फागुन की धूप सरीखे धर्मवीर इलाहाबादी

♦  पुष्पा भारती    >

होली शब्द के उच्चारण मात्र से मन बचपन की यादों से जुड़ जाता है तब घर-घर में होली जलाई जाती, ढेर सारे पकवान बनते. सालभर की दुश्मनियां होली में होम करके दूसरे दिन सुबह से सारे मोहल्ले के लोग खूब रंग-गुलाल से होली खेलते थे. मन के मैल रंग से धुल जाते और खुले हुए धुले मन से जीवन में फिर से प्रेम, प्यार का वातावरण बना लिया जाता. अब न वह परम्पराएं रहीं न मेल मोहब्बत, न त्योहारों के सही संदर्भ और अर्थ!

पर ज़माने की दौड़ में सबसे आगे बढ़कर बेखौफ़ कदम बढ़ाने वाले धर्मवीर भारती महोदय अपनी संस्कृति, अपनी तहज़ीब और परम्पराओं के हमेशा कायल रहे थे. 1960 में जब बम्बई में रहने आये तो देखा होली के दिन यहां-वहां केवल कुछ बच्चे पानी के गुब्बारे मार-मारकर एक दूसरे को भिगो रहे होते- बहुत गज्यादा हुआ तो एक-दूसरे के पीछे भाग-भाग कर गालों पर गुलाल मल देते. ई ई ऊ ऊ हो हो कि किलकती आवाज़ें…. और बस हो गयी होली. सन् 1960 के होली अंक के साथ ही उन्होंने ‘धर्मयुग’ का संपादन शुरू किया था. खुश थे. घर की बालकनी से बाहर का नज़ारा देखने को खड़े हुए तो हमेशा की तरह लोगों की आवाजाही चालू थी. मजाल है कि कोई उनके कड़क त्री वाले कपड़ों में एक रंग का छींटा भी मार सके. कहीं रंग नहीं, रौनक नहीं गीत-संगीत नहीं. उदास हो गये. पता चला यहां तो सारे भैया लोग (जी हां, उत्तर भारतीयों को यहां इसी नाम से पुकारते हैं) जुहू के समुंदर तट पर इकट्ठे होकर होली खेलते हैं. कहा गया, वहां जाकर देखें होली की धूम. आप अपने इलाहाबाद को भूल जाएंगे.

सो अगले बरस पूरी तैयारी के साथ हौंस लिये वहां गये. देखी रंग गुलाल की नज़ाकत कम और भांग, यहां तब कि शराब और ठर्रे के नशे से सराबोर और हुड़दंग भरी बम्बइया होली. मायूस होकर घर लौट आये. निश्चय किया कि अपनी परम्पराओं और त्योहारों से कटकर तो नहीं ही जियेंगे. अगले बरस कुछ न कुछ नयी शुरूआत करेंगे. जब होली आने वाली थी तब लखनऊ, इलाहाबाद से टेसू के फूल मंगाये गये. रातभर गरम पानी में भिगोकर उनका महकदार रंग बनाया गया. हरा, पीला, नीला, लाल, गुलाल थाल भर-भर इकट्ठा किया गया. खार के बनारसी हलवाई की दुकान पर गुझिया और नमकीन का ऑर्डर दिया गया. दुकान के मालिक मोतीलाल मिश्र स्वयं कविता कहते थे, वे भी भारती जी के इस प्रयास के साथ पूरी हौंस से जुट गये. बम्बई में खुली जगह भला कहां नसीब. सौभाग्य से तब हम सीतामहल नाम की इमारत के टेरेस फ्लैट में रहते थे. सो सारे दोस्त परिवारों के साथ जुटे होली का सुहाना माहौल जी भर कर जीया गया.

पुराने दिन बहुरे. हर बरस मित्र मंडली में इज़ाफा होता गया. खूब चर्चे होने लगे इस होली के. फिर जब सारिका के सम्पादक होकर कमलेश्वर भी बम्बई आ गये तब रंग और भी चटख होने लगे. उनके घर के बाथ टब में जब देवर लोग भाभियों को डुबोते और जब भतीजे भतीजियां अपनी माताओं की दुर्गति देखकर सहम जाते तो गायत्री भाभी रंग-बिरंगी मीठी गोलियां और चॉकलेट देकर उनकी मासूम हंसी उन्हें लौटाती.

होली की बहार जीवन में वापस आ गयी थी कि 1969 में हम बांद्रा पूर्व में रहने आ गये. चारों ओर बड़ी ही खूबसूरत हरियाली से घिरी यह साहित्य सहवास की कालोनी भारतीजी के मन को बहुत भा गयी. पर यहां का भी वही हाल कि दीवाली पर तो खूब बम-पटाखे फूटते. सारे घरों की बालकनियां झिलमिलाती रंग-बिरंगी रोशनी और मन भावन कंदीलों से जगमग रहती पर होली पर वही सांय सांय सुनसान. तो हमने वहां अपने बच्चों के दोस्तों को होली की अहमियत समझायी और एक टोली तैयार की जिसने गणेश चतुर्थी की परम्परा के अनुसार घर-घर जाकर वर्गणी इकट्ठी की. और प्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती शांता शेल्के की देखरेख में प्रभुणे जी के साथ जाकर बच्चे होली जलाने की लकड़ी खरीदकर लाये. रंग गुलाल नारियल और मिठाई लाये. कालोनी के बीचोबीच बच्चों के खेलने के लिए एक छोटा-सा मैदान है. इसी में खेला करता था नन्हा-मुन्हा सचिन तेंदूलकर. वहां होली जलायी गयी. पहले बरस तो लोग अपनी-अपनी बालकनियों से झांकते रहे. थोड़े-से अभिभावक ही पहुंचे. काफी बच्चे ही मज़ा लेते रहे. अगले वर्षों में धीरे-धीरे खूब लोग जुटते रहे और आजतक यह होली दहन की परम्परा जारी है. माहौल बनने लगा तो भारतीजी ने सोचा अब होली खेलने की परंपरा भी शुरू कर देनी चाहिए.

एक बड़ा-सा ड्रम लाया गया. मोटर-गाड़ियों के लिए बने गैरेज में रखकर रंग से भर दिया गया. दर्जनों पिचकारियां लायी गयीं. खूब सारी मिठाइयां और नमकीन ठंडाई का इंतजाम किया गया और प्रसिद्ध नर्तक गोपीकृष्ण की शिष्या और खुद एक नामचीन लेखिका निरुपमा सेवती के साथ मिलकर, लोकगीत और लोकनृत्य का ठाठ जमाया गया. अब आलम यह है कि प्रसिद्ध डोगरी कवयित्री पद्मा सचदेव टनाटन ढोलक बजा रही हैं, फाग गाये जा रहे हैं और निरुपमा जी छमाछम नाच रही हैं. पिछले कुछ वर्षों से होली जलायी जाने के कारण माहौल बन ही चुका था. उसके बाद खुशी-खुशी चाव से कुछ गुजराती, मराठी मित्र शामिल होने लगे. फिर तो भारतीजी अपने कुर्ते जेबों में गुलाल भर-भरकर टोली बना-बनाकर निकलते. खास भाभियों के लिए डुबोकर सिल्वर कलर भी रख लेते थे. सबसे पहले बगल की पत्रकार कालोनी में जाते. चित्रा और अवध मुद्गल, मनमोहन सरल, गणेश मंत्री, आनंद प्रकाश सिंह, श्रीधर पाठक, लता लाल और वयोवृद्ध किशोरीरमण टंडन आदि को इकट्ठा करते हुए मुहल्ले का चक्कर लगाते. अपनी टोली को और बड़ी बनाते हुए शब्द कुमार के घर में एकत्र होते, क्योंकि उनके घर की बाउंड्री के भीतर भी खूब सारी ज़मीन थी. वहां होलियारों की मस्तानी टोली फागुनी गुनगुनी धूप में सुस्ताती. शब्द कुमार की पत्नी कांजी वड़े बहुत अच्छे बनाती थी. छककर कांजी का सेवन होता. दालमोट गुझिया उड़ाई जाती और फिर जमती होली की महफिल. शशिभूषण वाजपेयी की पत्नी अपनी भाभी के साथ सिर पर पल्ला डाले नाचती. ढोलक बजती और गाया जाता-

मैं हूं नयी नवेली नार अलबेली
तुम तो राजा हो गुलाब के
मैं हूं चम्पा चमेली,
नार अलबेली
तुम तो राजा लड्डू और पेड़ा
मैं हूं गुड़ की भेली
नार अलबेली

क्या बताएं आपको कि क्या समा बंधता था. भारतीजी जिस तरह चहकते, महकते और मटकते थे तो कोई विश्वास ही नहीं करे कि यह वही कट्टर अनुशासन प्रिय सम्पादक है जो अपना प्रतिक्षण धर्मयुग के काम में झोंक देता है. और चाहता है कि सभी सहयोगी उसी निष्ठा के साथ हर पल काम में लगे रहें. व्यर्थ की गपशप में समय नष्ट न किया जाए.

आज भी सोच-सोच कर अचरज होता है कि अपने जीवन को कितने स्तर पर कितने तरह के लोगों के नाम कर लेते थे भारतीजी. उनके चले जाने के बाद मेरी ज़िंदगी तो कितनी वीरान, कितनी अंधेरी हो गयी है. मैं कभी ज़ाहिर नहीं होने देती. लेकिन यादों की जो विरासत वे मुझे दे गये हैं उसमें आज भी गुलाब, चम्पा, चमेली महकते हैं. रौशनी झिलमिलाती है. रंग बिखर पड़ते हैं. विद्यानिवास मिश्र ने भारतीजी के बारे में लिखा था- ‘फागुन की धूप सरीखे भारती.’ हर होली में उसी फागुन के गुनगुने धूप को महसूस करते हुए जीऊंगी. मेरा उदास होना वे सह नहीं पाते थे इसीलिए मुझे तो हंसते-खेलते जीना है. उनके साथ बिताया हुआ हर दिन होली होता था और रात दिवाली होती थी. 

(मार्च 2014)

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