‘मेरा यह आभार संभाल कर रखें’ – अमृता प्रीतम के नाम बिज्जी का पत्र

सारे समयों का सच

गगन – अमृताजी, आपको क्या लगता है, हमारी पंजाबी कहानी को, हर चीज़ का अंश होने के बाद कौन-सी बात बिल्कुल साधारण बना देती है? खासकर जब हम उसे भारतीय कहानी के सामने रखकर देखते हैं, तब? अक्सर ऐसा होता है कि जो कहानी हमें मूल में बहुत प्रभावित करती है, अनूदित होते ही एकाएक अपनी कोई बहुत कोमल चीज़ खोकर सीमित हो जाती है.

अमृताजी –  शायद इसीलिए कि उसमें कला के, या सोच के पहलू से, विशाल अनुभव नहीं हैं. राजस्थानी के लेखक हैं- विजयदान देथा ‘बिज्जी’. वह लोक-कहानियों की सूरत में कहानी बयान करते हैं और बीच में कहीं एक स्तर पर वह ऐसी बात कह जाते हैं कि कहानी का सारा आयाम ही बदल जाता है. वह एकदम आज की कहानी हो जाती है. यह उनके पास बहुत खूबसूरत क्राफ्ट है, और यह सिर्फ क्राफ्ट ही नहीं है. इसके पीछे एक पूरी विचारधारा है, जो पुरानी बात कहते हुए भी उस कहानी को शाश्वत कर देती है- सारे समयों के लिए सच!

गगन –  अपने समकालीनों में आपको कौन-कौन से लेखक उस सच को छू सकने वाले लगे, जो आपका अपना था?

अमृताजी –  अगर ज़बान की और स्थान की सरहद पर पांव रखकर लांघ जाऊं, तो सभी मेरे अपने हैं, जिन्होंने उस सच को छुआ है. मुझे आयन रैंड के किरदार कभी नहीं भूलेंगे. मुझे कजान जाकिस के किरदार नहीं भूल सकते. बहुत जगहों पर विजयदान देथा (बिज्जी) के भी नहीं.

‘मेरा यह आभार संभाल कर रखें’

(अमृता प्रीतम के नाम बिज्जी का पत्र)

17-12-1985

आदरणीय अमृता प्रीतम,

वक्त तो वाकई क़ाफी गुजर गया, आपको पत्र लिखे हुए, पर याद कभी-कभार आ जाती है. दिल्ली आने पर सम्पर्क भी तो नहीं किया, बस एक बार की मधुर स्मृति हिये में संजोये रखी है; जिस दिन इमरोज भाई के साथ आपके घर का कोना-कोना आंखें फाड़ कर स्वप्न की भांति देखा था. तत्पश्चात् कई बार उसी की जुगाली करके तृप्त हो गया हूं. सुरुचिपूर्ण प्रकाशन देखे, ‘नागमणि’ के अंक देखे. काफी समय तक मित्रों से उस मुलाकात की चर्चा करता रहा. धीरे-धीरे मैं अपने ताने-बाने की चदरिया बुनता रहा और आप ‘रसीदी टिकट’ से शेष यात्रा करती रहीं. आज पश्चात्ताप की कोई सीमा नहीं है कि कई बार दिल्ली पड़ाव के दौरान, आने की प्रबल इच्छा होते हुए भी आपके घर क्यूं नहीं आया? अब ऐसी भूल नहीं होगी.

फिर एक बार आकाशवाणी जयपुर के समारोह में मित्रों ने आग्रहपूर्वक आपके भाषण की टेप सुनायी. आपने मेरे लिए शुरुआत में कुछ पंक्तियां कहीं थीं. मैंने सोचा शिष्टाचार के नाते आपने मेरी प्रशंसा कर दी है. किसी प्रांत की धरती पर सांस लेते समय वहां के किसी एक साहित्यकार का बखान करना शिष्टाचार का तकाजा है. मैंने उसे भी गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया. हाड़-मांस व रक्त-मज्जा से बना है मेरा पुतला, लाख लेखक की मर्यादा का निबाह करूं, अपनी प्रशंसा से खुशी तो होती ही है, पर उसका प्रदर्शन करने, उसे भुनाने का मन नहीं करता.

किंतु ‘समकालीन भारतीय-साहित्य’ के बाईसवें अंक में आपका गगन गिल के साथ साक्षात्कार पढ़कर तो आश्चर्य-चकित रह गया. ऐसा लगा कि मेरी मुर्दा देह में पांखें उग आयी हों. गांव से जोधपुर बस में जा रहा था. बहुत ही उदास व गमगीन. आर्थिक संकट के पाटों से कुचला हुआ. ऐसा हताश मैं कभी नहीं हुआ था. हालांकि तीस-पैंतीस साल से आर्थिक संकट का ऐसा ही ढर्रा चल रहा है. पर इस बार कुछ बोझ असह्य-सा हो उठा था. दूसरे साहित्यकारों व कलाकारों की विपदा से तुलना करके अपनी विपदा को अधिक विषम समझना, मुझे अपराध-सा महसूस होता है, पर इतना ज़रूर कह सकता हूं कि सृजन की भयावह राह पर मुझे भी कम सहन नहीं करना पड़ा. मैंने एक-एक अक्षर को विपदाओं की कोख से जन्म दिया है. किसी पर एहसान नहीं है, मेरे जीवन का अर्थ यही था, मैं इसके  अलावा कुछ भी अन्य कर सकने के लिए अक्षम था. अपना रोना भी अच्छा नहीं लगता. यही तो सृजन की उर्वरा कोख है. पर उस दिन मायूसी नितांत असह्य होती जा रही थी. संकट की उस त्रासदी में आपकी पंक्तियों ने जैसे मेरे अंतस को अमृत से सराबोर कर दिया हो. दूसरे ही पल सारा क्लेश हवा हो गया. लगा कि हवा मेरी ही उड़ान का अनुकरण कर रही है. मुर्दे में प्राण फूंकने का मायना अच्छी तरह समझ में आया. यह अप्रत्याशित जीवन-दान मैं कभी बिसर नहीं सकूंगा. सूखते पौधे पर जैसे बादल ही फूट पड़ा हो. अभेद्य अंधकार से भरा अंतस अविलम्ब जगमगा उठा. आप से मिलने के लिये मन बार-बार अबोध बच्चे की नाईं मचल उठा. यदि दो दिन बाद ही बीमार न हो गया होता तो अब तक आपसे मिलने का उत्साह साकार हो गया होता. पत्र न लिखकर स्वयं उपस्थित होता. पंद्रह दिन बाद कल चलने-फिरने लायक हुआ हूं. सर्दी की प्रीत सीने में दुबक कर ऐसी बैठी कि पस्त ही कर डाला.

हिंदी के अधिकांश बड़े लेखक नितांत व्यवसायी हैं. जब तक मुनाफे का सौदा नहीं होता, वे किसी साथी लेखक की प्रशंसा नहीं कर सकते. अपनी ही देह में दुबके रहते हैं. अपने सृजन की तुलना में उन्हें सारी दुनिया ही छोटी नज़र आती है. उन्हें दोष नहीं देता,  उनके संस्कार ही ऐसे हैं. अपने स्वार्थ के अलावा उन्हें चांद-सूरज भी नज़र नहीं आते. फिर भी इने-गिने सामान्य लेखकों ने, (नामवरी की दृष्टि से सामान्य) मर्मज्ञ पाठकों ने मुझे अपने हृदय में उछाह से स्थान दिया है, और वही मेरी एकमात्र अखूट पूंजी है. सूखे तृषित गले को आपने अपने स्तन से जो अमृत-पान कराया है- उसकी शुभ-सूचना तो आपके पास पहुंचा दूं- यत्किंचित कृतज्ञता तो प्रकट कर दूं. मेरे लिए आपकी यह सहज आत्मीय सराहना सर्वोच्च पुरस्कार है. जिससे मुझमें सौ हाथियों जितना बल संचरित हो गया. मेरा यह निश्छल आभार आपको अंगीकार करना ही होगा. शायद मुलाकात के समय मेरी वाणी इतनी मुखर नहीं हो पाती.

इमरोज भाई से कहें, मेरा यह आभार संभाल कर रखें.

आपका

fिंबज्जी

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