सीधी चढ़ान (सातवीं क़िस्त)

भूलाभाई का विद्यार्थी-जीवन बड़ा तेजस्वी था. 1899 में इतिहास का विषय लेकर बी.ए.

में फर्स्ट क्लास में पास हुए. गोकुलदास तेजपाल बोर्डिंग के और एल्फिन्स्टन कॉलेज में साथ पढ़नेवालों को उन्होंने मुग्ध कर दिया था. खेल-कूद में भी बेजोड़ थे. विद्या-व्यसनी लड़कों को उनके लिए बड़ा मान था. शरारती पारसी लड़के भी उनका सम्मान करते थे. पास होने के बाद, कुछ समय वे एल्फिन्स्टन कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर रहे और सन् 1900 ई. में अहमदाबाद के गुजरात कॉलेज में प्रोफेसर नियुक्त हुए.

बाद में वे छुट्टी लेकर मुंबई आये. हाईकोर्ट में हाजिरी लिखी. सन् 1904 के मार्च में एडवोकेट बने.

अग्रगण्य गुजराती सॉलिसिटर इस बुद्धिशाली गुजराती युवक पर मुग्ध हो गये और पहले दिन से ही उनकी मदद करने लगे. भूलाभाई की लोगों को रिझाने की शक्ति जादू-सा चमत्कार दिखलाने लगी. उनका शरीर भी कसा हुआ था, इसलिए परिश्रम करने की शक्ति भी असीम थी. बोलने की छटा भी प्रभावित करने वाली थी. इसलिए वे हाईकोर्ट में आये, उसे परखा और उसे जीत लिया.

पारसी सॉलिसिटरों के भी वे प्रिय बन गये. उनमें से अनेक तो उन्हीं के पुराने सहाध्यायी थे. पारसियों के ढंग की उद्धतता, या विनोदपूर्वक बोलने और आचरण करने की कला को अपनाकर उन्होंने अन्य लोगों को अपना लिया.

आगा खां के विरुद्ध उन्हीं की एक सम्बंधी का किया हुआ दावा न्यायमूर्ति रसल के आगे महीनों तक चला था. उसमें बहादुरजी और भूलाभाई उस स्त्री की ओर से खड़े हुए थे. मुकाबले में आठ-दस होशियार बैरिस्टर थे.

इस केस का मेरा कुछ स्मरण तो माननीय न्यायमूर्ति के विषय में है. वे खास तौर पर बनवाये हुए छाती तक ऊंचे टेबल पर हाथ रखकर ऊंघते रहते. इन्वेरारिटी (एक वकील) थोड़ी-थोड़ी देर बाद जब टेबल पर किताबें पटकते, तब माननीय चौंककर जागते, आंखें मलते और कहते-‘ठीक, मि. इन्वेरारिटी, फिर आगे?’ और इन्वेरारिटी आगे चलते.

1913 में जब मैं आया, तब तक भी भूलाभाई की इस केस में दिखलाई कुशलता और कीर्ति का गुंजन सुनाई दे रहा था.

माननीय रसल के कोर्ट में हुई एक मनोरंजक घटना को अनेक धाराशास्त्री अब तक याद करते हैं. एक बार वे सेशन्स में खून के आरोप का मुकदमा चला रहे थे. ग्रांट रोड पर, जहां वेश्याएं रहती हैं, उस गली में खून हुआ था और वेश्या गवाह के रूप में बयान दे रही थी.

गवाह के सामने नक्शा रखा गया. बैरिस्टर ने उससे कहा-

‘मरा हुआ आदमी कहां पड़ा था, यह इस नक्शे में बताओ.’

वेश्या ने यह बताने का प्रयत्न किया.

‘तुम्हारा घर कहां पर है?’

वेश्या को नक्शा देखना किसी ने नहीं सिखाया था, इसलिए उसने स्वयं भरसक प्रयत्न किया. सवाल भी ठीक-ठीक उसकी समझ में नहीं आया. माननीय क्रुद्ध हुए और दुभाषिये से अंग्रेज़ी में कहा- ‘गवाह से पूछो अगर कोई तुम्हारे घर आये तो कैसे पहचानेगा?’

दुभाषिये ने तीर फेंका- ‘देखो बाई, माननीय पूछ रहे हैं कि यदि वे वहां आयें, तो उन्हें कैसे पता लगेगा कि यह घर तुम्हारा है?’

वेश्या इस प्रश्न में निहित मान से शर्मा गयी. उसने दृष्टि झुका ली और आकर्षक नयनों और मीठे स्वर में उत्तर दिया- ‘माननीय से कहिए कि मेरा घर खोजने में जरा भी देर नहीं लगेगी. खिड़की में मैंने तोते का पिंजरा टांग रखा है, इससे तुरंत पता लग जायेगा.’

मैं भूलाभाई के चेम्बर में प्रशिक्षण लेने लगा. लगभग बारह महीनों के बाद उन्हें लगा कि यह लड़का उनके पास से चले जाने योग्य नहीं है. धीरे-धीरे मैं उनकी मदद करने के जो प्रयत्न करता, वे भी उनके लिए सहायक सिद्ध होने लगे. भूलाभाई और उनकी पत्नी इच्छा बहन ने मुझे अपना लिया.

धारा-शास्त्री के रूप में भूलाभाई की विशिष्टताओं में मुख्य थीं उनका अथक परिश्रम, पृथक्करण-शक्ति और न्यायाधीश का मन जीत लेने का कौशल. सबेरे से लेकर बड़ी रात तक वे लगातार परिश्रम कर सकते थे, घंटों तक बोल सकते थे और फिर तुरंत परेशानी में डालने वाले प्रश्नों की ओर भी ध्यान दे सकते थे. रात को कभी-कभी दो बजे सोते. फिर भी सबेरे स्वस्थता से उठकर काम आरम्भ कर देते थे. खाने पर नियंत्रण रखते थे, परंतु इच्छा होने पर सभी कुछ खा सकते थे. व्यायाम की ज़रूरत नहीं थी. परंतु छुट्टियों में जब बाहर जाते तब रोज़ मीलों पैदल चलते थे.

उनकी बुद्धि का मुख्य लक्षण था सूक्ष्म पृथक्करण की शक्ति. 1915 में हमारा निजी सम्बंध बढ़ा. इसके बाद इच्छा बहन और भूलाभाई रोज़ शाम को अपनी गाड़ी में मुझे रॉयल ओपेरा हाउस तक छोड़ जाते. अनेक बार मैं उनके घर भी जाता, भोजन करता और फिर हम किसी उलझन-भरे केस के विषय पर बैठकर बातें करते. वे पान चबाते हुए सोफे पर बैठते और मैं सामने कुरसी पर कागज़ लेकर बैठ जाता. वे मुझसे सवाल करते जाते और ‘नहीं…नहीं…’ बोलते माथे पर बल डालते, ज़रा-ज़रा सी बात में अधीर होते, एक ही अभिप्राय को कभी किसी प्रकार गठित करते, कभी किसी प्रकार करते. कभी एक पुस्तक मंगाते और कभी दूसरी तलाश करते. पृथक्करण करते-करते उस अभिप्राय को नया और स्पष्ट स्वरूप प्रदान करते.

‘मुनशी काका, अब यह हो गया ठीक.’

और वह इस्तगासा, जब दूसरे दिन लिख डालते या कोर्ट में उपस्थित करते, तब बिल्कुल स्पष्ट हो जाता था.

इस मानसिक कसरत की सूक्ष्मतम और चपल प्रक्रियाओं के मुझे दर्शन हुए, और उस दर्शन से मुझे अपनी कमियों का भान हुआ. इस शक्ति के कारण भूलाभाई अपने केस में प्रतिपादन करने वाले इस्तगासों की अपेक्षा विपत्तियों के मुद्दे की ओर पहले देखते थे, फलस्वरूप विपत्ती की ओर से कदाचित ही ऐसा मुद्दा प्रकट होता था जिसका जवाब उनके पास तैयार न हो.

भूलाभाई की स्वाभाविक कथन-शक्ति शब्द-वैभव पर निर्मित थी. जब वे बोलने के लिए खड़े होते, तब शब्दों का झरना बहने लगता था. उसमें व्याकरण के दोष होते, सामान्यतया क्रिया-पद आने से पहले दूसरा वाक्य शुरू हो जाता, परंतु जब बोलना आरंभ करते, तब धीरे-धीरे वाक्य घोटते-घोटते उनकी शक्ति स्थिर हो जाती, उस पर पृथक्करण शक्ति काबू पा लेती और फिर उनकी वकालत चमक उठती.

उनकी कथन-शक्ति की अपेक्षा उनकी यह देखने की दृष्टि अद्भुत थी कि कौन-सा मनुष्य किस ढंग से बोलने से उनका कथन स्वीकार करेगा. और परिणामस्वरूप दस-पंद्रह मिनट में जो पानी वे पिलाते, उसे पीने के लिए न्यायाधीश आतुर हो उठता था. परंतु अनेक बार विपक्षी में इस प्रकार की संरक्षक-वृत्ति उत्पन्न हो जाती थी कि कहीं वह भूलाभाई की चतुराई में न फंस जाय. ‘भूलो बनावी जशे’ (भूलाभाई बना लेंगे) यह वाक्य अनेक बार पारसी सॉलिसिटरों के मुख से निकलता.

उनकी दावा-अरजियों, जवाब और सबूतों की ढेर-सी कच्ची लिखाइयां मैं तैयार करता, और उनमें से अनेक मेरे लिए भी उपयोगी सिद्ध होती रहीं. उनकी ब्रीफों का सारांश भी मैं निकालता, यद्यपि भूलाभाई लिखित सारांश को अवलम्ब न मानकर कुछ तारीखें लिख रखते और बाकी जानकारी के लिए स्मरण-शक्ति पर निर्भर रहते थे.

1916 के पश्चात तो हमारा सम्बंध प्रगाढ़ हो गया. मुझे वे परिवार का व्यक्ति समझने लगे. इच्छा बहन लक्ष्मी को लड़की की तरह योग्य बनाने लगीं. उनके साथ घूमने जाना, नाटक देखना, भोजन करना, यह तो मेरा प्रायः हमेशा का कार्यक्रम बन गया. सद्भाव से जो उनकी बात सुने, ऐसे मनुष्य की भूलाभाई को हमेशा भूख रहती थी, उस भूख को मैंने संतुष्ट किया. इन वर्षों में मैं उनका शिष्य और भक्त दोनों बन गया.

जमशेद कांगा भूलाभाई के सच्चे प्रतिस्पर्धी थे. उनका और मेरा परिचय 1922 के पश्चात हुआ, इसलिए इस विषय के संस्मरण यहां दिये हुए समय के बाद के हैं.

कांगा रोज़ शाम को मान्जिनी के रेस्तरां में जाकर बैठा करते. उनका यह नियम बन गया था कि जो कोई यहां मिलने या ब्ऱीफ देने आता, उसे उनका आतिथ्य अवश्य स्वीकार करना पड़ता था. भूलाभाई अनेक बार साढ़े सात बजे के करीब मान्जिनी में कांगा के साथ यह निश्चित करने के लिए जाया करते थे कि किस काम का प्रबंध किस प्रकार किया जाए. उस समय मैं भी उनके साथ ही होता था.

भूलाभाई के निकट-सहवास में उनके स्वभाव के भिन्न-भिन्न पहलुओं से निकलते रंगों को। मैं प्रशंसा-मुग्ध होकर देखा करता. मैं उनके सान्निध्य में यूरोपीय संस्कृति के अनेक अंगों के पाठ पढ़ने लगा. उनकी अनेक विशेषताएं और दृष्टि-बिंदु अनजाने में ही मुझ पर अधिकार जमाते जा रहे थे.

यूरोपीय सभ्यता का एक लक्षण शराब पीना है. इसके बिना अतिथि का सत्कार ही नहीं माना जाता, गृहस्थ को गृहस्थ में स्थान नहीं प्राप्त होता, रंगीलापन सिद्ध नहीं होता. यदि आप इसे नहीं पीते तो आप ‘जॉली गुड फेलो’ हरगिज नहीं हैं, कंजूस, नालायक, असभ्य और पढ़े-लिखे पशु में ही आपकी गिनती हो सकती है.

बम्बई के पारसियों ने और पाश्चात्य सभ्यता के पक्षपाती हिंदुओं ने शराब के प्रति इस दृष्टि को अच्छी तरह पोषण दिया है. जहां एक बार दृष्टि पनपी कि फिर शराब के प्रति अप्रियता दूर हो जाती है, और वह निर्दोष, आनंद प्राप्त करने और दिल बहलाने का ज़रूरी साधन बन जाती है. उसे पीना फिर किसी प्रकार का पाप या अपराध नहीं माना जाता. शराब जीवन के उल्लास का केंद्र बन जाती है. पाश्चात्य लोगों के जीवन के ज़्यादातर सम्बंध शराब पीने और पिलाने की विधियों पर निर्मित हैं. हमारे ‘बार’ के भोजन में इसका माहात्म्य ब्रह्मभोज के मोदक से भी विशेष है.

मान्जिनी क्लब में जाते रहने से पाश्चात्य-संस्कृति की इस महाविधि के दर्शन करने का मुझे अवसर मिला. मैं ब्राह्मण का लड़का, शराब को मैंने कभी छुआ तक नहीं था. जीवन-भर भावनाशीलता को धर्म माना था. जिसके सेवन को बचपन से अधम माना था, उस अपरिचित वस्तु का सेवन करनेवाले मित्रों को देखकर मुझे रंज हुआ था. परंतु मेरे हृदय में पाश्चात्य सभ्यता ने घर कर लिया था. मुझे भी पश्चिमी संस्कार प्रिय लगने लगे और आर्य संस्कृति के निषेध संकुचित मनोदशा के लक्षण प्रतीत होने लगे. कुछ-कुछ यह भी खयाल हुआ कि यदि मेरे आचार-विचार एडवोकेट ओ.एस. को शोभा देनेवाले न हुए, तो प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी.

जब मैं मान्जिनी क्लब में जाता, तब ‘कुछ’ लेने के लिए ज़रूर दबाव डाला जाता. एक-दो मित्र मज़ाक भी करते. शुरू में मैं लेमन, रेस्पबैरी या ऐसी कोई चीज़ मांग लेता था. परंतु मेरे मित्र पाश्चात्य सभ्यता के पुजारी थे. उनमें दूसरे को भ्रष्ट करने का उत्साह था. उस सभ्यता की कंठी बांधने के लिए मुझ पर हास्य, उपहास और कटाक्ष, सब का प्रयोग होता था. एक दिन मैंने दो चम्मच ‘कॉकटेल’ पिया. उसके स्वाद के विषय में मैंने ‘भयंकर’ शब्द का इस्तेमाल किया. अनेक पारसी मित्र अभी तक उसकी याद दिलाते हैं.

पाश्चात्य सभ्यता को मैंने इस प्रकार अपना तो लिया, पर उससे मुझे ज़रा भी आनंद न आया. बहुत दिनों तक मन में दुविधा होती रही. ‘मैं अधम होता जा रहा हूं, मुझे शराब पीनी पड़ी,’ इस प्रकार मैंने डायरी में लिखा. परंतु उस समय मुझमें इस दुनिया से दूर हो जाने की हिम्मत नहीं थी. सुरापान को मैंने शिष्टता का लक्षण मानकर अपना लिया. जब कोई ज़ोर डालता, तब दो चम्मच ले लेता. परंतु आर्य संस्कृति ने तो इस मौज की आड़ में शरम की दीवार खड़ी कर रखी थी. शराब पीना हो तो पी ले, परंतु पीनेवाला हमेशा चोरी-चुपके से शरमा कर पिये. अब मैं इस दीवार से बाहर कूद गया. शराब पीने और पिलाने को मैंने गृहस्थ के लक्षण के रूप में स्वीकार किया.

हाईकोर्ट ओ. एस. के ‘बार’ का वातावरण उस समय पारसी निश्चित करते थे. मांस-भक्षण भी होशियारी का लक्षण माना जाता था. तुम ‘मीट’ (मांस) नहीं खाते, तो स्वराज्य कैसे लोगे, यह रोज़ सुनना पड़ता था. ‘चिकन (मुर्गी) के बिना ताकत नहीं आ सकती. इसे तो कमज़ोर पेट भी हज़म कर सकता है.’ जहां अंग्रेज़ी ढंग का खाना होता, वहां मित्रों से मुझे अनेक बार यह सीख सुनने को मिली है. यह सब मज़ाक में कहा जाता था. परंतु इसके पीछे हमेशा यह ध्वनि होती थी कि जब तक साहबी खान-पान नहीं सीख लेते तब तक तुम सच्चे बैरिस्टर नहीं हो सकते.

मांस-भक्षण करने से मैंने इनकार किया, परंतु कहीं मेरी पाश्चात्य सभ्यता में खामी न रह जाय, इसलिए मैंने मुर्गी खाने वाले दो मित्रों के बीच बैठकर शाक-भाजी खाने की आदत डाली.

चिमनभाई, जो कि भड़ौंची पगड़ी पहना करते थे, जब बड़े एडवोकेट हो गये, तब पगड़ी की जगह हैट पहनने लगे. उनके पद-चिह्नों पर भूलाभाई ने भी हैट पहनना शुरू किया. उनके बाद मैंने भी हैट धारण किया. 1916 से तो मैं ‘एसक्विथ एंड लार्ड’ की अंग्रेज़ी दरजियें की दूकान के सिवा और कहीं से शायद ही कपड़े खरीदता था. इस प्रकार पाश्चात्य सभ्यता के बाह्य अंगों को मैंने अपना लिया.

अनेक मित्रों की ओर से मुझे ब्रिज सीखने की सलाह मिली और अवसर भी प्राप्त हुआ. अंग्रेज़ी सभ्यता में ‘ड्रिंक्स’ और ‘ब्रिज’ प्रतिष्ठा-जनक हैं, परंतु इन शब्दों के भारतीय नाम ‘शराब’ और ‘जुआ’ को हमारे संस्कारों में दुर्व्यसन माना गया.

मैंने ब्रिज सीखना अस्वीकार कर दिया.

भूलाभाई के परिचय में मैंने बहुत कुछ सीखा और अनेकों के परिचय में आया. यदि मैं भूलाभाई के परिचय में न आया होता तो वास्तविक मुंबई और उसके जीवन के अनेक स्वरूपों को भी कभी न जान सका होता.

1917 में विख्यात सुनार नरोत्तमदास भाऊ की स्पर्धा में किसी दूसरे ने ‘सोनी (सुनार) नरोत्तमदास भानजी’ के नाम से दूकान खोली. नरोत्तमदास भाऊ ने अपने व्यवसाय में व्यहृत होने वाले नाम के सदृश नाम न व्यवहार करने के विषय में मनाही हुक्म करने के लिए नरोत्तमदास भानजी पर दावा किया. दावा चलने तक मनाही हुक्म दिया जाय, ऐसी अरजी जब भूलाभाई वादी की ओर से पेश कर रहे थे, तब मैं पास ही बैठा था.

न्यायमूर्ति काजीजी ने एक कानून का सवाल उठाया.

भूलाभाई ने मुझसे कहा- ‘मुनशी काका, लायब्रेरी में जाकर इसे रद्द करनेवाला कोई फैसला हो तो ले आओ. अभी मैं घंटे तक तो बोलूंगा ही.’

मैं लायब्रेरी में गया, केस देखे और सौभाग्य से मुझे मतलब का केस मिल गया. मैं कोर्ट में वापस गया. भूलाभाई ने फैसला पढ़कर सुनाया. मेसर्स अरदेशर होरमसजी दीनशावाला शावकशा नरीमान इस काम में वादी की ओर से सालिसिटर थे. दूसरे दिन वे लायब्रेरी में मेरे पास आये.

‘मि. मेहता, मेरी ब्ऱीफ मिल गयी?’

‘मैं मेहता नहीं हूं और मुझे आपकी ब्रीफ नहां मिली,’ मैंने कहा.

‘पर तुम्हीं ने कल भूलाभाई को केस लाकर दिया था न? तुम्हारा नाम के.एम. मेहता नहीं?’

मैंने कहा- ‘केस मैंने लाकर दिया था, वह बात ठीक है, पर मेरा नाम के.एम. मुनशी है.’

‘भाई शंकर सालिसिटर के साथ वाला ऑफिस तुम्हारा ही है न?’

‘नहीं, वहां एम.जे. मेहता का ऑफिस है.’

श्वास का धुंआ निकालते हुए नरीमान मेहता के पास जा पहुंचे. ब्रीफ वापस ले ली, उस पर मेरा नाम लिख दिया और आज्ञा दी- ‘डू योऊर बेस्ट.’

मुझे इस अपरिचित बड़े सालिसिटर से यह पहली ब्ऱीफ मिली थी. उसमें नरोत्तमदास भाऊ के मुकदमे में उपस्थित होने वाले अनेक कानूनी सवाल पूछे गये थे. मैंने बहुत दिनों तक लायब्रेरी में बैठकर उस विषय पर विस्तार से अपना अभिप्राय दिया.

जब मुकदमा सुनवाई पर आया, तब नरीमान ने नौ के करीब एडवोकेट रोके हुए थे, उनमें अंतिम नम्बर का एडवोकेट मैं था. ब्ऱीफ पर चार गिनी प्रतिदिन की लिखी हुई थी. मेरी समझ में रोज़ के साठ रुपये बहुत थे. यह मुकदमा बहुत दिनों तक चला और अंत में फैसला हुआ हमारे पक्ष में.

यह पहला ही ऐसा बड़ा दावा था, जिसमें अपरिचित सालिसिटर ने मुझे लिया था. उसकी फीस से मैंने अपने घर के लिए पहली अलमारी और पहला आभूषण खरीदा.

1917 के मई मास में भूलाभाई और इच्छा बहन मुझे दार्जिलिंग ले गये. उनका इकलौता पुत्र धीरूभाई और छोटूभाई सालिसिटर भी साथ थे. रास्ते में जब कलकत्ता उतरे, तब सुरेंद्रनाथ बैनर्जी के दर्शन कर आये.

छोटूभाई, धीरू के काका थे, इसलिए सब छोटू काका कहते थे. मुझे लगभग एक महीना उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला.

छोटू काका अग्रगण्य सालिसिटर थे. मुझे उनके हृदय की सुकुमारता, सदैव आर्द्र स्नेहशीलता और गहरी रसिकता का परिचय मिला. जब सब सो जाते, तब हम लोग मेघदूत, गीत-गोविंद और अमरूशतक पढ़ते. जब हम साथ-साथ घूमने जाते, तब रस का आदान-प्रदान करते. ‘वेरिनी वसूलात’ (वैर का बदला) के प्रति उन्हें बड़ा आकर्षण था.

उनकी पत्नी-भक्ति में जो विह्वलता थी, वैसी मैंने और किसी हिंदू पति में नहीं देखी. अनेक बार, जब अपने कमरे में हम अकेले बैठते, तब ‘पाली बहन’ के विषय में अपनी प्रणय-विह्वलता की कथा जो वे मद-भरी आंखों से कहते, मैं उसे भूल नहीं सका हूं. जब वे स्वर्गवासी हुए, तब तक हम प्रगाढ़ स्नेह सम्बंध में बंधे रहे. व्यवसाय के विषय में भी मैं उनका और उनके हिस्सेदारों का विश्वासपात्र बन गया.

उस समय दार्जिलिंग में सर जगदीशचंद्र बोस ने हम लोगों को चाय पीने के लिए निमंत्रित किया और भारत के अग्रगण्य वैज्ञानिक के योग्य पूज्य भाव मन में लेकर हम उनके यहां गये. लेडी बोस ने हमारा स्वागत किया और अन्य दस-पंद्रह स्त्राr-पुरुषों के साथ हमें बिठाया. इसके बाद बीच का दरवाजा खुला. ब्रीचिज पहने हुए नेपोलियन की धुंधली आकृति के समान सर जगदीश निकले और सब से मिले.

वे हम लोगों को अपनी प्रयोगशाला दिखलाने ले गये. वहां उनके पट्टशिष्य बोशीसेन (जो बाद में अलमोड़ा में विवेकानंद रसशाला के संचालक बने) ने हंसते, रोते, शराब पीकर लड़खड़ाते हुए मनुष्य के समान पौधों के भाव सूक्ष्मदर्शक यंत्रों द्वारा हमें दिखलाये.

सर जगदीश हमें एक वृक्ष के पास ले गये और उसके नीचे रखी बेंच दिखलायी- ‘इस वृक्ष के नीचे बैठकर ऋषियों की विश्व-बंधुत्व की भावना का स्मरण करते हुए मुझे सत्य का ज्ञान हुआ और यह खोज़ करने का मार्ग मिला.’

छोटू काका और मैं श्रद्धा-भाव से गद्गद होकर घर आये. परंतु 1919 में जब हम दार्जिलिंग गये तो पुनः जाकर चाय पी, शराब पिये हुए पौधे देखे और ‘बोधिवृक्ष’ की कीर्ति सुनी. तब महत्ता और कला के बीच का भेद मालूम हुआ और मुझे आघात पहुंचा.

उन्हीं दिनों, बाद में शंकरलाल बैंकर वहां आये. वे अधिकतर भूलाभाई के साथ घूमते, इससे मुझे और छोटू काका को साथ फिरने का बहुत समय मिल जाता. शंकरलाल ने एक नया शिगूफा छोड़ा. जब हम बंगालियों से मिलते, तब उनमें से कोई-न-कोई दुनिया का कुछ-न-कुछ महान कार्य कर रहा है, यह हमसे कहा जाता. ‘ये दुनिया के प्रखर ‘अर्थ-शास्त्री हैं,’ ये जगद्विख्यात इतिहासकार हैं, ‘ये बंगाल के कवि शिरोमणि हैं,’ आदि.

धीरे-धीरे जिस बंगाली से हम मिलते, वह फ्रांस और रूस के विप्लव के विषय में मानपूर्वक मेरे साथ बातें करता और सवाल पूछता. अपने ज्ञान पर होने वाले इन अचानक आक्रमणों से मैं उलझन में पड़ गया. एक बार भोजन करते-करते मैंने आश्चर्य प्रकट किया कि फ्रांस और रूस के विप्लव के विषय में ये लोग मुझसे किसलिए प्रश्न किया करते हैं? शंकरलाल ने इसका खुलासा किया- ‘यदि बंगाल में दुनिया के बड़े-से-बड़े विद्वान रहते हैं, तो क्या बम्बई में नहीं रहते? जो मुझे मिलता है, उससे मैं कहता हूं कि भूलाभाई दुनिया के श्रेष्ठ धाराशास्त्री हैं और मुनशी फ्रांस और रूस के विप्लव के भारत में सबसे बड़े अध्ययनकर्ता हैं.’

शंकरलाल द्वारा प्राप्त हुई इस कीर्ति को, जब कोई उन विप्लवों की चर्चा छेड़ता, तब उसे किसी भी तरह उड़ा देने की अपनी चपलता से मैंने शक्ति-भर जैसे-तैसे सुरक्षित रखा.

1919 में जब हम फिर दार्जिंलिंग आये, तब भूलाभाई, मोतीलाल सीतलवाड और मैं, तीनों थे. परंतु इच्छा बहन की साल-संभाल और छोटू काका की रसिकता के बिना यह छुट्टी पहले की तरह स्मणीय न हो सकी.

1919 में मैंने दार्जिलिंग में गुरुदक्षिणा दी, जो गुरु को न जाने कब तक संभाले रखनी पड़ी.

भूलाभाई यह मानते थे कि दोपहर में भोजन के बाद सो जाने से फेफड़ा खराब होता है और मैं बचपन से ही यह मानता था कि दोपहर में भोजन के बाद रीढ़ की हड्डी सीधा रखना स्वास्थ्यवर्धक है. परिणाम स्वरूप जब हम लोग भोजन कर चुकते, तब मैं बिस्तर में सोने का प्रयत्न करता और भूलाभाई मुझे जगाये रखने के प्रयत्न करते. वे मेरी खाट पर आकर बैठ जाते और कभी-कभी हमारी कुश्ती भी हो जाती. एक दिन हम लोगों ने बड़ा तूफान मचाया. मेरी छाती पर उनका भार इस प्रकार आ पड़ा कि मेरा दम घुटने लगा. अनजाने में उनकी एक अंगुली मेरे हाथ में आ गयी और किसी भी प्रकार उनका भार दूर हटाने की स्वाभाविक संरक्षण-वृत्ति से मैंने उनकी अंगुली मरोड़ डाली. उन्होंने अधिक-से-अधिक ज़ोर डाला. अंत में मैंने इतने ज़ोर से अंगुली मरोड़ी कि उनकी हड्डी नहीं टूटी, यही आश्चर्य हुआ.

वेदना के मारे भूलाभाई उठ गये, मेरा दम घुटने से बच गया और वर्षों तक उनकी उस अंगुली ने उन्हें दुख दिया. ऐसी विचित्र थी मेरी दी हुई गुरु-दक्षिणा!

बम्बई के हाईकोर्ट में जॉन डंकन इन्वेरारिटी का नाम पुराण के महापुरुष के समान है- सदा स्मरणीय और पूजनीय नहीं तो प्रशंस्य तो अवश्य ही.

जब सर नार्मन मेकलाउड (जो बाद में मुख्य न्यायाधीश बने) बैरिस्टर हुए, तब उनके पिता ने मौसेरे भाई इन्वेरारिटी को बुलाकर कहा- ‘नार्मन को बम्बई ले जाओ, इसे अपने हाथ के नीचे रखकर शिक्षित करो.’

‘यह मुझसे कैसे होगा?’ जॉनभाई ने उत्तर दिया, ‘मैं तो बूढ़ा हो गया. थोड़े समय में व्यवसाय से अलग हो जाऊंगा. मेरे साथ नार्मन को भेजने का क्या फायदा?’

परंतु बुड्ढे ने जिद की. इन्वेरारिटी मेक्लाउड को बम्बई ले आये. मेक्लाउड ने वकालत की, नौकरी की, न्यायाधीश का पद प्राप्त किया, मुख्य न्यायाधीश की पदवी पायी, परंतु जॉनभाई तब तक भी वकालत करते ही रहे. 1925 में मेक्लाउड ने जब मुख्य न्यायाधीश का पद छोड़ा, उसके कुछ महीनों पहले वे गुजर गये.

इन्वेरारिटी ने सरलता से एकाध करोड़ रुपया इकट्ठा किया था, परंतु भायखला क्लब की एक छोटी-सी कोठरी में वे पड़े रहते. अपनी पत्नी को उन्होंने कभी हिंदुस्तान में बुलाया ही नहीं. क्लब में कोई उन्हें चाय का प्याला देता, तो वे चार आने पहले देते, फिर प्याला पकड़ते.

हिंदुस्तान में उन्होंने किसी के साथ स्नेह सम्बंध जोड़ा हो, ऐसा स्मरण नहीं. व्यवसाय के सम्बंध में वे दूसरों के संसर्ग में आते थे, बस इतना ही उनका जगत के साथ सम्बंध था. कानून के क्षेत्र में बम्बई में सर्वोपरि होना ही उनका ध्येय था. मानव हृदय के प्रति उनमें पूर्णतया तिरस्कार के भाव थे. अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से और मानव-निर्बलता के आगाध ज्ञान से वे कहीं भी श्रेष्ठ स्थान पा सकते थे, परंतु छः महीने बम्बई में वकालत करना, पांच महीने स्काटलैंड में शिकार खेलना, एक महीना भारत में आने पर सिंह का शिकार करना, इनके सिवाय जीवन में उन्हें और कोई आकांक्षा नहीं थी.

उनकी वकालत में जादू की तरह चमत्कार था. उनकी स्मरण-शक्ति असीम और सतेज थी.

एक मुदकमा, जिसमें मैं स्ट्रैंगमेन के साथ था, हमें बड़ा कमज़ोर लग रहा था. हमारा दावा यह था- मकान खराब अवस्था में होने से किरायेदार उसे खाली कर दें. दूसरे दिन हमारे साथ इन्वेरारिटी को रोका गया और दावे वाली मल्कियत देखने मैं उनके साथ गया. दो घंटे तक उन्होंने सारे मकान के कमरों की जांच की और अगले दिन ऐसा मालूम होने लगा कि हमारी विरोधी परिस्थिति हमारे अनुकूल हो रही है. वे कोर्ट में आये, विवरण फिर उपस्थित किये और पिछले दिन जो मुकदमा खराब था, वह अच्छा हो गया.

धारा-शास्त्र उनके जीवन की ज्योति था. कानून के सिद्धांतों का उनका ज्ञान विशुद्ध था. अंग्रेज़ी और हिंदुस्तानी फैसलों के सारे हवाले वे अंत तक लगातार पढ़ते थे. मुकदमा चलते समय अधिकतर एक ही दृढ़ आधार लेकर वे आते थे. उनकी जांच-पड़ताल के ढंग में नाटकीय रूप नहीं था, कदाचित ही वे ऊंची आवाज़ निकालते थे. उनकी आंखें हमेशा बाघ की तरह स्थिर और तेजपूर्ण होतां. वे न हाथ पटकते थे, न गुस्सा करते थे, छोटे प्रश्नों को धारा-प्रवाह, बंदूक की गोली की तरह छोड़ देते और साक्षी के मुख से अनजाने में ही इच्छित बात निकलवा लेते थे.

वे कभी विवरण लिखा नहीं करते थे. वे कहते थे- ‘जितना समय लिखने में बिताते हो, उतना समय स्मरण-शक्ति को तीव्र करने में लगाओ तो अधिक लाभ हो.’ मुकदमों में अनेक मुद्दे होते हैं. उनमें से एक ही मुख्य मुद्दे पर वे अपनी शक्ति को एकाग्र करते थे. एक दिन नये विद्यार्थी के उत्साह से मैं उनसे वे अनेक मुद्दे कहने लगा, जो मैंने खोज रखे थे. ‘प्रत्येक मुकदमे में दस अच्छे मुद्दे होते हैं, उनमें से एक तुम अपने लिए रखो और बाकी विपक्ष वालों को अपने आप खोज निकालने दो,’ उन्होंने कहा.   

नये धारा-शास्त्रियों को क्या करना चाहिए, एक बार उन्होंने इस विषय में सलाह दी थी- ‘स्टेंड अप, स्पीक अप, शट अप!’

उनकी विनोद-वृत्ति स्थिर थी. उनके व्यंग्य करने पर सब हंस पड़ते, पर उनकी मूंछ का एक बाल तक न हिलता था.

न्यायमूर्ति केंडी स्वभाव के बड़े कठोर थे. उनके स्वभाव की अनेक बातें कोर्ट में प्रचलित हैं. वे मराठी-गुजराती अच्छी तरह बोलते थे. इन्वेरारिटी ने तो यह संकल्प किया हुआ था कि कोई देशी भाषा बोली ही न जाए.

न्यायाधीश केंडी के हाईकोर्ट में नियुक्त होने के कुछ दिनों बाद इन्वेरारिटी उनके सामने उपस्थित हुए और मुकदमे के विवरण कहने लगे- ‘फिर गोरडनडोस प्रतिवादी से मिले.’

‘मि. इन्वेरारिटी, इतने वर्ष हिंदुस्तान में रहने पर भी आप देशी नामों का ठीक उच्चारण नहीं कर सकते. गोरडनडोस नहीं, गोवर्धनदास.’

‘माननीय की जैसी इच्छा.’

इन्वेरारिटी ने आगे चलाया- ‘मेरे कहने के अनुसार गोरडनडोस और माननीय के कथनानुसार गोवर्धनदास प्रतिवादी से मिले. मेरे कहने के अनुसार गोरडनडोस और माननीय के कथनानुसार गोवर्धनदास उसके साथ इस शर्त के विषय में बात करने लगे. फिर मेरे कहने के अनुसार गोरडनडोस और माननीय के कथनानुसार गोवर्धनदास ने शर्तें मंजूर…’

‘मि. इन्वेरारिटी, यह क्या तमाशा है? अधीर होकर न्यायाधीश ने कहा, ‘दो में से एक नाम बोलिए- गोरडनडोस या गोवर्धनदास.’

‘माननीय की जैसी इच्छा.’ स्वस्थता से इन्वेरारिटी ने कहा, ‘मैं तो गोरडनडोस कहना ही पसंद करता हूं. गोरडनडोस ने फिर शर्तें कीं…’           

सारा कोर्ट खिलखिलाकर हंस पड़ा, पर इस विनोद करने वाले के मुख पर स्मित की सुर्खा तक न आयी.

बम्बई हाईकोर्ट उन्हें भूल नहीं सकता. उस हाईकोर्ट में उन्होंने वकालत की और 1925 में यमराज भी उन्हें लेने के लिए आये उसी हाईकोर्ट में.

बम्बई में जब उनके शरीर को दफनाया गया, तब मैं भी उपस्थित था. उस समय हम सब ने यह अनुभव किया कि हाईकोर्ट जैसा था, वैसा अब नहीं रहेगा.

इन्वेरारिटी महान धाराशास्त्री , ब्रिज के दबंग खिलाड़ी और सिंह के बहादुर शिकारी थे. पैसे बनाने वाले भी जबरदस्त थे. ये ही थीं उनके मनुष्यत्व की सीमाएं. कौन कहेगा कि ये सीमाएं अत्यंत संकरी न थीं! भारत को तो उन्होंने पैसे लूटने का क्षेत्र समझा था. यहां उन्होंने सारी जिंदगी बितायी, पर इसके प्रति कभी जिम्मेवारी नहीं दिखलायी और यहां के लागों के प्रति, उनकी भाषा और सभ्यता के प्रति उनका तिरस्कार कायम रहा.

इन्वेरारिटी के पश्चात बम्बई-हाईकोर्ट में महान धाराशास्त्री थे चिमनभाई- चिमनलाल हरिलाल सीतलवाड. इस समय के अंतर्गत उनके प्रति संचित किये हुए सम्मान और उनके समागम का मुझ पर बड़ा प्रभाव पड़ा. ‘हरिलाल सदरेमिन’ के नाम से परिचित होनेवाले वे ब्रह्मक्षत्रिय भड़ौंच के ही थे. उनकी हवेली अभी वहां है और वे अधूभाई काका के इष्ट मित्र थे. उनके पुत्र थे चिमनभाई. उनको मैंने बिलकुल बचपन में मुनशी के टेकरे पर अधुभाई काका से मिलने के लिए आते देखा था, ऐसा स्मरण है. और जब मैं बम्बई आया, तब हमारी भड़ौची पगड़ी पहने हुए, सर फरोज़ शा मेहता के इस अनुयायी और अपने परिवार के सम्बंधी को दूर से देख देखकर मैं गर्वित हुआ करता था. ज़रूरत पड़ने पर उनका सहारा मिलेगा, ऐसा एक विश्वास भी मेरे मन में पैदा हो रहा था.

पास हेने के थोड़े दिनों बाद मैं उनसे मिलने गया. उस समय उनका व्यवहार कठोर, तटस्थ और अनादरपूर्ण-सा मालूम हुआ. भड़ौच के उनके स्वजातीय लोग उस समय उन्हें बड़ा गर्विष्ठ समझते थे. उनके लिए कहा जाता था कि मिलने आने वालों को वे केवल तीन प्रश्न पूछकर टरका दिया करते थे- ‘कब आये? कैसे हो? कब जाआगे?’ मुझे भी उन्होंने अधुभाई काका की पुत्री और दौहित्र की खबर पूछकर विदा कर दिया.

कुछ महीनों बाद मुझे मालूम हुआ कि उनका ऐसा व्यवहार अपरिचितों के लिए ही था. अब तो वर्षों से उनके हृदय में मुझे स्थान मिला हुआ है और उनके बड़े पुत्र मोतीलाल की और मेरी मित्रता के द्वारा हम तीन पीढ़ियों के सम्बंध को सुरक्षित रख रहे हैं.

तलवार की धार के समान चातुर्य, स्पष्टदर्शी बुद्धि, न्यायवादी वाक्पटुता और अटूट आत्म-विश्वास से उन्होंने तुरंत अग्रस्थान पा लिया. जब वे फीरोज़ शा मेहता के अनुयायियों में सम्मिलित हुए, तब दीन शा वाच्छा, इब्राहीम रहीमतुल्ला, चंदावरकर आदि उनके सहयोगियों में थे. 1893 में, सत्ताईसवें वर्ष में गुजरात की म्युनिसिपैलिटियों की ओर से वे धारा-सभा में गये. उस समय की धारा-सभा के प्रमुख गर्वनर, और अनेक सदस्य बड़े अंग्रेज़ अधिकारी होते थे. वहां भी चिमनभाई की तेजस्विता असीम रही. उन्होंने धारा-सभा में निरंतर प्रश्नों की झड़ी लगा दी. उस समय की स्वाधिकार-उन्मत्त अधिकारियों की सरकार इस युवक वकील के प्रश्नों का उत्तर देते थक गयी. प्रत्येक बैठक में तीस-तीस प्रश्न करने वाले इस सदस्य को गवर्नर लार्ड हेरिस ने बुलाया. वे मिलने के लिए गये.

लार्ड हेरिस ने गरमी दिखलाते हुए कहा- ‘देखिये, मि. सीतलवाड, आप हमसे इतने अधिक सवाल पूछते हैं कि सेक्रेटेरियट वहां तक पहुंच नहीं सकती. सेक्रेटेरियट को और भी बड़े ज़रूरी काम करने होते हैं.’

सत्ताईस वर्ष के इस युवक में क्षोभ नहीं था, आत्म-विश्वास और स्वाभिमान पर्याप्त थे. उन्होंने चट उत्तर दिया- ‘मुझे खेद है, परंतु आप यह भूल जाते हैं कि इन सवालों का जवाब देना आपका कर्तव्य है, और इसके लिए आपको बहुत अच्छा पारिश्रमिक मिलता है. आपसे सवाल पूछ कर मैं तो केवल लोकोपयोगी कर्तव्य करता हूं, और वह भी बिना पारिश्रमिक के.’

लार्ड हेरिस की गरमी उसी समय उतर गयी. उन्होंने नरम होकर माफी मांगी.

(क्रमशः)

मई  2014 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *