तितिक्षा बंधन-मुक्ति का नाम है

कुलपति के. एम. मुनशी

कुलपति के. एम. मुनशी

राग, भय और क्रोध, यह केंद्र-विमुख शक्तियां हैं और चित्त को कर्म से चिपटने न देकर इधर-उधर खींच ले जाती हैं. स्वभाव की जो सहज  शक्तियां हैं, वे केंद्रविमुख हैं. ध्यान इन शक्तियों को सर्जन शक्ति के तनतनाते किसी केंद्र में एकाग्र करता है. ईश्वर प्रणिधान अर्थात समर्पण, कर्म और उसके फल के बीच की कड़ी का परिवर्तन एक नये प्रकार की ग्रंथि में करता है. यह ग्रंथि, कर्म करने की प्रकृति को जागृत करती है.

इस साधना का सबसे मूल्यवान अंग तितिक्षा है. श्रीकृष्ण अर्जुन को तितिक्षा सम्पादित करने के लिए कहते हैं. इस आदेश का सार उन्होंने दो श्लोकों में दिया है. पहला है- हे कुंतीपुत्र, सर्दी-गर्मी और सुख-दुख देनेवाले ये इंद्रिय और विषयों के संयोग क्षणभंगुर और अनित्य हैं- आते हैं, जाते हैं. हे भारत, तू इनको सहन कर. और दूसरे श्लोक में कहा गया है- सुख-दुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को इंद्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते वह मोक्ष पाने के योग्य हो जाता है. प्रतिकार, चिंता या विलाप किये बिना दुखों को सहन करने का नाम तितिक्षा है. और सुख-दुख मान-अपमान, जय-पराजय आदि द्वंद्वों से परे होना तितिक्षा का हेतु है. मन के द्वंद्वों के बंधन से मुक्त करने की साधना ही तितिक्षा प्रदान करती है.

(कुलपति के. एम. मुनशी भारतीय विद्या भवन के संस्थापक थे)