पूर्ववत्

♦  राजेंद्र कुमार शर्मा     

     रेल्वे फाटक के बंद होते ही सड़क पर से गुजरता भीड़ का रेला इस तरह ठहर गया, गोया पानी का तेज बहाव किसी अप्रत्याशित दीवार से टकराकर ठहर गया हो. एक-आध कार, चार-पांच हाथठेले, कुछ रिक्शे और दस-बारह के करीब-करीब साइकल सवार. एकाएक रुकावट आ जाने से सब मन-ही-मन बुरी तरह सुलग रहे थे.

    फाटक कुछ इस तरह से बनाया गया था कि बंद होने के बाद, अगल-बगल या ऊपर-नीचे से निकलकर उस पार जाना कतई असम्भव था. शायद यही कारण था कि कुछ पैदल चलने वाले भी ठहर गये थे.

    अपना कीमती समय यों ही बर्बाद होता देख, लोगों का भीतरी गुस्सा अब पानी के फेन-सा बाहर निकला-फूटना चाह रहा था. भीड़ का रेला सिकुड़ा, तो गहरा हो गया.

    ‘यह भी कोई फाटक है, स्साला जब चाहे बंद हो जाता है. जैसे इसके बाप का राज है!’ एक आवाज़ उभरी.

    दूसरी आवाज़, पहली का समर्थन-सा करती हुई- ‘अरे भाई, यह खुला ही कब रहता है? मैंने तो इसे हमेशा बंद देखा है.’

    ‘अजीब मुसीबत है, न जाने कब तक इंतजार करना पड़ेगा.’ तीसरी आवाज़ आयी.

    ‘मुझे बहुत ही ज़रूरी काम से जाना था.’

    ‘बैंक बंद हो गया तो गये काम से.’

    सहसा इन सबसे अलग एक ज़ोरदार आवाज़ इस अस्त-व्यस्त वातावरण में उभरी-‘भाइयो! इस फाटक को हटाया भी जा सकता है. और… और वह भी हमेशा के लिए.’

    परेशान चेहरों पर जड़ी दो-दो आंखें सहसा ही उठ गयीं उधर. चूड़ीदार पाजामा-कुर्ता पहने एक सज्जन रिक्शे पर खड़े होकर बोल रहे थे. सहसा लोगों ने महसूस किया कि उनके चेहरे पर स्वाभिमान तथा आवाज़ में अतीव दृढ़ता है. फाटक की परेशानी से मुक्ति पाने की खुशी में फूलते हुए मन क्षणभर में वक्ता से इतने प्रभावित हो गये, जैसे अब उनका कल्याण कतई सुनिश्चित हो गया हो. एक ने प्रश्न किया- ‘आप कौन हैं, जो फाटक को हटा सकते हैं? आप रेलमंत्री हैं, या देश के प्रधानमंत्री?’

    भीड़ के एक बदतमीज टुकड़े ने ठहाका लगाया, लेकिन वे सज्जन इस छींटाकशी से जरा भी विचलित नहीं हुए, बल्कि तनकर खड़े हो गये. संयत वाणी में बोले भी- ‘भाइयों, यह सच है कि मैं न तो रेल-मंत्री हूं, न प्रधान मंत्री और न विधान-सभा का मेंबर-वेंबर. तो भी सबसे बड़ा आदमी हूं.’ मैं… मैं जनता का सेवक हूं भाइयों, गरीबों का हमदर्द. मजदूरों, ठेला वालों का दोस्त. मुझे लोग ‘नेता’ कहते हैं. मैं जानता हूं कि मैं छोटा आदमी इतने बड़े नाम के काबिल नहीं हूं, लेकिन मैं जनता के प्यार, स्नेह एवं श्रद्धा-भरे सम्बोधन का अपमान नहीं कर सकता. मैं… मैं आपको आश्वासन देता हूं कि अगर लोगों ने मुझे पूर्ण सहयोग दिया, तो मैं हमेशा के लिए इस फाटक को हटवा सकता हूं?

    जाने की उतावली वालों में से एक ने कहा- ‘हटाइये न, हम आपको पूरा सहयोग देंगे, हमें ज़रूर काम से जाना है.’

    ‘यही तो हमारे देशवासियों में बहुत बड़ी खामी है भाइयों कि हम सब अपनी-अपनी ही सोचते हैं. इस फाटक को इस वक्त के लिए हटाने से ही हमारी समस्या हल नहीं हो जायेगी. भाइयों, तुम याद रखो कि आज के युग में हमें हर काम, आने वाली पीढ़ी के लाभ-सुविधा की दृष्टि से करना चाहिए, न कि अपने क्षणिक लाभ-सुविधा के लिए. हमें इस फाटक को हमेशा के लिए हटाने का निश्चय करना होगा.’

    ‘यह कैसे हो सकता है?’

    इस बार नेताजी ज्यादा बुलंद आवाज़ में बोले- ‘आज के युग में हमें क्यों, कैसे, कब और कहां का इस्तेमाल करना छोड़ देना चाहिए. दूसरे देश के लोग जब चांद से चट्टानें तोड़कर ला सकते हैं, तो क्या हम धरती के इस रेल्वे फाटक को भी नहीं हटवा सकते?’

    ‘कैसे?’ भीड़ ने उसी अंदाज में कहा. नेताजी ने भीड़ को इस बार सरसरी नजर से देखा और महसूस किया कि सभी प्रभावित हो उनकी ही ओर देख रहे हैं. बोले- ‘भाइयों आज के युग में हर काम के लिए संघर्ष करना पड़ता है, आवाज़ बुलंद करनी पड़ती है और करना पड़ता है आंदोलन! इस फाटक को हटवाने के लिए हमें भी यही सब करना पड़ेगा. भाइयों, आज-अभी से हमें सामूहिक रूप से सरकार से यह मांग करनी होगी कि यहां, इस फाटक को हटाकर, एक पुल बनवाया जाये.’

    लोगों ने तालियां बजायी. नेताजी का उत्साह और बढ़ गया. बोले- ‘पुल बनवाने की मांगे को हमें सरकार के सामने रखना है. और इसके लिए अभी-यहीं से इन मोटरों, स्कूटरों, रिक्शों, साइकलों, ठेलों, पैदल चलने वालों का जुलूस बनाकर स्टेशन मास्टर के पास चलना होगा. अपनी मांग को उसके सामने रखकर उससे लिखित आश्वासन लेना होगा कि फाटक को हटवाकर जल्दी ही यहां पुल बनवाया जायेगा.’

    भीड़ ने उत्तेजित होकर कहा- ‘तैयार हैं. आप कहें, तो अभी इस फाटक को तोड़ भी सकते हैं.’

    ‘नहीं भाइयों, हमें कानून को हाथ में नहीं लेना है. सबसे पहले फाटक बंद करने वाले कर्मचारी से यह पूछना ज़रूरी है कि वह किसकी इजाजत से घंटो फाटक बंद रखता है.’

    भीड़ में से कोई चिल्लाया- ‘हां पूछना चाहिए, यही साला बदमाशी करता है.’

    नेताजी रिक्शे से नीचे उतर आये और उस व्यक्ति को इशारे से पास बुलाया, जो हाथ में लाल-हरी झंडियां लिये लाइन के पास खड़ा था. इधर नेताजी, उधर वह. और बीच में फाटक. नेताजी ने झल्लाकर कहा- ‘ऐ, फाटक खोलो!’

    कर्मचारी नेताजी के आदेश का मजाक उड़ाने के भाव-से मुस्कराया. नेताजी गरजे- ‘मैं कहता हूं, फाटक खोलो!’

    ‘फाटक नहीं खुल सकता है बाबू, गाड़ी आ रही है.’ कर्मचारी ने नम्रता से कहा.

    ‘तो फिर इतने पहले से क्यों बंद कर रखा है?’

    ‘यह स्टेशन मास्टर से पूछिये बाबू! हमें तो स्टेशन से जब फोन मिलता है, तो…’

    ‘तुम फोन सुन सकते हो, लेकिन परेशान जनता की आवाज़ नहीं सुन सकते?’ नेताजी ने इस बार गुस्से से तड़पकर कहा- ‘देश की जनता अपना कीमती समय यहां इस फाटक के पास खड़ी होकर नष्ट करती रहे, यह मैं कभी सहन नहीं कर सकता.’

    कर्मचारी खामोश था. नेताजी ने फिर घुड़की दी- ‘जवाब दो, नहीं तो…’

    कर्मचारी खामोश नहीं रह सका. बिगड़कर बोला- ‘ऐ बाबू, बेकार में हमारे सामने मत छांटिये. जाइये स्टेशन मास्टर के पास और वहीं गरजिये. बड़े आये कीमती समय वाले!’

    भीड़ नेता का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकी, चिल्लायी- ‘मारो साले को, हमारे नेता से ऐसी बातें करता है- बदतमीज!’

    भीड़ का सहयोग देखकर नेता उत्साह और आवेश से लबालब भर उठे, बोले- ‘नहीं भाइयों, कानून को हाथ में लेना ठीक नहीं. जनता के लिए मुझे तो रोज ही पग-पग पर ऐसा अपमान सहन करना पड़ता है. भाइयों, मैं तो आप लोगों के लिए अपनी जान भी दे सकता हूं.’

    वातावरण तालियों से गूंज उठा. फाटक के पास अच्छा-खासा मजमा जमा हो गया था. नेताजी कुछ और कहना चाहते थे कि ट्रेन आने की आवाज़ सुनायी दी. लोगों का ध्यान नेताजी से भटकर उधर चला गया. सब अपनी सवारियों के पास आकर खड़े हो गये, फाटक पार को तैयार.

    ट्रेन धड़धड़ाती हुई गुजर गयी.

    लोग फाटक खुलने की प्रतीक्षा में बेताब थे, लेकिन पांच-सात मिनिट बीत जाने पर भी जब उसके खुलने के आसार नजर नहीं आये, तो नेताजी ने मन-ही-मन कहा- ‘अच्छा हुआ, अब बात बनेगी.’

    भीड़ ने चिल्लाकर कहा- ‘फाटक खोलो!’

    कोई उत्तर नहीं.

    नेताजी संजीदगी से बोले- ‘भाइयों, मैंने तो पहले ही कहा था कि यह फाटक यों ही नहीं खुलेगा. यह इसी प्रकार बंद रहकर आपका कीमती समय नष्ट करता रहेगा. कितनी शर्मनाक बात है! मैं कहता हूं, हमें इस अन्याय का विरोध करना चाहिए. हां विरोध की शुरुआत है- विद्रोह, आंदोलन, सत्याग्रह.’

    तभी वह रेल-कर्मचारी पुनः दिखाई पड़ा. उसके हाथ में वैसी ही लाल-हरी झंडियां थीं और वह सतर्क निगाहों से इधर-उधर देख रहा था.

    एक आदमी ने चिल्लाकर कहा- ‘अबे ओ उल्लू के पट्ठे, जब गाड़ी चली गयी तो फाटक क्या अपने बाप की बारात गुजरने के लिए बंद कर रखा है?’

    उसने चौंककर उत्तर दिया- ‘ऐ बाबू, जबान सम्भालकर बात करो, वरना मेरे बाप की बारात तो नहीं, तुम्हारा जनाजा ज़रूर गुजर जायेगा यहां से.’

    दूसरा बोला- ‘कबूतर की औलाद, जरा इधर तो आ, भीतर से क्या गुटर-गुट करता है? एक झापड़ का तो है नहीं, और बात करता है जनाजे की.’

    नेताजी ने मौका देखकर कहा- ‘भाइयों, किसी को गाली देना हमारे अहिंसा धर्म के खिलाफ… क्यों भाई, जब गाड़ी निकल गयी, तो फाटक खोलने में क्या हर्ज है?’

    नेताजी का नम्र स्वर सुनकर कर्मचारी भी ठंडा हो गया, बोला- ‘अभी मालगाड़ी आ रही है बाबू!’

    ‘तो क्या जनता दिन-भर यों ही खड़ी रहकर…’

    ‘हमें क्या मालूम, स्टेशन मास्टर से जाकर पूछिये.’ कर्मचारी ने जब नेताजी की बात काटकर कहा, तो वे पलटकर भीड़ से बोले- ‘भाइयो, हमें अब जल्दी ही जुलूस के रूप में स्टेशन मास्टर के पास चलना चाहिए और मांग पेश करनी चाहिए कि शीघ्रतिशीघ्र इस फाटक की जगह पुल बने, वरना हम उग्र आंदोलन करेंगे. भाइयों, हो सकता है कि यह आंदोलन काफी समय तक जारी रखना पड़े, अतः इसके लिए हमें तीन सदस्यों की एक समिति इसी समय बना लेनी चाहिए.’

    तालियों के बीच भीड़ में से एक आवाज़ उभरी- ‘एक सदस्य तो आप ही हैं.’

    इसी समय एक कार वाले सेठ ने नेताजी के कान में धीरे-से कुछ कहा नेताजी की बांछें खिल गयीं. प्रसन्न हो बोले- ‘मैं आप के आदेश का पालन करता हूं. भाइयों, आपको शायद नहीं मालूम कि हमारे इस ‘फाटक हटवा-पुल बनवा’ आंदोलन में इस शहर के सबसे बड़े उद्योगपति भी शामिल हैं. चंदे के रूप में उन्होंने एक हजार रुपये देने का वादा किया हैं. मैं… मैं समिति के दूसरे सदस्य के लिए उनका नाम प्रस्तावित करता हूं.’

    ‘हमें मंजूर है.’ भीड़ चिल्लायी.

    नेताजी ने अब अपना आसन उद्योगपति की कार की छत पर जमाया, बोले- अब एक सदस्य आप अपने बीच से चुनिए. यहां, समाज के हर तबके के लोग हैं. सरकार को हम यह बता देना चाहते हैं कि अब हमारा समाज अन्याय नहीं सह सकता.

    तालियों की गड़गड़ाहट!

    ‘अगर हमारी मांग यों स्वीकार कर ली गयी, तो ठीक है, वरना इसी फाटक पर हम क्रमशः सत्याग्रह, अनशन और आत्मदाह करेंगे और… और अपनी मांग मनवायेंगे. दोनों फाटकों के बीच रेल लाइन पर मोटरों, ठेलों, रिक्शों, साइकलों और जनता का जमाव होगा. हम भी देखेंगे और जनता का जमाव होगा. हम भी देखेंगे कि यहां से गाड़ियां कैसे गुजरती है… अब आपके सामने इस शहर के सबसे बड़े उद्योगपति, इस आंदोलन पर प्रकाश डालेंगे.’

    लोगों ने दुगुने जोश से तालियां बजायीं.

    थुलथुले शरीर वाले एक सज्जन हाथ जोड़कर बोले- ‘भाइयों, मैं तो बस जनता का सेवक हूं. जनता का दुख-दर्द मुझसे नहीं देखा जाता. इस फाटक से जनता को बहुत परेशान होती है- देखिये, एक घंटा पहले ही ‘नारी कल्याण केंद्र’ पहुंचना था. वहां देश की अबलाएं उद्घाटन के लिए मेरा इंतज़ार कर रही होंगी. मैं इस ‘फाटक हटाओ’ आंदोलन में तन-मन-धन से आपकी सहायता करूंगा.’

    अब जुलूस की कार्रवाई शुरू होती है. सेठजी के चुप होते ही नेताजी ने कहा- ‘हमें नारे लगाते जाना है- स्टेशन मास्टर, मुर्दाबाद! फाटक हटकर रहेगा! पुल बनकर रहेगा! मंत्री इस्तीफा दें.’

    देखते-ही-देखते फाटक के आस-पास का वातावरण नारों से गूंज उठा. लोग इतने उत्तेजित हो उठे कि उन्हें सिवा नेताजी के और कुछ नहीं सूझ रहा था. मालगाड़ी कब गुजर गयी, इसका आभास तक नहीं हुआ.

    नेताजी के पीछे-पीछे सब लोग स्टेशन की ओर बढ़ रहे थे कि खड़खड़ाता हुआ फाटक खुल गया. लोग चौंककर तंद्रामुक्त-से हो गये और धड़ाधड़ लाइन पार करके बढ़ने लगे अपने गंतव्य की ओर.

    नेताजी चिल्ला रहे थे- ‘भाइयों! ठहरिये! हमें फाटक हटवाकर पुल बनवाना है. भाइयों, हमें एक और सदस्य चुनना है. उद्योगपतिजी से एक हजार का चंदा…’ पर कोई नहीं रुका.

    और तभी वह मोटर भी चल पड़ी, जिस पर खड़े हुए नेताजी भाषण कर रहे थे. इस अप्रत्याशित झटके को वे सम्भाल नहीं सके और औंधे मुंह गिरे जमीन पर. तब तक सब फाटक के पार हो चुके थे.

    पलक झपकते भर में ही नेताजी अपनी चोट को भूलकर धूल-भरे कपड़ों को झाड़ते हुए उठे. उधर-इधर देखा, तो सब कुछ पूर्ववत् चल रहा था.

(मई  2071)

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