न कोई कर्म ऊंचा है, न नीचा

कुलपति के. एम. मुनशी

कुलपति के. एम. मुनशी

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, “क्या कर्म है और क्या अकर्म, इस विषय में बुद्घिमानों की बुद्घि भी चकरा जाती है. बहुत से लोगों ने इस कठिनाई में कर्म-संन्यास की शरण ली है. संसार से दूर हट जाने में, गुफाओं और जंगलों में जीवन की सिद्घि खोजी है. परंतु अकर्मण्यता को जीवन का ध्येय मानना निरा पागलपन है.

अपना स्वकर्म व्यक्ति को करना ही होगा. उससे निकल भागने के प्रयास से केवल मन और कर्म के बीच विच्छेद होगा, जीवन की गतिशील एकता टूट जाएगी, और असत्य उत्पन्न होगा.

स्वभाव द्वारा प्रेरित कार्य को ध्यानपूर्वक अभ्यास से भिन्न दिशा में मोड़ा जा सकता है. लेकिन केवल निषेधात्मक प्रयत्न से स्वभाव की नींव हिल उठती है, और कार्य का संतुलन जाता रहता है. इसीलिए कृष्ण कहते हैं कि अकर्म की अपेक्षा कर्म हमेशा बढ़कर है.

सवाल यह उठता है कि कौन कर्म मेरे स्वधर्म और कौन परधर्म? यह खोज केवल तर्क से नहीं की जा सकती. इस खोज में दो प्रकार के कर्म सामने दिखलाई पड़ते हैं– एक वे जो मेरे जन्म के वर्ण या संयोग द्वारा निश्चित हुए हैं; और दूसरे वे जिनके पीछे मेरा मन दौड़ा करता है. यह दूसरे प्रकार के कर्म मन का भ्रम सिद्घ हो सकते हैं, असंयमी मन का परिणाम भी हो सकते हैं. इसलिए निमित्त कर्म की खोज का प्रारम्भ जन्म या संयोगों द्वारा निश्चित कर्म करने की शिक्षा प्राप्त करके ही करना चाहिए. ऐसा करने पर अंत में उसे अपना स्वधर्म अर्थात लाक्षणिक कर्म प्राप्त हो जाएगा. वैसे जो कर्म सामने हो वह भी कुछ परिस्थितियों में स्वकर्म हो जाता है. सभी कर्म कर्म हैं न कोई ऊंचा है, न कोई नीचा. महत्त्वपूर्ण यह है कि कर्म किस भावना से किया जाता है. गीता के अनुसार मनुष्य सच्ची भावना पैदा कर ले तो उसका स्वकर्म और स्वसत्य, दोनों प्रकट होकर उसके सामने खड़े हो जाएंगे.

 (कुलपति के. एम. मुनशी भारतीय विद्या भवन के संस्थापक थे)