हेलन की आत्मकथा (भाग – 4)

 

दैनिक नियम के अनुसार मैंने भोजनोपरांत यूनानी वनदेवता सटीरोस को जल अर्पित किया. महाराज मेरी श्रद्धा से परिचित थे. अतः उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किया.

वन विभागाध्यक्ष, आटविक को आदेश दिया गया कि सभी सहचरों तथा सैनिकों के भोजन की व्यवस्था तत्काल कराई जाए क्योंकि कुछ समय बाद नगर की ओर प्रस्थान करना था.

आटविक ने आखेट का पूर्ण प्रबंध कर रखा था. जीव-हिंसा के प्रति मेरी अरुचि को देखते हुए महाराज ने आखेट के लिए मना कर दिया. मेरे प्रकृति-प्रेम के कारण आटविक को वन-संरक्षण की विस्तृत योजना प्रस्तुत करने के लिए कहा गया. महाराज के दृष्टिकोण ने मुझे कृतार्थ कर दिया. वन-विहार का मेरा उद्देश्य सफल हो गया.

अल्प विश्राम के पश्चात हमें शिविर के पार्श्व भाग में ले जाया गया. वहीं रखे सुसज्जित आसनों पर हम लोग बैठे. सामने की भूमि साफ कर दी गई थी. वहां राग और षाडव गाने वाले कलाकार उपस्थित थे. संगीत का वातावरण उस वन-प्रांतर में मुखरित हो उठा. उसके पश्चात जादूगरों और नटों ने अपनी-अपनी कला का प्रदर्शन कर हमारा मनोरंजन किया. सबसे अंत में मल्लों ने नाना भाव से व्यायाम-कौशल का संयत प्रदर्शन किया. एक ही साथ कई मल्ल नाना शत्रों से सुसज्जित होकर, विकट भंगिमाओं से अंग-त्रोटन, नाटन, उन्मोटन, विकुंचन और संतोलन की क्रिया दिखा रहे थे. उनके अविरल तालोट्टंकन से रह-रहकर वन-प्रांतर कांप-सा उठता था. कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात महाराज ने सभी कलाकारों, सूपकारों आदि को मुक्त हस्त से पुरस्कार दिए. प्रसन्नता मनुष्य को अति उदार बना देती है.

दिन का अवसान होते-होते हम राजधानी पहुंच गए. महाराज मुझे मेरे प्रकोष्ठ तक पहुंचाकर गुरुदेव के दर्शन हेतु चले गए.

जैसे ही मैंने प्रकोष्ठ में प्रवेश किया, सारा और चंद्रिका आ गईं. वे मेरे साथ गई अवश्य थीं पर बीच में ही चंद्रिका की अस्वस्थता के कारण दोनों वापस आ गई थीं. उस समय मैं महाराज के साथ गजारूढ़ थी. उनके वापस जाने की सूचना हमें आटविक से प्राप्त हो चुकी थी.

चंद्रिका अब स्वस्थ थी. सारा ने मुझे परिधान दिए. नए वत्र धारण कर मैं विश्राम हेतु पर्यंक पर जा पहुंची और दोनों सखियां निकट ही आसन पर बैठ गईं. मैंने संक्षप में उन्हें सारा विवरण कह सुनाया.

महाराज के आने का समय जानकर वे दोनों चली गईं. पर महाराज ने रात्रि के दो प्रहर व्यतीत हो जाने के पश्चात मेरे प्रकोष्ठ में पदार्पण किया. राजकुल की महिलाओं के लिए प्रतीक्षा करना उनकी नियति होती है. थोड़ा विश्राम कर मैं अब तक विगत क्लांति हो चुकी थी.

महाराज को मैंने आसन दिया और उनके निकट मैं भी बैठ गई. उनका मुख यद्यपि प्रसन्न था पर मस्तक पर चिंता-रेखाएं आंदोलित थीं. नारी त्रियोचित अंतर्दृष्टि से अनकही बात समझ लेती है. मैं जान गई कि महाराज उहा-पोह में हैं. पर मैंने अपनी जिज्ञासा को दबाए रखा.

“देवी ! एक शुभ समाचार आपको देना है.”

“फिर संकोच कैसा ? कृपया अविलंब बताएं, क्या समाचार है ?”

“शीघ्र ही बिंदु के विवाह की तिथि निश्चित हो जाएगी.”

“महाराज, यह तो मेरे लिए – हम सबके लिए – आनंद का विषय है. परंतु अप्रत्याशित ही यह विषय कैसे उठा ?”

“चंपानगरी से वधू-पक्ष के लोग आए हैं.”

“चंपानगरी ! यह तो अंग देश की एक नगरी है…”

महाराज ने शीघ्रता से कहा, “आपका कथन सही है. हमारी भावी वधू चंपानगरी के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण की बेटी है.”

मैं आश्चर्य-स्तब्ध रह गई. जाति-कुल, संपन्न-विपन्न का विचार मैं नहीं करती थी परंतु हमारी भावी वधू राजकुल की नहीं है, यह तथ्य मुझसे और बिंदु से गोपन रखा गया, यह सोचकर मेरा मन आहत हो उठा.

मेरे सायास – मौन से महाराज मेरी व्यथा समझ गए.

“आपका आहत होना उचित है पर मैं असहाय था. गुरुदेव ने मुझसे वचन लिया था कि बिंदु के विवाह की बात करते समय वधू के परिवार के संबंध में मैं किसी से चर्चा न करूं. मैं वचनबद्ध था, अतः क्षमा चाहता हूं….”

मैंने महाराज का निषेध किया, “ऐसा मत कहिए, देव ! गुरुदेव ने किसी कारण से ही गोपनीयता रखने का निर्णय लिया होगा. क्या इस विवाह-संबंध का कोई राजनीतिक प्रयोजन है ?”

“नहीं ! पूरी बात आपको बताता हूं. हमारे राज-ज्योतिषी का श्वसुर-गृह चंपानगरी में है. कुछ समय पूर्व जब वे चंपानगरी गए तो वहां के शिरोमणि कात्यायन नामक एक ब्राह्मण ने उन्हें अपनी पुत्री सुभद्रांगी की जन्मपत्रिका बांचने को दी. जन्मपत्रिका देखकर राज-ज्योतिषी आश्चर्य में पड़ गए. सुभद्रांगी के ग्रह-नक्षत्रों के अनुसार उसके चक्रवर्ती सम्राट की माता होने का स्पष्ट योग था. राज-ज्योतिषी ने सोचा कि सुभद्रांगी का विवाह मौर्य वंश के अतिरिक्त यदि किसी अन्य वंश में होता है तो भी उसका पुत्र चक्रवर्ती सम्राट बनेगा ही. इसका अर्थ है, वह मौर्य-वंश को समूल नष्ट करके ही सम्राट बन सकता है.

“राज-ज्योतिषी ने शिरोमणि कात्यायन को विश्वास में लेकर सुभद्रांगी से भेंट की. उन्होंने सर्वांगसुंदरी सुभद्रांगी को स्वभावतः सहनशील और प्रज्ञावान पाया. राज-ज्योतिषी को कन्या बिंदुसार के उपयुक्त लगी. सुभद्रांगी के पिता कन्या का विवाह राजवंश में करने को सहर्ष प्रस्तुत हो गए.

“गुरुदेव शीघ्र विवाह करना चाहते हैं. एक-दो दिन में विवाह की तिथि निश्चित हो जाएगी.”

“शुभ संवाद है. मैं बहुत प्रसन्न हूं. महाराज, मुझे प्रतीत होता है कि सुभद्रांगी अपने परिवार सहित हमारे नगर में उपस्थित है.”

“गुरुदेव ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है. सत्य कहूं तो इस दिशा में मैंने विचार ही नहीं किया.”

“यदि बिंदु इस विवाह के लिए स्वीकृति न दे, तो ?”

“मैं आश्वस्त हूं कि आपके रहते हुए यह स्थिति नहीं आएगी क्योंकि विवाह के लिए वह आपको वचन दे चुका है. उसने स्पष्ट रूप से किसी अन्य कन्या में रुचि भी प्रदर्शित नहीं की है. सर्वोपरि, मौर्य वंश की श्री और सिद्धि के लिए आप भी इस विवाह का समर्थन ही करेंगी.”

“परंपराओं की पवित्र रेखा के परे जाकर भी मैं मौर्यवंश का हित ही चाहूंगी. महाराज….”

“देवी, अपने मन की बात निस्संकोच होकर कहें.”

“गुरुदेव के प्रति मेरी अश्रद्धा न समझें तो एक बात पूछूं ?”

“अवश्य, देवी !”

“आप छोटी-छोटी बातों तक के लिए गुरुदेव के मुखापेक्षी हैं. अपने स्वतंत्र निर्णय क्यों नहीं लेते ? विवाह तो विशुद्ध रूप से पारिवारिक प्रसंग है. इसमें आपका अपना चिंतन होना चाहिए.”

“आपके विचार मुझे सर्वथा मान्य हैं. गुरुदेव के प्रति मेरी जो घनीभूत श्रद्धा है, उसके पार मैं नहीं जा सकता. उन्हीं के समर्थ संरक्षण में मैं अपने उत्कर्ष की ओर गतिशील हो पाया हूं. वे इस राज्य के ही प्रधानमंत्री नहीं, मेरे परिवार के भी प्रधान हैं. आपके तो पितातुल्य हैं.”

“मेरा संकेत आपकी स्वतंत्र अस्मिता की ओर था. इस प्रसंग पर एकांत में विचार कीजिएगा. सर्वप्रथम, अपने सूत्रों से यह ज्ञात कीजिए कि वधू-परिवार हमारे नगर में कहां आश्रय लिए हुए है. मेरा अनुमान है कि वे राज-ज्योतिषी के अतिथि होंगे.”

“आपकी योजना क्या है ?”

“मैं बिंदु का सुभद्रांगी से परिचय कराना चाहती हूं. बिंदु की मनःभूमि पर प्रणय के बीज अभी तक नहीं पड़े हैं. संभव है, प्रथम दर्शन में ही ऐसा हो जाए. मैं भी अपनी भावी पुत्रवधू को परख लूंगी. आप आशीष दें कि सब शुभ हो.”

महाराज ने मधुर स्मित से मेरी योजना का अनुमोदन किया.

दूसरे दिन महाराज ने स्वयं आकर सुभद्रांगी की राज-ज्योतिषी के यहां उपस्थिति की पुष्टि की. मेरे और बिंदु के आगमन की सूचना राज-ज्योतिषी को दे दी गई है. यह भेटं नितांत गोपनीय रहे और एकांत में हो, इसकी व्यवस्था भी हो चुकी थी.

बिंदु को मैं प्रातः ही विश्वास में ले चुकी थी. योजनानुसार, राजकीय प्रदर्शन से रहित, हम लोग राज-ज्योतिषी के निवास-गृह पर पहुंचे. भवन सुंदर और विशाल था. पृष्ठ भाग में एक वाटिका थी.

सुभद्रांगी समस्त उत्सुकता आंखों में भरे हमारे सम्मुख आई. मैंने वर की माता के मान से नहीं, ममता और वत्सलता से उससे वार्ता की. रूपसी नारी प्रकृति का सबसे मनोहर चित्र होती है. मेरा बिंदु तो उसे निहारता ही रह गया. सुभद्रांगी रूप, सौंदर्य और मनीषा की जीवंत मूर्ति थी. निश्छल ऐसी जैसे यौवन नवीन शैशव में स्नान करके आया हो. बिंदु तो अपनी भावी वधू के वाक्चातुर्य पर मुग्ध हो गया. रूप का आकर्षण तो था ही.

कन्या के कुल आदि की चिंता किए बिना बिंदु विवाह के लिए तत्काल सहमत हो गया. मैं जानती थी कि यह नव वयस्क का अनिंद्य सौंदर्य के प्रति प्रथम आकर्षण का परिणाम है. सौंदर्य के प्रति बिंदु के उद्धत आचरण में भविष्य का कोई संकेत विद्यमान हो सकता है, ममता के मधुर मोह ने मुझे इस दिशा में सोचने से हठात रोक दिया.

बिंदुसार-सुभद्रांगी का परिणय पूरी राजकीय गरिमा से संपन्न हुआ. इस अवसर पर पूरा नगर ही उमड़ पड़ा. महाराज ने मुक्त हस्त से भूमि, आभूषण, स्वर्ण-मुद्राएं, वत्र और गौएं दान में दीं. कारागार से बंदियों को समयपूर्व मुक्त कर दिया गया. वृद्धों, असहायों, रोगियों को अनुदान दिए गए. मैं जानती हूं, महाराज के व्यक्तित्व में, स्वभाव में, प्रवृत्ति में विद्यमान करुणा इस अवसर पर उमड़ पड़ी. पुत्र-विवाह के आनंद से हम दंपत्ती स्वयं को आलोकित अनुभव करने लगे.

बिंदु के विवाह के पश्चात गुरुदेव ने अपना पद त्याग कर, संन्यास ग्रहण कर लिया और वन में अपनी कुटी में चले गए. अपने स्थान पर चतुर, राजनीतिज्ञ, न्यायप्रिय प्रधानमंत्री खल्लाटक की नियुक्ति कर गए. मैंने गुरुदेव से कहा भी कि लौकिक जीवन की उपेक्षा कर वे नैतिक, सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं के प्रति बहुत कुछ उदासीन हो जाएंगे. मैंने उनसे आग्रह किया कि वे अपने व्यवहार व आचरण द्वारा, पूर्व की भांति, निरंतर शुभ्र-शुचि प्रेरणा लहरियों को चारों ओर के वातावरण में विकीर्ण करते रहें. पर वे एकांत के आग्रही बने रहे. मैं मन-ही-मन आशंकित हो उठी कि कहीं मेरे कथन का भ्रांत अर्थ लेकर सम्राट ने गुरुदेव की उपेक्षा करनी न प्रारंभ कर दी हो.

सुभद्रांगी से बिंदु को दो पुत्र – सुसीम और अशोक हुए. अभी विवाह को पांच वर्ष ही व्यतीत हुए थे. सुभद्रांगी का प्रेम सुसीम पर अधिक था. अशोक का पालन-पोषण मैं कर रही थी. सभी लोग उसे मेरा ही पुत्र मानते थे. तीन वर्ष का अशोक मुझे ‘माता’ कहता था.

ज्ञात नहीं, क्यों महाराज राजकाज और परिवार से विरक्ति-सी अनुभव कर रहे थे. कई-कई दिन तक मुझे उनके दर्शन न होते. उनका अधिकांश समय जैन आचार्यों के संसर्ग में व्यतीत होता. युवा आज्ञाकारी पुत्र बिंदुसार, सेवा-समर्पित वधू सुभद्रांगी, अबोध पौत्र सुसीम और अशोक का बाल चांचल्य और मेरा प्रेम भी उन्हें परिवार में न बांध पाता.

एक दिन अप्रत्याशित रूप से महाराज मेरे प्रकोष्ठ में आ गए. मैंने उनका उत्साहपूर्वक स्वागत किया और उचित आसन दिया.

आसन ग्रहण करने के पश्चात महाराज ने मंद स्वर में कहा, “देवी, आज मैं आपसे क्षमा प्रार्थना करने आया हूं.”

सर्वथा औपचारिक बात सुनकर मैं हतप्रभ रह गई. अनिष्ट के शंका-घन मेरे मन में घुमड़ने लगे. पर मुझे अपने विवेक की शक्ति में आस्था थी. विभावरी में परिरंभ वेदना से विभोर करके श्रुति-मधुर कथा सुनानेवाले प्रणयी महाराज उसी शयन मंदिर में आज किस कृत्य की क्षमा मांगने का प्रस्ताव रख रहे हैं.

संयत होकर मैंने कहा, “आप यह क्या कह रहे हैं, देव ! मुझे आज्ञा दें.”

“देवी, मैं आपका अपराधी हूं. आयु की इस संधि पर, जब पति-पत्नी एक-दूसरे का आश्रय बनते हैं, मैं साधु बनकर आपको अकेला-असहाय छोड़कर जा रहा हूं.”

“आप सब कुछ त्यागकर सन्यास ग्रहण कर रहे हैं ? सफलताओं और उपलब्धियों के उच्चतम शिखर पर पहुंचकर आप आत्मग्रस्त हो गए हैं महाराज. इसी कारण आपको अपनी आत्मा की चिंता सता रही है. राज्य का पालन करनेवाला राजा मनुष्यों के लिए विधाता होता है. आप हमें ही नहीं, पूरी प्रजा को छोड़कर जा रहे हैं.”

“क्षमा करें देवी, मेरा निर्णय अंतिम है. मैंने व्यवस्था कर दी है. कल ही बिंदु का राज्याभिषेक होगा. यद्यपि वह इसके लिए अधिक उत्सुक नहीं है तथापि वह सहमत हो गया है. मुझे संतोष है कि मेरे प्रति उसकी श्रद्धा कभी तिरस्कृत नहीं हुई. जैसे गुरु प्रतिकूल न होने वाले शिष्य की कामना करता है, वैसे ही पिता आज्ञाकारी पुत्र की.”

मेरी आशा की डोर अभी टूटी नहीं थी. विनीत हो, निवेदन किया, “महाराज, आपके भीतर भीमगुणों और कांतगुणों दोनों का समावेश है. आप न्यायप्रिय और वीर शासक हैं. आपमें ऐसी आत्मिक शक्ति है कि पुत्र के युवा होते ही आप स्वयं को राज्य से विच्छिन्न कर रहे हैं. मैंने आपके साथ कृतकृत्यता और आनंद दोनों का अनुभव किया है. अब मुझे साथ क्यों नहीं ले चल रहे हैं ?”

“देवी, जैन धर्म में इसका निषेध है. आपको मेरे मार्ग पर अग्रसर होने की आवश्यकता भी नहीं है. आप यहीं रहकर अपना कर्त्तव्य पूरा कीजिए.”

महाराज कुछ क्षण रुके जैसे साहस संचित कर रहे हें. मेरे पर्यंक पर निद्रामग्न अशोक की ओर इंगित करते हुए महाराज ने कहा, “वह है आपका उत्तरदायित्व ! इसे अहिंसा में इस प्रकार दीक्षित कीजिए कि अशोक अपने जीवन की संध्या में मेरी भांति, युद्धजनित हिंसक कृत्यों के पश्चाताप स्वरूप सन्यास ग्रहण करने को प्रेरित न हो. राज-ज्योतिषी ने मुझे गुप्त रूप से बताया है कि बिंदुसार के बाद अशोक ही चक्रवर्ती सम्राट होगा.”

दूसरे दिन बिंदुसार के राज्याभिषेक के बाद महाराज ने सबसे विदा ली. उनके सन्नयास लेने का समाचार प्रजा को विदित हो चुका था. राजमहल के बाहर एकत्र प्रजा ने उन्हें अश्रुपूर्ण नेत्रों से विदा किया.

मैं सम्राट चंद्रगुप्त को भंत भद्रबाहु तथा जैन साधु मंडली के साथ साधु वेश में जाते देख रही थी. मेरा सर्वस्व मेरी आंखों के सामने जा रहा था…पुत्र, पौत्र के स्नेह शृंखला की सबसे प्रमुख कड़ी आज टूट रही थी और मैं असहाय थी. इस सृष्टि में ऐसा कौन है जो अपने बुद्धि-बल से भवितव्यता को मिटा सके.

भारतीय संस्कृति में सन्नयास ग्रहण करना एक स्वीकृत और सर्वमान्य परंपरा है. सन्नयासी सपत्नीक वन को प्रस्थान करते हैं परंतु जैन धर्म पत्नी को साथ ले जाने की आज्ञा साधु को नहीं देता. इस धर्म में माना जाता है कि मोह-माया और कर्मों के प्रति आकर्षण ही बंधन का मूल कारण है. पूर्व संचित और वर्तमान कर्मों से मुक्ति पाने के लिए संसार का त्याग करना आवश्यक है तभी मोक्ष प्राप्त होगा. आप अपनी आत्मा को मुक्त करने के लिए निकले हैं महाराज. पर जैसाकि जैन धर्म में विहित है, मन आत्मा से भिन्न होता है. आप अपनी आत्मा को बंधनरहित और श्रेष्ठ बनाएंगे पर आपका मन थककर जिस छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम करेगा, वह छाया मैं बन जाऊंगी. महाराज, आपको मूक विदा देती हूं और आपके मन और आत्मा के कल्याण की कामना करती हूं.

मैं अपने गहन विचार-गर्त से बाहर निकली और अमंद आभा से आलोकित शिशु अशोक को हृदय से लगा लिया. विचार थमे तो अश्रुओं ने उनका स्थान ले लिया.

समय किसी घटना से बाधित नहीं होता. वह सदा चलता रहता है. एक दिन सुभद्रांगी असमय मेरे प्रकोष्ठ में आ पहुंची. मैंने सोचा, पुत्र अशोक की ममता उसे खींच लाई होगी. अशोक के प्रति तो वह अपना प्रेम तक प्रदर्शित नहीं करती. माता-पिता दोनों यही चाहते थे कि मैं अशोक को पूर्णरूपेण अपना समझूं और उस पर निर्बाध स्नेह-वृष्टि करती रहूं ताकि मुझे संतानहीन होने का दंश न चुभे. महान पुत्र की माताएं भी महान होती हैं. इसी कारण स्नेह के अतिरिक्त सुभद्रांगी मेरी श्रद्धा की भी पात्र थी.

मैंने पुत्रवधू का स्वागत किया. औपचारिकताएं भूलकर सुभद्रांगी मेरे गले लग गई. कभी जिसकी छलछलाती हंसी, स्वर-लहरी-सी कानों को सुख देती थी, आज उसी की निःश्वासें सुनाई दे रही थीं. निःश्वास है तो, मुझे लगा, वेदना भी निकट ही होगी. सहानुभूति का स्पर्श पाकर उसकी व्यथा प्रकट होने लगी. उसे रोता पाकर मैं चकित रह गई कि इस राज-रानी को कौन-सा कष्ट है, जिसका निवारण उसका समर्थ पति भी नहीं कर पाया. मैंने उसकी पीड़ा को पिघलने दिया. जब वह कुछ हल्की हो चुकी तब मैंने उसे आसन पर बिठाया.

“निस्संकोच होकर बताओ तुम्हें क्या
दुःख है ?”

कुछ बताने के स्थान पर अश्रुओं से धुली आंखें ऊपर उठाकर उसने मुझसे ही प्रश्न किया, “महाराज बिंदुसार से आपकी भेंट कब से नहीं हुई है ?”

“वैसे तो काफी दिन हो गए हैं पर मैंने चिंता नहीं की, क्योंकि एक तो वह सम्राट है, व्यस्त रहता होगा, दूसरे तुम्हारा स्नेहिल बंधन….”

व्यग्रता से सुभद्रांगी ने कहा, “मैं उन्हें बांध नहीं सकी, राजमाता !”

“प्रेम बंधन नहीं है. पूजा है, उपासना
है पुत्री !”

“और जब देवता निष्ठुर हो जाएं, तो ?”

“स्पष्ट बताओ, तुम्हारा तात्पर्य क्या
है ?” मुझे स्थिति वास्तव में गंभीर लगी.

एक दीर्घ निश्वास ले, अश्रुप्लावित दृग-युगलों से अश्रुमाला पोछती सुभद्रांगी बोली, “महाराज आजकल राजनर्तकी मुदाल के प्रेम में पड़कर घर-परिवार, राजकाज सब कुछ विस्मृत कर बैठे हैं.”

इस असंभाव्य, अतार्किक एवं अकल्पित समाचार से मैं कुछ क्षणों के लिए जड़वत हो गई. फिर सायास संभली.

“बिंदु की प्रणय-धारा मुदाल नामक उस समुद्र की ओर मुड़ गई है, जिसमें गिरकर प्रत्येक नदी का अमृत-जल खारा हो जाता है. यह प्रेम का क्षणिक आवेग है. इसे बांधने का उपाय मैं शीघ्र करूंगी. तुम आश्वस्त होकर अपने भवन में जाओ.”

व्यथा और चिंता से दग्ध सुभद्रांगी सांत्वना का प्रश्रय लिए चली गई. जाते-जाते उसने सुताभाव से अपनी कारुणिक आंखें मेरी ओर उठाईं और मूक-दृष्टि से कहा, “विलंब मत करना माता. आपका अवलंब चाहिए, अविलंब चाहिए.”

वह तेजस्विनी किस सहनशीलता, साहस और संयम से पति-उपेक्षा के विष-घूंटों का पान करती रही होगी, यह सोचकर मेरा हृदय कांप उठा.

मैंने तत्काल परिचारिका भेजकर प्रधानमंत्री खल्लाटक को बुला भेजा. कुछ ही क्षणों बाद खल्लाटक उपस्थित हो गए. उनकी शीघ्रता देखकर मुझे प्रतीत हुआ कि जैसे वह मुझसे भेट करने को स्वयं आतुर हों.

खल्लाटक ने आते ही कहा, “राजमाता, प्रणाम ! मेरे लिए क्या आदेश है ?”

“मंत्री जी, मुदाल कौन है ?”

“जी, मुदाल राजनर्तकी है.”

राजनर्तकियों की परंपरा महाराज चंद्रगुप्त ने ही डाली थी. उनकी उपस्थिति राजसभा तक ही सीमित थी. राज सहित सभासदों, मंत्रियों आदि का अपनी कला से मनोरंजन करना ही उनका काम था. राजनर्तकी के रूप में मुदाल खल्लाटक के समय में ही आई थी. संदेह के सर्प ने मेरे मन में फन उठाया – बिंदुसार को मुदाल के प्रेमजाल में उलझाने का षड्यंत्र कहीं खल्लाटक का ही न हो ! पर इससे वह कौन सा उद्देश्य सिद्ध करना चाहता है ? बिंदुसार कुछ काल के लिए भटक भले ही जाए पर शौर्यहीन तो नहीं हो जाएगा…हो सकता है, खल्लाटक पर मेरा संदेह निराधार हो. यदि ऐसा है तो वह मेरी योजना को सफल बनाने में सहयोग करेगा. खल्लाटक चतुर है, विनम्र है, साथ ही निर्भीक भी है. निर्भीक व्यक्ति दुरभिसंधियां नहीं करता.

सौजन्यवश खल्लाटक ने मेरे चिंतन में बाधा नहीं दी. वह विनम्रता की मूर्ति बना, आसन पर बैठा रहा,

“यह प्रकरण कब से चल रहा है, मंत्री जी ?”

“लगभग एक माह से.”

“और आपने इसकी सूचना मुझे देना उचित नहीं समझा ?”

“क्षमा करें राजमाता, मैं संकोचवश ऐसा नहीं कर पाया. सत्य तो यह है कि आपके सामने सम्राट के विपरीत आचरण की बात कहने का मैं साहस नहीं कर सका.”

“क्या इसका कोई उपाय सोचा आपने ?”

“आप स्वयं महाराज को समझाएं. आप माता हैं, प्रताड़ित भी कर सकती हैं. मेरी ओर से किया गया कोई भी उपाय सम्राट के प्रति अभद्रता की श्रेणी में आ जाएगा.”

“मंत्री जी, वासना-विकल प्राणी औचित्य और अनौचित्य की विवेचना नहीं कर सकता. ऐसे व्यक्ति को समझाना कुएं में पड़ी अग्नि के समान व्यर्थ होगा. क्या मुदाल से मेरी भेंट संभव हो सकेगी ?”

“क्षमा करें राजमाता, यह राजकीय गरिमा के अनुकूल न होगा. आप आदेश करें. राजकीय आज्ञाएं शिरोधार्य होती हैं. अन्य आदेश अवज्ञा के कान से सुने जाते हैं.”

“महाराज बिंदुसार मुदाल के पास से राजभवन कब लौटते हैं ?”

“मध्यरात्रि से कुछ पूर्व. मद्यमान के आधिक्य के कारण दिवस के तीसरे प्रहर तक विश्राम करते हैं. सायंकाल उनका रथ फिर मुदाल के निवास की ओर चल पड़ता है.”

“मुझे प्रसन्नता है कि आप अपने कर्त्तव्य के प्रति सचेत हैं. आप कल प्रातः मुदाल से मिलिए. ध्यान रहे, वह भयग्रस्त न होने पाए. मित्रवत उसे समझाइए कि अनजाने ही वह महाराज को राजकाज से विमुख कर, राष्ट्र का और प्रजा का कितना अहित कर रही है. स्वयं भी पाप की भागी बन रही है. त्री है, इस विचार से अवश्य द्रवित होगी.”

“संभव है वह पाटलिपुत्र त्यागकर कहीं और चले जाने का प्रस्ताव रखे.”

“उसका यह प्रस्ताव अस्वीकार करना होगा क्योंकि वह देश में कहीं भी होगी, राजा के गुप्तचर उसे खोज लेंगे.”

खल्लाटक शांत बैठे रहे.

“उसे प्रेरित करना होगा कि वह राष्ट्रहित में अपने प्राणों का उत्सर्ग करे. महाराज के प्रति यही उसका सच्चा प्रेम होगा. वैसे भी राजनर्तकियों का आकर्षण कितने दिन टिकता है ! मुझे विश्वास है कि आप अपने तर्कों से मुदाल को प्राणोत्सर्ग के लिए प्रस्तुत कर सकेंगे.”

“यदि वह वचन देकर बाद में उसे न
निभाए ?”

“भावनाओं में बहकर वह तत्काल कुछ भी करने को प्रस्तुत हो जाएगी. हो सकता है, प्राणात करने के लिए उसके पास विष न हो. आप अपने साथ घातक विष लेकर जाइएगा. वह विष पीकर मुदाल अपनी इहलीला समाप्त कर लेगी. विषपान से पूर्व मुदाल से एक पत्र लिखवा लीजिएगा, जिसमें महाराज को संबोधित करते हुए वह लिखे कि वह अपने प्राण स्वेच्छा से दे रही है. महाराज मुक्त होकर राजकाज संभाल सकें और प्रजा की रक्षा कर सकें, उसके लिए यह जरूरी है.”

“युक्ति तो उत्तम है.”

“परंतु इसकी सफलता आपके वाक्चातुर्य पर निर्भर करती है. प्रयत्न कीजिएगा कि आपको मुदाल के यहां आते-जाते कोई न देख पाए. सफलता मिलने पर किसी परिचारिका द्वारा फलों से परिपूर्ण एक पात्र मेरे पास भेज दीजिएगा. इस संबंध में मुझसे भेंट करने की आवश्यकता नहीं. इस प्रकरण को गोपनीय रखने के लिए आप शपथ के अधीन होंगे.”

खल्लाटक ने अति उत्साह में गोपनीयता की शपथ भी ले डाली.

वीर पुरुष को दो चीजें बांधती हैं – नारी का उन्मुक्त प्रेम या रणभेरी ! मुदाल से मुक्त हो, बिंदु ने दक्षिण प्रदेशों को विजित करने के लिए सेना सन्नद्ध कर ली. अभियान पर प्रस्थान करने से पूर्व मेरे पास आया.

“माता, मुझे आशीर्वाद दें. मैं दक्षिण भारत के अभियान पर जा रहा हूं.”

“विजयी भवः पुत्र, विजयी भवः !”

सुभद्रांगी प्रसन्न मुद्रा में बिंदु के पार्श्व में खड़ी थी. उसके हाथ में कंचन-पात्र था, जिसमें पूजा-अर्चना की सामग्री रखी थी. साथ में सुसीम खड़ा था.

मैंने दीप प्रज्ज्वलित किया. सुभद्रांगी ने पति को विजय-तिलक लगाया और उसकी आरती की.

“समाचार देते रहना पुत्र.”

“जो आज्ञा माता.”

इतना कहकर बिंदु ने मेरे चरण-स्पर्श किए. पुत्र का विद्युन्मय स्पर्श पाकर नेत्र अश्रुपूरित हो गए. बिंदु ने उठकर देखा तो मैंने
आंखों-ही-आंखों में अश्रु पी लिए. सोचा, मेरी अश्रुपूरित आंखें देखकर कहीं मेरा पुत्र दुर्बल न पड़ जाए.

बिंदु तत्काल अपने पुत्रों की ओर बढ़ा. सुसीम और अशोक को हृदय से लगाकर उन्हें स्नेह-सिंचित किया, सुभद्रांगी के कंधे पर प्रेम की आश्वस्ति का हाथ रखा. अनजानी आशंका से भयभीत सुभद्रांगी के अश्रु पलकों पर ही रुक गए. बिंदु तेजी से प्रकोष्ठ के बाहर चला गया.

समय पंख लगाकर उड़ने लगा. विजय के समाचार आने प्रारंभ हो गए. प्रत्येक समाचार पर मैं विचलित हो उठती, फिर अशोक को अपने वक्ष से लगाकर शांत हो पाती.

सुभद्रांगी का अधिकांश समय मेरे ही प्रकोष्ठ में व्यतीत होता था. मुझे विचलित देखकर पूछती, “माते ! क्या आपको विजय-समाचार सुनकर प्रसन्नता नहीं होती ?”

“होती है.”

“फिर आप विचलित क्यों हो उठती हैं?”

“मैंने बाल्यकाल से विवाह पूर्व तक अपने पिता को युद्धों में लिप्त देखा है. अनगिनत लोगों के रक्त से सिंचित भूमि पर अधिकार करने की करुण कथाएं उन्हीं के मुख से सुनती रही हूं. जिसे वह विजय का गौरव समझते, उसे मैं मानवता का पद-दलन मानती. मैं हिंसा और राज्य विस्तार से घृणा करने लगी. यह सोचकर मेरा हृदय विचलित हो उठता है सुभद्रांगी कि मेरा पुत्र निशि-दिन हिंसा में लिप्त रहकर भूमि पर अधिकार करता जा रहा है. क्या प्रत्येक सम्राट की यही नियति होती है कि वह मानवता पर कुठाराघात करे ? सुभद्रांगी, कामना करो कि वह मानवता का कलंक बनने के स्थान पर प्रेम और अहिंसा का प्रकाश फैलाए.”

प्रत्येक विजय-समाचार के साथ मेरी मनःस्थिति बिगड़ती गई. शरीर अवश होता चला गया. सभी को लगा कि मैं किसी भयंकर रोग से ग्रस्त हो गई हूं. राजवैद्य भी कोई निदान नहीं कर पाए.

सुभद्रांगी ने मेरे रोगग्रस्त होने का समाचार बिंदु को भेज दिया. समाचार मिलने तक वह पूरा दक्षिण भारत विजित कर चुका था और तत्समय उड़ीसा की ओर अग्रसर था. अभियान रोककर वह सेनासहित पाटलिपुत्र लौट आया.

मुझे रोग-शैया पर देखते ही भारत-सम्राट बिंदु शिशु के समान रोने लगा.

मैंने क्षीण स्वर में कहा, “छिः, रोता क्यों है !! तू तो विजयी होकर आया है.”

“नहीं माता, मैं पराजित हो गया हूं. अपने युद्धोन्माद में मैं यह विस्मृत कर बैठा कि आपको व्यर्थ की हिंसा से घोर घृणा है. आप हिंसा की अदृश्य चोट अपने पिता के घर सहती रहीं और पुत्र ने भी उसी चोट पर चोट कर डाली. बताओ माता, मैं कैसे पश्चाताप
करूं ?” कैसे आपके कष्ट का निवारण हो?”

“अच्छा, मुझे वचन दे कि हिंसा से किसी को विजित नहीं करेगा वरन मित्रता के सद्भाव के स्वर्ग-प्रासाद निर्मित करेगा. राज्याभिषेक के समय ली गई प्रतिज्ञा, ‘माता पृथ्वी, तुम मेरी हिंसा न करो और मैं तुम्हारी हिंसा न करूं’, कभी विस्मृत न करना. स्मरण रखना कि अहिंसा बुराई के साथ मौन समझौता नहीं है. अहिंसा सशक्त मांसपेशियों और शत्रों पर विश्वास नहीं रखती. वह नैतिक साहस, आत्मनियंत्रण और सुदृढ़ चेतना का आधार ग्रहण करती है. अहिंसा, कायरता या दुर्बलता को छिपाने के लिए बहाना नहीं है. केवल वे ही लोग जिनमें वीरता, कष्ट-सहिष्णुता और बलिदान की भावना के गुण होते हैं, अपने-आपको संयम में रख सकते हैं और शत्रों का प्रयोग किए बिना कृतार्थ हो सकते हैं.”

बिंदु ने मेरा हाथ पकड़कर अपने मस्तक से लगा लिया, जो शीघ्र ही उसके अश्रुओं से आर्द्र हो उठा. स्पर्श से ही मैं उसके पश्चाताप का मनोभाव समझ गई.

मेरी सारी शक्तियां क्षीण हो रही थीं. मैंने अस्पष्ट-से स्वर में कहा, “मेरा अंतिम-संस्कार तू नहीं, तेरा पुत्र अशोक करेगा.” राज-ज्योतिषी की गुप्त भविष्यवाणी को ध्यान में रखते हुए यह वास्तव में अशोक के उत्तराधिकार की प्रच्छन्न घोषणा थी. बिंदु ने तत्काल अशोक के सिर पर हाथ फेरा जैसे वह मेरा मंतव्य समझ गया हो.

मुझे गतायु जानकर बिंदु ने अश्रुपात कर अपनी सहमति व्यक्त की. अशोक ने अपना सिर मेरे वक्ष से सटा दिया. सजल नेत्र लिए सुभद्रांगी मेरे चरणों के समीप बैठी थी. सुसीम का कोमल हाथ मेरे चरणों पर रखा था. सबको अपने निकट देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि नूतन हरियाली मुझे घेरे बैठी है. शरीर के प्राण त्यागने के लिए इतना पुण्यमय वातावरण क्या सबको मिलता है !!!

भावावेश में मेरा कंठ अवरुद्ध हो गया. वाणी कुंठित हो गई. लगा जैसे हृदय में हाहाकार मचा हो. दूसरे ही क्षण लगा मैं रिक्तता के तट पर खड़ी हूं, जहां और कुछ नहीं है, है तो मात्र शून्य ही शून्य….ही शून्य ….शून्य…..

(समाप्त)

मई   2005

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