हमारा सरकस

भारतीय सरकस की कहानी सन 1884 से शुरू होती है. उस साल विल्सन नाम का एक अंग्रेज अनेक नटों को लेकर बम्बई आया था. बम्बई के नागरिकों को तलवार-बाजी, तीरंदाजी, घुड़सवारी और रस्सी पर चलने आदि के अद्भुत करतब देखने का बेजोड़ मौका मिला.

    विल्सन-सरकस के उद्घाटन के दिन शामियाने में राजा-महाराजाओं, सेठ-साहूकारों, और यूरोपीय एवं भारतीय अफसरों का हुजूम लग गया था. मौके का लाभ उठाकर विल्सन ने एक चुनौती दे डाली. उसने कहा कि मेरे कलाकार घोड़े की नंगी पीठ पर संतुलन के जो करतब करते हैं, उन्हें अगर कोई भारतीय करके दिखा दे, तो मैं उसे 500 पौन्ड इनाम दूंगा.

    दर्शक में बैठे हुए थे कोल्हापुर महाराज के घोड़ों के मुख्य प्रशिक्षकö छत्रे. वे तुरंत उठ खड़े हुए और उन्होंने विल्सन की चुनौती स्वीकार कर ली. और तीन ही महीने में वे अपने घुड़सवारों का दल लेकर बम्बई आये, और विल्सन के कलाकारों के सारे करतब करके दिखा दिये और 500 पौन्ड की शर्त जीत ली.

    जंगली पशु सधाने, व्यायाम और शारीरिक करतबों की हमारे यहां पुरानी परम्परा रही है. फर्क इतना ही था कि ये सब प्रायः राजा-महाराजाओं के महलों और रईसों की कोठियों तक सीमित थे. वैसे आज भी विश्व के कई सर्वश्रेष्ठ पशु प्रशिक्षक भारतीय है. उदाहरण है, पूना के दामू धोत्रे.

    हां तो हम छत्रे की बात कर रहे थे. भारत में सरकस की लोकप्रियता की संभावना कितनी ज्यादा है, यह समझने में उन्हें देर नहीं लगी. दो साल बाद उन्होंने अपनी ही सरकस कंपनी शुरू कर दी. उनके शिष्य कुलकर्णी और देवल आदि ने आगे चलकर अपनी- अपनी कंपनियां बनायां.

    इस तरह महाराष्ट्र भारत के सरकस उद्योग की प्रसव-भूमि है. परंतु ये आरंभिक पराक्रम स्थायी फल नहीं दे सके. समुचित प्रोत्साहन के अभाव में हमारी सरकस कंपनियों का ह्रास हो चला.

    फिर आरंभ हुआ केरल-युग. इस सदी के प्रथम दशक में प्रो. कीलेरी कुञ्हिमन्नन्  ने सरकस का पुनरुद्धार किया. कीलेरी उत्तर मलबार केतेल्लिचेरी के निवासी थे. गजब के आदमी रहे होंगे वे. उनमें उद्योग-संचालक का कार्य कौशल एवं निष्ठा थी, चोटी के कलाकार की मोहकता थी और साथ ही वे युवक-युवतियों में व्यायाम-प्रेम भर देना अपने जीवन का मिशन समझते थे.

    कहतें है, जवानी के दिनों में वे तीन फुट ऊंची चौकी पर से छलांग लगाते और कतार में खड़े हुए चार हाथी या सात घोड़ों को फलांगकर उस पार पहुंच जाते थे.

    किस्मत ने भी कीलेरी कुञ्हिमन्नन् का साथ दिया. तेल्लिचेरी और उसके आस-पास के लोग सदियों से व्यायाम-प्रेमी थे. आज भी ताचोली गथेनन के बल और पराक्रम के अर्ध-ऐतिहासिक और अर्ध-काल्पनिक किस्से वहां के लोकगीतों में जीवित हैं. इस प्रकार कीलेरी को ऐसे कई व्यक्ति मिल गये, जो प्रशिक्षक पाकर कुशल सरकस-कलाकार बनने को उत्सुक थे.

    कीलेरी ने अपने देखे यूरोपीय सरकसों से बहुत-सी बातें लीं और उन्हें भारतीय रूप में ढाला. और स्थानीय युवक-वर्ग पर तो उनका ऐसा गहरा असर पड़ा कि तब से तेल्लिचेरी भारतीय सरकस-कलाकारों का पालना बन गया है. आज भी भारतीय सरकस के 98 प्रतिशत कलाकार तेल्लिचेरी इलाके के होते हैं. यदि कीलेरी को आधुनिक भारतीय सरकस का जनक कहा जाये, तो क्या आश्चर्य.

    कीलेरी के कई शिष्य प्रसिद्ध हुए, जिनमें से अधिकांश अब परलोकवासी हो चुके हैं. मगर उनके एक शिष्य विनोद-कला-सम्राट के. गोपालन् आज भी हमारे बीच हैं. 1954 और 1968 में राज्यसभा और लोकसभा ने उन्हें उनकी सरकस सेवाओं के लिए प्रशस्ति-फलक (शील्ड) दिये.

    सरकस-जगत के एक और दिग्गज हैं प्रो.के. दामोदरन्. उन्होंने सारे विश्व की यात्रा की और सभी श्रेष्ठ सरकस कंपनियों को देखा. स्वदेश लौटकर उन्होंने भारतीय सरकस में वह रौनक ला दी, जिसकी पहले कमी थी. उन्होंने रूस आदि के कई चमत्कारी करतब भी हमारे यहां प्रचलित किये.

    (प्रो. दामोदरन् और उनकी कला पर उन्हीं का लिखा हुआ लेख ‘सरकस मेरी जिंदगी’ मई 1964 के ‘नवनीत’ में छपा था. – संपादक)

    कीलेरी के ही एक और शिष्य थे कण्णन् बम्बैयो, जो मूलतः तेल्लिचेरी के निवासी थे. यूरोप में उन्हें रस्सी पर करतब दिखाने वाला विश्व का सर्वश्रेष्ठ नट माना गया. 1935 में उन्हें हिटलर के समक्ष विशेष कला-प्रदर्शन करने के लिए बुलाया गया और हिटलर ने उन्हें पदक देकर सम्मानित किया. मगर दुर्भाग्य से भारत लौटते हुए रास्ते में वे जहाज पर ही चल बसे.

    विश्व में सर्वाधिक सरकस कंपनियां भारत में हैं. हमारे यहां इस समय सात बड़ी और 200 छोटी कंपनियां हैं. इनमें 40 हजार से अधिक आदमी काम करते हैं.

    सरकस कंपनी चलाना बड़ा खर्चीला धंधा है. बड़े सरकस का दैनिक खर्चा 7,500रु. के करीब होता है, चाहे उस दिन खेल हो या न हो। उसे 200 मील दूर ले जाने में 45 हजार रुपये खर्च हो जाते हैं. सरकस को एक शहर से दूसरे शहर ले जाने और वहां जमाने में प्रायः दो या तीन दिन लगते हैं और उन दिनों कोई कमाई नहीं होती.

    प्रशिक्षण प्रतिदिन चलता है, चाहे मौसम अच्छा हो या बुरा. और इसमें भी काफी खर्चा आता है. दुर्भाग्य से हमारे यहां सरकस के शिक्षणालय भी नहीं हैं, जैसे कि कई देशों में हैं, फलतः लड़के-लड़कियों को भरती करने और प्रशिक्षण देकर कुशल कलाकार बनाने का सारा भार सरकस कंपनियों पर ही आ पड़ता है.

    प्रशिक्षण के दौरान लड़के-लड़कियों को खाना, कपड़ा, दवा और जेबखर्च देना पड़ता है. अच्छी कंपनियां अध्यापक रखकर बच्चों को पढ़ना-लिखना भी सिखाती हैं. प्रायः कोई भी बड़ी कंपनी प्रशिक्षण पर सालाना 12 लाख रुपये खर्च करती है.

    सरकस का पेशा ही ऐसा है, जिसमें जान का जोखिम बहुत रहता है. प्रायः कलाकारों को एक साल के कॉन्ट्रेक्ट पर काम करना पड़ता है. अभी कुछ समय पहले तक जीवन बीमा निगम उनका बीमा नहीं करता था. बहुत कहने-सुनने के बाद अब वह बीमा तो करने लगा है, मगर बहुत ऊंचे प्रीमियम पर.

    शायद सरकस कलाकार अपना संघटन बनायें, तो उनकी कई समस्याएं सुलझ सकती हैं. नौकरी के नियम, विभिन्न दर्जों के कलाकारों के वेतन, बेकारी के दिनों में सुरक्षा और बुरे सरकस मालिकों के शोषण से बचाव आदि की व्यवस्था इससे हो सकती है।

    मगर बहुत से काम ऐसे हैं, जो सरकार ही कर सकती है. और उसने काफी कुछ किया भी है. भारत सरकार रेल-यात्रा में सरकस दलों को रियायत देती है, मैसूर, केरल, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र, तमिलनाडु आदि राज्यों ने सरकार को मनोरंजन कर से मुक्त कर रखा है.

    सबसे बड़ा काम जो सरकार को करना चाहिये, वह है एक केंद्रीय सरकस प्रशिक्षणालय की स्थापना. इससे सरकसों को कुशल कलाकार मिलने लगेंगे और कंपनियां प्रशिक्षण के भारी खर्चे से बच जायेंगी.

    आजकल विदेशों से दुर्लभ प्राणियों को प्राप्त करना भी सरकस कंपनियों के लिए बहुत कठिन हो गया है, क्योंकि सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा रखा है. दुर्लभ पशु प्राप्त करने में सरकार को मदद करनी चाहिये. बात यह है कि सरकस की बदौलत देश के कोने-कोने में बच्चों को पशुओं के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है. चिड़ियाघर तो हमारे यहां चंद बड़े शहरों में ही हैं.

             (‘आकाशवाणी’ से साभार)

     – एम.पी.के.रामन्

(जनवरी 1971)

 

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