‘दुनिया ही उलट-पुलट गयी है’

पत्र-साहित्य

 

 – ऐन फ्रैंक

ऐन फ्रैंक की डायरी दुनिया भर में सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली किताबों में गिनी जाती है. यह एक लड़की की डायरी न होकर दूसरे विश्व युद्ध में नाजियों द्वारा यहूदियों पर ढाये गये जुल्मों का जीवंत दस्तावेज़ है. ऐन फ्रैंक के परिवार को एक अन्य परिवार के साथ मिल कर कई महीनों तक अज्ञातवास में रहना पड़ा था. वहां किशोरी ऐन के पास करने धरने को कुछ नहीं था सिवाय अपनी कोर्स की किताबें पढ़ने के. अपने समय का बेहतर इस्तेमाल करने और दिन प्रतिदिन की घटनाओं को दर्ज करने की नीयत से ऐन ने डायरी लिखना शुरू किया. उसने लिखने की शैली को रोचक बनाने के मकसद से किट्टी नाम की एक सहेली की कल्पना की और रोज़ाना की घटनाओं को किट्टी को लिखे पत्रों की शक्ल में दर्ज करना शुरू किया. दिनभर की मामूली घटनाओं के रोजनामचे से शुरू होकर ये खत धीरे-धीरे बेहतर और गम्भीर होने लगते हैं और ऐन की उम्र बढ़ने के साथ-साथ पत्रों में दर्ज घटनाओं, दिनचर्याओं और आपसी व्यवहारों में हम क्रमिक विकास यात्रा के दर्शन करते हैं.

ऐन ने इन पत्रों में वहीं रहने वाले एक युवक के प्रति मन में अंकुरित होते प्रेम, दोनों परिवारों के बीच रोज़ाना चलती तकरार, पकड़े जाने के डर, बड़ी बहन के साथ बदलते सम्बंध और युद्ध की विभीषिका के साये में लगातार डर में रहने की विवशता और उम्र बढ़ने के साथ-साथ माता-पिता के साथ बदलते समीकरणों को बेहद सादगी और अपनेपन के साथ काल्पनिक पात्र किट्टी को लिखे गये पत्रों के ज़रिये बयान किया गया है. इस तरह से ये डायरी न होकर किट्टी को सम्बोधित इकतऱफा खत हैं जो लगभग ढाई बरस की अज्ञातवास की अवधि में लिखे गये हैं. उस डायरी का पहला पत्र.

बुधवार, 8 जुलाई, 1942

प्यारी किट्टी,

ऐसा लग रहा है मानो रविवार के बाद से बरसों बीत गये हों. इतना कुछ हो गया है जैसे पूरी दुनिया ही उलट-पुलट गयी है. लेकिन जैसा कि तुम देख सकती हो, किट्टी, मैं ज़िंदा हूं, लेकिन यह मत पूछो कि कहां और कैसे. मैं जो कुछ भी कह रही हूं उसमें शायद ही कोई बात तुम्हारे पल्ले पड़े, इसलिए मैं तुम्हें शुरू से बताती हूं कि रविवार की दोपहर को क्या हुआ था.

तीन बजे थे. हैलो जा चुका था लेकिन वह दोबारा फिर से आने वाला था, तभी दरवाज़े की घंटी बजी. चूंकि मैं बाल्कनी में धूप में अलसाई-सी बैठ पढ़ रही थी इसलिए मुझे घंटी की आवाज़ सुनाई नहीं दी. कुछ देर बाद रसोई के दरवाज़े पर मार्गोट नज़र आयी. वह बहुत गुस्से में थी- पापा को ए.एस.एस. से बुलाये जाने का नोटिस मिला है, वह फुसफुसायी. मां मिस्टर वान दान को देखने गयी हुई हैं. मिस्टर वान दान पापा के बिजनेस पार्टनर हैं और उनके अच्छे दोस्त हैं.

मैं आवाक् रह गयी थी.

बुलावा?

हर कोई जानता था कि बुलावे का क्या मतलब होता है. यातना शिविरों के नज़ारे और वहां की कोठरियों के दृश्य मेरी आंखों के आगे तैर गये. हम अपने पापा को इस तरह की नियति के भरोसे कैसे छोड़ सकते थे. ‘हम उन्हें हर्गिज़ नहीं जाने देंगे.’ मार्गोट ने उस वक्त कहा था जब वह ड्राइंग रूम में मां की राह देख रही थी. मां मिस्टर वान दान से पूछने गयी हैं कि हम कल ही छुपने की जगह पर जा सकते हैं. वान दान परिवार भी हमारे साथ जा रहा है. हम लोग कुल मिलाकर सात लोग होंगे. मौन. हम आगे बात ही नहीं कर पाये. यह खयाल कि पापा यहूदी अस्पताल में किसी को देखने गये हुए हैं, मां के लिए इंतज़ार की लम्बी घड़ियां, गरमी, सस्पेंस, इन सारी च़ीजों ने हमारे शब्द ही हमसे छीन लिये थे. तभी दरवाज़े की घंटी बजी- ‘यह हैलो ही होगा’, मैंने कहा था.

दरवाज़ा मत खोलो, मार्गोट ने हैरान होते मुझे रोका, लेकिन इसकी ज़रूरत नहीं थी क्योंकि हमने नीचे से मां और मिस्टर वान दान को हैलो से बात करते हुए सुन लिया था. तब दोनों ही भीतर आये और अपने पीछे दरवाज़ा बंद कर दिया. जब भी दरवाज़े की घंटी बजती तो मुझे या मार्गोट को उचककर नीचे देखना पड़ता कि क्या पापा आ गये हैं. हमने किसी और को भीतर नहीं आने दिया. मुझे और मार्गोट को बाहर भेज दिया गया था क्योंकि वान दान मां से अकेले में बात करना चाहते थे. जब मैं और मार्गोट बेडरूम में बैठे बात कर रहे थे तो उसने मुझे बताया कि यह बुलावा पापा के लिए नहीं बल्कि खुद उसके लिए था. इस दूसरे सदमे से मैं तो चीखने लगी. मार्गोट सोलह बरस की थी. तय है कि वे लोग इस उम्र की लड़कियों को उनके खुद के भरोसे यहां से भेजना चाहते हैं. लेकिन भगवान का शुक्र है, वह नहीं जायेगी. मां ने मुझसे यही कहा था. पापा जब मुझसे छिपने की जगह पर जाने की बात कर रहे थे तो उन्होंने भी शायद यही कहा होगा.

अज्ञातवास… हम कहां जाकर छुपेंगे? शहर में? किसी घर में? किसी परछत्ती पर? कब… कहां… कैसे… ये ऐसे सवाल थे जो मैं पूछ नहीं सकती थी लेकिन फिर भी ये सवाल मेरे दिमाग में कुलबुला रहे थे.

मार्गोट और मैंने अपनी बहुत ज़रूरी चीज़ें एक थैले में भरनी शुरू कीं.

मैंने सबसे पहले अपने थैले में यह डायरी ठूंसी. इसके बाद मैंने कर्लर, रुमाल, स्कूली किताबें, एक कंघी और कुछ पुरानी चिट्ठियां थैले में डालीं. मैं अज्ञातवास में जाने के खयाल से इतनी अधिक आतंकित थी कि मैंने थैले में अजीबोगरीब चीज़ें भर डालीं, फिर भी मुझे अ़फसोस नहीं है. स्मृतियां मेरे लिए पोशाकों की तुलना में ज़्यादा मायने रखती हैं. तब हमने मिस्टर क्लीमेन को फ़ोन किया कि क्या वे शाम को हमारे घर आ पायेंगे.

मिस्टर वान दान चले गये ताकि मिएप को लिवा ला सकें. मिएप आयीं और वादा किया कि वे रात को एक बार फिर आयेंगी. वे अपने साथ जूतों, ड्रेसों, जैकेटों, अंडरवियरों तथा स्टॉfिकंग्स से भरा एक थैला लेकर गयीं. इसके बाद हमारे फ़्लैट में सन्नाटा छा गया. हममें से किसी की भी खाना खाने की इच्छा ही नहीं हुई. मौसम अभी भी गरम था और सारी चीज़ें जैसे हमारे लिए अजनबी होती चली जा रही थीं.

हमने अपना ऊपर वाला एक बड़ा कमरा तीसेक बरस के एक विधुर मिस्टर गोल्डश्म्डि्ट को किराये पर दे रखा था. तय था कि उसे उस शाम कोई काम धंधा नहीं था. इसके बावजूद-हमारे कई इशारों के बावजूद वह रात दस बजे तक वहीं पर मंडराता रहा. मिएप और जॉन गिएज रात ग्यारह बजे आये. मिएप 1933 से पापा की कम्पनी में काम कर रही थीं और इसलिए पापा के करीबी दोस्तों में थीं. उसके पति जॉन भी पापा के अच्छे दोस्ते थे. एक बार फिर जूते, स्टॉकिंग्स, अंडरवियर और किताबें मिएप के गहरे बैग और जॉन की जेबों में गायब हो रही थीं. साढ़े ग्यारह बजे वे खुद भी विदा लेकर चले गये. मैं बुरी तरह से थक गयी थी, फिर भी एक बात मैं अच्छी तरह जानती थी कि यह रात मेरे अपने बिस्तर में मेरी आखिरी रात है. मैं जैसे घोड़े बेचकर सोई. मेरी नींद अगली सुबह साढ़े पांच बजे मार्गोट के जगाने पर ही खुली. किस्मत से यह सुबह रविवार की तरह गरम नहीं थी. दिन भर गरम बरसात की फुहारें पड़ती रहीं. हम चारों ने अपने बदन पर इतने ज़्यादा कपड़े ओढ़ लिये थे मानो हम रात फ्रिज में गुज़ारने जा रहे हों. वजह स़िर्फ इतनी-सी थी कि हम अपने साथ ज़्यादा से ज़्यादा कपड़े ले जाना चाहते थे. हम जिस स्थिति में थे उसमें कोई यहूदी व्यक्ति कपड़ों से भरा सूटकेस ले जाने के बारे में सोच भी नहीं सकता था. मैंने दो बनियानें, तीन पैंटें, एक ड्रेस और उसके ऊपर एक स्कर्ट, एक जैकेट, एक बरसाती, दो जोड़ी स्टॉकिंग्स, भारी जूते, एक केप, एक स्क़ार्फ, और इन सबके अलावा और भी बहुत कुछ ओढ़-पहन रखा था. घर से निकलने से पहले ही मेरा दम घुटने लगा था, लेकिन किसी को भी परवाह नहीं थी कि मुझसे पूछे- ‘ऐन, कैसा लग रहा है तुम्हें?’

मार्गोट ने अपने थैले में स्कूल की किताबें ठूंस ली थीं और वह अपनी साइकिल लेने चली गयी और फिर वह मिएप की निगरानी में अज्ञात जगह के लिए रवाना हो गयी. कुछ भी रहा हो, मेरे लिए तो वह अनजान जगह ही थी; क्योंकि मुझे अभी भी पता नहीं था कि हम कहां जाने वाले हैं. साढ़े सात बजे हमने भी अपने पीछे दरवाज़ा बंद किया. मूर्त्जे ही एकमात्र ऐसी जीवित प्राणी थी जिसे मुझे गुडबाई कहना था. हमने गोल्डश्म्डि्ट के लिए जो नोट छोड़ा उसके अनुसार बिल्ली को पड़ोसियों के यहां छोड़ा जाना था. वे ही अब उसकी देखभाल करने वाले थे. खाली बिस्तरे, मेज़ पर बिखरा नाश्ते का सामान, रसोई में बिल्ली के लिए सेर भर मीट, ये सारी चीज़ें यही दर्शाती थीं कि हम बहुत ही हड़बड़ी में छोड़-छाड़कर गये हैं. लेकिन इंप्रैशन छोड़कर जाने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं थी. हम तो किसी भी तरह वहां से निकल जाना चाहते थे और कहीं सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाना चाहते थे. और कोई बात मायने नहीं रखती थी.

बाकी कल,

तुम्हारी ऐन

(प्रस्तुति –  सूरज प्रकाश)

(जनवरी 2016)

 

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