स्मरण
(वर्ष 2016 स्वर्गीय शरद जोशी की 85वीं सालगिरह का वर्ष है. (जन्म : 21 मई, 1931) वे आज होते तो मुस्कराते हुए अवश्य कहते, देखो, मैं अभी भी सार्थक लिख रहा हूं. यह अपने आप में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि अर्सा पहले जो वे लिख गये, वह आज की स्थितियों पर मार्मिक टिप्पणी लगता है. शरदजी के पाठक–प्रशंसक इस वर्ष को उन्हें लगातार याद करते हुए मना रहे हैं.)
अपने देश को पूरी तौर से समझने का दावा इस देश में कौन नहीं करता? राजनेता तो करते ही हैं, अर्थशास्त्राr करते हैं और साहित्यकार कवि या लेखक का कहना ही क्या. बहुतेरे हैं जो समझते हैं कि देश हमारी जेब में है. जिस तरह रोमाण्टिक कविताएं पढ़कर ऐसा लगता है कि प्रेमिका का चित्र हर समय कवि के बटुए में लटका है उसी तरह राष्ट्रीय कविता पढ़कर लगता है कि देश कवि के कमरे में लटका है. सौ साल पहले का कवि अपने देशप्रेम को उतनी ही भौगोलिक सीमा तक व्यक्त करता था जितना उसका ज्ञान था या भावना थी. मतलब कि किसी ने गोकुल या मथुरा की कुंज–गली का वर्णन कर दिया. किसी ने जयपुर या लखनऊ पर लिखा. या गालिब ने कलकत्ता पर लिख मारा. अपने समूचे देश की शोभा या बिखरे–बिखरे सौंदर्य को समेटने की कोशिश कालिदास के बाद लगभग गायब है. पर इधर पिछले सौ सालों में ज़रूर
हमें ऐसी कविताएं ढेरों मिल जायेंगी जिनमें हिमालय से लेकर समुद्र तक देश को एक इकाई के रूप में महसूस कर लिखा गया है.
उत्तर से दक्षिण तक तो यह भूगोल ठीक है. ऊपर पहाड़ है, नीचे समुद्र है. पर पूर्व से पश्चिम तक हमारी भावना का विस्तार बहुत बड़ा है. इस मामले में हमारा सीमांत वह नहीं है जो हमें राजनीति ने दिया है. हम कहते हैं अटक से कटक तक, पर यह अटक कहां है? कनिष्क को हम भारतीय इतिहास में जोड़ते हैं जिसकी राजधानी पुरुषपुर अथवा पेशावर में थी. और बर्मा को हम बरसों तक ब्रह्मदेश कहते रहे हैं. शरत बाबू के औपन्यासिक पात्र कलकत्ता से बर्मा तक ऐसे आते–जाते हैं जैसे अपने देश में भटक रहे हों. इतिहास और पुरानी कविताओं से गुजर कर यदि हम अपने मन में भारत का चित्र बनायें तो वह पेशावर से रंगून तक बनता है. राजनीति ने कविता पर सबसे बड़ा अत्याचार यह किया कि उसने हमारे देश की सीमाएं छोटी कर दीं. मैंने बचपन में भारतमाता के जितने चित्र देखे उसमें भारतमाता का मुकुट कश्मीर था और लंका भारत मां के चरणों में एक कुमुदिनी की तरह पानी से उभरी लगती थी. तब मुझे कभी नहीं लगा कि लंका हमसे परायी है. रावण पराया था, लंका नहीं.
कृपया मेरी बात को तुच्छ राष्ट्रीय अहंकार न समझें. यह एक ऐसे लेखक की व्यथा है जिसने बचपन में जिस देश को देखा, होश संभालने पर उसे वह देश उस रूप में नहीं मिला. देश को लेकर मेरे मन की कविता छिन्न–छिन्न हुई और लगातार छिन्न–छिन्न होती चली गयी. आप मुझ पर अतीत में जीनेवाले का आरोप लगा सकते हैं मगर जब मामला आरोप और बहस पर उतरेगा तब मैं भी आप पर आरोप लगाऊंगा कि आप इस देश का विस्तार नापते हुए सांस्कृतिक गहराई में नहीं जाते. हमें जो देश मिला है हम उससे बड़े देश के नागरिक हैं. मैं अपने अंग्रेज़ नेताओं को इसलिए क्षमा नहीं करूंगा कि उन्होंने चंद टूटी कुर्सियां पाने की जल्दबाजी में एक बहुत पुराने देश को तोड़ दिया. बचपन में मैं किताबों में पढ़ता था कि भूगोल का प्रभाव इतिहास पर पड़ता है. बड़े होने पर मैंने देखा कि इतिहास का प्रभाव भूगोल पर पड़ रहा है. कराची, लाहौर और ढाका पराये हैं. हैदराबाद और श्रीनगर पर संदेह है. अब केवल दिल्ली, बम्बई, मद्रास, कलकत्ता के चौकोन में हमारी दौड़ रह गयी है. फ्रण्टीयर चला गया, फ्रण्टीयर गांधी चले गये. अब सिर्फ फ्रण्टीयर मेल हमारे पास है. पूरी वसुधा को कुटुम्ब माननेवालों को सूचना मिली कि जहां तक तुम्हारा कुटुम्ब है वहां तक तुम्हारा देश नहीं. यदि हमारे नेता पाकिस्तान की कल्पना नामंजूर कर, दो साल आज़ादी पोस्टपोन कर संघर्ष जारी रखते तो इस देश में खालिस्तान की कल्पना करनेवाले जनम नहीं लेते. अपनी भावुकता और सुंदर शब्दों के प्रयोग की धुन में हम नेहरू को स्वप्नदर्शी कहते रहे. पर यह अजीब ट्रेजेडी है कि एक स्वप्नदर्शी कहलानेवाले नेता ने इस देश को एक टूटे हुए सपने की तरह लेना मंजूर किया. इस देश का दुर्भाग्य है कि तब से टूटना और लगातार टूटते रहना एक प्रक्रिया बन गयी. आज भजनलाल और बरनाला चंद गांवों के लिए लड़ रहे हैं और दिल्ली उस लड़ाई को बड़ी गम्भीरता से ले रही है.
मैं यह सब इसलिए कह रहा हूं और इन बातों की याद इसलिए दिला रहा हूं कि एक लेखक के नाते, और हिंदी लेखक के नाते अपने आपको देश से जोड़ने और देश को समझने में कितनी कठिनाई होती है. सबसे भले वे… जिन्हें जगतगति नहीं व्यापती. देश उनके लिए एक नारा है. कोरस गीतों का एक कार्यक्रम है. एक क्षेत्र है जहां जाने के लिए पासपोर्ट नहीं लेना पड़ता. देश वह है जहां हम अपना बिजनेस फैला सकते हैं. जहां तक हम नौकरी के लिए अप्लाय कर सकते हैं. देश वह है जहां तक हमारे ग्राहक फैले हैं. देश वहां तक है जहां तक हमारे स्वार्थ हैं. देश वहां तक है जहां तक हमारी जानकारी है. देश वहां तक है जहां तक वोटर वोट देते हैं.
इन बातों को समझाकर आप एक छात्र को बहला सकते हैं. एक व्यापारी बिजनेस कर सकता है. एक राष्ट्रीय बैंक अपनी शाखाएं फैला सकता है. एक केंद्रीय नेता अपने भाषणों से भरी यात्रा का कार्यक्रम निश्चित कर सकता है. पर आप यदि एक लेखक से भी यही अपेक्षा करेंगे कि वह अपनी सोच और संवेदना का दायरा यह बना ले तो आप मुझे एक शानदार विरासत से काट देंगे. पूरा अतीत, मेरे चिंतन से आपरेट कर अलग कर देंगे. जिस मोहनजोदड़ो से मैं अपना इतिहास आरम्भ करता हूं वह पाकिस्तान में है. तो मैं क्या करूं? इतिहास आरम्भ ही न करूं! यों तो देखो तो सिकंदर भारत आया ही नहीं. वह पाकिस्तान तक आकर लौट गया. सेल्युकस से हमें क्या मतलब? महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी लाहौर थी. क्या करें? सिखों को पाकिस्तान का मान लें. ढाका की मलमल का ज़िक्र न करें. कितनी कतरब्योंत करें अपने सोचने के ढंग में. एक भारतीय लेखक का मन गोरखनाथ के साथ उनके पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए भटकना चाहिए. नीलांचल से सिंहलद्वीप, विंध्याचल से हिमालय, सुदूर कामरूप कामाख्या से ब्रह्मदेश तक. जहां तक उन्होंने अलख जगायी वहां तक हमें देखना–सोचना चाहिए. वहां तक हमारा देश है. जहां तक राम की पूजा हुई है, जहां तक कृष्ण का नाम फैला है, जहां तक शिवलिंग पूजे गये हैं वहां तक हमारा देश है. इस विस्तार से कम हमारी संकीर्णता नहीं होनी चाहिए. हमारी राजनीतिक चातुरी गंगा से कावेरी तक सीमित हो पर हमारे साहित्यिक मन को ब्रह्मपुत्र और सिंधु को लांघना चाहिए. लांघते रहना चाहिए.
यह सब मैं इसलिए कह रहा हूं कि इस देश के लेखक के नाते, मैं जिस विराट संस्कृति का नागरिक हूं, उसे समझना और जानना कितना मुश्किल है! हम जो कलम की नोक पर देश को टिकाये रखने का दम भरते हैं कितने असहाय हैं! कितने अनाथ हैं! कई बार मुझे लगता है कि देश की बात बड़े दम से करते समय हम थोथे नेताओं से कम नहीं. पता नहीं हमारी कही और लिखी सचाइयों में कितना झूठ है, कौन जांचेगा हमें? कौन है जो देश को पूरी तरह ठीक अर्थों में समझता है और हमारी ठीक समीक्षा कर सकता है? अंधा सूरदास जितना कृष्ण को जानता था उतना हम आंखवाले अपने पड़ोसी को नहीं समझते. फिर भी हम देश और समाज के विषय में जानने का दम भरते हैं और कहने का दावा करते हैं. हम इस देश के विषय में अपनी कल्पनाओं और किताबी जानकारियों के आसमान से उतरकर एकाएक लेखक हो गये हैं. हम अपनी मीठी भाषा से आपको बांधते हैं, मोहित रखते हैं. और आप, नेता की मुस्कान में देश का उज्ज्वल भविष्य खोजने और आश्वस्त रहनेवाले भोले–भोले और भले लोग, हमारे लेखन से सहमत हैं.
यहीं आकर सारी परेशानी है. आप या मैं इस देश को या देश की समस्या को सही परिप्रेक्ष्य में समझना चाहते हैं तो कैसे समझें! पिछले सौ वर्षों में देश, भाषा, प्रांत और प्रांत के लोगों के बारे में इतने अधिक पूर्वग्रह हमारे मन–मस्तिष्क में भर दिये गये हैं कि उस पूरे जाल को तोड़कर समस्याओं की जांच करना मुश्किल होता है. जैसे कि किसान बड़ा मेहनती होता है, मज़दूर शोषित होता है, व्यापारी कंजूस होते हैं, सरदार बड़े बहादुर होते हैं, बंगाली बड़ा संवेदनशील और उत्तेजना से भरा होता है, मद्रासी बड़ा केरियरवादी और हिसाबी–किताबी होता है, कायस्थ बड़ा होशियार होता है, भिण्ड मुरैना के लोग डाकू होते हैं, पहाड़ी ईमानदार होते हैं, आदिवासी हमेशा नृत्य करते रहते हैं. कामरूप की औरतें जादू करती हैं, बस्तर में सेक्स का बड़ा सुख है, राजस्थान में गाना–नाचना चलता रहता है, बनारस में विद्वान होते हैं, लखनऊ में नज़ाकत होती है, कश्मीर की लड़कियां सुंदर हैं, साहित्य की समझ तो इलाहाबाद में है, ब्राह्मण गरीब होते हैं, मुसलमान का भरोसा मत करना, मराठों में गर्व होता है, मछिहारिनें स्वस्थ होती हैं, अकलमंद पूना में बसते हैं, पारसी बेईमानी नहीं करता, कनौजिए राजनीति करते हैं, गुजराती भगवान का भक्त होता है. इस तरह आप यदि देश के विषय में सोचना शुरू करें तो ऐसे कोई एक हजार पूर्वग्रह आपकी सोच को ढंक देंगे. लेखक को अपने देश के किसी भी वर्ग या जाति की चर्चा करते समय जितना तटस्थ और निस्संग होना चाहिए वह ऐसे पूर्वग्रहों की चलनी से निकाल उस शुद्धता को प्राप्त करना जहां इनसान एक इनसान भर हो और समस्याएं जाति और क्षेत्र से निकल राष्ट्रीय, भारतीय और मानवीय लगें यह बहुत कठिन है. अब जरा सोचिए कि जब हम देश की वास्तविक सीमा को पूरी सांस्कृतिक गहराई से समझ नहीं पाते, जब हम मनुष्य को पूर्वग्रहों से हटकर समझ नहीं पाते तब हम जो लिखते हैं उसमें देश कितना है और भ्रम कितना है?
हम अपने देश को कैसे जानते और समझते हैं. उसकी प्रक्रिया क्या है? उसके साधन क्या हैं? हम देश को खुली आंखों देखते कब हैं? हम जो इस देश का कोई पहाड़ नहीं चढ़े, यहां के जंगलों में भटके नहीं, यहीं की चिड़िया और फूलों के नामों से अनभिज्ञ हैं, गांवों के करीब से गुज़रकर रह गये, यहां की नदियों में नहाये नहीं तब किस तरह अपने में, अपने व्यक्तित्व की गहराई में देश को धड़कता महसूस करते हैं. देश के प्रति हमारे गर्व का निजी जीवन में संदर्भ क्या है? हम रामायण और गीता को सोचकर राष्ट्रीय गर्व से भर जाते हैं. या शिवाजी, प्रताप की स्मृतियां हमारा सीना तान देती हैं. या भारतीय फौजें या क्रिकेट टीम की जीत या लालकिले पर नेता का भाषण? यदि ऐसा है तो इसका अर्थ है एक भावात्मक संवेदना के सहारे हमने मन में देश की रचना एक आकार–प्रकार के साथ कर ली है. जैसे देश न हो दिल बहलाने को गालिब एक खयाल अच्छा हो. पर आप अपने रवींद्रनाथ और अपने प्रेमचंद्र से यह नहीं चाहेंगे कि उनकी देश को लेकर संवेदना केवल भावनात्मक हो. या मात्र ज्ञानात्मक हो. फिर समस्या है कि एक भारतीय कलम में भारत कैसे झलकेगा? केवल ओज के सहारे न हम गहरे जा सकते हैं न दूर तक जा सकते हैं.
आप मन ही मन सोचते होंगे कि यह मैं कैसे अपने आपसे सवाल करता जा रहा हूं? मैं इन प्रश्नों के समाधान क्यों नहीं सोचता? इससे पहले मैं इस मजेदार स्थिति की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा कि इतने वर्षों लिखने के बाद यह अजीब सवाल एक लेखक के मन में पैदा हुआ है कि वह किस हद तक इस देश का लेखक है?
एक थीसिस है. साहित्यकार उसे मानते हैं. डबरे में आकाश की थीसिस. वह यों कि आप पानी के एक डबरे में देखिए. उसमें आकाश की छाया पड़ रही है. पूरा आकाश तो आप देख नहीं सकते. देखेंगे तो बयान नहीं कर सकते. इसलिए लेखक को चाहिए कि डबरे का वर्णन पूरी ईमानदारी से करे तो उसमें ही समूचा आकाश वर्णित हो जायेगा. हम एक गांव की या शहर के मोहल्ले की कहानी का वर्णन इस तरह करें कि उसमें पूरा देश इस तरह प्रतिबिम्बित हो जाये जैसा डबरे में आकाश प्रतिबिम्बित होता है.
इस थीसिस का जन्म और विकास तब हुआ था तब डबरा चाहे कुछ गंदा रहा हो मगर आकाश बहुत निर्मल और एक–सा था. आज मेरी शिकायत यह है मित्रो कि इस देश का आकाश निर्मल नहीं है. वह कट–छंट गया है. वह एक–सा नहीं है. अब डबरे में पूरा आकाश प्रतिबिम्बित नहीं होता. डबरा भी बहुत गंदा है. आकाश उससे अधिक गंदा है. मैं डबरे का वर्णन करूं तो उसमें जो आकाश आता है वह सही नहीं है. आकाश के लिए मुझे आकाश देखना पड़ता है. यहां मैं स्वयं को असहाय अनुभव करता हूं. एक देश के लेखक के लेखन में उसका देश नहीं है.
आप मेरी सीमा समझ गये होंगे. यदि मैं केरल का मलयालम में लिखनेवाला लेखक होता तो यह प्रश्न मेरे मन में नहीं उठता. त्रिवेंद्रम, मट्टनचेरी, कोचीन से लेकर उत्तर केरल तक जो एक लम्बी पट्टी चली गयी है बस वही मेरा आकाश और वही मेरी ज़मीन होती. वही भाषा, वही दर्द, वही सुख–दुख. थोड़ा अपने प्रांत का अर्थशास्त्र का ज्ञान, एक सीमित भूगोल का इतिहास और एक साहित्यिक परम्परा का ज्ञान पर्याप्त होता.
मैं हिंदी का लेखक हूं. और हिंदी आप जानते हैं नौ रस, पचास प्रभाव, और पता नहीं कितनी परम्पराओं, भावधाराओं का जमघट है. संस्कृत की पुत्री, बोलियों की अम्मा, अंग्रेज़ी की पिछलग्गू. यह जनता की भाषा है, धर्म की भाषा है, राजनीति के क्षेत्र में लोगों को मूर्ख बनाने की भाषा है, अनुवाद की भाषा है, मूल की भाषा है. यह वर्नाक्यूलर है. एक दृष्टि से हम कामनवेल्थ संस्कृति के वर्नाक्यूलर में लिखनेवाले लेखक हैं. हमारे लिए ज़रूरी है कि अखिल भारतीय वास्तविकताओं की जानकारी पाने के लिए हम अंग्रेज़ी जानें. हमारे देश के दार्शनिक, अर्थशास्त्राr स्वयं को अंग्रेज़ी में व्यक्त करते हैं. अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अपनी तुच्छ समझ को बरकरार रखने के लिए हमें अंग्रेज़ी से जुड़े रहना है. एक पूरा वर्ग है, एक सत्ता है, एक व्यवस्था है, आर्थिक शक्तियां हैं जो अंग्रेज़ी के पीछे हैं. जिन लोगों ने अंग्रेज़ी को सींचा उन लोगों ने अपने बच्चे कान्वेण्ट भेज दिये हैं. वे कृतसंकल्प हैं कि भविष्य में भी अंग्रेज़ी जस की तस रहेगी. गरीब और अपढ़ लोगों के वोटों से बनी सरकार उस प्रभावशाली अंग्रेज़ीपरस्त वर्ग के विरुद्ध नहीं जा सकती. हम और आप अंग्रेज़ी पर मुग्ध हैं जैसे अंग्रेज़ी न हो मार्लिन मुनरो की लम्बी गोरी टांग हो. जब कोई सुरीली अंग्रेज़ी बोलता हैं हमें लगता है हाय ऐसी बांसुरी हम बजाते. हमने दिनकर, महादेवी और स्वर्गीय माखनलाल चतुर्वेदी को भाषण देते सुना होगा. उन्हें सुनकर यह मन नहीं हुआ कि हम ऐसी हिंदी बोलें. पर जब कोई अंग्रेज़ी में स्वरलहरी बहाता है, रीढ़ में मधुर कम्पन होने लगता है. यह वही मधुर कम्पन है जो सरोजिनी नायडू की अंग्रेज़ी सुन जवाहरलाल नेहरू की पीठ में होता था. जवाहरलाल जो अपने इलाहाबाद जाने पर निराला से मिलने का समय न निकाल पाते थे पर लंदन जाने पर बर्नाड शॉ से मिलने के आकांक्षी रहते थे. बड़े अपमानों से गुज़री है हिंदी. भवानी भाई ने एक बार कहा था– हिंदी बड़ी है, शायद इसीलिए सबके चरणों में पड़ी है. हिंदी के दुर्भाग्य की कथा तब से आरम्भ होती है जब से हिंदी भाषी क्षेत्र से सत्ताधारी केंद्र में आये और उनके राज में हिंदी घर की मुर्गी दाल बराबर रही. जिस तरह इन सत्ताधारियों द्वारा अहिंदी क्षेत्रों को प्रसन्न करने के लिए अहिंदी भाषा को उचित आदर दिया वैसा उचित आदर हिंदी को भी शायद मिलता यदि केंद्र की सत्ता में दक्षिण के लोग आते. वे हिंदी की उपेक्षा तो नहीं करते. वे अपनी भाषा को भी आगे बढ़ाते. यह तो उनका धर्म है, उन्हें करना ही चाहिए. आज हिंदी का थोड़ा–बहुत प्रसार है उसमें सरकार का योग नगण्य है और जो कुछ उन्होंने किया है उसने दक्षिण के मन में हिंदी के प्रति नापसंदगी और विरोध उत्पन्न किया है. हिंदीभाषा का लेखक सारे जहां का दर्द अपने जिगर में पाले अपनी ही मित्र भाषाओं से कटा रहता है. भावनात्मक एकीकरण की सारी ज़िम्मेदारियां हमारी हैं. उन्हें संकीर्णता प्रशंसनीय है क्योंकि तब वे अपनी जड़ से जुड़े लगते हैं. वे चाहते हैं कि हम अपनी जड़ से जुड़ें पर गहरे नहीं. बस सौ दो सौ साल. उससे गहरे गये कि रीएक्शनरी कहलाये. प्राचीनता से जुड़ना ब्राह्मणवाद से जुड़ना माना जाता है और ब्राह्मणवाद से जुड़ना प्रतिक्रिया माना जाता है. हिंदी को आमफहम बनाइये. पर भाषा का आमफहम होना क्या होता है हम परिभाषित नहीं कर सकते. इसे वे परिभाषित करेंगे.
मैं हिंदी का प्रचारक नहीं हूं. मैं हिंदी का लेखक हूं. मैं शुद्ध हिंदीवादी भी नहीं हूं. पर मैं अपनी भाषा की शक्ति पहचानने के लिए समाजशास्त्राrय तथ्यों तक पहुंचना चाहता हूं. हिंदी एक अत्यंत उदार भाषा है. हिंदी में शब्दों को आत्मसात करने का अनोखा गुण है. हिंदी इस देश की मूल भाषा है. भाषा को नामकरण हमेशा विदेशी देते हैं. हमारी भाषा को विदेशियों ने हिंदी बाद में पुकारा हो, पर हम बोलते पहले से रहे हैं. वह हिंदी आज जैसी हिंदी न हो पर वह थी हिंदी ही. प्राकृत का कोई रूप जो आर्यों के आने से पहले से रहा होगा. उस भाषा में भी उदारता थी. उसने आर्य भाषा को आत्मसात किया. आर्यों ने अपने व्याकरण और शब्द संरचना के सहारे संस्कृत को रूप दिया. हमारी मूल भाषा तब भी थी. उसने परिस्थितियां बदलने पर संस्कृत के शब्द फेंके और अरबी फारसी के शब्द अपनाना शुरू किये. परिस्थितियां फिर बदलीं और हमारी इसी निरंतर संवरती–बिगड़ती भाषा ने फारसी, अरबी के शब्द फेंके और अंग्रेज़ी के शब्द अपनाने प्रारम्भ कर दिये.
मैं भाषाशास्त्र पर व्याख्यान नहीं देना चाहता. मैं इतना कहना चाहता हूं कि मेरे देश के सत्ताधारी चाहे अंग्रेज़ी उर्दू का हीनभाव जीएं, उससे डरें, समझौते करें. वे यह सपना भी देखें कि इक्कीसवीं सदी तक पहुंचते सारे देश में तकनीकी विकास के नाम पर अंग्रेज़ के बच्चों की भीड़ लग जायेगी. मगर मैं हिंदी के लेखक के नाते अपने को एक, हज़ारों साल पुरानी भाषा के शब्दों से, अर्थ के संसार से जुड़ा पाता हूं. मैं किसी भी विदेशी कसौटी पर अपनी भाषा को नहीं परखूंगा. मुझे उस सशक्त व्याकरण पर भरोसा है जिसने हज़ारों वर्षों से आदमी को आदमी से जोड़ा और शब्दों को जीवंत और सार्थक रखा. इसलिए हिंदी में लिखना विरोध का कर्म है. यह तब भी था जब राज–दरबारों में संस्कृत सम्मानित होती थी. यह तब भी था जब शाही महफिलों में फारसी और उर्दू का बोलबाला था. हिंदी में लिखना तब भी विरोधी कर्म था जब अंग्रेज़ों का राज था. और आज भी है जब देश में अंग्रेज़ीपरस्तों का राज है. मैं संस्कृत, उर्दू, अंग्रेज़ी भाषाओं का विरोधी नहीं हूं पर मैं उस शासन का विरोधी हूं जो अपने समाज पर राज करने के लिए, अपने समाज की भाषा बोली से कटकर विशिष्ट जनों की एक ऐसी भाषा को प्रश्रय देते हैं ताकि सत्ता के केंद्रों पर उच्च वर्ग छाया रहे और उस देश का गरीब प्रतिभा और योग्यता होने के बावजूद कभी सत्ता में हिस्सेदारी न कर सके. अंग्रेज़ी चाहे कितनी ही समृद्ध और भरी–पूरी भाषा हो पर इस देश में उसकी भूमिका जनविरोधी है. इस देश के लाखों गरीबों का विकास अंग्रेज़ी के कारण रुका हुआ है. यदि प्रांतों को अपनी भाषाओं में विकास का अवसर दिया जाये और हिंदी एक सम्पर्क सूत्र हो तो इस देश में सामाजिक क्रांति हो सकती है, जिसकी कल्पना से कांप हमारे सत्ताधारी अंग्रेज़ी से चिपके रहते हैं.
हम इस गलतफहमी में जी रहे हैं कि हमारी भाषा उन्नत स्वरूप अर्जित कर चुकी. हो सकता है हम प्रागैतिहासिक अवस्था में जी रहे हों. पर प्रागैतिहासिक अवस्था में जीते समय हम कैसे पहचान सकते हैं कि यह प्रागैतिहासिक अवस्था है. हमें तो यह बड़ी उन्नत और सही लगती है. प्रेमचंद को अपने ज़माने में सही और उन्नत लगती थी. उन्हें क्या पता था कि जिस भाषा में वे लिख रहे हैं वह पुरानी पड़ जायेगी.
लिखते समय ऐसा कोई भय मलयालम, तमिल या बांग्ला के लेखक के मन में नहीं होता. हिंदी के लेखक के मन में होता है. उसका लिखा वाक्य बदलते समय की कसौटी पर खरा उतरेगा या नहीं.
इसलिए मित्रो, एक हिंदी लेखक अपने देश, अपने समाज और मनुष्य से जुड़ने में बड़ी कठिनाई अनुभव करता है. चुनौतियों का सामना करते समय कितने भय उसके मन में हैं. जीवन की गति ही नहीं स्वरूप बदल गया है. मनुष्य की वह झलक अब समाज में देखने को नहीं मिलती जो हम साहित्य में देखते आये हैं. कहां गये वे प्रेमचंद के पात्र. कहां गया वह गुलेरीजी की कहानी का पात्र. सब कहीं भीड़ में खो गये. तीस साल से मैं देख रहा हूं. हिंदी ने लेखक के कर्म और धर्म को परिभाषित करने के लिए कितने आंदोलन आरम्भ किये. नयी, सहज, अ, या सचेतन कहानी. गांव, कस्बे, शहर की कहानी. युवा कहानी, ऐसी ही धाराएं, कविताएं. लगता है एक चिड़िया उड़ गयी जो हाथ नहीं आ रही है. आदमी साबुन की बट्टी की तरह बार–बार हमारे हाथ से फिसल रहा है. साहित्य जो सदा से आम आदमी पर, आम आदमी का और आम आदमी के लिए होता या वह आम आदमी से एकाएक अपरिचित हो गया है और बहस कर रहा है कि आम आदमी क्या है? जैसे हम एक सुसभ्य गांव हैं और आम आदमी जंगल का जानवर है. अपने को जनभाषा कहनेवाली हिंदी के चिंतन की गिरावट का यह नमूना है कि एक आम आदमी की भाषा आम आदमी का पता पूछने लगी. ऐसा लगता है कि इस देश में कुछ अंग्रेज़ी दिमाग से जीनेवाले लोग हिंदी को जीवन जीने के एक स्टण्ट के रूप में अपनाये हैं.
मैं लेखक हूं और लेखक के विषय में कहा जाता है कि वह किसी भाषा विशेष का नहीं होता. हम तो संगीत उत्पन्न करते हैं, फिर हमारा वाद्य कोई भी भाषा हो. वही हमारा धर्म है. हमारी जाति लेखकों की जाति है और इस जाति की अनेक भाषाएं हैं. बात अपने में सही है पर भाषा ही हमारा औज़ार है, हमारा वाद्य. हिंदी में लेखन एक ऐसे कार्यक्रम की तरह हो रहा है जिसमें वाद्य गड़बड़ है, संगीत उत्पन्न नहीं हो रहा, श्रोता गायब है. संयोजक है, पारिश्रमिक भी है, सम्मान भी है. पर मंच पर बैठे हम सोच रहे हैं. क्या? किसके लिए? एक तर्क यह है कि संगीत उत्पन्न करें तो श्रोता लौट आयेंगे. दूसरी ठसक यह है कि श्रोता आ जायें तो आरम्भ करें.
हम अपने कलाकार होने के रोब में वाद्य की कमज़ोरियों को नकारते हैं. हम अपनी भाषा पर मोहित रहते हैं. पर मनुष्य की भाषा कभी परिपक्व नहीं होती, उसी तरह लेखक की भाषा भी कमज़ोर होती है. हमें वाद्य पर नहीं संगीत पर ध्यान देना चाहिए.
एक समय था मैं सोचता था कि लेखक के रूप में मेरा संसार बहुत बड़ा है. रवींद्र, शरत, प्रेमचंद, मण्टो, चेखव, टाल्सटाय, गोर्की, बाल्ज़ाक और ऐसे अनेक नामों की दुनिया थी. लिखते–लिखते अब मेरा संसार छोटा होता जा रहा है. अब मैं देश के विषय में ही सोचता हूं. प्रांत, भाषा के झगड़े मेरा ध्यान खींचते हैं. मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि मेरा और मेरे देश का यह अजीबोगरीब पतन–सा हो रहा है. मैं आपसे यह अपेक्षा करूंगा कि आप अपने व्यक्तित्व में अपना देश खोजें तो मैं आपके व्यक्तित्व में अपने देश के दर्शन कर सकूं और आपकी बात लिखकर देश की बात लिख सकूं. आप अपने में एक संसार, एक विश्व महसूस करें तो हिंदी का लेखक अपनी कलम में विश्व अभिव्यक्त कर सके. आप उस पूरे दुश्चक्र से मुक्त हों जो इस देश की आर्थिक और राजनीतिक स्वार्थों ने आपके इर्द–गिर्द खड़ा कर दिया है और लेखक को यह इज़ाज़त दें कि वह आपके करीब आ सके. देश से जुड़ना देशवासी से जुड़ना है और देशवासी से जुड़ना देश से जुड़ना है. पर यदि देशवासी में उसका देश न नज़र आये तो उससे एक लेखक कैसे जुड़े? कृपया भाषा को इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से मुक्त करने में योग दें. आप देश बनें ताकि हमारा लेखन देश का लेखन बन सके. और हिंदी देश की भाषा हो. आज आप भी अंग्रेज़ी के अनुवाद हैं और हिंदी भी अनुवाद है. जब आप मूल पर लौटेंगे तब मौलिकता आरम्भ होगी. मैं जो मौलिक लेखक होने के दम्भ में जीता हूं आपसे भी ऐसे किसी दम्भ को नकार वास्तविकता को समझने का आग्रह करता हूं.
मई 2016
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