‘सच्ची दोस्ती कागज़ से ही हो सकती है, वह भी कलम के द्वारा’ 

बातचीत

(मेहरुन्निसा परवेज़ से अनीता सक्सेना की बातचीत)

एक फरवरी दो हज़ार बारह, मानस भवन में विष्णु प्रभाकर जयंती के अवसर पर मेहरुन्निसा जी आयी थीं, मैं सब कुछ भूल उनको सुन रही थी, आपने कहा था- ‘कहानी दरअसल एक आदमी का इतिहास है, उसकी व्यथा-कथा, उसका दुख-दर्द, उसका सुख, सबको व्यक्त करती है कहानी, जिसको पढ़कर हर आदमी कहता है यह तो मेरी कहानी है. लेखक शब्दों की आड़ में खुद को छुपा लेता है, वह लुकता है, छिपता है और कहानी लिख देता है. उसको पकड़ पाना बहुत मुश्किल है. शब्द बहुत कीमती होते हैं उनकी कीमत आंकी नहीं जा सकती!’

आपने कहा था- ‘हर आदमी अपने हिस्से की ज़िंदगी जीता है! सबकी अपने हिस्से की सांस, भूख, सुख और दुख होते हैं. कोई भी इंसान चाहे वह कितना अपना हो हमारे हिस्से की ज़िंदगी नहीं जी सकता. यही जीवन का यथार्थ है!’ मैं आपके जीवन का यथार्थ जानना चाहती हूं. मैंने कहीं पढ़ा था कि आपका जन्म बैनगंगा नदी के किनारे हुआ था.

हमारे परिवार में बच्चा होने के समय लड़की का सातवें महीने में मायके जाने का रिवाज़ था, मेरी मां भी मामा के साथ नानाजी के घर जा रहीं थी. उस समय बैलगाड़ी से ही आना-जाना होता था. रास्ते में ही मां को प्रसव वेदना प्रारंभ हो गयी, साथ में मां की फूफी भी थीं, उन्होंने गाड़ी रुकवा दी. वहीं मेरा जन्म हुआ. तब तक गाड़ीवान दौड़कर गांववालों को बुला लाया था, सबको मालूम था कि ज़ागीरदार साहब की लड़की हैं, नदी के किनारे बने एक स्कूल के एक कमरे में मां को रखा गया था, गांववालों ने मां की बहुत देखभाल की. मेरा पहला कदम ही पाठशाला में पड़ा था, अल्लाह चाहते थे कि मैं लिखूं!’

आपके बचपन का नाम नदिया है, आपका यह नाम कैसे पड़ा?

मैं बहुत नाज़ुक थी, इतनी नाज़ुक कि मां बताती थीं कि मेरी नाज़ुक-सी खाल के नीचे सारी नीली-लाल नसें नज़र आती थीं. धड़कता दिल दिखाई देता था, जब मौलवी साहब से कहा गया कि बच्ची का नाम रखना है तो उन्होंने कहा कि नदी के किनारे इस बच्ची का जन्म हुआ है इसलिए इसका नाम ‘नदिया’ रखा जायेगा. घर में अभी भी सब मुझे नदिया के नाम से ही बुलाते हैं. वैसे मेरी परवरिश जहां भी हुई, मेरे चारों तरफ हमेशा नदियां रहीं.

नदिया मेहरुन्निसा कब बनी?

बाद में जब स्कूल जाने का समय आया तब मौलवी साहब ने ही हमारा नाम मेहरुन्निसा रखा. फिर उन्होंने नूरजहां की कहानी सुनाई कि उनका जन्म भी जंगल में ही हुआ था, यह जानकर कि लड़की हुई है, उनको जंगल में ही छोड़ दिया गया था वो तो पीछे से एक कबीला चला आ रहा था, उन्होंने बच्ची के रोने की आवाज़ सुनी और उन्हें उठा लिया, उन्होंने ही उनको पाला-पोसा और नाम दिया मेहरुन्निसा, बाद में उनका नाम रखा गया नूरजहां!

लेखन का बीज कब से आया नन्हें से दिमाग में?

हम लोग तब मनेंद्रगढ़ में थे, मैं तब दूसरी कक्षा में थी वहां हमें जो घर मिला था, कचहरी उसके बगल में ही थी, अहाता एक ही था. मैं दिन-रात, वहां के लोगों को कचहरी के आसपास पेड़ों की छांव में बैठे हुए, अपनी पेशी के लिए इंतज़ार करते देखा करती थी. मेरी एक आदत थी, जैसे ही दरबान ज़ोर से किसी की पेशी के लिए उसका नाम लेकर आवाज़ लगाता कि फलां-फलां हाज़िर हो, मैं जिस भी हालत में होती दौड़कर दरबान के सामने जा कर खड़ी हो जाती जैसे कि वह आवाज़ मेरे लिए लगायी गयी हो. मैं वहीं लोगों के आस-पास मंडराती रहती थी, उनकी बातें सुना करती थी, वही बातें मेरे कच्चे मन में घर कर गयीं और मेरे लेखन में बाद में आयीं.

बस्तर को अपने लेखन में उतारकर आपने साहित्य जगत में बस्तर को अमर कर दिया है, जब मैंने ‘कोरजा’ पढ़ी, ‘पासंग’ पढ़ी या ‘मेरी बस्तर की कहानियां’ पढ़ीं तो मुझे लगा कि आपकी उंगली पकड़कर मैं भी जगदलपुर की गलियों में घूम रही हूं, मैं भी घोटुल उत्सव में शामिल हूं, बहुत सचित्र वर्णन है बस्तर का, आदिवासियों के जीवन का, जगदलपुर का, उस जगदलपुर का जो अब बिलकुल नया रूप ले चुका है. बस्तर आपके खून में रचा-बसा है, आपके साहित्य में है, आप बस्तर को किस उम्र से याद करती हो?

मैं 1956 में जगदलपुर पहुंची थी, मेरे अब्बू का तबादला वहां हुआ था. मेरे अब्बा बहुत ईमानदार और कड़क जज थे और बहुत सुलझे विचारों के थे, तब वहां राजा प्रवीरचंद भंज का राज था, उनके ऊपर एक केस कई सालों से चल रहा था, कोई भी जज उन पर फैसला नहीं देता था. केस यह था कि एक बार उन्होंने अंधाधुंध कार चलाते हुए अपनी कार से एक बुढ़िया को टक्कर मार दी थी, बुढ़िया मर गयी थी, उनके ऊपर केस चला, वह तो स्वयं राजा थे, उन्हें सज़ा कौन देता? जज आते थे, चले जाते थे पर फैसला कभी नहीं लिखते थे. ऐसा कहा जाता था कि मां दंतेश्वरी देवी की उन पर कृपा थी, राजा देवी मां के भक्त थे और ऐसा मानना था कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता और यदि कोई राजा के विरुद्ध जायेगा तो दंतेश्वरी देवी उनको श्राप दे देगीं, इस डर से कोई उनके विरुद्ध फैसला नहीं सुनाता था. अब्बा जब वहां पहुंचे तो उन्होंने उस केस की फाइल को खुलवाया, कोर्ट में सबने उन्हें मना भी किया कि सर, रहने दीजिये आप इसमें हाथ मत लगाइए लेकिन अब्बा नहीं माने. राजा पर केस चला और अब्बा ने उन्हें दोषी मानते हुए सज़ा का ऐलान किया. जिस दिन उन्हें सज़ा सुनाई जानेवाली थी पूरा जगदलपुर कोर्ट के बाहर उमड़ आया था, सब लोग डरे हुए थे कि पता नहीं क्या होने वाला है, देवी माता गुस्सा हो गयीं तो अनर्थ हो जायेगा, पुलिस बल तैनात किया गया था. कोर्ट के ठीक सामने ही राजा का महल था. अब्बा ने उनको सज़ा सुनाई कि कोर्ट प्रारम्भ होने से लेकर कोर्ट समाप्त होने तक उनको कोर्ट के अंदर ही कटघरे में रहना होगा, साथ ही जुर्माना भी लगाया गया था. दिन भर राजा साहब कटघरे में खड़े रहे शाम को उनकी सज़ा पूरी हुई तब वह अपने महल में वापस गये. अब्बा शाम को घर वापस आये और रात को खाना खा कर सो गये, सुबह जब वह उठे तो उनका दायां हाथ उठा ही नहीं, दायें हाथ में रात को ही फालिज़ मार गया था. पूरे जगदलपुर में यह समाचार फैल गया कि दंतेश्वरी देवी ने अब्बा के उस हाथ को फालिज़ मार दिया जिस हाथ से उन्होंने सज़ा लिख कर हस्ताक्षर किये थे.

अब्बा ने किसी बात पर ध्यान नहीं दिया, वह ना ही छुट्टी पर बैठे ना ही घबराये. वह अपना काम बराबर करते रहे. मैं तब छोटी ही थी, चूंकि अब्बा का दायां हाथ बेकार हो गया था और कोर्ट के फैसले वह लिख नहीं सकते थे तो उनकी नन्हीं मुंशी मैं बन गयी. अब्बा बैठे-बैठे फाइलें पढ़ते रहते और जब फैसला लिखने का समय आता तो यह नन्हा मुंशी कागज़-कलम संभाल लेता. अब्बा फैसले बोलते जाते, मैं लिखती जाती. फैसले गोपनीय होते थे, किसी पर विश्वास नहीं किया जा सकता था इसलिए उनके फैसले मैं लिखती थी. कभी-कभी तो अस्सी-अस्सी पेज के होते थे फैसले, पूरी एक किताब के बराबर, हाथ दुख जाता था लिखते-लिखते, लेकिन अब्बा इतने प्यार से लिखाते कि दिक्कत ही नहीं होती थी. वह एक-एक कोमा, अर्धविराम, पूर्णविराम तक बोलते जाते थे, गलती की कोई गुंजाइश ही नहीं होती थी. आज भी जगदलपुर की अदालत के रिकार्ड में मेरे हाथ के लिखे फैसले रखे हुए होंगे.

जब अब्बा का हाथ ठीक हो गया तो हम बेरोज़गार हो गये. अब क्या करें? फिर भी हम लिखते थे, लिखना एक आदत बन गयी थी हमारी. आस-पास जो भी दिखाई देता, पेड़-पौधे, पक्षी-जानवर, पास-पड़ोस सबके लिए लिखते रहे और यही लेखन एक दिन हमारी ज़िंदगी का सहारा बन गया.

बचपन की कुछ मधुर याद?

एक बार अब्बू के एक दोस्त कलकत्ता से आये थे, कुछ ऑफिस के काम से उन्हें दो महीने यहां रखना था. अब्बू ने ज़ोर देकर उन्हें हमारे यहां ही रुकने का बोल दिया कि बाहर रहोगे तो खाने-पीने की दिक्कत होगी घर पर ही रुको. हमारी अम्मा खाना बहुत अच्छा पकाती थीं, सब उनकी बहुत तारीफ करते थे. अब्बू के दोस्त दिन भर तो अपने कामों में व्यस्त रहते थे, शाम को घर पर आ जाते, इस तरह दो महीने निकल गये, जाते समय वह बहुत खुश होकर गये. कलकत्ता पहुंच कर उन्होंने अब्बू को एक चिट्ठी लिखी उसमें अम्मी की खातिरनवाज़ी की बहुत तारीफ की, अब्बू के सहयोग की बहुत तारीफ की और अंत में लिखा- ‘मुझे तुम्हारे यहां आकर बहुत सुख मिला, बस मुझे एक ही बात का दुख है कि तुम लोग इतने अच्छे हो, नेक हो लेकिन तुम्हारी लड़की गूंगी है, मुझे इसका बहुत आ़फसोस है.’

अब्बू तो चक्कर खा गये, लड़की यानी मैं और वो भी गूंगी? वह सब समझ गये लेकिन चुप रहे, कुछ दिनों बाद वही दोस्त फिर से जगदलपुर आये, अब्बू ने शाम को उन्हें घर पर बुलाया, चाय-नाश्ता करने के बाद उन्होंने आवाज़ दे कर मुझे बुलाया, फिर पूछा- ‘आज स्कूल गयी थीं?’ मैंने कहा- ‘हां गयी थी.’ ‘अच्छा! क्या-क्या पढ़ाई हुई वहां? ज़रा बताओ तो?’

मैंने जल्दी-जल्दी सारी बातें बता दीं, अब्बू ने मुस्कुरा कर मुझे कहा कि ठीक है अब अंदर जाओ. मेरे अंदर जाने के बाद अब्बू ने अपने दोस्त की तरफ देखा जो आश्चर्यचकित से मुझे देख रहे थे. देर तक अब्बू और वो दोनों हंसते रहे. बाद में अब्बू ने यह किस्सा सबको सुनाया था.

आपके स्कूल की कुछ खट्टी-मीठी यादें तो ज़रूर होगीं. आपकी एक कहानी ‘लाल डब्बा’ धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी, उसके बारे में कुछ बताइयेगा?

हुआ यह कि तब हम जशपुर में रहते थे. हमारा घर एक छोटे-से टीले के ऊपर था, घर से नीचे उतरते ही पोस्ट ऑफिस था, एक दिन हमारे स्कूल में डाक खाने के पोस्ट मास्टर साहब आये उन्होंने हम बच्चों को लाल डब्बे के बारे में बताया, बताया कि यदि हम किसी को चिट्ठी लिखकर उस लाल डब्बे में डालेंगे तो वह भारत वर्ष में कहीं भी होगा उसे वह चिट्ठी मिल जाएगी. चिट्ठी कैसे लिखना यह भी उन्होंने बताया, यह नहीं बताया कि चिट्ठी को लिखने के बाद उसे ल़िफ़ाफे में रखकर उस पर पता भी लिखना होता है और ल़िफ़ाफे को बंद भी करना होता है. हमारे अब्बा बाहर टूर पर गये हुए थे तो हमने सोचा सबसे पहले उन्हें ही चिट्ठी लिखी जाये. कागज़ लिया और अब्बा को चिट्ठी लिखी, उसमें लिखा कि आप वहां से आओ तो अम्मी के लिए साड़ी लाना, भैया के लिए खिलौने लाना, हमने अपनी भी फरमाइश लिख दी थी. चिट्ठी लिखी, कागज़ को मोड़ा और दौड़कर लाल डब्बे में डाल आये. अब कुछ दिन बाद अब्बा घर वापस आये, हम उनके आगे-पीछे डोलते रहे कि  अब अब्बा हमें बोलेंगे कि तुम्हारी चिट्ठी हमें मिली थी, अब्बा कुछ नहीं बोले, थोड़ी देर बाद उन्होंने अपनी अटैची खोली, तब हम उनके दायें-बायें घूमते रहे कि अब इसमें से अम्मी की साड़ी निकलेगी, खिलौने निकलेंगे  लेकिन कुछ नहीं निकला. हम समझ गये कि अब्बा को हमारी चिट्ठी लाल डब्बे वालों ने दी ही नहीं थी. वो समान कैसे लाते?

हमें पोस्ट आफिस वालों पर बहुत गुस्सा आया. रोज़ सीढ़ियां उतरकर हम नीचे खेलने आते थे, चारों तरफ इमली के पेड़ लगे हुए थे. एक दिन हम पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, हवा चल रही थी, चारों तऱफ सूखे पत्ते उड़ रहे थे. उन्हीं में हमें एक कागज़ उड़ता हुआ दिखा जो कुछ-कुछ पहचाना सा लगा, दौड़कर उठा लाये, देखा तो वह तो हमारी वही चिट्ठी थी जो हमने अब्बू को लिखी थी. पोस्ट ऑफिस वालों ने रद्दी कागज़ समझकर उसे वहीं फेंक दिया था, हमको बहुत गुस्सा आया, हमें लगा कि कहते तो हैं कि चिट्ठी लिखो और जब लिखी तो अब्बू को दी ही नहीं? सारा गुस्सा हमारा लाल डब्बे पर फूटा, गुस्से में हम दौड़कर गये और लाल डब्बे के अंदर ढेर सारी सूखी हुई इमली की पत्तियां डाल आये. हम दिन भर सीढ़ियों पर दौड़ते-उतरते रहते थे अब तो जब मौका मिलता गुस्से में लाल डब्बे में कुछ ना कुछ डाल देते. कभी पत्थर कभी केंचुआ, एक बार तो एक बड़ा-सा मेंढक पकड़कर ही डाल आये उस डब्बे में.

उधर पोस्टमेन भी बहुत परेशान था, रोज़ जब वह चिट्ठियां निकलने जाता तो उसमें से कभी पत्थर निकलते, कभी सूखी पत्तियां, कभी मेंढक तो कभी कुछ और, उसने भी ठान लिया कि इस बदमाश को पकड़ना ही है जो रोज़ चिट्ठियों को गंदा कर जाता है, वह छुपकर निगरानी करने लगा और एक दिन जैसे ही हम पत्तियां डालने गये उसने हमें पकड़ लिया. पोस्ट मास्टर साहब के सामने पेशी हुई हमारी, पता चला ये तो जज साहब की साहिबज़ादी हैं तो उन्होंने बड़े प्यार से हमसे पूछा- ‘ऐसा क्यूं कर रही हैं आप?’ हमने अपने गुस्से का पूरा कारण उन्हें बता दिया कि हमारे अब्बू को चिट्ठी नहीं मिली तो वो हमारे खिलौने नहीं लेकर आये, उन्हें घर से लाकर चिट्ठी भी दिखा दी. वह बहुत हंसे और बोले- ‘बेटा, इसको ऐसे नहीं डाला जाता, इसको ल़िफ़ाफे में रखकर पता लिखकर डाला जाता है.’ फिर सारा तरीका समझाया. हमने उन्हें कहा लेकिन आपने तो स्कूल में ऐसा नहीं बताया था. खैर, फिर उन्होंने हमारे अब्बू से मुलाकात की और उन्हें सारी बात बतायी, अब्बू भी बहुत हंसे.

जब यह लाल डब्बा वाला किस्सा हुआ था उसके बाद हमने ठान लिया था कि हमें पत्र लिखना है अब किसे लिखें तो सबसे अच्छे दोस्त हमारे अब्बू ही थे, हमने उन्हें ही पत्र लिखना शुरू किया, अब्बू बहुत व्यस्त रहते थे, उन्हें समय कम मिलता था घर पर बात करने का और हम हमेशा उन्हें डाक पढ़ते देखा करते थे तो हमने सोचा कि उनको पत्र लिखकर ही उनसे बात की जाये. हम उन्हें ऑफिस के पते पर पत्र भेजते थे और वह भी उन्हें पढ़कर हमें वहीं से उत्तर भेजा करते थे.

वह पल कब आया जब आपने कलम को साहित्य के रूप में थाम अपना हथियार बनाया?

लिखती तो बचपन से ही थी, स्कूल की कॉपियों के आखिरी पन्ने कहानियों से रंगे होते थे जो मैं अपनी सहेलियों को सुनाया करती थी, टीचर्स डांटती थी कि कॉपी स़ाफ नहीं रखती हो लेकिन सहेलियां खुश होती थीं कहानी सुनकर. मेरी एक सहेली थी उसके पिताजी लेखक थे, उनको जब मेरी सहेली ने बताया कि मैं भी कहानी लिखती हूं तो एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया, मेरी कहानी देखी और मुझे धर्मयुग देते हुए बोले- ‘बेटा, अपनी कहानी इसमें लिखकर भेजो, तुम्हारी कहानी इसमें छपेगी’ कहानी भेजने का तो उस समय कोई ख्याल ही नहीं आया, धर्मयुग भी छुपा कर लायी और घर में ही किताबों में छुपाकर रख दिया. घर में इन सब बातों के लिए कोई माहौल ही नहीं था, बाद का समय बहुत कठिनाइयों भरा रहा, अपना दर्द, अपनी तकल़ीफें किसी को बता नहीं सकी सिवाय लिखने के, कागज़ और कलम की दोस्ती ही मेरा सहारा बनीं, मेरी पहली कहानी धर्मयुग में 1963 में छपी थी.

आपके ज़िंदगी की कोई ऐसी घटना जिसे आप हमेशा याद रखना चाहेंगी?

30 सितम्बर 1980 की घटना है, हम लोग डबरा से ग्वालियर जा रहे थे, मेरी बेटी होने वाली थी, नवां महीना चल रहा था, डॉक्टर को दिखाने ही जा रहे थे. जीप में थे हम लोग, मेरे पतिदेव ही जीप चला रहे थे, इन्होंने ड्राइवर को जीप में पीछे बैठा दिया था. एकाएक इनका संतुलन बिगड़ा और जीप का एक्सीडेंट हो गया, जीप लुढ़कने लगी थी और मुझे सिर्फ एक बात याद रही कि मेरे पेट में मेरा बच्चा है उसे कुछ नहीं होना चाहिए. मैंने अपने दोनों हथेलियों से अपने पेट के आगे एक घेरा बनाकर उसे ढक दिया. मेरे हाथ जीप से टकराते रहे और बुरी घायल हो गये लेकिन मैंने पेट पर चोट नहीं लगने दी. लोगों ने हमें बाहर निकाला और ग्वालियर के हॉस्पिटल तक पहुंचाया. मुझे जब होश आया तो मेरा डॉक्टरों से पहला सवाल यही था कि बच्चा ठीक है ना?

मेरे दोनों हाथों में कई फ्रैक्चर थे. रॉड डालकर हड्डियों को जोड़ा गया था. दोनों हाथों में पट्टियां बंधी हुई थीं. 30 सितंबर को यह एक्सीडेंट हुआ और 8 अक्टूबर को मेरी बेटी का जन्म हुआ. उसी दौरान एक दिन यह अविस्मरणीय घटना घटी, सुबह-सुबह एक-एक कर डॉक्टर मेरे कमरे में आना शुरू हुए, सबके हाथों में फूल थे. मैं अचम्भित थी इतने सारे फूल? फिर एक डॉक्टर ने बधाई दी मुझे. फिर भेद खुला, एक डॉक्टर ने बताया कि कल की न्यूज़ में उन लोगों ने सुना कि मेरे उपन्यास कोरजा को ‘महाराजा वीर सिंह जू देव’ पुरस्कार मिला है. मुझे यह खुशखबरी डॉक्टरों से मिली, बहुत खुशी हुई मुझे यह सुनकर.

उसके बाद मुझे एक स्वीकृति पत्र पर हस्ताक्षर करके भेजना था कि मुझे यह पुरस्कार स्वीकार है. लेकिन मेरे दोनों हाथ तो प्लास्टर से बंधे हुए थे मैं हस्ताक्षर कैसे करती? यहां भी डॉक्टरों ने मेरी बहुत मदद की, सब एक घेरा बनाकर मेरे पलंग के चारों तरफ खड़े हो गये, सामने पेपर रखा था और जैसे एक छोटे बच्चे को सिखाया जाता है कि लिखो, धीरे-धीरे लिखो, एक-एक अक्षर जमा-जमा कर लिखो, उस ही तरह मुझे उन लोगों ने हस्ताक्षर कराये, मैं एक अक्षर लिखती थी, सब तालियां बजाते थे, मात्रा लगाती थी सब तालियां बजा-बजा कर मेरा उत्साह बढ़ाते जाते थे, आड़े-टेड़े अक्षरों से बहुत देर लगाकर बड़ी मेहनत से दर्द को सहन करते हुए, पीते हुए, मैंने उस कागज़ पर हस्ताक्षर किये. सारे डॉक्टरों की मैं एहसानमंद हूं जिन्होंने मुझे उस तकलीफ से ना सिर्फ उबारा बल्कि मुझे एक नया जीवन प्रदान किया. मैं मानसिक रूप से बहुत डरी हुई थी. उन्होंने पग-पग पर मेरा उत्साह बढ़ाया और मुझसे हस्ताक्षर कराये. इसे मैं कभी नहीं भूलना चाहूंगी.

आपके कोरजा और पासंग अद्भुत उपन्यास हैं, रिश्तों का इतना खूबसूरत वर्णन है इनमें, दादी-नानी दोनों की ढेरों ज्ञानवर्धक बातें आपने इनमें लिखी हैं. आप पर किन का बहुत प्रभाव रहा?

मुझे ाf़जंदगी में दादी और नानी दोनों का बहुत प्यार मिला, मैं सतमासी बच्ची थी इसलिए शारीरिक रूप से कुछ कमज़ोर ही रही बचपन से. मेरे दादा पठान थे, दादी मेरा बहुत ख्याल रखती थीं, मुझे बहुत कहानियां सुनाया करती थीं, ज्ञान की बातें बताया करती थीं, मुझे वह सब अभी भी याद है. मेरी कहानियों और उपन्यासों में उनकी कही कई बातें हैं.

आपकी ाf़जंदगी की ऐसी कौन-सी घटना रही जो रह-रह कर आपको याद आती है?

तब हम जशपुर में रहते थे, मैं छोटी-सी थी, शायद कक्षा तीसरी में पढ़ती थी. एक बार मेरी मां पड़ोस में किसी से मिलने चली गयी थी, घर में एक हमारा पुराना चौकीदार था और मैं थी, एकाएक तेज़ आंधी-त़ूफान आया और गरज-तरज के साथ बर्फ के ओले गिरने लगे, मैंने कभी ओले देखे नहीं थे. मैं दौड़-दौड़ कर ओले उठाने लगी. चौकीदार मुझे रोकने की कोशिश कर रहा था, उसे डर था कि मैं बीमार पड़ जाऊंगी, वह मुझे पकड़ता मैं छूटकर फिर भाग जाती, मुझे लगता कि मैंने आज जो ओले देखे हैं मुझे उन्हें अम्मी को भी दिखाना है, मेरी अम्मी ने भी ओले कभी देखे नहीं हैं. मैं घर के जितने बर्तन ले सकती थी उन्हें दौड़-दौड़ कर लेती जाती थी और ओलों से भारती जाती थी. गिलास, कटोरी, गुंड सब मैंने ओलों से भर डाले, बारिश-ओलों के कारण अम्मी भी घर नहीं लौट पा रही थीं, जैसे ही बारिश रुकी वह जल्दी-जल्दी घर वापस आयीं. मैं उनका इंतज़ार कर रही थी, उनका हाथ पकड़कर जल्दी से अंदर लायी, बोली- ‘देखो आज मैंने तुम्हारे लिए क्या-क्या रखा है?’ मैं उन्हें दिखने के लिए एक-एक बर्तन उठाती लेकिन सब में पानी भरा मिलता, ओले कहीं नहीं थे, सब पिघल कर पानी बन चुके थे. मुझे रोना आ गया, अम्मी सब समझ गयीं थीं. बहुत प्यार से उन्होंने मुझे समझाया- ‘बेटा, ओले ऐसे ही होते हैं, ज़्यादा देर नहीं रहते, गल जाते हैं.’

मैं भोलेपन से पूछी- ‘ओले क्यूं गल जाते हैं?’

अम्मी बोली- ‘अभी तुम बहुत छोटी हो,  जब बड़ी होगी तब स्वयं समझ जाओगी कि ओले कैसे पिघल जाते हैं, अभी मैं तुम्हें नहीं समझा पाऊंगी मेरी बच्ची.’

उसी रात को मुझे बहुत बुखार आ गया, मैं बीमार पड़ गयी थी, मुझे बहुत दुख हो रहा था कि मेरे ओले पिघल क्यूं गये? मुझे ठीक होने में बहुत समय लगा, धीरे-धीरे मैं उस घटना को भूल गयी. लेकिन जिस समय समर की मृत्यु हुई, मेरा बेटा मेरे सामने देखते-देखते चला गया, मैं कुछ न कर सकी, उसे बचा ना सकी, उस समय मुझे लगा आज मेरे हाथों में रखे हुए सारे ओले पानी बन कर बह गये हैं, मैं फिर से खाली हाथ रह गयी हूं, मुझे मेरी अम्मी की बात याद आने लगी जो कह रही थीं, मैंने कहा था ना बेटी कि समय आने पर तुम स्वयं समझ जाओगी कि ओले पानी कैसे बन जाते हैं. मैं उस बात को समझी भी तो कैसे? मेरा समर मुझे छोड़कर चला गया तब?

समर के जाने के बाद मैं ज़िंदा लाश बन गयी थी. एक दिन बेटी सिमला मेरे पास आयी, बोली- ‘मम्मी, हम भी तो आपके हैं ना! क्या भाई ही सब कुछ था, क्या मैं आपकी बेटी नहीं हूं? आपका जो मन हो आप वो करो मम्मी, पर आप ज़िंदा रहो. मेरे लिए, हम सब के लिए, ‘वह बहुत रोई पर मैं उस दिन समझ गयी कि मैं गलत रास्ते पर जा रही हूं. समर तो चला गया सिमाला तो है, मुझे उसके लिए जीना होगा, उसको संभालना होगा. धीरे-धीरे मैं संभली, मैंने लिखना शुरू किया, याद कर-कर के लिखना प्रारम्भ किया. मेरा मन हलका होता गया, फिर मैंने ‘समरांगण’ लिखा, समर लोक पत्रिका प्रारम्भ की. समरलोक ने मुझे फिर से नवजीवन दिया.

मैं हमेशा सबसे यही कहती हूं लिखो, लिखो, इसीलिए कि हमें जीना है. युद्ध में सिपाही अपनी बंदूक से लड़ता है हमारे जीवन में तो कलम ही हमारा हथियार है! स्मृति के गलियारे में भटकन कभी खत्म नहीं होती. जो चलते हैं उन्हें कहीं तो थमना होता है पर विचारों को तो कोई नहीं रोक सकता. ना ही वह रोकने से रुकते हैं. ये तो बराबर सफर करते हैं, हम कुछ कर रहे हों तब भी और ना कर रहे हों तब भी. हाथ कुछ भी काम करते रहें, आंखें कुछ भी देखती रहें, पैर कदम दर कदम चलते रहें लेकिन मन मस्तिष्क को जिसमें डूबना है वह उस ही में खोया ही रहता है. अपने स्वयं के बारे में सोचना या लिखना वैसा ही है जैसे किसी पुराने कपड़े की सीवन को उधेड़ना. पुराने कपड़े की सीवन कितनी मुश्किल से उधड़ती है, उतने ही कष्ट से पुरानी यादें निकलती हैं. मेरा मानना है कि सच्ची दोस्ती सिर्फ कागज़ से की जा सकती है वह भी कलम के द्वारा, हमें बेझिझक लिख सकते हैं, बोल सकते हैं, कोई शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं. मैंने भी अपने अंदर का सच कागज़ों पर उंडेला, जुबां खुलती नहीं थी लिखती थी, बस समझ लीजिए कि जो देखा, जो सुना, जो अनुभव किया सब लिखा. इसीलिए कहती हूं- ‘लिखो, खूब लिखो.’

फरवरी 2016

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