सत्य सामुदायिक नहीं, व्यक्तिगत वस्तु है. यह सत्य सिखाने से नहीं सीखा जा सकता. जीवन में इसका अनुशीलन प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए करना चाहिए. मनुष्य को योगी बनना हो तो एकांत-प्रिय बनना चाहिए. पग-पग पर उसे यह जानकर घबराहट होगी कि उसके बंधुओं को उसका सत्य जानने की, बल्कि उनका अपना भी सत्य जानने की– ज़रा भी इच्छा नहीं है. वे मुक्ति नहीं चाहते. वे किसी ‘पर धर्म’ के पीछे पड़े हैं.
‘स्वधर्मों का पालन करते हुए मर जाना अच्छा है’, इसकी अपेक्षा अधिक भव्य संदेश जगत को और कोई नहीं मिला. यदि इसे सिद्ध करना है तो अन्य लोगों को एक ओर छोड़कर मुझे अपने निज के सत्य की ओर आगे बढ़ना चाहिए. इसका नाम है मुक्ति; इसका नाम है ईश्वर रूपी परमपद की प्राप्ति.
सर्व गुणों और सर्व देशों में जनसमूह रूपी समुद्र के ऊपर ऊंची मीनार की भांति खड़े रहनेवाले मनुष्य तो वही पैदा हुए हैं, जो अपने सत्य के लिए टिके रहे हैं, लड़े हैं और मरे हैं. इस दृष्टि से देखते हुए जगत का इतिहास इन ज्योतिर्धरों की एक अखंड माला जैसा भास होता है– अलग-अलग स्वभाव और नैसर्गिक शक्तियों वाले मनुष्य, जो देश और काल की सीमाओं को पार कर गये हैं, वे अपने जीवन द्वारा सत्य की सेवा करने का लाक्षणिक स्वपुरुषार्थ करने के लिए एक भ्रातृ संघ में एकत्र हुए हैं.
(कुलपति के. एम. मुनशी भारतीय विद्या भवन के संस्थापक थे)
(February 2013)