कहा, “मेरे ख्याल से वह बिलकुल फिट है.”

“हां, फिट तो है, पर हमारी सलाह मानते तो आप ढीला ही लेते, जो सिकुड़ कर ठीक हो जाता.”

“इंटरव्यू में जाना है यार, इसीलिए वह खादी पहननी पड़ती है. बड़े नेताजी भी इंटरव्यू बोर्ड में मेम्बर हैं, सो खादी पहननी पड़ेगी. ड्रामा करना पड़ेगा सारा.”

“कौन से विभाग में इंटरव्यू है?” नेताजी ने पूछा.

“हरिजन कल्याण में है.”

“अच्छा, अच्छा,” और नेताजी फिर कपड़े के स्थान देखने लगे.

“ड्रामे के लिए पहनना पड़ता है.” लड़के ने बड़बड़ाते हुए बटुआ निकाला और नंदरामजी से पूछा, “कितना बिल हुआ?”

“बिल-उल तो सदाशिवजी आप ही बनाइए. हिसाब-किताब आप ही करते हैं.” नंदरामजी ने सदाशिवजी से कहा.

सदाशिवजी कुछ बोले नहीं. उन्होंने बिल-बुक पास खींची और दाम लिखने लगे. लड़का दाम चुकाकर तेज़ी से चला गया.

“अजीब बात है. कुछ देर पहले कोई सज्जन फोन पर थियेटर के लिए खादी का कपड़ा मांग रहे थे और अब ये सज्जन कह रहे हैं ड्रामे के लिए खादी पहननी पड़ रही है.” नंदरामजी सड़क की ओर देखते हुए बोले.

“हम सब जानते हैं, हमारे ही विभाग में नौकरी के लिए आया है. मैं तो खुद बैठूगा इंटरव्यू बोर्ड में. मुझे ही कह रहा था कि एक नेताजी हैं, जिनके कारण खादी पहननी पड़ रही है. मुझे जानता नहीं. अब इंटरव्यू में जब मुझे बैठा देखेगा, तो चौंक जाएगा.” नेताजी ने हंसकर कहा.

“गयी बिचारे की नौकरी. अब आप क्यों लेने लगे. आपके सामने ही खादी पहनकर गया है.” सदाशिवजी ने कहा.

“नौकरी में क्यों नहीं लेंगे? सामने ही खादी पहनकर गया तो क्या हुआ? जो व्यक्ति परिस्थितियां देखकर अपने को बदल लेता है वह वाकई बहुत हुशियार है. मनुष्य को चाहिए कि वह जैसा समय देखे वैसा करे, चाहे मन मार कर ही सही.” नेताजी ने कहा.

“सुंदर बात कही है आपने. सुना सदाशिवजी, परिस्थितियों में मनुष्य को बदलना ही चाहिए, चाहे मन मारकर ही सही. आप देखते हैं टेलीफोन की घंटी बज रही है, तो चाहे व्यस्त क्यों न हों उठकर सुनना ही चाहिए. हर बार कह देते हैं हम हिसाब कर रहे हैं.”

इतने में टेलीफोन फिर बजने लगा. नंदरामजी ने सदाशिवजी की ओर देख मुंह फेर लिया और काउंटर से सिर टिका सड़क की ओर देखने लगे.

– शरद जोशी

जनवरी 2013)

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