जॉर्ज ऑरवेल
‘बचपन से ही सोचा करता था. बड़ा होकर लेखक ही बनूंगा.’ हालांकि, सत्रह पार करते-करते इस विचार में डगमगाहट आने लगी. इसके बाद के सात-आठ साल में मैं लेखक बनने के इरादे को छोड़ देना चाहता था. कोशिश भी की कि मैं लेखक न बनूं. लेकिन, अंततः मैं लेखक ही बना. दरअसल मुझे ऐसा महसूस हुआ कि अपने निर्णय को बदलकर मैं अपने मूल स्वभाव व रुझान की हत्या ही कर रहा हूं! मुझे अविलम्ब इस अंतर्द्वंद्व से उबरना चाहिए और चुपचाप लेखन कार्य में जुट जाना चाहिए!
अपने तीन भाइयों में मैं मझला था. छोटे एवं बड़े भाइयों के बीच मेरी उम्र का फासला पांच वर्ष का था. आठ साल का हुआ तो पहली बार अपने पिता को देखा. याद नहीं, इससे पहले भी उन्हें कभी देखा हो! मेरे बचपन का अधिकांश हिस्सा तनहा ही गुजरा है. फलस्वरूप, मैं थोड़ा ज़िद्दी स्वभाव का हो गया था. अकेला जीवन बसर करने वाले बच्चों में जो प्रवृत्ति आ जाती है, वैसी ही प्रवृत्ति मुझ में भी आ गयी थी. मसलन, मन ही मन कहानियां गढ़ना, काल्पनिक व्यक्तियों से बात करना… आदि. परंतु, उपेक्षित और बेगानेपन की यह अनुभूति मेरी महत्त्वाकांक्षाओं में घुल-मिल गयी. हमेशा उचाट व नीरस विषयों पर सोचते रहने के साथ-साथ अपने पास की शब्द सामर्थ्य, ये सब मेरे लिए एक ऐसे परिवेश का निर्माण कर रहे थे जहां मैं जीवन की विसंगतियों से भिड़ सकता था. बावजूद इसके, बचपन से किशोरावस्था तक का मेरा ठोस लेखन छह पृष्ठों से अधिक नहीं होगा. चार-पांच साल की उम्र में मैंने अपनी पहली कविता लिखी थी. उस कविता को मेरी मां ने अपनी डायरी में नोट कर लिया था. मुझे सिर्फ इतना याद है कि वह कविता ‘बाघ’ पर लिखी गयी थी जिस बाघ के दांत ‘कुर्सी-जैसे’ थे. बहुत ही सुंदर मुहावरा है- कुर्सी-जैसे दांत. लेकिन यह कविता मुझे कवि बलाक की कविता ‘टाइगर-टाइगर’ की नकल लगी. प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान जबकि मैं केवल ग्यारह साल का था, मैंने एक देशभक्तिपूर्ण कविता लिखी थी. थोड़ा और बड़ा हुआ तो ‘जार्जियन शैली’ में अधूरी व लचर किस्म की कविताएं लिखने लगा. लघुकथा भी लिखने का प्रयास किया, लेकिन बुरी तरह असफल रहा.
आरम्भिक दिनों में तो केवल फरमाइशी काम ही हुए. मैंने अवसर विशेष के लिए अर्द्धहास्य कविताएं भी लिखीं. चौदह की उम्र में एक पूरा तुकांत नाटक ‘एरिस्टोफेन’ की नकल मैंने लगभग एक सप्ताह में लिख दिया था. मेरे विद्यालय से हस्तलिखित व मुद्रित पत्रिकाएं निकलती थीं. ये पत्रिकाएं हास्यपरक थीं लेकिन काफी कमज़ोर किस्म की. मैंने उक्त दोनों पत्रिकाओं के सम्पादन में सहयोग किया. आज मैं पत्रकारिता में होता तो निश्चित तौर पर सस्ती पत्रकारिता की परेशानियों से वास्ता पड़ा होता. परंतु इस सस्ती व पीत पत्रकारिता में मुझे जितनी परेशानी हुई होती उससे कहीं कम परेशानी उन पत्रिकाओं में काम करते हुए मैंने नहीं झेली. सच मानिए तो पंद्रह वर्षों तक बारी-बारी से इन सबमें मैंने एक अलग किस्म का साहित्यिक अभ्यास किया. यह अभ्यास था खुद के बारे में निरंतर कहानी गढ़ना अथवा यूं कहूं कि एक तरह की डायरी तैयार करना जिसमें केवल दिमाग में तैर रही बातें ही शामिल थीं. मैं जब छोटा था तो कल्पना करता था कि मैं ‘रॉबिन हुड’ जैसे रोमांचकारी कार्यों को कर सकता हूं. लेकिन बहुत जल्द ही मेरे कथालेखन का विषय आत्मकेंद्रित हो गया. मैं जो देख रहा था या कर रहा था, मेरी कहानी उसी का वर्णन मात्र बनकर रह गयी. पच्चीस वर्ष के होने तक का पूरा समय मेरे लिए गैर-साहित्यिक रहा. फिर भी मुझे सही शब्दों को ढूंढ़ना पड़ता था और मैंने ढूंढ़ा भी. लेकिन, मुझे महसूस हुआ कि इस तरह के कठिन काम मैं अनिच्छा से, किसी बाह्य दबाव में कर रहा हूं. सही शब्द आनंद पैदा करते हैं, यह बात मैं अकस्मात सोलह की आयु में ही समझ गया था.
अपने जीवन के प्रारम्भिक दिनों के बारे में इतना कुछ इसलिए बता रहा हूं कि शायद ही कोई व्यक्ति किसी लेखक के आरम्भिक दिनों की गतिविधियों को जाने बगैर उसका सही-सही मूल्यांकन कर पाता होगा. लेखकों की रचनाएं वस्तुतः उसकी उम्र से ही मूल्यांकित होती हैं. परंतु प्रत्येक लेखक में लेखन कार्य शुरू करने के पहले एक भावनात्मक रुझान पैदा होता है, जिससे वह शायद ही बच पाता है. यह रुझान उसके लेखन में झलकता है. यह लेखक का कर्त्तव्य है कि वह अपनी अपरिपक्वता से चिपका न रहे! लेकिन इस प्रयास में यदि वह अपने आरम्भिक दिनों के प्रभाव से बचने की कोशिश करता है तो अपने लेखकीय रुझान को खत्म कर बैठेगा. जीविकोपार्जन की बात न भी करें तो मेरी समझ से लिखने के पीछे खासकर गद्य लिखने के पीछे, मुख्यतः चार तरह के उद्देश्य होते हैं. ये उद्देश्य हैं- विशुद्ध आत्मवाद, सौंदर्यबोधात्मक उत्साह, ऐतिहासिक रुझान और राजनीतिक उद्देश्य.
ऐसा देखा जाता है कि ये सारे रुझान एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं और इसमें व्यक्ति और समय के मुताबिक घट-बढ़ होती रहती है. आप ही की तरह मैं भी वयस्क हुआ तो चौथे इरादे के मुकाबले शेष तीन का ही शुमार था मुझमें. इस शांत अवस्था में मैंने भी या तो शब्दों से सुसज्जित गद्य लिखे हैं या केवल वर्णनात्मक किताबें लिखी हैं, जो अपनी राजनीतिक निष्ठा से प्रायः अनभिज्ञ रहे हैं. एक तरह से मैं पम्फलेटबाजी ही करता रहा. पहले एक अनिश्चित पेशे (बर्मा में भारतीय राज्य पुलिस) में पांच साल बिताये. उसके बाद गरीबी झेली और जीवन में असफल होने के बोध से ग्रस्त रहा. इससे अधिकारियों के प्रति मुझमें पल रहा स्वाभाविक घृणा भाव और तेज़ हो गया. इसी समय कामगार वर्ग के अस्तित्व का मुझे पहले-पहल भान हुआ. बर्मा में काम करते हुए साम्राज्यवाद की प्रकृति की थोड़ी-बहुत समझ तो मुझमें थी, लेकिन ये तमाम अनुभव एक संतुलित राजनीतिक विचार से मुझको लैस कर पाने के लिए पर्याप्त नहीं थे. 1936-37 के स्पेनी युद्ध एवं दूसरी घटनाओं ने मेरे सोच को धारदार बनाया था. इसके बाद ही मुझे अहसास हुआ कि मैं कहां हूं. मेरी समझ में 1936 से ही मेरे द्वारा कोई गम्भीर चीज़ें लिखी गयी हैं, जिसका प्रत्येक वाक्य प्रत्यक्षतः या परोक्षतः सर्वसत्तावाद के विरुद्ध एवं लोकतांत्रिक समाजवाद के पक्ष में है. यह मौजूदा समय में निरर्थक लगता है कि ऐसे विषयों पर हमें लिखने से बचना चाहिए. यह तो साधारण-सा सवाल है कि कौन किसका पक्ष लेता है या किस विचार का अनुसरण करता है! अपने राजनीतिक रुझान के प्रति जो लेखक जितना ही ज्यादा सजग होगा अपनी सौंदर्य बोधात्मक एवं बौद्धिक अखंडता कायम रखते हुए राजनीतिक ढंग से उसे उतना ही अधिक काम करने का अवसर प्राप्त होगा.
मेरा लेखन हमेशा अन्याय के विरुद्ध और न्याय के पक्ष में रहा है. मैं जब कभी भी पुस्तक लिखने बैठता हूं तो स्वयं से यह नहीं कहता- ‘मैं कोई कलाकृति रचने जा रहा हूं.’ मैं इसलिए लिखता हूं कि मुझे यथासंगत असत्य को उद्घाटित करना है. कुछ तथ्य हैं, जिनकी तरफ मुझे लोगों का ध्यान आकर्षित करना है एवं उन्हें अपने बुनियादी सरोकारों पर विचार करने के लिए बाध्य करना है. परंतु, मुझमें सौंदर्यबोध नहीं होता तो शायद ही मैं कोई पुस्तक या पत्रकारीय निबंध लिख पाता! यदि कोई व्यक्ति मेरे लेखन की जांच करे तो मेरे विरुद्ध विपरीत प्रचार के बावजूद उसे बहुत-सी ऐसी चीज़ें मिलेंगी जिन्हें एक पूर्णकालिक राजनेता अप्रासंगिक ठहराएंगे. मैं उस योग्य नहीं हूं एवं चाहता भी नहीं हूं कि बचपन में जिस वैश्विक नज़रिये को मैंने हासिल किया उसे पूरी तरह त्याग दूं. मैं जब तक ज़िंदा एवं स्वस्थ हूं मज़बूती से गद्यशैली का अहसास करता रहूंगा, धरती से प्यार करता रहूंगा एवं कथित बेकार की चीज़ें लिखने के निमित्त का मज़ा लेता रहूंगा. मैं अपने इस पक्ष को दबाने की आवश्यकता महसूस नहीं करता.
यह काम आसान नहीं है. यह निर्माण एवं भाषा की समस्या ला खड़ा करता है. नये रूप में सत्यनिष्ठा जनित समस्या भी उठाता है. इससे अपरिपक्व होने जैसी परेशानी भी पैदा होती है. मसलन मेरी पुस्तक ‘होमेज टू कैटालोनिया’ को ही लें. यह पुस्तक स्पेनी गृहयुद्ध के बारे में लिखी गयी है. निस्संदेह मेरी यह पुस्तक एक राजनीतिक पुस्तक है. मैंने पूरी मेहनत की थी कि सारी सच्चाइयों को साहित्यिक ढंग से समेट सकूं. परंतु ट्राटस्कीवादियों के पक्ष में इस पुस्तक में एक लम्बा अध्याय बन गया जिसमें समाचार-पत्रों के वाक्यांश भरे हुए हैं. इस तरह के बोझिल करने वाले उबाऊ अध्याय निश्चित रूप से पुस्तक की खूबसूरती को मार डालते हैं. मेरी यह पुस्तक भी साल-दो-साल के अंदर साधारण पाठकों के लिए अपनी उपयोगिता खो देगी. मेरे एक सम्मानित आलोचक ने इस पुस्तक के लिए मुझे काफी फटकार लगायी थी. उनका कहना था- ‘सारी चीज़ों को इसमें क्यों घुसेड़ा? यह बढ़िया पुस्तक हो सकती थी लेकिन तुमने इसे पत्रकारिता की वस्तु बना दी.’ उनका कहना सही था. लेकिन मैंने कोई अन्यथा काम नहीं किया था. दरअसल मुझको जो बातें मालूम थीं वह इंग्लैंड में बहुत कम लोगों को मालूम थीं. निर्दोष ट्राटस्कीवादियों को गलत ढंग से फंसाया जा रहा था. यदि इसके लिए मुझे गुस्सा नहीं आया होता तो कदाचित मैं ‘होमेज टू कैटालोनिया’ नहीं लिख पाता.
भाषा की समस्या तो किसी-न-किसी रूप में अवश्य उठती है. यह कुछ ज्यादा ही गूढ़ है एवं इसके लिए कुछ ज्यादा समय भी चाहिए. हाल के वर्षों में मैंने चित्रात्मक कम, तथ्यपरक ज्यादा लिखने का प्रयास किया है. ‘एनिमल फार्म’ मेरी पहली पुस्तक है जिसमें राजनीतिक व कलात्मक उद्देश्यों का सम्मिश्रण है. यह पूरी तरह चेतन मन से लिखी गयी है. सात वर्षों से मैंने कोई उपन्यास नहीं लिखा है, लेकिन जल्द ही दूसरा भी आने वाला है. वह भी सुंदर-सा ही होगा. असफल होना तो तय है. मानिए तो प्रत्येक पुस्तक ही असफल होती है. लेकिन मैं कुछ सफाई के साथ जानता हूं कि मुझे कैसी पुस्तक लिखनी है. पुस्तक के अंतिम दो पृष्ठों को देखकर मुझे प्रतीत होता है कि मैं अपने प्रयोजन में सफल रहा हूं. इन पृष्ठों से मेरा लोकपक्षीय लेखन व रुझान स्पष्ट होता है. हालांकि मैं इसे अंतिम छाप की तरह छोड़ना नहीं चाहता. वैसे तो सारे लेखक निरर्थक, स्वार्थी और आलसी होते हैं. उनके लेखकीय रुझान में रहस्य छुपा रहता है. फिर भी किताब लिखना भयानक काम है, थका देने वाला संघर्ष है. यह किसी खतरनाक रोग के दौरे जैसा है. अभी भी यह तथ्य कायम है कि जबतक लेखक अपने व्यक्तित्व को खंगालने के लिए लगातार संघर्ष नहीं करता, वह कुछ भी पठनीय नहीं लिख सकता. सुंदर गद्य खिड़की के शीशे- समान होता है. मैं दावे के साथ तो नहीं कह सकता कि कौन-सा रुझान सबसे ज्यादा मज़बूत है. लेकिन, मैं इतना अवश्य बता सकता हूं कि कौन-सा उद्देश्य/रुझान अनुसरण करने के लायक है. अपनी पहले की रचनाओं को देखता हूं तो अब उनमें राजनीतिक लक्ष्यों की कमी दिखती है. मैंने सार्वकालिक किताबें नहीं लिखी हैं और इस बार रोचक गद्य रचने के चक्कर में ही धोखा खा गया हूं. मैं तो अक्सर निरर्थक वाक्यों, सुंदर विशेषणों एवं आडम्बरपूर्ण शब्दों के चयन में ही छला गया हूं!
(फ़रवरी, 2014)