♦ देवेंद्र दीक्षित
क्रांति का पाठ
पराधीन भारत की पार्लियामेंट में लोकमत जागृत करने के प्रचंड पुरुषार्थ के परिणाम-स्वरूप सरदार भगत सिंह ने बम फेंका. उनका और उनके वीर साथियों का मुक्ति की बलिवेदी पर करुण बलिदान हुआ. ब्रिटिश सल्तनत के इस अमानुषी कृत्य से सारे देश में हलचल मच गयी. इस आवेश की चिनगारी ने हमारे हृदय में भी रोष की ज्वाला प्रज्ज्वलित की. पिता बड़ौदा राज्य में शिक्षाधिकारी के उच्च पद पर नियुक्त थे. अतः किसी भी जाहिर हंगामे में हिस्सा लेना हमारे लिए सम्भव न था.
मेरे बड़े भैया कालेज में प्रथम वर्ष के छात्र थे. हम दोनों भाइयों ने मिलकर रसायन शास्त्र की एक किताब से ‘गन कोटन’ तैयार करने का एक फार्मूला ढूंढ़ निकाला. उस समय के सभी आबाल-वृद्धों की तरह हमारा मनोरथ भी बम तैयार करने का था. ‘गन कोटन’ तैयार करने के लिए ‘सल्फ्युरिक एसिड’ आवश्यक है. उस समय मैं बड़ौदा हाईस्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ रहा था. हाईस्कूल और कालेज का कम्पाउंडर लगभग एक ही था. हम दो भाइयों ने एक योजना बनायी. जब भैया का प्रयोगशाला में प्रयोग चल रहा हो- प्रयोगशाला का कक्ष मकान के सबसे नीचे के तल्ले पर था- उस समय खुली हुई खिड़की से वे मुझे ‘सल्फ्युरिक एसिड’ की शीशी दे दें और मैं उसे पतलून की जेब में छीपाकर साइकल से घर पहुंचा जाऊं.
सम्पूर्ण कार्य पूर्वयोजित योजना के अनुसार कार्यान्वित हुआ. लेकिन अंतिम क्षणों में एक आफत आ टपकी. एसिड की उस शीशी का ढक्कन कांच का था. हालांकि उसे मजबूती से बंद किया हुआ था, फीर भी मार्ग में साइकल से टकराने से शीशी का ढक्कन खुल गया और शुद्ध ‘सल्फ्युरिक एसिड’ मेरी जांघ से लेकर पैर तक पतलून की जेब को चीरता हुआ फैल गया. मेरा पैर बुरी तरह जल गया. उसके निशान आज भी मौजूद हैं. मां के वात्सल्य ने हमारी इस करतूत की जानकारी पिताजी को नहीं होने दी. नहीं तो उसके बदले में पिताजी से भी कुछ प्रसादी प्राप्त होती. तब से बम बनाने के मनोरथ को मैंने जीवन भर के लिए छोड़ दिया. शायद रसायनशास्त्र के प्रति मेरी आजीवन घृणा का यह भी एक कारण हो सकता है?
(मई 2071)