हवा का झोंका  – विद्यानिवास मिश्र

शब्दसम्पदा

एयरकंडीशन सभ्यता का विस्तार अभी हिंदुस्तान में ज़्यादा नहीं हो पाया है इसलिए हवा का संस्पर्श अभी भी कुछ अर्थ रखता है. वैसे तो उनचास पवन बाहर और पांच प्राण अपान उदान समान व्यान वायु शरीर के भीतर संचार करनेवाले कहे गये हैं, पर प्रसिद्धि में वेग, मौसम और दिशा के आधार पर ही वायु के नाम हैं.

वेग में सबसे धीमी है भोरहरिया, सुबह की मंद समीरण, जरा ऊपर वेग हुआ तो बतास और हवा उठी तो बयार, और तेज़ हुई तो पवन, धूलि उड़ाती चली तो बगोला या बगूला, फिर आंधी. धूलि छा गयी तो अन्धड़ और बवंडर (या बौंड़र) और यदि धूलि के बाद तुरंत कुछ मेह भी ला दे तो अर्रबाऊ कहलाती है. गांवों में झंझा या चक्रवात (साइक्लोन) या त़ूफान को बुढ़िया आंधी भी कहते हैं. हलका चक्रवात घुमरी या चकरी है.

जेठ-बैसाख में लू चलती है, उसकी झोंक तेज़ हो गयी तो झोंक, झांय या झांके लू हो जाती है. उसमें ज़ोर की तपन आ गयी तो वह तपा या लुक्क कहलाती है. जेठ में रेतीली आंधी आती है, जो भूतरा या भभूका कही जाती है. सावन-भादों में बड़े ज़ोर से चलनेवाली हवा बहरा, फागुन-चैत में फगुनहट, कुआर और पूस में तेज़ी से दिशा बदलनेवाली हली चौवाई और हिरनबाइ कही जाती है. बरसाती हवा ही सावन-भादों में तेज़ झकोरों के कारण झपटी कही जाती है. तपन के बाद शाम की ठंडी हवा सिरवाई (शीत वायु) कही जाती है.

पूरब से चलनेवाली हवा पुरवाई, पुरुवा, पुरवैया कही जाती है. सूखी पुरवैया रांड़ और बरसानेवाली सुहगिल या सुहागिन कही जाती है. भादों में घग्घा लगानेवाली ठंडी पुरवैया लहकारती है और शुरू कुआर में झब्बरा पुरवैया हहकारती है और तब वर्षा की फुहार से सारा घर (खुला रहने पर) भीग जाता है. पच्छिम से आनेवाली बयार पछुआ या पछइयां कही जाती है. कभी-कभी तो यह पतसोखा बनकर प्रकोप करती है तो डांठ के डांठ झुरा जाते हैं. अगहनी के पानी से तर खेत भी फरेरे या अफार हो जाते हैं. फ़सल अधपकी हो और पछुआ चले तो झोला कही जाती है. जाड़े में पछआ जब धीरे-धीरे चलती है, रमकती है तो अच्छी वर्षा लगती है. दक्खिन से चलने वाली बयार दखिना या दखिनैया और उत्तर से बहने वाली उत्तरा या उत्तरैया, दक्खिन-पच्छिम (नैऋतु) कोने से चलने वाली तेज़ बयार दखिन-पछार्ही या हडंहरा और हड़होड़ा कही जाती है. यह गर्मी में लपट लिये झकझोरती चलती है. इसको नेरती भी कहा जाता है. दक्खिन-पूर्व (आग्नेय) कोष से चलने वाली बयार दखिन-पुरवाई और साथ-साथ सूखा के लिए कारण होने के कारण जमराजी कही जाती है. उत्तर-पश्चिम (वायव्य) कोण से चलने वाली बयार सूअरा या सूअरी या चंडौसा (चंडवर्षक) कही जाती है. उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) से चलने वाली हवा ईसान कही जाती है.

ताल या नदी से आनेवाली वायु संस्कृत में वीचीवात ब़र्फीली गिरि-शृंखलाओं से आने वाली हवा हिमवात. समुंदरी हवा का नमकीन स्पर्श प्रसिद्ध ही है. सब की अपनी अलग तासीर है, पुरुवा गांठ के दर्द को जगा देती है, पछुआ ऊपर से प्रखर पर भीतर से ठंडी होती है, दखिनैया हुलसाती है.

हवा जहां से आती है, वहां से ताप और शीत के असर ले आती है. फूलों की गंध ढो ले जाती है, परिमलवाही बनती है. सब बगराती, बिखेरती, नये गंध-स्पर्श बटोरती, लुटाती चली जाती है.

हवा के चलने की भी जाने कितनी विधाएं हैं, डोलती है, चलती है, बहती है, सुरसुराती है, बांसों में मरमराती है, बजती है, सनसनाती है, उठती है, गिरती है, थम्हती है, फिर एकदम से फुफकार उठती है, हहकारती है, हू-हू करती है. कभी वह सुखाती है और कभी भिगोती है और कभी सिहराती है, कंपाती है, हाड़ तक हिला देती है, सालती है, चुभती है, चीरती है, दांत बजा देती है, भीतर घुसी जाती है, कभी सुखाती है, झुलसाती है, जलाती है, छीलती है, धूलि से पाटती है, कभी वह बादलों को घेर लाती है. कभी बदली उधार देती है और बादलों को छितरा देती है. फुलबसिया हवा की माती छुअन तालों में और दिलों में हिलोरें पैदा कर देती है. ऐसी ही बयार में पेड़-पौधे झीम उठते हैं. पर जेठ की बौराई हवा ढाहती और झारती चलती है. सावन-भादों की तेज़ हवाएं भी वनस्पतियों को झुकाती, लचाती, थपेड़ती, उठाती, झहराती, झौंरती चलती हैं, पानी को हिलोरती हुई अठखेली करती हैं. जो हवा भोर में फूलों की कलियों से चुहुल करती है, वही दुपहर में अपने गर्म चुम्बन में उन्हें दाग देती है और शाम को फिर सहलाने पहुंच जाती है.

(हिंदी की शब्द-सम्पदा, राजकमल प्रकाशन, से साभार)

अप्रैल 2016

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