बहुत पुराने सपने

    ♦    डॉ. मंगलदेव शास्त्री       

 मनुष्य के जीवन में, विशेषतः बचपन में, ऐसी घटनाएं या अनुभव प्रायः सामने आते हैं, जो आगे चलकर स्वप्न-जैसे दिखते हैं. उनका जीवन के प्रवाह में कोई स्थान नहीं दिखता. चिरकाल के बाद कभी-कभी उनमें फिर से जान पड़ती मालूम होती है. तब ऐसा ही लगता है, मानो कोई सपना सच्चा हो गया है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदायूं शहर के एक प्रतिष्ठित आर्य समाजी परिवार में जन्म (1890) होने पर भी, उस समय के रिवाज के अनुसार बचपन में मेरा प्रारम्भिक अध्ययन उर्दू-पारसी के मकतबों में शुरू हुआ. फिर मदरसे में पढ़ाई शुरू हुई 1901 तक. 1902 में अंग्रेज़ी स्कूल में नाम लिखाया गया. घर पर कुछ हिंदी पढ़ायी गयी. परंतु इच्छा होने पर भी संस्कृत पढ़ने की कोई सुविधा नहीं थी. सौभाग्य से 1900 में आर्यसमाज में एक पाठशाला खुल गयी. अंग्रेज़ी स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ उसमें प्रतिदिन थोड़े समय के लिए संस्कृति भी पढ़ायी जाती थी. मैंने पढ़ना आरम्भ कर दिया.

     1902 में गुरुकुलों की ध्वनि चारों ओर से सुनाई देने लगी. आर्यसमाजी प्रभाव से कहिये, या स्वतः अंतरात्मा से यह प्रेरणा मिली कि जीवन की सफलता गुरुकुल-शिक्षा के बिना असम्भव है. सबसे प्रथम, पूज्य माताजी को इसके लिए रामायण आदि के दृष्टांतों से तैयार किया. गुरुकुल-शिक्षा 12-14 वर्ष की थी. इतने काल का बिछोह माताओं के लिए अत्यंत कठिन समस्या थी.

     1903 में गुरुकुल कांगड़ी के उत्सव पर, वहां प्रवेशार्थ, माता-पिता के साथ जाना हुआ. पर वहां तत्काल प्रवेश न हो सका. बड़ी निराशा हुई.

     वहां से घर लौटते ही पता लगा कि प्रसिद्ध आर्यसमाजी सन्यासी स्वामी दर्शनानंदजी महाराज बदायूं में ही सुप्रसिद्ध तपोभूमि सूर्यकुंड के पास गुरुकुल खोलने जा रहे हैं. अप्रैल में वह खुल गया और प्रबल अंतः प्रेरणा के कारण, उस समय पिताजी के बाहर रहते हुए भी, अपने छोटे भाई के साथ मैंने वहां प्रवेश ले लिया.

     उपनयन और वेदारम्भ संस्कारों से वहां का तपस्या का जीवन बड़े उत्साह से प्रारम्भ हो गया. प्रातः 4 बजे उठना, भ्रमणार्थ जंगल में जाना, साथी छोटे ब्रह्मचारियों की देखभाल, गर्मी-वर्षा-जाड़े में पूर्ण तपस्या का जीवन, नंगे पैर रहना, भूमि या तख्तों पर सोना, खटाई-मिर्च-मसाले से रहित अत्यंत सात्त्विक भोजन. समृद्ध शहरी परिवार के जीवन से इसमें आकाश-पाताल का अंतर था.

     गुरुकुल में धन का अभाव था. रहने के लिए ठीक मकान नहीं थे. नौकर भी प्रायः नहीं थे. अधिक काम अपने हाथ से करना पड़ता था. पर उस काम में चाव था, उत्साह था. वह अखरता नहीं था.

     गर्मियों में गर्म लू में, शीतलकाल में कड़ी सर्दी में और वर्षा में प्रायः बौछार में रहना पड़ता था. ब्रह्माचारियों में, जो गरीब और अमीर घरों से आये थे, परस्पर बड़ा प्रेम था, सहानुभूति तथा भ्रातृ-भावना थी. अपने घरों से अच्छे नये कपड़े आने पर दूसरों को दे देते थे, स्वयं पुराने कपड़ों को ही पहनने में बड़ा आनंद आता था.

     मेरी भावना खासकर ऐसी थी कि ब्रह्मचर्य आश्रम के कड़े-से-कड़े अनुशासन और व्रतों का परिपालन किया जाये. मनुस्मृति में पढ़कर यह नियम बना लिया था कि यदि किसी दिन संध्याग्निहोम नहीं कर पाया, तो उस दिन पूरे दिन उपवास.

     स्वामी दयानंद सरस्वती के जीवन के आदर्शो का अनुकरण किया ही जाये, ऐसा मन में बैठ गया था. उसी कारण से आजन्म ब्रह्मचारी रहने के साथ-साथ, पर्वतों और जंगलों में जाकर महात्माओं की तलाश कर के योगाभ्यास करना चाहिए, ऐसी गहरी धारणा बन गयी थी. 1904 से यह धारणा बनी और 1905 तक परिपुष्ट होती रही.

     इसी कारण से कठोपनिषद, श्वेताश्वतरोपनिषद नित्य पाठों से प्रायः कंठस्थ हो गये. गेरुए वस्त्रधारी एक ब्रह्मचारी श्री महेंद्र गुरुकुल में आ गये. वे योगाभ्यासी थे. उनसे योगाभ्यास की शिक्षा शुरू कर दी.

     पुस्तकों से प्रेम था. विद्याध्ययन में रुचि भी थी. सोचा, जंगल-पर्वतों पर उनके बोझ को कैसे ढोना सम्भव होगा? उपाय निकाला, सबके संक्षिप्त रूप संग्रहित किये जाने लगे. जो ग्रंथ मूल मिलते थे, उनको मूल में इकट्ठा किया. भाष्यादि की संक्षिप्त उपयोगी टिप्पणियां लिखनी लिखवानी शुरू की.

     पहाड़ों के तपस्या के जीवन में स्वाभाविक भोजन मिलना दुष्कर होगा, यह सोचकर (पाठक हंसेंगे) शीशम आदि के पत्ते और घास खाने का भी कभी-कभी अभ्यास किया था. वहां काइयां और नाले पार करने पड़ेंगे, इसके लिए बांस के सहारे लम्बी छलांग लगाने का भी अभ्यास किया. वर्षा, गर्मी और सर्दी सहना तो हो ही गया था.

     यहां तक कि 1905 में (तिथि का स्मरण नहीं है) एक साथी ब्रह्मचारी के साथ गुरूकुल छोड़कर मैंने वह यात्रा शुरू कर दी. 4-5 मील गये होंगे. मन में एकाएक अपनी पूज्य माताजी का ध्यान आ गया. सोचा कि इस प्रकार अज्ञात वनवास के लिए, सदा के लिए, चले जाने पर उन्हें जो धक्का लगेगा, वह उन्हें परलोक भेजकर ही रहेगा. उक्त विचार से वह संकल्प टूट-फूट गया और साथी के साथ उसी तरह गुरूकुल वापस लौटना पड़ा.

     आगे चलकर क्रमशः वे उग्र विचार मंद पड़ते गये. पर गुरूकुलीय जीवन के, जिसका 1906 में परिस्थितिवश अंत हो गया, संस्कार और भावनाएं जीवन में रहरहकर अपना प्रभाव दिखाती रहीं.

     वर्षों तक नंगे पैरों चलने के बाद, कपड़े का जूता ही पहना. 1909 में ‘शास्त्राr’ की उपाधि लेते समय बरबस पाजामा बनवाना पड़ा था, पर उसे भी केवल एक ही दिन पहना. 1911 तक मन इंग्लिश पढ़ने का विरोध ही करता रहा, क्योंकि वह हमारी राजनीतिक दासता की निशानी थी.

     यह है बचपन के गुरूकुलीय जीवन के स्वप्न की कहानी.

     पर आश्चर्य है अब 80 वर्ष की अवस्था में वे ही स्वप्न पुनः जागृत अवस्था में आते हुए दीख रहे हैं. इसी से मेरी कविता ‘अमृतस्य कला दिव्या’ के अंत में ये भाव स्वयं सामने आ गये हैंः

तदेवं निर्भयःशांत आत्मन्येवात्मनास्थितः।
योगेनान्तेतनुं त्यक्त्वाब्रह्मनिर्वाणमात्नुयाम्।
एषाशीराशिषां श्रेष्ठा मम जीवनसंगिनी।
वर्तते।़प्युनुवर्तेत सर्वदेति मदीप्सितम्।।

     अर्थात्, सो इस प्रकार निर्भय, शांत तथा केवल आत्मभाव में स्थित होकर, जीवन के अंत में योग द्वारा शरीर को छोड़कर मैं ब्रह्मानिर्वाण को प्राप्त करूं.

     जीवन की आकांक्षाओं में यह सर्वोत्कृष्ट आकांक्षा मेरे जीवन की अब तक संगिनी रही है, आगे भी यह सदा मेरे साथ रहे, यही मैं चाहता हूं.

(मार्च 1971)

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