सीधी चढ़ान (दसवीं क़िस्त)

पूर्वकाल में जिस प्रकार नैमिषारण्य में ऋषिगण शौनक के पास गये थे, उसी प्रकार पाठक, लेखक के पास जाकर, नम्रता से हाथ जोड़कर प्रश्न करता है- ‘हे लेखक, इस खंड का शीर्षक ‘मध्वरण्य’ मैंने पढ़ा. यह मध्वरण्य क्या? यह खंड मध्वरण्य क्यों कहलाता है और यह शब्द इस खंड के नाम के रूप में क्यों व्यवहृत हुआ है?’

लेखक ने- जिसका हृदय पाठक की इस जिज्ञासा से आर्द्र हो गया है- उत्तर दिया- ‘हे वत्स, राम और सीता के संस्मरण जिसमें अब तक ताज़े हैं, वह सुभग दण्डकारण्य जहां आरम्भ होता है, उस पुण्यभूमि में मध्वरण्य नाम का गिरिग्राम स्थित है, ऐसा अनेक लोग मानते हैं और अनेक नहीं मानते.’

‘इस रमणीक गिरिग्राम पर से सागर और सह्याद्रि दोनों के सुभग दर्शन होते हैं. अलकापुरी से भी रम्य मुम्बापुरी से यह बहुत निकट है. और आर्त्त, जिज्ञासु और अर्थार्थी, ये तीन प्रकार के लोग इसका आश्रय लेते हैं.’

यह सुनकर पाठक की आतुरता बढ़ती है. वह पूछता है- ‘हे लेखक, गिरिग्राम मध्वरण्य क्यों कहलाता है?’

वह लेखक, जिसके मुख पर उदारतापूर्ण हास्य प्रसरित है, उत्तर देता है- ‘हे पाठक, मध्यवरण्य शब्द ‘मधु’ और ‘अरण्य’ इन दो शब्दों की संधि से बना है और इसका अर्थ होता है- मीठा अरण्य.’

‘यह गिरिग्राम मीठा अरण्य क्यों कहलाता है, इसके अनेक कारण हैं, हे वत्स, तू उन्हें जान. इस अरण्य में मधु बहुत होता है. चारुलता नाम की अप्सरा के स्नान से सुंदर बना हुआ वहां के सरोवर का पानी है. मानो उस अप्सरा के चारु अंगों का माधुर्य ही प्रवाही स्वरूप पा गया हो, इस प्रकार वह पानी मधुर है.’

‘हे वत्स, वहां समीर की लहरें भी मीठी आती हैं. इसके अतिरिक्त हे तात, यह अरण्य मधु से भी मीठा है, कारण कि वहां हरे-हरे बड़े वृक्षों ने मंडप की रचना की है. वहां डोलते हुए कुसुमों से भरपूर झाड़ियों में वनदेवियों के सुकुमार पदस्पर्श के लिए निर्मित अस्पष्ट-सी सीढ़ियां हैं. वहां सुमधुर पक्षी विरही हृदय में रस-कुहुक की प्रतिध्वनि करते हैं.’

‘हे वत्स, वहां मरुत गह्वरों में मृदु संगीत बहाते हैं और सारी सृष्टि वहां गान-मुग्ध होकर डोलती है. वहां कभी-कभी नीचे तलहटी में ग्वाले की बांसुरी, जमुना के उस पार बजती हुई राधा को रिझाते हुए नटवर की वंशी के समान, अपनी मोहक ध्वनि से संध्या की आह्लादकता को उत्तेजित करती है.’

पाठक यह सब मुग्ध होकर सुनता रहता है, परंतु वह इस प्रकार पूछता है जैसे अभी उसकी जिज्ञासा की संतुष्टि नहीं हुई- ‘इस अरण्य को मध्वरण्य क्यों कहा गया है, इसके और कुछ कारण हैं?’

‘हे वत्स, हे तात, तू चित्त लगाकर श्रवण कर! जिस समय इस खंड का आरम्भ होता है, उस समय इस कथा का नायक इसी मध्वरण्य में उत्साह से पागल बनकर मुम्बापुरी की ओर बढ़ने के लिए तत्पर खड़ा हुआ है.’

‘1914 में, हे विशाल-बुद्धि पाठक, इस नायक ने इसी रमणीक स्थान पर रहकर ‘वेरनी वसूलात’ का अधिकांश भाग लिखा, और उसके स्मरण में जगत और रमा के प्रणय की पूर्णाहुति इसी स्थान के अद्भुत से ‘पंखीवन’ में की.’

‘हे वत्स, इसके पश्चात प्रतिवर्ष मई, अक्टूबर और दिसम्बर में यह नायक वहां स्वास्थ्य प्राप्त करता रहा, इसने शक्ति और शांति के जप किये, मौजें की और मित्र बनाये, साथ-साथ आदर्श सेवन के लिए प्रयत्न किये.’

‘1915 के मई मास में ‘कोनो वॉक’ उपन्यास इसी स्थान पर लिखा गया. अक्टूबर मास में ‘पाटणनी प्रभुता’ लिखा गया. 1916 में ‘गुजरातनो नाथ’ भी यहीं लिखा गया. 1919 में ‘पृथ्वीवल्लभ’ की रचना हुई.’

‘हे तात, 1921 के मई मास में इसी ‘पंखीवन’ में बैठकर उसने भावनात्मक अपूर्वता को जीवन का सिद्धांत बनाया और उसके ‘बलवर्धन’ का पाठ आरम्भ किया.’

‘और हे वत्स, इसी रमणीक मध्वरण्य के पंखीवन में बैठकर 1922 के अक्टूबर में इस नायक ने भगीरथ संकल्प किया, जिसके फलस्वरूप उसका सारा जीवन परिवर्तित हो गया.’

‘और 1942 में यह खंड भी, अथ से इति तक वहीं लिखा गया है. हे वत्स, उसे यहां मधु से भी अधिक मधुर अनुभव हुए थे, इस कारण इस अरण्य का नाम मध्वरण्य रखा गया है. परंतु हे तात, अल्पज्ञ इसे माथेरान कहते हैं.’

विस्मित होकर पाठक स्वस्थता रखने में अशक्त होकर ऊंचे स्वर से बोल उठता है- ‘तो आप भी इसे माथेरान क्यों नहीं कहते?’

गाम्भीर्य से अचल-सी मुखमुद्रा में लेखक ने इस प्रकार कहा, जैसे कृपा कर रहे हों- ‘शांतम् प्रश्नम्! यह नाम ‘स्तालिन न्याय’ के अनुसार रखा गया है, यह तुम्हें मालूम होना चाहिए.’

पाठक ने उत्सुकता से पूछा- ‘हे लेखक, यह ‘स्तालिन-न्याय’ क्या है, यह मुझे विस्तार से सुनाइये. ’

‘हे तात,’ लेखक ने कहा, ‘पूर्व-काल में एक विज्ञान शास्त्री ऋषक देश के मूषकपुर में स्तालिन नामधारी सर्वसत्ताधिकारी से मिलने गये.’

‘वे विज्ञान शास्त्री पहले स्तालिन के विद्यामंत्री से मिले. विद्यामंत्री ने अपनी पुस्तकों को खड़ी करके एक लाइन में जोड़ने के बदले एक के ऊपर एक रखकर जोड़ा हुआ था. उन विद्यामंत्री को जब एक पुस्तक की आवश्यकता हुई, तब उन्होंने उन जोड़ी हुई पुस्तकों में से एक खींच निकाली और परिणामस्वरूप उसके ऊपर रखी हुई सारी पुस्तकें नीचे आ गिरीं.’

‘इस विचित्र पद्धति से विस्मित होकर उन विज्ञान शास्त्री ने पूछा कि, ‘हे मंत्रिवर, पुस्तकालय में जिस प्रकार खड़ी करके पुस्तकें रखी जाती हैं, उस प्रकार आप भी रखें, तो इस प्रकार एक पुस्तक निकालने से अन्य पुस्तकें कभी न गिरें. और आप इन सबकी सूची कैसे बनाते हैं?’’

मंत्रीवर ने उत्तर दिया- ‘हे विद्यानिधि! ये पुस्तकें मेरी हैं, और मैं उन्हें जिस प्रकार चाहूंगा, उस प्रकार रखूंगा.’

विचार-ग्रस्त विज्ञान शास्त्री वहां से स्तालिन के अर्थमंत्री के पास गये. उन मंत्री ने अपने खंड में मिलने आने वालों के लिए बारह कुरसियां अपने सामने नीचे जुड़वाने के बदले छत के साथ लटकायी हुई थीं, और शास्त्री ने देखा कि जितनी कुरसियों की आवश्यकता होती थी, उतनी बटन दबाकर नीचे उतारने की यांत्रिक योजना वहां काम में लायी गयी थी.

शास्त्री के मुख पर विस्मय छा गया. उन्होंने पूछा- ‘हे मंत्रिवर, कुरसियां भूमि पर रखने के बदले इस प्रकार छत पर क्यों लटका कर रखते हैं? इससे आपको कठिनाई भी होती है और बिजली की शक्ति का अपव्यय भी होता है.’

मंत्रिवर ने उत्तर दिया- ‘ये कुरसियां मेरी हैं और मैं इन्हें जिस तरह चाहूं, रख सकता हूं.’

विस्मय में डूबे हुए वे पंडित वहां से सर्वसत्ताधिकारी स्तालिन के खंड में गये. बात करने के पश्चात शास्त्री ने हाथ जोड़कर कहा- ‘हे प्रभो, आपके राज्य में सब अच्छा है, परंतु आपके ये दो मंत्रिगण पुस्तकें और कुरसियां जिस प्रकार रखते हैं उसे देखते हुए मुझे उनमें कार्यदक्षता के चिह्न नहीं दीख पड़ते.’

सर्वसत्ताधिकारी ने उत्तर दिया- ‘हे शास्त्री , ये दोनों मंत्री मूर्ख हैं, यह तुम्हें जान लेना चाहिए.’

शास्त्री ने तुरंत प्रश्न किया- ‘हे प्रभो, यदि ये मूर्ख हैं, तो आपने किसलिए उन्हें मंत्री-पद पर रखा हुआ है?’

सर्वसत्ताधिकारी हंस पड़े और प्रत्युत्तर दिया- ‘हे विद्यानिधि, ये मूर्ख मेरे हैं और मैं उन्हें जहां उचित जान पड़े, रख सकता हूं.’

‘हे पाठक’, लेखक ने कहा, ‘स्तालिन-न्याय नाम से जगत की मीमांसा में यह एक नवीन न्याय इस लोकशासन के युग में सर्वमान्य हुआ है और उस न्याय के आधार पर इस खंड का नाम मैं माथेरान न रखकर मध्वरण्य रख सकता हूं.’

‘वह किस प्रकार?’ नम्रता से पाठक ने पूछा.

‘हे पाठक, इस ‘स्तालिन न्याय’ के अनुसार यह आत्मकथा मेरी है और यह खंड भी मेरा है, इसलिए मैं इसे जो ठीक समझूं, कह सकता हूं.’

इस न्याय की गहनता को परखने में असमर्थ पाठक पुनः पूछता है, ‘हे लेखक, इस कारण से मुझे संतुष्टि नहीं हुई. सबके समझने योग्य माथेरान शब्द क्यों व्यहृत नहीं किया, इसका मुझे संतोषजनक उत्तर देने की कृपा कीजिए.’

लेखक सस्मित वदन से कहता है- ‘मैं जान गया कि यह प्रश्न तुम्हें अब तक परेशानी में डाले है कि मैं इस खंड को मध्वरण्य किसलिए कहता हूं. हे वत्स, मैं इसका प्रत्युत्तर दे सकता हूं.’

‘प्रिय वत्स, कुपित नाग को सिर पर रखा जा सकता है, रेत से तेल निकाला जा सकता है, परंतु हे वत्स, अनेकों को संस्कारी और असंस्कारी शब्दों के बीच का भेद समझाया नहीं जा सकता.’

वह प्रबुद्ध पाठक, जिसके हृदय के सम्पूर्ण संशय इस उत्तर से नष्ट होते हैं, वहां से लुप्त होता है और मध्वरण्य नामक यह खंड अब आगे चलता है.

 

चंद्रशंकर, मास्टर और कांतिलाल पंड्या मुझे गुजराती में लिखने के लिए प्रेरित किया करते थे, परंतु मेरी हिम्मत नहीं पड़ती थी. मैं स्कूल में गुजराती नहीं पढ़ा था. बचपन में मैंने ‘सरस्वती-चंद्र’ का पहला भाग, नारायण हेमचंद्र के कई अनुवाद और अन्य अनेक उपन्यास आदि पढ़े थे. 1911 में ‘कलापी नो केकारव’ और कवि नानालाल का ‘वसंतोत्सव’ बड़े रसपूर्वक पढ़े थे. इसके अतिरिक्त बाकी गुजराती साहित्य मैंने नहीं पढ़ा था. गुजराती में एक अच्छा-सा पत्र तक मैं नहीं लिख सकता था, फिर भी 1911-12 से मनुकाका को गुजराती में पत्र लिखने का कार्य मैंने आरम्भ किया.

1912 में चंद्रशंकर मेरे पीछे पड़े. वे मुझे हमेशा रमेशचंद्र दत्त का उदाहरण दिया करते. मेरे ही समान कठिनाई अनुभव कर रहे दत्त से किसी बंगाली लेखक ने कहा था कि तुम जो बंगाली भाषा लिखोगे, वह अच्छी मानी जायेगी, और इस सलाह से प्रेरित होकर दत्त ने मातृभाषा में लिखना आरम्भ किया था.

जब-जब मुझे किसी भी प्रकार का तीव्र उद्वेग होता था, तब-तब उसके सहारे से कोई काल्पनिक प्रसंग खड़ा करके उसे लेखन द्वारा व्यक्त करने की मुझे बचपन से आदत थी, परंतु वह अंग्रेज़ी में ही. 1912 के जून या जुलाई में जब मुझे ऐसा उद्वेग हुआ, तब गुजराती में वह व्यक्त हो सकेगा या नहीं, इसका प्रयोग करने के लिए मैंने ‘मारी कमला’, नामक संक्षिप्त कहानी लिख डाली. चंद्रशंकर ने उसकी प्रशंसा की और भाषा शुद्ध करके ‘स्त्राr-बोध’ में छपने के लिए भेज दी.

उस कहानी का कैसा स्वागत होगा, इसके लिए मुझे बहुत ही चिंता हो रही थी. परंतु चंद्रशंकर मुझे लगातार प्रोत्साहन देते रहे. 1912 की 9 अगस्त को शोलापुर से उन्होंने मुझे अंग्रेज़ी में लिखा-

‘इतनी सुंदर गुजराती लिखने में तुमने जो सफलता प्राप्त की है, उसके लिए मैं तुम्हें हार्दिक बधाई देता हूं. तुम्हारी शैली तुम्हारी अपनी है. और थोड़े लेख लिखोगे, तो गुजरात को मालूम हो जायेगा कि तुम्हारी शैली कितनी सरस है. तुम्हारी शैली सरल और अर्थवाहक है. तुम्हारा सुंदर शब्द-संग्रह और छोटे वाक्य तुम्हारी शैली को अधिक आकर्षक बना देते हैं. और कुछ नहीं तो जिस छटा पूर्ण शैली में तुम अपने विचार व्यक्त करते हो, उसीके लिए मैं तुमसे विनती करता हूं कि तुम अपनी मातृभाषा और उसके साहित्य की सेवा करो… केवल तुम्हारी शैली ही सुंदर नहीं, कहानी कहने की तुम्हारी कला भी असाधारण हैं…’

गुजरात में उस समय एक प्रखर और लगन वाले साहित्यकार थे, जो गुजराती साहित्य की रग-रग से परिचित थे. उन्होंने साहित्य-सेवा में ही जीवन की सार्थकता समझी थी. उन्होंने ‘स्त्राr-बोध’ में छपी हुई ‘घनश्याम-व्यास’ की कहानी पढ़कर उस ‘व्यास’ का पीछा किया. यह नया लेखक है कौन? पुराने लेखकों में से कोई नहीं लिख सकता. उन्होंने ‘स्त्राr-बोध’ में तलाश की और चंद्रशंकर का पता प्राप्त किया. फिर चंद्रशंकर को साथ लेकर वे मेरे पास आये.

नरसिंहराव भोलानाथ दिवेटिया मेरे कमरे में! मैंने उनका सत्कार किया. नरसिंहराव भाई ने मुक्तकंठ से गुजराती साहित्य-क्षेत्र में मेरा स्वागत किया. उन्होंने मेरी शैली की विशिष्टता पर ज़ोर दिया. मेरी शैली के मुख्य अंग अंग्रेज़ी शैलीकारों के अध्ययन से उत्पन्न हुए हैं, यह उनकी तीक्ष्ण दृष्टि से छिपा नहीं था. इस आकस्मिक मुलाकात से मुझमें बड़ी हिम्मत आ गयी और इससे एक अमूल्य स्नेह-सम्बंध की नींव पड़ी.

कहानी-लेखक के रूप में, मेरी सृजन-कला के तीन प्रकार मुझे दिखाई देते हैं. पहले प्रकार में मैं केवल आत्मकथन करता, अपना अनुभव किया हुआ दुख या सुख वर्णन करता. दूसरे में मैं अपने किसी अनुभव को पहले कल्पना में एकत्र करके, बाद में उसे मूर्तिमंत करते हुए काल्पनिक व्यक्ति या प्रसंग का सहारा लेकर कहानी लिखता. तीसरे प्रकार में बिना अनुभव की हुई मनोदशा गढ़कर, कल्पना से उसका अनुभव करके उस पर मुख्य पात्र या प्रसंगों की रचना करता.

‘मारी कमला’ से मैंने पहला प्रकार आरम्भ किया, इसी में मैंने ‘कोकिला,’ ‘वेरनी वसूलात’ (1913-14), और ‘कोनो वांक’ (1915-16), लिखे. ‘पाटणनी प्रभुता’ से मैंने दूसरा प्रकार आरम्भ किया. ‘पृथ्वी वल्लभ’ में पहला प्रकार ही मुख्य है. ‘भगवान कौटिल्य’ (1924-25), से मैंने तीसरा प्रकार अपनाया. ‘जय सोमनाथ’ (1934-37) में मुझे इसकी प्रबलता दिखाई देती है.

‘मारी कमला’ लिखने से मुझे नया भान हुआ. जब मैं अंग्रेज़ी को अपने कथन का वाहन बनाता, तब मेरी रचना शब्दाडंबर से घुट जाती, मेरी आत्मा सरलता से प्रकट नहीं हो पाती. जाज्वल्यमान शब्दों के प्रवाह में कथन की सरलता और भाव की सूक्ष्मता दोनों दब जाते. ‘मारी कमला’ लिखते हुए मेरी अविकसित गुजराती में भी शब्द गौण बन गये. भावना और कल्पना-चित्र मुझ पर अधिकार जमाकर मुझे शब्दों की प्रेरणा देने लगे. यह सत्य मेरी समझ में आया कि अपनी मातृभाषा द्वारा ही अपना जीवन ठीक-ठीक व्यक्त होता है. और तभी रचना सरल, प्रभावकारी और कलात्मक भी बनती है.

अगस्त मास में मैंने ‘भार्गव’ त्रैमासिक निकाला. उसके लिए लिखना, आये हुए लेख सुधारना और प्रूफ देखना आदि काम दलपतराम के और मेरे सिर पड़े. परिणाम-स्वरूप गुजराती लिखने और सुधारने का मुझे अभ्यास होने लगा. सम्पादक के रूप में मेरी लिखी हुई पहली टिप्पणी इस प्रकार थी-

‘सम्भवतः इस त्रैमासिक के विषय में कई प्रकार के मतभेद उत्पन्न हो सकते हैं. अनेक लोगों को इसकी आवश्यकता नहीं मालूम होगी. अनेकों को अपने हास्य और कटाक्ष का कारण इसमें दीख पड़ेगा. अनेक इससे होने वाले लाभ के प्रति निराशा प्रकट करेंगे. ऐसे सज्जनों से हम नम्रतापूर्वक कहेंगे कि अच्छे काम में पहले ही गंदे भविष्य का विचार करना ज़रा अनुचित-सा है. प्रत्येक कार्य निर्विघ्न पूरा नहीं होता.’

इस त्रैमासिक जैसे प्रयास को आजकल के ज़माने में शायद ही कोई निरर्थक समझेगा. जब तक मनुष्य शब्दोच्चारण करने की शक्ति प्राप्त न कर ले, जब तक दृढ़ विचार करके अपनी बुद्धि को प्रकाश में नहीं लाये, तब तक वह पशुओं की अधमता से बाहर निकला हुआ नहीं माना जायेगा. बोलना, विचार प्रदर्शित करना, मनुष्य का पहला भूषण, मनुष्यता का पहला अधिकार, और उच्च-जीवन का पहला कर्तव्य है.’

ये वाक्य स्पष्ट रूप से अंग्रेज़ी वाक्यों का संस्कृत शब्दों में और भड़ौंच की अशुद्ध गुजराती में मस्तिष्क का अनुवाद किये हुए हैं. परंतु कुछ महीनों में इन सम्पूर्ण तत्त्वों का समन्वय हो जाता है.

‘अपनी रसेंद्रियों के इस जन्म में परितुष्ट न होने से अगले जन्म में स्वर्ग के कल्पित सुखों पर अपना अधिकार रखकर बैठे हुए लोग, समझे बिना ही सवेरे के समय संध्या का झूठा आडम्बर रचकर, गोमुखी में हाथ डालकर, गांव-भर की पंचायत करके ईश्वर को धोखा देकर भूले-चूके मोक्ष पाने की आशा रखने वाले, गीता का गड़बड़ पाठ करके, कर्मयोग का एक अक्षर भी समझे या उसके अनुसार आचरण किये बिना योगी कहलाने वाले, पैसे देकर, ब्राह्मण को भोजन कराके अथवा जीवन-भर अनाचार करके मरते समय चार पैसे दक्षिणा देकर या मंदिर बनवाकर पुण्य खरीदने वाले सचेत मारवाड़ी- इन सब लोगों को बुद्ध का शासन ज़रा कठोर मालूम होगा. आजकल हम धर्म के नाम पर अनेक बुराइयां होते देखते हैं और कायरता से आंखों पर पट्टी बांध लेते हैं. अर्थहीन शुष्क मंत्रों में, बिना समझ की विचित्र विधियों में पैसे खर्च करके पुण्य संचय करने में, या आंख बंद करके सब कुछ स्वीकार करने में मोक्ष नहीं है, इस जन्म में या अगले जन्म में इससे सिद्धि नहीं मिल सकती!’

इस प्रकार अपनी शैली बनाने के प्रयत्नों से अंत में मेरी शैली जमने लगी.

1913 के ‘गुजराती’ के ‘दीवाली अंक’ के लिए ‘कोकिला’ लिखकर मैंने आत्मकथन का दूसरा मनका फेरा. इसमें कथन की सरलता और प्रभावकारिता सिद्ध करने की कला का विकास दृष्टिगोचर होता है.

‘जब मैं कालेज में थी, तब सुखी थी. उस समय मेरा एक मित्र था. उसकी मोहक छवि, बाहर से दीखने वाला स्नेही स्वभाव, सुंदरता से पूर्ण और अनेक बार बड़े भोलेपन से बोलने की रीति, इन सब बातों से मेरा अनुभवहीन हृदय वशीभूत हो गया. हम साथ-साथ घूमते और साथ-साथ पढ़ते. मेरी बुद्धि और शक्ति सबल थी, हृदय प्रणयी था, उसने उसे प्रभु बनाया.’

‘किशोरलाल! मैं अभिमान नहीं करती, परंतु मेरी भावनाएं अपूर्व थीं. उन्हें शायद ही कोई प्राप्त कर सकता. मेरा वह देव इस उपहार के योग्य नहीं था, पर मैं अंधी थी और उसे सब बातों में पूर्ण समझती थी… जब मैं उच्च भावना के व्योम में विहार करती, तब मेरे भविष्य के भर्त्ता, जिह्वा के रस या शरीर के आराम की खोज में व्यस्त रहते. मैं अपने कल्पना संसार से जाग पड़ी. मैंने आंखें खोलकर अपने देव के इन रंगों को परखा. हे भगवान्, उस दिन के दुख की कुछ भी स्मृति मन में आते ही मेरा जीवन विष हो जाता है.’

मेरी कल्पना ने मित्र-वियोग का विष भी रचना द्वारा उतारा.

 

‘गुजराती’ साप्ताहिक में एक धारावाहिक उपन्यास निकला करता था, और दीवाली पर एक उपन्यास की पुस्तक उसके ग्राहकों को भेंट दी जाती थी. गुजराती उपन्यासों की परीक्षा करने में ‘गुजराती प्रेस’ के संचालक बड़े सतर्क माने जाते थे.

1814 के आरम्भ में अम्बालाल जानी ने मुझसे ‘गुजराती’ में धारावाहिक कहानी लिखने का आग्रह किया. पहले तो मेरी हिम्मत नहीं पड़ी; परंतु फिर कॉलम के चौदह आने छोड़ना मुझे भला न लगा. इसलिए कहानी लिखने का निश्चय किया और ‘वेरनी वसूलात’ का पहला खंड लिखकर अम्बालाल भाई को दिया. ‘गुजराती’ के सम्पादक ने उसे स्वीकार किया और उस साप्ताहिक में 19 अगस्त से ‘वेरनी वसूलात’ धारावाहिक-कहानी के रूप में प्रकाशित होने लगा.

मेरे इस प्रथम प्रयत्न का प्रारम्भ में ही स्वागत हुआ. लेखक के रूप में मैं अपना नाम गुप्त रखना चाहता था, कारण कि यदि जमीयतराम काका और अन्य सालिसिटर यह जान जायें कि मैं कहानी लिखने में समय बिताता हूं, इसलिए व्यवसाय में ध्यान नहीं देता हूंगा, तो वे ब्ऱीफ देना बंद कर देंगे. परंतु काका के दरबार के सूरती सॉलिसिटर ‘तनमन’ से प्रसन्न हो गये थे. प्रति सोमवार को जब ‘गुजराती’ में पिछले सप्ताह प्रकाशित हुई मेरी कहानी की वहां चर्चा होती, तब अपने प्रयत्न की प्रशंसा मैं मूक-भाव से सुना करता. उस कहानी ने काका और पकवासा के समान वृद्ध दुनियादारी में रमे हुए व्यक्तियों का मन भी हर लिया.

एक मित्र की स्त्री ने उस कहनी को बहुत अधिक मान दिया. उनके अंतिम दिन बीत रहे थे. पूरी कहानी पढ़ने से पहले ही कहीं उनकी मृत्यु न हो जाय, इस विचार से वे मित्र उस कहानी के शेष भाग की हस्तलिपि लेने मेरे पास आये.

‘वेरनी वसूलात’ केवल उपन्यास ही नहीं, वरन् वह मेरे आत्म-विकास का एक सीमाचिह्न है. इसमें केवल स्वानुभव ही नहीं, परंतु आबदार स्वानुभवों का आलेखन है. यह सुंदर कल्पना-सृष्टि यदि सच्ची होती, तो मैं कैसा होता, मेरी अपूर्ण आकांक्षाएं पूर्ण हुई होतीं, तो मैं सृष्टि कैसे रचता, वैराग्य प्राप्त करने के मेरे सारे प्रयत्न सफल हुए होते, तो मैं कैसा होता, इन सबका वह चित्र है. उसमें ‘अरविंद घोष’ के स्पर्श से और गीता के अध्ययन से सृजन की हुई मेरी आर्यत्व की भावना ‘अनंतानंद’ के रूप में मूर्त हुई है. मुझे किसी गुरु की चाह थी, उसे मैंने ‘जगत’ को गुरु देकर पूर्ण किया.

योग में एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा योगी अपनी असंतुष्ट आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए इसी जन्म में दूसरा स्वरूप धारण करके उन आकांक्षाओं को संतुष्ट कर सकता है. इसी प्रकार मैंने अपने पिछले नौ वर्षों की भावतरंगों और अनुभवों को इस कल्पना-संसार में व्यक्त करके उस असंतोष को दूर किया.

1914 के सितम्बर की 12 तारीख को मैंने वह उपन्यास सम्पूर्ण किया और विचार अंकित किया-

‘छह महीने के परिश्रम के पश्चात अपना बड़ा उपन्यास पूर्ण करने का सौभाग्य मुझे मिला है. सूक्ष्मतम भावों की तरंगें और कल्पना-सृष्टि के विहार इस प्रकार पूर्ण हुए, जैसे बीते जन्म के सुखद स्मरण हों- दूसरों के लिए असत्य और मेरे लिए सत्य. पिछले कई हफ्तों से मुझे निस्तेज परंतु सुंदर रमा दीख पड़ रही है- अवास्तविक सृष्टि के उस पार से, घूमती-फिरती, बातचीत करती हुई, यह विचार करती हुई कि जगत भूमि पर सोये, तो उससे बिस्तर में सोया जायेगा या नहीं, कुंदन भाभी से खाना-पकाना सीखती हुई. मैं बेचारी गरीब शिरिन को देखता हूं- एलफिंस्टन कॉलेज में जाते हुए, अकेले, स्वजनहीन, गम्भीर और मेरा हृदय भारी हो जाता है. मैं जगत के दृढ़ कदम, शिष्ट आवाज़ और शुष्क-जीवन को देखता हूं; और देखता हूं अक्खड़ और उद्दंड रामकिसन को- रत्नगढ़ के युवक नरेश रणुभा को अपने स्वर्गीय स्वामी के तरीकों पर चलाते हुए; आनंद से उछलता हुआ बाल अरुण, ‘भाई’ और ‘रमा बहन’ के साथ दौड़-भाग करता हुआ.’

‘मैं जगत को देखता हूं- इस प्रकार, मानो वह मैं स्वयं ही हूं- उन्नत मानवता के पंखों पर उड़ते हुए; ‘अनंत-मंडल’ को कीर्ति के और देशभक्ति के पथ पर ले जाते हुए, अनंतानंद के महान भारत के स्वप्न को सिद्ध करते हुए. यह सब मेरे लिए सत्य है, अपने वास्तविक जीवन से भी अधिक सत्य. इसे लिखते हुए मैंने जो आनंद अनुभव किया, वैसा आनंद मैंने कभी अनुभव नहीं किया. यह सृष्टि ऐसी जीती-जागती बन गयी है कि मैं आधी नींद में यह विचार कर रहा था कि कल सवेरे मैं त्योहार की बधाइयां किन पारसी मित्रों को दूं तो विचार-ही-विचार में शिरिन सजीव हो गयी- विवाह को भावना-सम्बंध मानती हुई. जिसे पति समझा था, उसे गुरु स्वीकार करती हुई. उस बहादुर प्रणयिनी को भी मैंने इस सूची में जोड़ लिया.’

‘मेरे लिए यह बहुत बड़ा प्रयत्न कहा जायेगा. इसके अतिरिक्त उसमें आत्मकथा के परिच्छेद हैं, आत्मलक्षी प्रसंग भी हैं, मेरी व्यक्तिगत भावनाएं भी हैं, और इससे यह कहानी मुझे बहुत प्रिय मालूम होती है.’

‘आत्मकथन करने का यह प्रयत्न तब आरम्भ किया था, जब एक मित्र के किये हुए विश्वासघात के कारण आत्मा को संयत करने वाली गीता का उपदेश स्वीकार किया था. अब मुझे पहले की तरह आत्मकथन की अनिवार्य आवश्यकता प्रतीत नहीं होती. पहले मैं ऐसा लिखता था, जैसे कोई संयमहीन अरण्य में क्रंदन कर रहा हो, अब उसके स्थान पर स्वस्थ कथन कर सकता हूं. सिर फोड़ डालने की वृत्ति को प्रबल होने दिये बिना अब मैं प्रिय वस्तु की बात कर सकता हूं. अपनी उद्वेग-कथा मैं स्थिरता और शांति के साथ लिख सकता हूं. वैराग्य साधने के अपने प्रयास के बिना यह कभी सम्भव न होता. इस प्रकार आत्म-संरक्षण की वृत्ति से स्वीकार किये हुए और बुद्धि द्वारा गौरवपूर्ण माने हुए गीता के आदेश के अनुसार ही मैं एक कदम आगे बढ़ा- या पीछे हटा.’

‘तीन विभागों में बंटी हुई इस कहानी के पहले दो भागों में आत्मकथा का समावेश है, परंतु तीसरे भाग के विषय में स्पष्ट करना पड़ेगा. तीसरे भाग का जगत मैं स्वयं हूं. परंतु आदर्श के चित्रपट पर चित्रित स्वप्नचित्र के समान, जिसकी सिद्धि अनंतानंद के और रमा के प्रभाव में सदा असाध्य है- निःश्वास छोड़कर मृगजल की ओर जाने के समान.’

‘शिरिन एकदम काल्पनिक है- रमा का बुद्धि-प्रधान अर्धभाग, जिसे मैं प्रणयहीन विवाह के गड्ढे में नहीं डाल सका; इससे तो उसका हृदय ही टूट जाता. रमा भी काल्पनिक है. आजकल की हिंदू बालिका के सीता और सावित्री द्वारा रचित मानव बिम्ब में- जिसके लिए मृदुता, नम्रता और आत्म-समर्पण सरलता से साध्य हैं- तेजस्वी स्त्राrत्व ऐसा ही रहेगा. सशक्त और वीर मानवता, वैराग्य-प्रधान मनोदशा का अभ्यास करने के पश्चात्, ऐसी ही कन्या के साथ मेल खा सकती है. रघुभाई की उस क्षीण और सुकुमार पुत्री के साथ जगत की तरह मैं भी प्रेम करने लगा हूं. आज मेरा हृदय मग्न हो गया है, फिर भी यदि इस प्रकार की युवती मेरे साथ हो, तो मैं भी जगत के साथ संधि कर लूं.’

‘रघुभाई की रेखाएं ऐसी हैं कि तुरंत पहचानी जा सकें. प्रत्येक पाप करने पर भी टूटे-फूटे गौरव को धारण करतीं, झूठी मुस्कान और असत्य शब्दों से नीच और स्वार्थी खिलाड़ीपन को ढकती हुई पुराने ज़माने की प्रतिष्ठा की वे मूर्ति हैं. श्यामलाल के समान अत्याचारी, लोभी और उद्दंड व्यक्ति हमारे प्रत्येक सामाजिक क्षेत्र में मिलेंगे.’

‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अनंतानंद का आलेखन करने में मैं पूरा सफल नहीं हो सका. अपने आदर्शों के एकीकरण की कल्पना करना सरल था, परंतु उसे जीवित व्यक्तित्व देना कठिन हो गया. तीसरे भाग में समय और अवकाश के अभाव के कारण उस पात्र की ओर उचित ध्यान नहीं दे सका. उसके अपूर्व चरित्रांकन के मुकाबले में उसका अंत जितना भव्य होना चाहिए था, नहीं हो सका.’

‘यह कहानी जिसकी प्रेरणा से लिखी गयी है, वह जगत की हृदयेश्वरी तनमन सुंदरता से चित्रित हुई है. परंतु इस चित्र से मैं असंतुष्ट हूं. जो सत्य था उसे उचित स्थान दिया है. जो काल्पनिक भाग था, वह भी अशोभनीय नहीं है. दूसरा भाग लिखते समय मेरे उद्वेग का पार नहीं था. यही मेरा अहोभाग्य था कि मैं उसे सूखी आंखों अभग्न हृदय से पूर्ण कर सका. परंतु उसका प्रत्याघात कठोर हुआ.’

‘इस प्रकार साहित्य द्वारा हृदय खोलने की मेरी रीति के प्रति चुस्त श्रेणी के टीकाकार अप्रसन्नता प्रकट करेंगे और मेरे इस अपराध को अक्षम्य समझेंगे. परंतु मुझे अपने आपको बीते काल से अपना सम्बंध तोड़ डालने का पाठ पढ़ाना था. योगी अथवा योगाभ्यास की इच्छा रखने वाले के लिए भूतकाल नहीं होता. हृदय के रहस्य एक बार प्रकट किये कि उनका विष उतर जाता है. फिर सारा ढांचा नीरोग हो जाता है. बचपन की मूर्खता की कुछ निजी बातें किसी कठोर-हृदय, विवेक-शून्य व्यक्ति से कह दी गयी हों और वह उनका मनमाना अर्थ लगाये, उसकी मदद से मनमानी गप्पें उड़ाये और मुझ पर मनमाने आक्षेप करे, इसकी अपेक्षा यदि मैं स्वयं उन्हें दुनिया के आगे उपस्थित करूं, तो इसमें क्या बुरा है? मैं इस प्रकार आत्म-निवेदन करूं, वही अच्छा है. जो सत्य मैंने लिखा है, उससे मैं चिपटा रहूंगा. एक भी आवश्यक शब्द मैंने छोड़ा नहीं है. एक भी आवश्यक प्रसंग मैं भूला नहीं हूं. बारह वर्ष की वेदना, उद्वेग और प्रणय-द्रोह, किया अथवा नहीं किया- इसकी हृदय-वेधक या विषय आकुलता सब कुछ, पूर्ण रूप से देखते हुए मुझे लज्जित होने का कोई कारण नहीं है.’

‘शिरिन की तरह संसार, उसके कर्तव्य और मेरी आशाओं के भग्नावशेष ही अब मेरे हाथ में रह गये हैं, और वे भी जगत के समान गुरु की प्रेरणा से रहित. वे ही अब मेरे अपने हैं.’

‘और यह आधी सत्य, आधी काल्पनिक सृष्टि, जो कि मेरे लिए सदा ही सत्य है, अब सिमट गयी है; इस प्रकार जैसे पूर्वजन्म खत्म हो गया हो. किसी नवीन ही सृष्टि का सृजन करने के लिए अपनी निर्बल लेखनी फिर से उठाऊंगा; उसी प्रकार की कठिनाइयों के कारण जीवन में भी नयी सृष्टि की रचना करनी पड़ती है.’

‘और कौन जाने कब, मेरा वास्तविक और काल्पनिक जगत एकाकार हो जायेगा, और मुझे निर्वाण मिलेगा?’

‘इस प्रकार जैसे मृत्यु-शय्या पर पड़ा मनुष्य अंतिम बार ‘राम-राम’ कहता है, उसी प्रकार रत्नगढ़ में मानवता और सुकुमारता की गुंथी हुई भावनाओं को मैं ‘राम राम’ करता हूं. ये दोनों कल्पना-सृष्टि के सुमधुर जीवन-पथ पर जाती हैं… मेरी आंखों के आगे से अदृश्य होती हैं… और पीछे से मेरे जगत में रह जाते हैं केवल मैं और अंधकार?’

इस प्रकार मैंने अपने जीवन की जन्म-कुंडली बनायी. इससे मेरा स्वभाव, मेरी अभिलाषा और मेरा भविष्य बखूबी पढ़े जाते हैं.

1915 की 25 जुलाई को गुजराती भाषा में यह सम्पूर्ण उपन्यास छप गया.

ज्योंही मेरी परीक्षा का परिणाम निकला त्योंही मनुकाका ने मुरारजी चाल में उसी मंज़िल पर एक खाली ब्लॉक किराये पर ले लिया. मेरी नयी प्रतिष्ठा को शोभा देने वाले घर के बिना कैसे काम चल सकता था? तैंतीस रुपये महीना किराया. जिस दिन मैं भड़ौंच से आया. उसी दिन शाम को चोर-बाज़ार में जाकर हमने टूटा-फूटा फर्नीचर खरीदा और उसे मजदूर के सिर पर लादकर ज्योंही हम ऊपर कमरे में घुसे, त्योंही उस नये ब्लॉक की एक मात्र कुरसी पर छोटूभाई मलजी को बैठे देखा. वे मुझे बधाई देने आये थे. चोर-बाज़ार की टूटी-फूटी कुरसियों की भव्यता में मढ़ी हुई मेरी नयी प्रतिष्ठा डोल उठी.

हमने नया जीवन आरम्भ किया.

जीजी मां और लक्ष्मी आयी. फिर से सब मानपत्र लेने गये. मई महीने में वापस आकर जब हम शांतिपूर्वक स्थिर होकर बैठे, तब मैंने हिसाब लगाकर देखा- कम-से-कम सवा सौ रुपये के बिना यह घर नहीं चल चकता, और ये कहां से लाये जायेंगे?

भड़ौच से ज़मीन और शेयर आदि से जो रकम मिलती थी, वह केवल नाम-मात्र की थी. ‘वेरनी वसूलात’ लिखने से महीने में 15-20 रुपये मिलते थे. मामा के परिचय से भड़ौंच के एक सराफ के यहां खाता खोलकर यह व्यवस्था की कि जब मुझे आवश्यकता हो, तब महीने में सौ रुपये वह भेज दे.

मुझे वह समय अच्छी तरह याद है. मैंने कभी खाता खुलवाकर कहीं से पैसे नहीं लिये थे. मामा के साथ सराफ के घर जाते मुझे बहुत ही शर्म आयी. हस्ताक्षर करके पैसे ले तो आया, पर मुझे न जाने कब तक यह बात खटकती रही.

महीने की अंतिम तारीख को मैं महीने का हिसाब किया करता. कितनी फीस जमा हुई, यह सोचता. घर-ज़मीन बेच दूं तो कितने वर्ष निभा सकूंगा, इसका अंदाज़ा लगाता और फिर भड़ौंच के व्यापारी से आवश्यकता के अनुसार पैसे मंगा लेता.

हर तीसरी तारीख को ब्लॉक का किराया देना पड़ता था. इसलिए एक-दो मित्रों से जब-तब कुछ रुपये लाकर तैंतीस रुपये इकट्ठे कर रखता था, ताकि किराया वसूल करने वाला आये, तो एडवोकेट साहब की इज़्ज़त खराब न हो. इस सम्बंध में मेरे स्वर्गीय मित्र ठाकुरदास मुनीम मुझे अनेक बार सुविधा कर देते थे.

पिताजी की सम्पत्ति का अधिकांश रुपया मेरे एक दूर के मामा की सलाह से ‘स्पीशी बैंक’ के शेयर में रुका हुआ था. उस समय बम्बई में चुनीलाल सरैया की धूम थी. उन्होंने ‘बैंक आ़@फ इंडिया’ खोला और वहां से अलग होने पर ‘स्पीशी बैंक’ खोला. रोकड़ के मामले में वे बेजोड़ माने जाते थे. अपनी पूंजी उनको सौंप कर हम निश्चिंतता से सो रहे थे, परंतु पहले भारतीय बैंक का ‘बनिया’ संस्थापक, ईर्ष्या का शिकार हुआ और नवम्बर में बैंक के दिवालिया होने की अरजी हुई. मैंने नोट किया-

‘बैंक के केस में चुनीलाल सरैया का बयान लिया गया. बादल बिखर गया. चार दिनों तक वे कसौटी पर चढ़े. विरोधी सुनने वालों, क्रूर न्यायाधीश और हिंसक पशुओं के समान जांच-पड़ताल करने वालों के सम्मुख वे स्वस्थता और निश्चिंतता से खड़े रहे- सारी परिस्थिति का तीक्ष्ण दृष्टि से अवलोकन करते हुए.’

13-11-1913

‘चुनीलाल सरैया के विरोध वाली अरजी निकल गयी. अब बैंक निर्भय हुआ. चुनीलाल महापुरुष हैं. इस समय उन्होंने खूब शान दिखलाई, उनका व्यवहार शांत और विश्वस्त था. उनके हिसाब सही-सही और उनकी युक्तियां अनंत हैं. वास्तव में वे बड़े ही कुशल व्यक्ति हैं.’

24-11-1913

परंतु उन्होंने पहला बड़ा हिंदुस्तानी बैंक खोलने का अपराध किया था, इसलिए उन्हें दबाने के अनेक प्रयत्न चलते रहे.

‘चुनीलाल सरैया आज सबेरे साढ़े आठ बजे गुज़र गये. कहा जाता है कि हृदय की गति बंद हो गयी. ‘स्पीशी बैंक’ दिवालिया हो गया. बादल टूट पड़ा. अपनी अल्प आय के दिनों में, जिस रकम पर भरोसा रखा था, वह साथ ही डूब गयी.’

29-11-1913

अब केवल भड़ौंच के बनिये का ही आधार रहा. परंतु ईश्वर ने लाज रख ली. उसके पास से लगभग सात सौ रुपये से अधिक लेने की आवश्यकता न पड़ी.

1912 या 13 में हमारे गृह-संसार के अनुभव की विचित्र परीक्षा हुई. ठाकुरलाल पंड्या- पंड्या काका- बड़ौदा के पुराने मित्र थे. बड़े विनोदी, बड़े स्नेही. उन्हें गायकवाड-सरकार ने स्कॉलरशिप देकर अमेरिका भेजा. पंड्या काका की पढ़ने में गति कम थी, परंतु लोगों के हृदय पर अधिकार पाने में वे एक ही थे. अमेरिका में रहकर डॉक्टरेट की तैयारी के दिनों वे वहां के बड़े-बड़े लोगों के घर में प्रिय बनते जा रहे थे. अपने वहां वाले मित्रों के हृदय पर काबू करने के लिए वे हमेशा भारत की अनोखी चीज़ें हमसे मंगाया करते थे. हम लोगों को वे सब लानी पड़ती, पार्सल तैयार करने पड़ते और अमेरिका भेजने पड़ते. अंत में हम सब तंग आ गये. पंड्या पढ़ने गये हैं या खुशामद करने, यह हमारी समझ में नहीं आया. एक दिन हमें मौका मिल गया और एक पार्सल की चीज़ों के साथ हमने बूट-पालिश की खाली डिब्बियां और एक जोड़ा फटा जूता भी रख कर भेज दिया.

जब पार्सल पहुंचा, तब पंड्या काका किसी पैसे वाले के मेहमान बनकर मज़े कर रहे थे. हिंदुस्तान से आयी हुई चीज़ें देखने के लिए उन्होंने घर के सब आदमियों को इकट्ठा किया. पार्सल खोला गया. फटे जूते का जोड़ा और पालिश की डिब्बियां भी अन्य अनोखी च़ाजों के साथ बाहर निकल पड़ीं.

गुस्से में भरे हुए पंड्या काका ने हमें गालियों से भरा हुआ पत्र लिख भेजा. इसके बाद हमारा पारस्परिक व्यवहार ज़रा कम हो गया.

बाद में जब वे हिंदुस्तान लौटे, तब उनके वृद्ध पिता उन्हें लेने के लिए बम्बई आये. अंकलेसरिया, प्राणलाल भाई, मैं, मनुकाका और पी.के. हम सबने निश्चय किया कि पंड्या काका ने हमारे साथ जैसा अभिमानपूर्ण बरताव किया है, उसका अच्छी तरह बदला लिया जाये.

लक्ष्मी, मैं और मनुकाका भोज की तैयारी के विषय में विचार करने बैठे. तीनों में से किसी को पता नहीं था कि प्रति मनुष्य कितना हलवा बनाया जाये. बड़े विचार के बाद यह निश्चय हुआ कि प्रति मनुष्य तीन पाव सूजी होनी चाहिए.

हम पंड्या को लाने के लिए गये. बंदर पर से हार पहनाकर अपने घर लाये और दरवाज़े अंदर से बंद करके सब पंड्या काका को मारने बैठ गये. पंड्या की समझ में कुछ न आया.

कोई कहता- ‘चिवड़ा,’ कोई कहता- ‘बूट पालिश’, कोई कहता- ‘बादाम की पूरी.’ पंड्या काका के अमेरिका के शानदार और इस्तरी किये हुए कपड़े बिखर गये. उन्होंने जो अभिमान प्रदर्शित किया था, उसके लिए माफी मंगवाकर ही हमने चैन ली. इसके बाद सब खाने के लिए बैठे. घी और शक्कर डालने पर हलवा तीस आदमियों के खाने लायक बन गया था और हम थे केवल दस आदमी. बड़ा पतीला देखकर सब लोग हंसने लगे. लक्ष्मी की लज्जा की सीमा नहीं थी. हमने निश्चय किया कि जिस प्रकार भी हो, पतीला खाली किया जाये. पंड्या काका के लिए तो कॉलेज में यह कहावत मशहूर थी कि ‘पंड्या के पेट में पचासी पूरियां’ और उन्होंने इसे वहां सार्थक कर दिखाया. अंकलेसरिया और अन्य लोगों ने भी ऐसे पराक्रम कर दिखाये, जो न कभी सुने गये थे और न कभी वर्णन किये गये थे, परंतु द्रौपदी के अक्षयपात्र की थाह मिलते किसी ने सुनी है?

महारथी हार गये.

(क्रमशः)

 अगस्त  2014 

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