निर्वासित – सेमुएल बैकेट

नोबेल-कथा

 

मूल रूप से आयरिश लेखक सेमुएल बैकेट का जन्म 13 अप्रैल, 1906 को हुआ था. इनकी शिक्षा जर्मनी, इंग्लैंड और फ्रांस में हुई. बाद में ये स्थायी रूप से फ्रांस में ही बस गये और एक फ्रांसीसी साहित्यकार के रूप में ही विख्यात हुए. इनकी प्रसिद्धि एक नाटककार के रूप में ज़्यादा रही है, परंतु इन्होंने नाटकों के अतिरिक्त कहानियां और उपन्यास भी लिखे हैं. नाट्य-कला को प्रयोग की नयी ज़मीन पर खड़ा करने के कारण इनकी चर्चा विश्व भर में हुई है.

सन् 1969 में वेटिंग फॉर गोदो के लिए इन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया.

इनकी अन्य प्रमुख पुस्तकें हैं- ‘कम्पनी’, ‘रॉकबाई एंड अदर पीसेज’, ‘थ्री ऑकेजनल पीसेज’, ‘नो हाऊ ऑन द लास्ट वन्स’, ‘फर्स्ट लव’, ‘मर्सियर एंड कामियर’, ‘मैलोन डाइज’, ‘इल सीन इल सेड’, ‘मोर प्रिक्स देन प्रिक्स’, ‘आल देट फाल’ आदि.

सीढ़ियां बहुत नहीं थीं. मैंने उन्हें अनेक बार गिना था. ऊपर चढ़ते हुए भी और नीचे उतरते हुए भी, मगर उनकी संख्या मेरे दिमाग से निकल गयी थी. मुझे यह कभी पता नहीं चल सका कि पटरी पर पांव रखते समय एक गिना जाए और पहली सीढ़ी पर पांव रखते समय दो-तीन और आगे गिना जाए या पटरी को गिनती में शामिल न किया जाए. जीने के ऊपर पहुंचकर भी मुझे यही दुविधा घेरे रही. दूसरी दिशा में, अर्थात ऊपर से नीचे भी वही बात थी. हालांकि ‘दुविधा’ शब्द बहुत वज़नदार नहीं है. सच बात तो यह थी कि मुझे यह मालूम नहीं था कि कहां से शुरू करूं और कहां खत्म! नतीजा यह हुआ कि गिनती में बिल्कुल भिन्न संख्याएं आयीं और मुझे यह कभी पता नहीं चल सका कि उनमें कौन-सी सही है. और जब मैं यह कहता हूं कि वह संख्या मेरे दिमाग से निकल गयी है तो मेरा मतलब यह बताने का है कि उन तीनों संख्याओं में से एक भी मेरे दिमाग में नहीं रही है. यह सच है कि मुझे इनमें से किसी भी संख्या के लिए अपना दिमाग खोजना पड़ेगा और जाहिर है कि वे संख्याएं वहीं मिल भी सकती हैं.

बहरहाल सीढ़ियों की संख्या का कोई महत्त्व नहीं होता. याद रखने की जो बात है और जिसका महत्त्व है, वह यह कि सीढ़ियां बहुत-सी नहीं थीं और यह मुझे याद था. यहां तक कि किसी बच्चे के लिए भी वे बहुत ज़्यादा नहीं थीं- ऐसे बच्चे के लिए जो आमतौर पर सीढ़ियां चढ़ता-उतरता है और रोज़ाना उन्हें देखने का आदी होता है.

लिहाजा जब मैं गिरा तो मुझे खास चोट नहीं लगी. जब मैं गिरा तो मुझे दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ सुनाई दी, जिससे मुझे कुछ राहत मिली. इसका मतलब यह था कि वे डंडे लेकर मेरे पीछे नहीं आ रहे थे और राहगीरों के सामने मुझे पीटने का उनका कोई इरादा नहीं था. क्योंकि अगर उनका यही इरादा होता तो वे हरगिज़ दरवाज़ा बंद नहीं करते, बल्कि इसे खुला छोड़ देते ताकि ड्योढ़ी में जमा लोग मुझे पिटते देखकर सबक लेते. लिहाजा अब उन्होंने मुझे बाहर निकालकर ही तसल्ली कर ली. गटर में जाकर विश्राम करने से पहले मेरे पास इतना समय बच गया था कि मैं अपने इस तर्क पर विचार कर सकता था.

इस हालात में कोई भी बात ऐसी नहीं थी, जो मुझे एकदम उठ खड़ा होने पर मजबूर करती. मैंने अपनी कोहनी पटरी पर टिका दी, अपने हाथ कानों पर रख लिये और उस स्थिति पर गौर करने लगा, जो मेरे लिए अपरिचित नहीं थी. लेकिन दुबारा दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ धीमी होने के बावजूद ठीक-ठीक सुनाई दी. मेरे हाथ पटरी पर टिके थे और टांगें उड़ने के लिए तैयार थीं. लेकिन वह तो मेरा ही हैट था, जो हवा में तैरता हुआ मेरी ओर बढ़ रहा था. मैंने उसे पकड़ लिया और पहन लिया. वे जो कुछ कर सकते थे, अपने परमात्मा के आदेश के अनुसार, ठीक ही कर रहे थे. वे इस हैट को अपने पास भी रख सकते थे लेकिन वह उनका नहीं था, लिहाजा उन्होंने मुझे वह लौटा दिया. लेकिन इतने में ही सारा भ्रम टूट गया.

मैं उठा और उठकर चल पड़ा. याद नहीं, उस समय मेरी कितनी उम्र थी. मेरे साथ जो कुछ घट चुका था, उसमें ऐसी कोई बात न थी, जो याद रहती. न उसमें बचपन का रिश्ता था और न मृत्यु का, बल्कि उसे देखकर बहुतों का बचपन और मृत्यु याद आ जाते थे और मैं न जाने कहां खो जाता था. किंतु यदि मैं कहूं कि उस वक्त मुझ पर शराब का आलम था तो शायद अतिश्योक्ति न होगा. मेरा खयाल है कि यही वह वक्त होता है, जब आदमी की सारी मानसिक शक्तियां उसके वश में होती हैं. जी हां, मेरा भी यही हाल था. मैंने सड़क पार की और उस मकान की ओर मुड़कर देखा, जहां से मुझे निकाला गया था. वहां से निकलते समय मैंने मुड़कर नहीं देखा. कितना खूबसूरत दृश्य था. खिड़कियों में जिरेनियम के पौधे लगे थे. जिरेनियम के पौधों पर मैंने कई साल लगाये थे. जिरेनियम अमूमन चलते-पुर्जे ग्राहकों जैसे होते हैं, लेकिन अंततः मेरी उनसे ऐसी पट गयी थी कि मैं उनके साथ जो चाहता था, कर लेता था. इस मकान के दरवाज़े का मैं हमेशा से बड़ा प्रशंसक रहा हूं, जो इसका जीना खत्म होते ही ऊपर दिखाई देता है. भला उसका चित्र कैसे खींचूं? एक विशाल-सा हरे रंग का दरवाज़ा था, जो ऐसा लगता था, मानो गर्मी के मौसम में हरी सफेद धारी वाले मकान में सजाया गया हो. दरवाज़ा एक ही रंग के दो खम्भों के बीच जमाया गया था और घंटी उसके दाहिनी ओर लगी थी. परदे बहुत ही सुरुचिपूर्ण थे. यहां तक कि जो धुआं चिमनी से उठता था और हवा मे फैलकर विलीन होता था, वह पड़ोसियों की चिमनियों के धुएं से कहीं अधिक दुखदायी था. मैंने नज़र उठाकर तीसरी और अंतिम मंज़िल की ओर देखा तो मेरे कमरे की खिड़की चौपट खुली पड़ी थी. चारों तरफ की स़फाई ज़ोर-शोर से हो रही थी. कुछ ही घंटे बाद वे खिड़की बंद कर देंगे, परदे खींच देंगे और सारे कमरे में कीटनाशी दवा छिड़क देंगे. मैं उन्हें भली-भांति जानता हूं. उस मकान में तो मैं मृत्यु का भी खुशी से स्वागत करता. मैंने अपने कल्पना-चक्षुओं से देखा- दरवाज़ा खुला और मेरे पैर बाहर को निकल आये.

मैं उस ओर देखकर डरा नहीं, क्योंकि मुझे मालूम था कि वे परदों के पीछे से जासूसी नहीं कर रहे हैं, जो वे, यदि चाहते तो, कर सकते थे. लेकिन उनकी रग-रग को पहचानता हूं. वे सब अपने-अपने अड्डों में चले गये थे और अपने कामों में लग गये थे.

इस सबके बावजूद मैंने उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया. मेरा अपना जन्मस्थान से परिचय बहुत गहरा नहीं था, न ही मुझे अपने बचपन, लड़कपन की घटनाएं याद थीं. और वे सब चीज़ें इतनी अधिक गड्डमड्ड थीं कि मैंने सोचा, शायद मेरा कहीं नाम-निशान भी न रहा हो. लेकिन मैं गलत था. मैं बाहर बहुत कम ही निकलता था. कभी खिड़की तक चला गया, परदे हटाये और ज़रा बाहर झांक लिया. लेकिन वहां से मैं एकदम कमरे के भीतर लौट आता, जहां बिस्तर बिछा होता. समस्त परिवेश से मुझे बड़ी उलझन होती थी. लेकिन ऐसे वक्त में मुझे क्या करना चाहिए, यह मैं अच्छी तरह जानता था. पहले मैंने अपनी निगाहें ऊपर आसमान की ओर उठायीं, जहां से असहाय को सहायता की उम्मीद होती है, जहां कोई सड़क नहीं है, जहां कोई भी बेफिक्र घूम-फिर सकता है- जैसे मरुस्थल में, वहां कोई चीज़ आंख के रास्ते में नहीं आती, जहां चाहे, जो चाहे देख सकते हैं. अलबत्ता हर आदमी की अपनी नज़र की सीमा ज़रूर होती है. जब मैं छोटा था तो मेरा खयाल था कि मैदानी जगहों में ज़िंदगी अधिक सुखकर होती है, लिहाजा मैं लूनबर्ग नामक बंजर जगह में चला गया. इसी मैदानी जीवन का सुख मेरे मस्तिष्क में बसा हुआ था, जो मुझे वहां ले गया.

मैं चल पड़ा. उस वक्त मेरी चाल देखने लायक थी. देह के निचले अवयवों में ऐसी कड़ाई महसूस हुई, मानो प्रकृति ने मुझे घुटने दिये ही नहीं. मेरे पैर कुछ अज़ीब आड़े-तिरछे पड़ रहे थे- कभी दायीं ओर कभी बायीं ओर को झुकते हुए. मैंने अक्सर अपनी इन खामियों को दूर करने की कोशिश की है- अपना धड़ सीधा रखता और घुटनों में कुछ लचक लाता था और मेरे पैर चलते समय एक दूसरे के ठीक सामने रहते थे. मेरा यह व्यवहार, मेरे खयाल से किसी हद तक ऐसी प्रवृत्ति के कारण बना है, जिसमें मैं पूरी तरह से कभी मुक्त नहीं हो पाया हूं और जैसा कि अपेक्षित था, उसने मेरे किशोर जीवन में मुझ पर अपनी छाप छोड़ी थी. यह वह उम्र होती है, जिसमें आदमी के चरित्र का निर्माण होता है और जहां तक मेरा सवाल है, यह उम्र तब से शुरू हुई, जब मैं कुर्सी के पीछे फुदकता रहता था. यह तीसरे दर्जे तक जारी रही, जहां मैंने अपनी पढ़ाई खत्म की थी. उस वक्त मुझे पतलून में पेशाब या टट्टी कर देने की बुरी आदत पड़ गयी थी. और यह दोनों काम मैं नियमित रूप से सुबह-सुबह लगभग दस-साढ़े दस बजे शुरू करता था और सूरज डूबने तक यह काम जारी रहता. मुझे यही महसूस होता, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. यह खयाल मेरे लिए असह्य था कि मैं अपने कपड़े बदल लूं या अपनी मां को सही बात बता दूं, जो मेरी मदद कर देती थी और बदले में कभी मुझसे कोई सवाल नहीं करती थी. मैं नहीं जानता, ऐसा क्यों होता था, लेकिन सारा दिन मैं अपनी नन्ही-नन्ही जांघों के बीच जलन और दुर्गंध या पिछले भाग में चिपचिपाहट लिए गुज़ार देता था.

मौसम अच्छा था. मैं सड़क पर बढ़ता गया, लेकिन जहां तक सम्भव हुआ, रहा पटरी पर ही. पटरी चाहे कितनी ही चौड़ी क्यों न हो, एक बार मैं चल पड़ा तो मेरे लिए उसकी चौड़ाई कभी काफी नहीं रहती और अजनबियों के लिए असुविधा पैदा करने से मुझे ऩफरत है. पुलिस के एक सिपाही ने मुझे रोका और कहा- ‘सड़क वाहनों के लिए है और पटरी पैदल यात्रियों के लिए.’ यह उक्ति मुझे वैसी ही लगी, जैसी ओल्ड टेस्टामेंट का कोई अंश. लिहाजा मैं पटरी पर चलने लगा, जैसे अपने किये पर पछतावा हुआ हो. फिर कोई बीस कदम चलने पर मुझे एक भयंकर धक्का लगा, किंतु मैं उसी पटरी पर जमा रहा और आखिर में एक बच्चे को बचाने की कोशिश में मुझे खुद को ज़मीन पर गिराना पड़ा.

मैं गिरा और अपने साथ एक बूढ़ी महिला को भी लेकर गिरा जो चमकीले और गोटे के कपड़े पहने हुए थी. उसका वज़न लगभग ढाई मन होगा. गिरकर जो वह चीखी-चिल्लाई तो भीड़ इकट्ठा हो गयी. मुझे पूरी उम्मीद थी कि उसकी जांघ की हड्डी टूट गयी होगी, बुढ़ियाओं की जांघ की हड्डी ही आसानी से टूटा करती है, लेकिन उसके साथ सिर्फ इतना ही नहीं हुआ. मैंने भीड़ जमा होती देख वहां से खिसक निकलने की सोची और बुदबुदाते हुए न जाने कौन-सी शपथ ली. मानो चोट मुझे ही लगी हो और दरअसल हुआ भी यही था. मगर मैं उसे साबित कैसे करता?

ज्यों ही मैंने वहां से खिसकना चाहा कि एक दूसरे सिपाही ने मुझे रोक लिया. वह हर तरह से पहले जैसा ही था. उसमें पहले से इतना अधिक साम्य था कि मुझे लगा कि कहीं वह पहला ही तो नहीं है. उसने मुझे बताया कि पटरी सभी के लिए है, मानो यह कहना चाहता हो कि मैं उन ‘सभी’ से अलग हूं. मैंने उससे कहा- ‘क्या आप यह चाहते हैं कि मैं गटर में गिर जाऊं?’ उसने जवाब दिया- ‘तुम चाहे भाड़ में जाओ, लेकिन दूसरों को चलने के लिए रास्ता छोड़ो. अगर तुम दूसरों की तरह ढंग से नहीं चल सकते तो तुम्हें घर से बाहर आने की ज़रूरत ही क्या है?’ और संयोग से मेरा भी यही खयाल था. उसने जो मेरे घर की बात कही, उसे सुनकर भी मुझे राहत मिली. ठीक उसी समय एक शव-यात्रा गुज़री, जैसा कि कभी-कभी हो ही जाता है. हैटों की जैसे हलचल मच गयी और उसी क्षण अनेक उंगलियां हरकत में दिखाई दीं. निजी रूप से, यदि मैं मजबूरी में भी क्रॉस का चिह्न बनाता तो मैं उसे ठीक ढंग से काटता. लेकिन जिस भौंडे और भद्दे ढंग से उन्होंने किया, उससे लगा, जैसे यों ही बला टाली हो.

मैं चटपट एक घोड़ागाड़ी में सवार हो गया. जिन लोगों को मैंने अभी-अभी गुज़रते देखा था और जो लोगों से बड़े ज़ोर-ज़ोर के साथ बहस कर रहे हैं, उनका मुझ पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा. मैं ऊंघ-सा रहा था कि गाड़ीवान की आवाज़ ने मुझे चौंका दिया. उसने खिड़की बंद होने पर दरवाज़ा खोला और मुझे पुकारा. मुझे उसकी मूंछों के अलावा और कुछ भी नहीं दिखाई दिया. ‘आपको जाना कहां है?’ उसने पूछा. वह अपनी सीट से उतरकर मुझसे केवल यही पूछने के लिए आया था. जहां तक मेरा अपना सवाल है, मैं शायद काफी आगे निकल आया था. मैंने अपने दिमाग पर ज़ोर दिया और उस सड़क या इमारत का नाम याद करने की कोशिश की. ‘क्या तुम्हारी गाड़ी बिकाऊ है?’ मैंने उससे पूछा और यह भी कहा- ‘मेरा मतलब है, बिना घोड़े के.’ मुझे भला घोड़े का क्या करना है? मगर मुझे गाड़ी का भी क्या करना है? ज़्यादा से ज़्यादा यही होगा कि मैं उसमें पैर पसारकर बैठा रहूं. मुझे खाना लाकर कौन देगा? ‘चलो, चिड़ियाघर ले चलो,’ मैंने कहा. राजधानी में चिड़ियाघर न हो, ऐसा बहुत कम देखा गया है. मैंने उससे ज़रा धीरे-धीरे चलने के लिए कहा. वह हंस दिया. शायद इस बात पर कि मैं यह भांप गया था कि वह बहुत तेज़ रफ्तार से मुझे चिड़ियाघर ले जाएगा. हो सकता है, वह इसलिए हंसा हो कि मैं उसकी गाड़ी खरीद रहा था या यह भी सम्भव है कि वह मुझ पर, मेरे व्यक्तित्व पर ही हंसा होगा, जिसकी उपस्थिति ने ही गाड़ी का स्वरूप बदल दिया हो.

जी हां, चाहे आपको अचरज ही क्यों न हो, लेकिन उस समय मेरे पास कुछ पैसे बचे हुए थे. मेरे पिताजी ने मरते समय जो छोटी-सी रकम छोड़ दी थी, उसके स्याह-सफेद का मैं ही मालिक था. मुझे अभी यही खयाल आता है कि कहीं पिताजी ने ये मेरे पैसों में से ही तो नहीं चुराये थे. क्योंकि उस वक्त मेरे पास कानीकौड़ी भी नहीं थी. मगर इसके बावजूद मेरी ज़िंदगी खूब मजे से चलती रही और एक हद तक मेरी इच्छानुसार ही चलती रही. इस प्रकार की स्थिति का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि खरीद शक्ति का नितांत अभाव होता है. जब आपके पास फूटी कौड़ी भी नहीं होती तो जहां भी आप शरण लेंगे, वहां से आपको हफ्ते के भीतर-भीतर निकाल ही दिया जाता है. ऐसी हालत में आपके घर का निश्चित पता होना तो असम्भव ही है, क्योंकि जब पैसा ही नहीं होगा तो घर कहां से आयेगा? यही कारण है कि मुझे इस बात का पता बहुत देर से चला कि वे किसी मामले को लेकर मेरी तलाश कर रहे हैं. इस बारे में उन्होंने क्या तरीका अपनाया, मैं नहीं जानता. मैं अखबार नहीं पढ़ता, न ही मुझे याद है कि उन वर्षों के दौरान मैंने किसी से कोई बात की हो. अलबत्ता तीन-चार बार भोजन के लिए मैंने ज़रूर अपनी जबान खोली थी. कुछ भी हो, मुझे इस बात का किसी न किसी तरह पता चल ही गया, वरना मुझे मिस्टर निद्दे नामक वकील के यहां जाने की क्या आवश्यकता थी. यह भी कैसी अज़ीब बात है कि लोग कुछ लोगों के नाम कभी भूल ही नहीं पाते, वरना मुझे वह अपने यहां क्यों आने देते. उन्होंने मेरी शिनाख्त की, जिसमें कुछ वक्त लगा. मैंने अपने हैट के अस्तर में अंकित अपने नाम के धातु के आद्यक्षर दिखाये. लेकिन उनसे कुछ सिद्ध होने के बजाय संदेह और बढ़ गया. उन्होंने मुझसे दस्तखत करने को कहा और खुद एक बेलनाकार रूल से खेलने लगे. रूल ऐसा था कि उससे आप बैल को भी मारकर गिरा सकते हैं. ‘अब इन्हें गिन लीजिए!’ वह बोले. एक युवा महिला, जो शायद भ्रष्ट थी, इस मुलाकात के समय गवाह के रूप में मौजूद थी. मैंने नोटों की गड्डी जेब में ठूंस ली तो उन्होंने मुझे ऐसा करने से रोका. मुझे खयाल आया कि उन्हें मेरे दस्तखत करने से पहले मुझसे नोट गिनने के लिए कहना चाहिए था. यही बात कायदे की भी थी. ‘ज़रूरत पड़ने पर मैं आपसे कहां मिल सकता हूं?’ उन्होंने पूछा. जीना उतरने पर मुझे सहसा कुछ सूझा. और तभी मैं लौटकर गया और उनसे पूछा- ‘ये पैसे आये कहां से?’ मैंने उनसे ज़ोर देकर यह भी कहा कि मुझे यह सवाल करने का पूरा-पूरा हक है. उन्होंने मुझे किसी महिला का नाम बताया, जो मैं भूल गया. शायद उसी महिला ने मुझे किसी समय अपने घुटनों पर झूला झुलाया था, जब मैं बच्चों के कपड़े पहनता था और मुझसे कुछ लाड़-प्यार किया जाता था. कभी-कभी यही काफी होता है. बचपन में ऐसा ही होता है. उससे आगे उम्र बढ़ने पर तो वह प्यार-दुलार समाप्त हो जाता है. इसी पैसे का प्रताप था कि मेरे पास अभी कुछ बाकी था, चाहे बहुत थोड़ा ही क्यों न हो.

मैंने विभाजक दीवार पर हाथ मारा और उसे तब तक थपथपाता रहा, जब तक कि गाड़ी रुक न गयी. गाड़ीवान मुझे कोसता हुआ अपनी सीट से उतरा. मैंने खिड़की का शीशा नीचे गिरा दिया ताकि वह दरवाज़ा न खोल सके, ‘दरवाज़ा खोलो! दरवाज़ा खोलो!’ वह चिल्लाया. उसका चेहरा गुस्से से लाल था, बल्कि बैंगनी हो गया था. न मालूम ऐसा उसके गुस्से की वजह से हुआ था या तेज़ हवा के थपेड़ों ने उसका मुंह लाल कर दिया था. मैंने उससे स़ाफ-स़ाफ कह दिया कि मैंने गाड़ी दिन-भर के लिए किराये पर ली है. उसने जवाब दिया कि उसे तीन बजे एक अंत्येष्टि में जाना है. काश, वह आज न मरा होता! मैंने उसे बताया कि अब मैंने चिड़ियाघर जाने का इरादा बदल दिया है. मैंने उससे पूछा- ‘तुम किसी होटल में ले जा सकते हो? यदि चाहो तो तुम भी खाना मेरे साथ खा लेना.’

वहां एक लम्बी मेज़ बिछी थी, जिसके दोनों ओर एक ही आकार की दो बेंचें पड़ी थीं. हम मेज़ पर बैठ गये. जब खाना आ गया तो उसने मुझे अपनी पत्नी, अपने घोड़े के बारे में बताया और फिर घूम-फिरकर अपनी ज़िंदगी के किस्से सुनाने लगा जो बहुत दुखद थे. इसका एकमात्र कारण उसका अपना चरित्र था. उसने मुझसे पूछा- ‘आप जानते हैं कि हर मौसम में रोटी की खातिर घर से बाहर फिरते रहना कितना कष्टकर होता है?’

मैंने भी अपनी पूरी राम कहानी उसे सुना दी और यह भी बता दिया कि मैंने क्या कुछ खोया है और क्या प्राप्त करने के लिए कोशिश कर रहा हूं. हम दोनों ने अपनी-अपनी हालत एक-दूसरे को समझाने और समझने की भरपूर कोशिश की. उसकी समझ में इतनी बात आयी कि मेरा कमरा छिन गया है और अब मुझे दूसरे कमरे की ज़रूरत है लेकिन और सब बातें उसके पल्ले नहीं पड़ीं, बस एक ही बात उसके दिमाग में बैठी कि वहां से निकलना असम्भव था और वह यह कि मैं एक शानदार सुसज्जित कमरे की तलाश में हूं. उसने अपनी जेब से दो दिन पुराना या शायद इससे भी पहले का शाम का एक अखबार निकाला और उसमें विज्ञापन देखने लगा, जिनमें से पांच-छह को उसने पेंसिल के टुकड़े से रेखांकित किया.

अंतिम पते पर पूछताछ कर लेने के बाद गाड़ीवान ने सुझाव दिया कि वह मुझे किसी ऐसे होटल में ले जाएगा, जहां मैं आराम से रह सकूंगा. होटल, गाड़ीवान, आराम- ये सब बातें मुझे विश्वसनीय लगीं. अगर उसकी सिफारिश सही है तो मुझे और कुछ नहीं चाहिए. मैंने शराब पीने की इच्छा जाहिर की. घोड़े ने दिन-भर कुछ खाया-पिया नहीं था. मैंने यह बात जब गाड़ीवान को बतायी तो उसने जवाब दिया कि घोड़ा जब तक अस्तबल नहीं लौटता, कुछ खाता-पीता नहीं है. अगर काम के समय कुछ भी खा ले, चाहे वह सेब हो या शक्कर की डली, तो उससे पेट में दर्द हो जाता है और कुरकुरी की बीमारी हो जाती है, जिससे कभी-कभी घोड़ा मर भी जाता है.

दो-चार पैग पी चुकने के बाद गाड़ीवान ने मुझे अपने घर चलकर रात गुज़ारने की  दावत दी और कहा- ‘यह मेरे और पत्नी के लिए गौरव की बात होगी कि आप हमारे मेहमान बनें.’ उसका मकान दूर नहीं था. मुझे लगता है कि उस दिन उसने अपने मकान के इर्द-गिर्द सवारी की तलाश में घूमने के सिवाय और कुछ नहीं किया था. वे एक मकान के पिछवाड़े बने अस्तबल के ऊपर रहते थे.

यह अच्छी जगह थी और मैं सहर्ष वहां रात गुज़ार सकता था. उसने अपनी पत्नी से मेरा परिचय कराया और बाहर चला गया. मेरे साथ अपने को अकेला पाकर उसे शायद कुछ घबराहट हो रही थी. मैं उसकी परेशानी को समझ गया. ऐसे मौकों पर मैं औपचारिकता निभाने के पक्ष में नहीं हूं. कुछ होना हो तो हो, वरना मामला खत्म कर दिया जाए. लिहाजा मैंने बात वहीं समाप्त करनी चाही और कहा- ‘मैं नीचे अस्तबल में जाकर सो जाता हूं.’ गाड़ीवान ने विरोध किया. लेकिन मैं अपनी बात पर अड़ा रहा. उसकी पत्नी ने कहा कि अगर यह अस्तबल में ही सोना चाहते हैं तो इन्हें अस्तबल में ही सोने दो. गाड़ीवान ने मेज़ से लैंप उठाया और जीने से या कहना चाहिए सीढ़ियों से जो नीचे अस्तबल में उतरती थीं, अपनी पत्नी को अंधेरे में छेड़कर मुझे ले गया. वह अस्तबल के एक कोने में, जहां घास-फूस पड़ी थी, घोड़े का कम्बल बिछाकर और एक माचिस वहां रखकर चला गया ताकि अगर मुझे रात को कोई चीज़ स़ाफ देखनी हो तो इसका इस्तेमाल कर लूं. इस बीच घोड़ा क्या कर रहा था, मैं नहीं जानता. अंधेरे में पांव पसारकर लेटा तो मुझे उसके कुछ पीछे की आवाज़ सुनाई दी. यह आवाज़ कुछ अनज़ानी-सी थी- नीचे चूहे कलाबाजियां खा रहे थे और ऊपर गाड़ीवान और उसकी पत्नी की बातें थीं, जिनमें दोनों मेरी नुक्ताचीनी कर रहे थे. मैंने माचिस हाथ में रख ली थी. रात को मैं उठा और एक तीली जलायी. उसके क्षणिक उजाले में मुझे घोड़ागाड़ी दिखाई दे गयी. मेरे मन में अचानक उस अस्तबल को आग लगा देने की इच्छा पैदा हुई, लेकिन शीघ्र ही मैंने दरवाज़ा खोला, चूहों की एक फौज़ निकलकर भागी. मैं घोड़ागाड़ी में चढ़ गया. ज्यों ही मैं गद्दी पर बैठा मैंने देखा कि घोड़ागाड़ी उलार थी और यह होना भी था क्योंकि उसके बम ज़मीन पर टिके हुए थे. लेकिन मेरे लिए यही बेहतर था, अपने पैर सामने की ऊंची सीट पर फैलाकर आराम से बैठ गया.

रात को कई बार मुझे यह महसूस हुआ कि घोड़ा खिड़की तथा अपने नथुनों से निकली सांस के ज़रिये मेरी ओर देख रहा है. उस समय चूंकि वह घोड़ागाड़ी में जुता नहीं था, इसलिए मुझे उसमें बैठा देखकर उसे कुछ आश्चर्य ज़रूर हुआ होगा. मुझे ठंड महसूस हो रही थी, क्योंकि मैं ऊपर से कम्बल लाना भूल गया था. लेकिन ठंड इतनी भी नहीं थी कि मैं उठकर जाऊं, कम्बल ला सकूं. घोड़ागाड़ी की खिड़की से ही मैंने अस्तबल की खिड़की को बहुत स़ाफ-स़ाफ देखा. मैं गाड़ी से नीचे उतरा, अब अस्तबल में उतना अंधेरा नहीं था. मैं दरवाज़े तक गया, लेकिन उसे खोल नहीं सका. लिहाजा मुझे खिड़की के रास्ते बाहर निकलना पड़ा. वह आसान भी तो नहीं था- मैंने पहले अपना सिर निकाला, हाथ ज़मीन पर जमा दिया और किसी तरह चौखट से निकलने के लिए ज़ोर लगाता रहा. मुझे याद है, अपने-आपको खिड़की से बाहर निकालने के लिए मैंने हाथ घास के गुच्छों में फंसा दिये थे.

जब मैं आंगन से निकला तो अचानक कुछ सूझा. यह थी मेरी कमज़ोरी. मैंने एक बैंक नोट माचिस की डिबिया में घुसेड़ दिया, लौटकर आंगन में गया और माचिस उसी खिड़की की चौखट पर रख दी, जहां से मैं अभी-अभी निकलकर बाहर आया था. घोड़ा अभी तक खिड़की के पास खड़ा था.

लेकिन अभी मैं सड़क पर पहुंचा ही था कि लौटकर आंगन में आया और माचिस की डिबिया में रखा नोट उठा लाया. माचिस की डिबिया मैंने वहीं छोड़ दी, क्योंकि वह मेरी नहीं थी. घोड़ा अब भी खिड़की से सटा खड़ा था. मुझे इस घोड़े को देखकर बड़ी कोफ्त और उकताहट-सी हुई. पौ फट रही थी. मुझे यह भी मालूम न था कि मैं कहां हूं. मैंने उदय होते हुए सूरज की ओर, या कहिए उस दिशा की ओर प्रस्थान किया, जहां से वह उदय होकर अपना प्रकाश फैलाने वाला था. मुझे समुद्र का या फिर मरुस्थल का क्षितिज पसंद है. मैं जब भी सुबह के समय बाहर होता हूं तो सूर्योदय देखने ज़रूर जाता हूं. जब कभी मेरी शाम बाहर हो जाती है तो मैं उसके पीछे-पीछे तब तक चलता रहता हूं, जब तक तंद्रा आकर मुझे सुला नहीं देती है. न जाने मैंने यह कहानी क्यों सुनाई! मैं कोई और भी कहानी सुना सकता था. शायद किसी और वक्त वह सुना सकूं. जीवित आत्माएं, आप देखेंगे, हर जगह एक-दूसरे से कितना अभिन्न होती हैं.

(हिंदी अनुवाद- विनोद दास)

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