मुर्गियां

♦  शंकर पुणतांबेकर   >

अकबर ने कुछ अच्छे लोगों को मुर्गियां बांटीं कि वे उनसे जनता के लिए अंडे पैदा करें. और लोगों ने तो पैदा किये, लेकिन तीन ने यह काम अंजाम नहीं दिया. एक था खानदानी. दूसरा था सर्वधर्मसमभाव दीनइलाही वाला और तीसरा था एक चित्रकार.

खानदानी रोब वाला था. अपनी दुनिया को टापू बनाकर रहने वाला, सो मुर्गी को संपर्क के अभाव में अंडे पैदा नहीं हुए. वही बात दीनइहाली वाले के साथ हुई. वह ऊपरी तौर पर राजा के दबाव में सर्वधर्मसमभाव मानता था, तो मुर्गी अपनी कौम के बाहर के मुर्गे के सम्पर्क में न आ जाये इस अंदेशे से उसने उसे अंदर ही घेरे रखा. चित्रकार ने तो हद ही कर दी. उसकी मुर्गी सुंदर थी, सो उसने उसका चित्र खींचा. इस चित्र खींचने के लंबे चक्कर में मुर्गी बाहर संपर्क न पा सकी. उसने तो इससे आगे भी अपराध किया, वह मुर्गी को पकाकर खा गया.

ये तीनों अकबर के दरबार में पेश किये गये.

खानदानी ने कहा. मैंने कोई अपराध नहीं किया. खानदानी प्रतिष्ठा के लिए होता है; ऐसे किसी उत्पादन के लिए नहीं. मुझे प्राप्त मुर्गी मेरी प्रतिष्ठा थी, सो उसने अंडे पैदा नहीं किये.

पैदा करती तो मेरे खानदान को बट्टा लगाती.

दीनइलाही वाले ने कहा, अपराध मैंने भी नहीं किया है. मेरी मुर्गी दीनइलाही से दीक्षित नहीं हुई थी. ऐसी दशा में वह जो मेरी परम्परा स्वरूप थी यदि गैर कौम के संपर्क में आकर पैदा करती, तो सवाल पैदा होता ये अंडे किस कौम के हैं! एक बड़े पाप का भागीदार बनता मैं. ऊपर का मालिक इसके लिए मुझे कतई माफ़ न करता.

चित्रकार की दास्तान इन दोनों से लम्बी थी. …बोला, मैंने अपराध किया है और नहीं भी किया है. मुझ पर तो दो-दो इल्ज़ाम है. मैंने अंडे पैदा नहीं किये, और अंडे पैदा करने वाली मुर्गी को ही मैं खा गया.

काश कि मैं चित्रकार न होता. इस सूरत में मेरे हाथों ये दोनों अपराध न होते. लेकिन अपराधी मैं इसलिए नहीं हूं कि हुजूर के दरबारी एक मायने में अपराधी हैं.

उधर दरबारियों के कान खड़े हुए. अकबर भी कुछ चौकन्ना हुआ.

हुजूर मेरी मुर्गी आपकी इनायत थी. इस इनायत को… इस कृपा को मैं चित्रित न करता तो यह मेरी नमकहरामी होती… कृतघ्नता. फिर वह मुर्गी बहुत हसीन थी.

दरबारियों ने बीच में ही कहा, हुजूर की हर इनायत हसीन होती है.

हां, जैसे दरबारी की हर खुशामद हसीन होती है. चित्रकार ने ताना मारा. अकबर को बात चुभी.

अब हुजूर, इंसाफ कीजिए. ऐसी सूरत में मैं मुर्गी का चित्र न बनाता तो मुझमें और इन दरबारियों में क्या फ़र्क रह जाता?

सुनकर दरबारी एकदम क्रुद्ध हो उठे. बोले, हुजूर यह शख्स निहायत बेहूदा किस्म का है. बात-बात में ताने मार रहा है. इसकी अब एक न सुनिए और इसका सिर धड़ से अलग कर देने का फ़रमान जारी कर दीजिए.

मुझे इसमें कोई एतराज नहीं है. चित्रकार ने कहा. लेकिन दरबारी कानून के चाकर हैं, या कानून दरबारियों का? जहां कानून दरबारियों का चाकर बन जाता है वहां फिर ऐसे खानदानी पैदा होते हैं जिनके यहां बांझ प्रतिष्ठा पलती है. या ऐसे सर्वधर्मसमभाव के लोग जिनके खाने के दांत एक और दिखाने के दांत और होते हैं और अपनी सड़ी-गली परम्परा से ये गंदी मक्खी की तरह चिपके रहते हैं.

यह सुन खानदानी और दीनइलाही वाले की भौं चढ़ गयी.

हुजूर, खानदानी बोला, कानून दरबारियों का चाकर बन जाता है कहकर इस शख्स ने सीधे-सीधे आप पर चोट की है.

मैं सुन रहा हूं. अकबर ने कहा. और सुनकर महसूस कर रहा हूं कि चित्रकार कुछ-कुछ ठीक ही कह रहा है. मैं दर्पण में अपना चेहरा तो देखता हूं. लेकिन अपने आपको नहीं… तुम लोग भी, ये मेरे दरबारी भी दर्पण में केवल अपना चेहरा देखते हैं. और किसी भी व्यवस्था का, मैं समझता हूं, सही चेहरा कलाकार में से ही देखा जा सकता है.

हुजूर, दरबारी बोले, ऐसा कहकर आप इस शख्स को सिर चढ़ा रहे हैं. इससे यह और बदतमीज़ हो जायेगा.

हां, चित्रकार आगे बोलो- अकबर ने कहा.

हुजूर. मैंने मुर्गी का चित्र बनाया. इस चित्र बनाने के काम में मैं ऐसा डूब गया ऐसा डूब गया कि मुझे इस बात का ख्याल ही नहीं रहा कि मुर्गी से अंडे पैदा करने हैं… अब सोचिए हुजूर. अंडे पैदा करने का ख्याल रखता तो चित्र ही न उतर पाता.

तभी दरबारी बोल उठे, हुजूर इसे अंडे पैदा करने के लिए मुर्गी दी गयी थी, चित्र खींचने के लिए नहीं.

यह सुन चित्रकार चिढ़कर बोला, यह क्यों भूल जाते हो कि मुर्गी तुम-जैसे किसी दरबारी के यहां नहीं, एक चित्रकार के यहां पहुंची थी. दरबारी मुर्गी से सिर्फ़ अंडे लेना जानता है, उसको बनाना नहीं. बिल्कुल जनता की तरह.

हुजूर, मुर्गी यदि इसे इतनी प्यारी थी. उसका चित्र इसने बनाया था, तो यह उसे काटकर क्यों खा गया?

खानदानी और दीनइलाही वाला भी बोले, हां हां यह मुर्गी को क्यों खा गया?

सही सवाल है, मैं मुर्गी को क्यों खा गया! चित्रकार ज़रा भी विचलित न होते  हुए बोला, इसके लिए जो वजहें है वे यहीं मौजूद हैं. हुजूर. मैंने मुर्गी का चित्र बनाया और इस चित्र को देखने के लिए आपके इन दरबारियों को आमंत्रित किया.

चित्रकार बोलते-बोलते थक गया था. वह दुबला-पतला था. किंतु उसके मुखमंडल पर तेज था; ठीक दरबारियों के विपरीत. उसने पीने के लिए ठंडा जल मांगा जो शीघ्र एक बांदी ने उसके सामने पेश किया.

हुजूर, दरबारी आये. चित्रकार ने आगे कहा, उन्होंने मुर्गी के चित्र को देखा. लेकिन किसी चित्र को… किसी कलाकृति को देखने की आंखें उनकी नहीं थीं. वे अपनी ही ख्वाहिशें पेश करने लगे. इन ख्वाहिशों में उनकी प्रेयसियों और रखेलियों के चित्र ही अधिक थे. कुछ के अपनी पत्नियों के थे. किसी ने भी अपनी मां के अथवा पिता के चित्र की ख्वाहिश जाहिर नहीं की. मुझे उनकी ख्वाहिशों से कुछ लेना-देना नहीं था. मैं तो चाहता था ये लोग मुर्गी का चित्र खरीद लें. मैंने दरबारियों से वैसा निवेदन किया भी, लेकिन कोई खरीदने को राज़ी नहीं हुआ. हुजूर, इन्साफ कीजिए. यह चित्र दरबारी खरीद लेते तो मुझे रोटी मिल जाती. अब रोटी नहीं मिली तो वह प्यारी-प्यारी मुर्गी मेरी भूख का शिकार बन गयी. सो मेरे इस गुनाह में दरबारी भी दोषी हैं. वैसे भी राजा की कृपा को कलाकार खा जाये तो यह उसके हित में ही है.

अकबर ने खानदानी और दीनइलाही वाले को तो बरी कर दिया. लेकिन चित्रकार के मामले में बीरबल से सलाह लेने को अंदर गया. बीरबल ने सलाह दी, कहलवा दो, हम कल इंसाफ करेंगे. अकबर ने ऐसा ही किया.

चित्रकार आज भी इंसाफ के लिए अधर में लटका है.

(मार्च 2014)

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