झुक गया फ्रांस, दंगोल न झुका

  ♦    वाल्टर शिरर       

      बीसवीं शताब्दी ने अनेक साम्राज्यों का अंत देखा है. मगर 1940 के मई, जून और जुलाई के चंद सप्ताहों में फ्रांस जिस तरह एकबारगी ढह पड़ा, उससे सारा संसार चकित रह गया था. फ्रांस की सेना संसार की श्रेष्ठतम सेनाओं की गिनती में आती थी, फ्रांस संसार के अत्यंत शक्तिशाली राज्यों में से एक माना जाता था. फिर वे कौन-सी कमज़ोरियां थीं, जिनके कारण उसकी ऐसी भयंकर दुर्गति हुई?

     फ्रांस के नेतृत्व की बागडोर उस समय जिन लोगों के हाथ में थी, वे कैसे लोग थे, इस पर एक घटना से काफी प्रकाश पड़ता है. 27 अप्रैल को प्रधान मंत्री पाल रेनोद बीमार पड़ा, तो राज-काज उसकी रखैल काउंटेस हेलीन द पोर्तस ने अपने हाथ में ले लिया. विख्यात अखबार ‘पैरिस स्वार’ का सम्पादक प्येर लाजरेफ एक दिन प्रधानमंत्री से मिलने गया, तो यह देखकर स्तब्ध रह गया कि काउंटेस प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर उच्च सैनिक एवं नागरिक अधिकारियों को आज्ञाएं दे रही है. जब सम्पादक ने प्रधानमंत्री से मिलने की अनुमति मांगी, तो काउंट़ेस ने यह कहकर उसे टरका दिया- ‘वे बीमार हैं. उनकी जगह मैं ही काम सम्भाल रही हूं.’

     यह सही है कि हिटलर के नेतृत्व में नाजी जर्मनी ने अपनी सैनिक शक्ति बेहद बढ़ा ली थी और अपनी कूटनीतिक चालों से हिटलर ने अनेक सैनिक सफलताएं भी प्राप्त की थीं. तथापि मैंने जिन-जिन जर्मन सेनापतियों से बातचीत की है, वे भी यह नहीं समझते थे कि फ्रांस इस बुरी तरह मुंहकी जायेगा.

     इसके लिए कौन जिम्मेदार था? क्या सेना और शासन के अधिकारी जिम्मेदार थे, जिन्होंने सेना को आवश्यक शस्त्रास्त्रा से सज्जित नहीं किया? या फ्रांसीसी जनता जिम्मेदार थी, जो गणतंत्रीय शासन में निःसत्व हो गयी थी? इस पराभव में उन दक्षिणपंथियों की कितनी जिम्मेदारी थी, जो गणतंत्र में तनिक भी आस्था न होने के कारण फासिस्ट तानाशाहों से सहानुभूति रखने लगे थे? और उन वामपंथियों का कितना हाथ था, जो फ्रांस के हितों की भी उपेक्षा करके मास्को के आदेशों पर आंख मूंदकर चलते रहे थे?

     इस सिलसिले में मुझे 14 जुलाई 1939 का दिन याद आता है. उस दिन पैरिस में फ्रांस की सैनिक परेड हुई थी. उसमें ब्रिटिश दस्तों ने भी भाग लिया था. दो देशों की इस मिली-जुली सैन्यशक्ति ने जनता को विश्वास दिला दिया कि फ्रांस किसी भी शत्रु का सामना करने में समर्थ है. उस परेड में विदेश-मंत्री जार्जेस बोनेत ने सबके सामने कहा कि ऐसी शक्ति के रहते जर्मनी से कोई क्यों डरेगा! सेनेट का वयोवृद्ध अध्यक्ष जुल जोनेनी जोरों से बोल उठा कि अच्छा हुआ कि आज जर्मन राजदूत और उसके सैनिक सलाहकार ने फ्रांस की यह शक्ति अपनी आंखों देख ली, इस शक्ति के रहते फ्रांस का जनमत कभी जर्मनी के आगे नहीं झुकेगा.

     परंतु ऐसे भी उच्च पदाधिकारी थे, जिन्हें इसका विश्वास नहीं था कि फ्रांस अपने पुराने शत्रु से लोहा ले सकेगा. कुछ तो सामना करना चाहते ही नहीं थे, कुछ मुठभेंड़ से डरते थे और कुछ खुल्ले या छिपे तौर पर जर्मनी तथा फासिज्म के समर्थक एवं प्रजातंत्रीय व्यवस्था के विरोधी थे.

     इनमें एक था काउंट अल्फांसो द शातोब्रियां. 1937 में जर्मनी ने हिटलर को भगवान और ईसाइयत का मसीहा कहा था. उसने हिटलर पर एक पुस्तक लिखी थी, जो सेना में खूब चाव से पढ़ी गयी थी. एक बार एक सम्पादक ने इसे देश में जहर फैलाने वाली पुस्तक कहा, तो सेना के एक जनरल महाशय एकदम खफा हो गये थे. सम्पादक का कहना है कि यह जनरल था- मक्सिम वेगांद, जिसका नाम आप आगे पढ़ेंगे.

     फ्रांस जब कठिन दौर से गुजर रहा था, तब एडवर्ड दालादियर तथा पाल रेनोद के बीच सत्ता के लिए उग्र प्रतिस्पर्धा चल रही थी. दोनों की पीठ पर एक-एक रखैल लगी थी. दालादियर की रखैल मार्व्किसे जां द क्रुसोल सत्ता-लोलुप थी और राजनीति एवं अर्थ-व्यवस्था में दिलचस्पी लेती थी, यद्यपि दोनों ही विषयों में वह सरासर कोरी थी.

     हेलीन तो पाल रेनोद का सितारा चढ़ता देखकर ही उसकी रखैल बनी थी. दालादियर विधुर था. परंतु रेनोद की पत्नी जीवित थी, और पत्नी तथा उपपत्नी में खूलेआम तू-तू मैं-मैं हुआ करती थी. अंततः 1938 में रेनोद अलग फ्लैट में जा बसा और वहां हेलीन उस पर हुकूमत करती थी.

     रेनोद के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद तो वह कदम-कदम पर उसके काम में दखल देने लगी. इसके अतिरिक्त, रेनोद जहां वामपंथ की ओर झुक रहा था, हेलीन दक्षिणपंथी होती जा रही थी.

     इधर यह होड़ चल रही थी, उधर प्येर लवाल और मार्शल पेतां में सांठ-गांठ हुई. लवाल कब से चाहता था कि पेतां को नाम मात्र का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनाकर सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले लूं. उसने राष्ट्रपति-पद के लिए पेतां का चुनाव करवाने की भरसक कोशिश भी की थी, परंतु तब पेतां में राजनीतिक महत्त्वकांक्षा का भूत नहीं जागा था और उसने लवाल को प्रयत्न करने से रोक दिया था. फिर भी उसने अपने प्रभाव से लवाल को फ्रांस का विदेश-मंत्री बनवाया था.

  आगे चलकर लवाल प्रधान मंत्री भी बना; परंतु जब 1936 में वह प्रधान मंत्री के पद से च्युत हुआ, तब तक परिस्थिति बदल चुकी थी.

     हां, तो दालादियर को लवाल और पेतां की सांठ-गांठ का पता न था. उसे इतना ही पता था कि देश में एकता नहीं है और उसके मंत्रिमंडल में फूट पड़ी हुई है. फिर भी वह इस बात के लिए कृतसंकल्प था कि पोलैंड पर हिटलर का आक्रमण हुआ, तो फ्रांस को पोलैंड की मदद करनी होगी.

     परंतु 31 अगस्त को हिटलर ने पोलैंड पर चढ़ाई का हुक्म जारी कर दिया, तो 2 सितम्बर को संसद में दालादियर ने पोलैंड का समर्थन करते हुए भी यही आशा प्रकट की कि किसी प्रकार बात सुलह-समझौते से निपट जायेगी. उसने युद्ध घोषित करने की अनुमति संसद से नहीं मांगी. इसी बात पर आगे चलकर लवाल आदि कुछ युद्ध-विरोधियों ने दालादियर पर यह आरोप लगाया कि उसने पोलैंड के साथ अपने वचन को नहीं निभाया.

    ब्रिटेन और फ्रांस की सरकारों ने निश्चय किया कि जर्मनी को यह आखिरी चेतावनी दे दी जाये कि वह 3 सितम्बर की सुबह 8 बजे तक पोलैंड पर आक्रमण समाप्त कर दे, अन्यथा दोनों देश उसके विरुद्ध युद्ध-घोषणा कर देंगे. मंत्रिमंडल में दीर्घ विचार-विनिमय के बाद दालादियर ने सेना को आज्ञा दे दि कि यदि जर्मनी इस अंतिम चेतावनी को स्वीकार न करे, तो सोमवार 4 सितम्बर को सवेरे 5 बजे पोलैंड के प्रति अपना वचन पूरा करने की कार्रवाई शुरू कर दी जाये.

      कुछ घंटों बाद यह अवधि 12 घंटे घटा दी गयी और 3 सितंबर की शाम के 5 बजे कार्रवाई शुरू करने का फैसला किया गया. वह सूचना जर्मन सरकार को दे भी दी गयी. परंतु 4-30 बजे शाम को फ्रांसीसी जनरल गेमलिन ने सेनाओं को आदेश दिया कि कार्रवाई अगले दिन दुबह 5 बजे ही प्रारम्भ की जाये.

      अर्थात युद्ध के प्रथम क्षण से ही फ्रांसीसी जनरल आगा-पीछा करने लगे थे.

      इस संकट की घड़ी में ऊपर से तो यही लगता था कि सारा फ्रांस फिर से एक हो गया है, परंतु अंदर-ही-अंदर कई क्षेत्रों में सरकार के प्रति शंकाभाव व्याप्त था. कुछ ने उसका विरोध भी किया.

      फ्रांस पिछले महायुद्ध के परिणामों से तब तक भी पूरी तरह उबर नहीं पाया था. बहुत लोगों की मान्यता थी कि दूसरे महायुद्ध में यदि वह जीत भी गया, तो भी जीवित नहीं बच सकेगा. स्वयं दालादियर और सेना के जनरल भी इस भय से संत्रस्त थे.

      संयोग से आठ महीन तक नाममात्र का ही युद्ध चलता रहा, जिसे ‘कृत्रिम युद्ध’ कहा जाता है. इसमें न जमकर लड़ाइयां हुई न बहुत रक्त बहा. पर इस परिस्थिति से जो भ्रांतियां उत्पन्न हुई, वे फ्रांस के तीसरे गणतंत्र के मिटने के साथ ही मिटीं.

      7-8 सितम्बर 1939 की रात को जनरल गेमलिन ने पोलैंड पर से जर्मन सेनाओं का दबाव हटाने के लिए जर्मनी पर आक्रमण तो किया, परंतु बिलकुल मामूली आक्रमण- हालांकि फ्रांसीसी सेना संख्या और साज-सामान की दृष्टि से जर्मन सेना से कहीं अधिक तगड़ी पड़ती थी. पोलैंड अंत में हार गया. इससे गेमलिन हमला करने के सिर दर्द से तो बच गया, लेकिन फ्रांस पर जर्मन आक्रमण की शंका बढ़ गयी. 30 सितम्बर को गेमलिन ने अपनी सेनाएं पीछे हटाने का निश्चय किया और प्रधानमंत्री दालादियर को इसके लिए राजी भी कर लिया. तय किया गया कि इस निश्चय को मंत्रिमंडल से भी गुप्त रखा जाये, ताकि यह जो प्रचार किया गया था कि फ्रांस ने जर्मनी पर जोरदार आक्रमण कर रखा है, उसका भ्रम बना रहे.

      इसी समय तक दालादियर ने बोनेत को विदेश-मंत्री के पद से हटा दिया था. कुछ लोग मार्शल पेतां को सत्ता सौंपने की चालें चलने लगे. लवाल ने स्पष्ट कहा था कि हमें पेतां को नाममात्र के लिए पदासीन करना है. जर्मन सरकार को इस प्रयत्न का पता चल गया था और वह मानती थी कि पेतां शांति की खातिर फ्रांस की हार-जीत को महत्त्व नहीं देगा और शांतिसंधि कर लेगा.

      दालादियर और रेनोद का आपसी झगड़ा और मंत्रिमंडल की आंतरिक फूट जोर पकड़ चुकी थी. सेना की उच्चतम कमान के जनरलों में भी जोरों की अनबन चल रही थी. द गोल एवं दूसरे कुछ अधिकारी चाहते थे कि सेना को जर्मनों से लड़ने के लिए खास तरह का प्रशिक्षण दिया जाये, परंतु सैनिक कमान ने यह प्रस्ताव नहीं माना.

      नवम्बर में जर्मनी ने फिनलैंड पर चढ़ाई की. अब भी फ्रांस कोई सहायता न दे सका. फिनलैंड हार गया. फलस्वरूप, मार्च के महीने में फ्रांसीसी संसद में जोरदार बहस हुई. मतदान से यह निष्कर्ष निकला कि दालादियर पर संसद को विश्वास नहीं रहा है और उसने त्यागपत्र दे दिया.

      उसका स्थान लिया पाल रेनोद ने. यह सेना का पुनः संगठन करने के पक्ष में था और दगोल की राय से सहमत था. परंतु दालादियर और उसकी रेडिल सोशलिस्ट पार्टी ने अपनी हार से खीझकर शुरू से ही रेनोद के प्रयत्नों में अडंगे लगाने शुरू कर दिये. रेनोद को मजबूरन दालादियर को प्रति-रक्षा-मंत्री बनाना पड़ा. पर बोनेत को उसने मंत्रिमंडल में भी शुरू से ही फूट के लक्षण प्रकट हो गये. सभी दल देश की अपेक्षा दलीय हितों को अधिक महत्त्व दे रहे थे.

      रेनोद की इच्छा द गोल को अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त करने की थी, परंतु दालादियर के विरोध के कारण यह पद उसे बौदूई को देना पड़ा. बौदूई जनतांत्रिक व्यवस्था का समर्थक नहीं था और मुसोलिनी तथा नाजी जर्मनी का पक्षपाती था. काउंटेस द पोर्तेस पर उसका बहुत अधिक प्रभाव था. दोनों की सांठ-गांठ रेनोद के विपरीत पड़ रही थी. राजनीतिक क्षेत्रों में भी उसके विरुद्ध षड्यंत्र हो रहे थे, जिसमें पेतां और लवाल सम्मिलित थे.

      अप्रैल में जर्मनी ने नार्वे पर हमला किया. इसमें भी फ्रांसीसी सेना निष्क्रिय बनी रही, तो रेनोद ने गेमलिन को प्रधान सेनापति के पद से पदच्युत करने का निश्चय किया और राष्ट्रपति की सलाह की उपेक्षा करके यह प्रस्ताव 9 मई को मंत्रिमंडल की बैठक में रखा. दालादियर ने इसका जबर्दस्त विरोध किया. इस पर रेनोद ने समूचे मंत्रिमंडल का त्यागपत्र पेश करने का फैसला किया, यद्यपि यह बात गुप्त रखी गयी. उसी दिन गेमलिन को इस बात का पता चला और उसने ‘राजनीतिक संकट’ को टालने के उद्देश्य से इस्तीफा दे दिया. और उसी रात जब फ्रांस में न मंत्रिमंडल था, न प्रधान सेनापति था, जर्मनी ने 136 डिविजन सेनाओं के जरिये फ्रांस की ओर कूच किया.

      इस संकट की घड़ी में सब त्यागपत्र वापस ले लिये गये. मगर सेना में सब कुछ अस्तव्यस्त था, यहां तक कि प्रधान सेनापति गरमलिंग के मुकाम पर रेडियो तक न था और वहां से हुक्म जारी होने और उसका पालन होने के बीच कभी-कभी 48 अंटे का फर्क पड़ जाता था.

      15 मई को संध्या के 4 बजे जर्मन सेना ने रबर की नौकाओं से म्यूज नदी को पार करना शुरू किया. फ्रांसीसी जनरल ग्रांडसार्ड के कथानानुसार, 5-30 बजे तक एक भी जर्मन टैंक नदी के पार नहीं आया था, स्थिति गम्भीर थी, मगर खतरानक नहीं थी और फ्रांसीसियों के पास आक्रमणकारियों को खदेड़ देने के लिए काफी टैंक तथा तोपें थीं.

      किंतु 6 और 7 बजे के बीचे परिस्थिति बदल गयी. फ्रांसीसी सेना के पृष्ठभाग में स्थित तोपची दस्तों में पुकार मच गयी कि जर्मन टैंक इस पार आ गये हैं, और उनमें भगदड़ मच गयी. उन्हें रोकने की कोशिश भी की गयी, लेकिन व्यर्थ. रात पड़ते-पड़ते जर्मनों ने उन सब ऊंचे नाकों पर अधिकार कर लिया, जहां से फ्रांसीसी सैनिक युद्ध के मैदान पर निगाह रखे हुए थे. वास्तव में एक भी जर्मन टैंक म्यूज के पार नहीं आया था, फिर भी चार-पांच घंटों में ही फ्रांसीसी सेना के 55 वें डिविजन और दो तोपची डिविजनों का अस्तित्व ही मिट गया.

      14 मई तक आतंक की यह लहर सेना के सदर मुकाम पर भी पहुंच गयी. 13 और 14 के बीच की रात जनरल जोर्जेस के दफ्तर में सैनिक अफसरों की बैठकर हुई. पिछले दिन की हार पर जनरल सुबक-सुबक-कर रोया. लेकिन उसके सहायकों ने हिम्मत बंधायी और जनरल दूमेंक ने जवाबी हमले की जोरदार योजना तैयार की. जोर्जेस ने उसे स्वीकार करके आवश्यक हुक्म भी लिखवाया, किंतु इस कुशाग्र-बुद्धि जनरल का साहस जवाब दे चुका था. यद्यपि फ्रांस की दूसरी और नौवीं सेनाएं सही-सलामत थीं, तथापि सैनिक सदर मुकाम का मनोबल इस कदर टूट चुका था कि फिर कायम ही नहीं हो सका.

      14 मई के अपरान्ह में जब प्रधानमंत्री को युद्ध-परिषद की बैठक में इस विषय परिस्थिति का पता चला, तो शाम को उसने चर्चिल को टेलिफोन किया कि अब पेरिस तक जर्मन सेनाओं का रास्ता साफ है. चर्चिल को एकाएक विश्वास नहीं हुआ. अगले दिन सुबह फिर दोनों प्रधान मंत्रियों ने टेलिफोन पर बातचीत की और चर्चिल ने समझाने की कोशिश की कि जर्मन-सेनाओं को कुमुक के लिए कुछ दिन मुकाम करना पड़ेगा, इस बीच उन पर जवाबी हमला किया जा सकता है. परंतु रेनोद तो मानो हथियार डाल चुका था.

      कुछ फ्रांसीसी जनरलों में इस समय भी आत्मविश्वास बाकी था. 15 और 16 के बीच की रात जनरल गेमलिंन ने प्रधानमंत्री को सूचित किया कि मंत्रिमंडल को पैरिस से हटने की तैयारी रखनी चाहिए. हालांकि गेमलिंन ने इसका पूरा आश्वासन दिया कि पैरिस को तुरंत छोड़ने की आवश्यकता नहीं है, फिर भी रेनोद, दालादियर तथा पैरिस के सैनिक गवर्नर ने राजधानी को तुरंत छोड़ देने का निश्चय कर लिया. 16 की दोपहर को जब संसद के दोनों सदनों के अध्यक्ष और कुछ मंत्री प्रधान मंत्री से मिलने गये, उस समय वह पैरिसवासियों के नाम नगर को खाली कर देने की घोषणा लिखा रहा था.

      मंत्रियों के यह समझाने पर कि इस तरह पलायन से सेना और जनता भयभीत हो जायेगी और युद्ध नहीं किया जा सकेगा, रेनोद पैरिस में ही बने रहने को राजी हुआ. लेकिन तब तक विदेश-मंत्रालय के कागजात की होली आरंभ हो चुकी थी और इसकी आज्ञा स्वयं प्रधान मंत्री ने दी थी. उसी के बाद काउंटेस द पोर्तस ने भी अपना सामान बांधना शुरू कर दिया.

      चर्चिल 5-20 बजे पेरिस पहुंचे, तब तक परिस्थिति और भी बिगड़ चुकी थी. जनरल गेमलिंन ने उन्हें सारी परिस्थिति से अवगत कराया. कागजात की होली जल रही थी. चर्चिल ने गमलिंन आदि को समझाया कि जर्मन टैंको को पैदल सेना और कुमुक के लिए रुकना पड़ेगा और यों भी टैंकों का आक्रमण वास्तविक आक्रमण नहीं है, फ्रांसीसी सेना उन्हें रोक सकती है.

      परंतु गेमलिंन और रेनोद उनसे युद्ध-विमानों की मांग करते रहे. आखिर चर्चिल ने युद्ध-विमानों के छः और स्क्वाड्रन भेजने का वचन दिया. चार तरह इंग्लैंड के पास अपने बचाव के लिए कुल पचीस स्क्वाड्रन बच रहे.

      यह बात अजीब लगती है कि फ्रांसीसी अधिकारियों की समझ में चर्चिल की बात क्यों नहीं आयी! जर्मन टैंक फ्रांस की जिन सड़कों पर बेखटके दनदनाते हुए चले आये, उन्हीं सड़को पर यदि फ्रांसीसी सेना तैनात कर दी जाती, तो फ्रांस की भारी और हल्की तोपें काफी कुछ कर सकती थी.

      18 मई को रेनोद ने अपने मंत्रिमंडल और सेना-अधिकारियों में परिवर्तन किये. मार्शल पेतां का उपप्रधान मंत्री बनाया गया. रेनोद ने बाद में कहा कि संकट की उस घड़ी में मुझे पेतां के विचारों का कुछ भी पता न था. वास्तव में पेतां, जैसा कि बाद में उसने स्वयं कहा, यह विश्वास लेकर मंत्रिमंडल में आया था कि ‘मेरा देश पराजित हो चुका है और मुझे शांति कायम करने तथा संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बुलाया गया है.’

      गेमलिंन के स्थान पर वेगांद को प्रधान सेनापति बनाया गया. बाद में पाल रेनोद और पूरे मंत्रिमंडल को संदेह हो गया कि वेगांद चाहता था कि सरकार जर्मनों के हाथ गिरफ्तार हो जाये, ताकि राजनीतिक नेताओं से छूटकारा मिले. उसने 26 मई को उपनिवेश-मंत्री को सलाह भी दी कि सरकार को अंत तक पेरिस में ही रहकर गिरफ्तार हो जाना चाहिए. लेकिन इस पर भी किसी ने उसके विरुद्ध कार्रवाई नहीं की.

      फ्रांसीसी सरकार को संदेह था कि यदि फ्रांस हारने लगा, तो इंग्लैंड हिटलर से अलग शांति-संधि कर लेगा, और चर्चिल को संदेह था कि फ्रांस जमकर शत्रु का मुकाबला नहीं करेगा और जर्मनी से संधि कर लेगा, जिससे युद्ध का सारा भार इग्लैंड पर आ पड़ेगा.

      20 मई को गोयरिंग के कहने से स्वीडन के पैरिस-स्थित उपदूत राउल नार्डलिंग रेनोद के पास यह संदेश लाया था कि यदि फ्रांस जर्मनी के सामने संधि का प्रस्ताव रखेगा, तो वह स्वीकार कर लिया जायेगा. रेनोद ने इस बात को ठुकरा दिया.

      ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण नियुक्ति रेनोद ने 5 जून को की, जब उसने चार्ल्स द गोल को चौथे बख्त बंद डिविजन का सेनापति बना दिया. वेगांद और पेंता इस पर बहुत बिगड़े. वेगांद तो द गोल को बच्चा समझता था और पेतां उनसे इस बात से खफा था कि द गोल ने अपनी एक पुस्तक पेतां को समर्पित करते समय समर्पण के वाक्य खुद पेतां से नहीं लिखवाये थे.

      10 जून की बैठक में वेगांद ने रेनोद को बताया कि जर्मन सेनाएं पेरिस पर घेरा डालने ही वाली हैं. जब रेनोद ने इसकी रोकथाम करने को कहा, तो वेगांद ने उत्तर दिया कि इससे केवल समय नष्ट होगा, कोई लाभ नहीं होगा. बौदूई का भी यही मत था. इस बैठक में वेगांद से द गोल की झड़प भी हो गयी. द गोल चाहते थे कि प्रशासन पैरिस छोड़ दे, ताकि आगे चलकर अल्जीरिया और मोरक्को से शत्रु का सामना कर सके. वेगांद यह सुनने को भी तैयार न था.

      10 और 11 जून की रात को मंत्रियों ने पैरिस से प्रस्थान कर दिया, परंतु वे ऐसी अलग-अलग इमारतों में जाकर बसे कि आपस में मिल भी नहीं पाते थे. टेलिफोन भी पर्याप्त नहीं थे और आपरेटर को किसी ने यह आदेश नहीं दिया कि वह दोपहर में दो घंटे खाने की छुट्टी न किया करें तथा एक्सचेंज को रोज़ की तरह शाम के छह बजे बंद न कर दिया करे. सभी मंत्रालयों और मंत्रियों को निवास-स्थानों में अव्यवस्था का राज था.

      14 जून को हिटलर की सेना बिना एक भी गोली चलाये पैरिस में प्रविष्ट हो गयी. फ्रांसिसी मंत्रिमंडल दक्षिण-पश्चिमी फ्रांस में बोर्दू चला गया. उसी क्षण से फ्रांसीसी नेताओं में आपसी षड्यंत्र चलने लगे. रेनोद को विश्वास था कि फ्रांस अपनी नौसेना के बूते पर उत्तर अफ्रीकी उपनिवेशों से जर्मनी के साथ युद्ध जारी रख सकता है, परंतु पेतां और वेगांद सहमत न थे. मार्शल पेतां यही मांग कर रहा था कि फ्रांस जर्मनी से संधि कर ले.

      रेनोद ने वेगांद से कहा कि तुम जर्मनी के साथ युद्धबंदी की संधि कर लो और सरकार अफ्रीका चली जायेगी. परंतु वेगांद को यह मंजूद नहीं था. वह चाहता था कि पराजय की संधि सेना नहीं, बल्कि सरकार स्वयं करे. पेतां और वेगांद दोनों ही चाहते थे कि पराजय स्वीकार कर ली जाये, ताकि फ्रांस युद्ध से अलग हो सके. अधिकांश मंत्री भी रेनोद के प्रस्ताव के विरुद्ध थे. सेना के आगे रेनोद की चल ही नहीं रही थी.

      16 जून को द गोल ने लंदन से रेनोद को टेलिफोन पर संदेश दिया कि ब्रिटिश सरकार यह घोषणा करने को तैयार है कि ‘न्याय और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए फ्रांस और इंग्लैंड की सरकारों ने निर्णय किया है, कि दोनों देश दो अलग राष्ट्र नहीं हैं, अपितु दोनों ने मिलकर फ्रांसीसी-ब्रिटिश संघराज्य बना लिया है. हर ब्रिटिश नागरिक अब फ्रांसीसी नागरिक इंग्लैंड का नागरिक होगा. संघराज्य का एक साझा युद्ध-मंत्रिमंडल होगा, जो युद्ध का संचालन करेगा.’

      द गोल घोषणा-पत्र की एक प्रतिलिपि लेकर तुरंत फ्रांस को चल दिये और चर्चिल भी इस सिलसिले में अगले दिन फ्रांस आने वाले थे. रेनोद ने द गोल से कहा कि मैं इस प्रस्ताव का समर्थन न करूगां, चाहे इसलिए मुझे जान भी गवांनी पड़े.

      काउंटेस द पोर्तस ने यह घोषणा-पत्र पढ़ा, और उसके चेहरे पर क्रोध और आश्चर्य दोनों भाव एक साथ उभर आये.

      संध्या के 5 बजे फ्रांसीसी मंत्रिमंडल की बैठक हुई. रेनोद को विश्वास था कि इस घोषणा का सभी स्वागत करेंगे. परंतु किसी ने भी संघराज्य के प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया. अधिकांश लोग चुप्पी साधे रहे और जो बोले, वे विरोध में बोले. इसलिए प्रश्न फिर यही रहा गया कि क्या जर्मनी से संधि कर ली जाये.

      परंतु 6 बजे तक कोई निर्णय नहीं हो सका. फ्रांसीसी सेना अव्यस्थित ढंग से पीछे हट रही थी, या शत्रुसेना के घेरे में फंस रही थी. ऐसी संकट की घड़ी में भी मंत्रिमंडल ढुलमुल बना रहा- न तो उसने संघराज्य की घोषणा को स्वाकर किया और न संधि के प्रश्न पर ही कोई निर्णय किया. रेनोद समझता था कि अधिकांश मंत्री जर्मनी से संधि करने के पक्ष में हैं, परंतु युद्ध के बाद पता चला कि उसका यह विचार सरासर गलत था. युद्ध के बाद रेनोद ने कहा भी कि मैं गलत था तो भी क्या! जिस प्रशासन में फूट पड़ी हुई हो, वह अपाहिज हो जाता है, वह प्रशासन नहीं रहता.

      रेनोद इस बैठक के बाद प्रधान मंत्री के पद से त्यागपत्र देना चाहता था. लेकिन राष्ट्रपति लेब्रुन ने उससे अपने पद पर बने रहने का आग्रह किया. रेनोद ने अनुभव किया कि राष्ट्रपति लेब्रुन संधि के पक्ष में निर्णय कर चुका है, इसलिए उसने जवाब दिया- ‘अपनी नीति के पालन के लिए मार्शल पेतां को बुलवा लीजिए.’ और उसकी यह सलाह ही घातक सिद्ध हुई, क्योंकि उसे अच्छी तरह पता था कि प्रधान मंत्री बनते ही पेतां संधि का प्रस्ताव कर देगा.

      लेब्रुन ने पेतां को यह पद दे दिया. बाद में पेतां के आदेश से कैद कर लिये जाने के बाद 21 मई 1941 को रेनोद के कैदखाने से उसे एक पत्र में लिखा था कि मैं इस जिम्मेदारी को अस्वीकार नहीं करता कि मैंने ही आपके प्रधान मंत्री बनाये जाने की सिफारिश की थी, परंतु इसके लिए ‘मैं फ्रांस से क्षमा मांगता हूं.’

      पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जब ब्रिटिश प्रधान मंत्री चर्चिल फ्रांस को प्रस्थान करने के लिए लंदन में रेलगाड़ी में बैठ चुके थे, तब उन्हें फ्रांस की इन घटनाओं का पता चला और वे स्टेशन से ‘उदास मन से’ घर लौट गये.

      उस रात 10 बजे फ्रांसीसी मंत्रिमंडल के सदस्य प्रधान मंत्री के घर पर बैठक के लिए जमा हुए. अधिकांश मंत्री रेनोद के मत के समर्थक थे और यह विश्वास लेकर आये थे संधि के प्रश्न पर निर्णय उनके पक्ष में होगा. परंतु रेनोद ने उनसे केवल इतना कहा कि मार्शल पेतां नया मंत्रिमंडल बना रहे हैं. रेनोद ने औचारिक रूप से त्यागपत्र देना भी जरूरी न समझा. मंत्री अवाक् रह गये. उन्हें रोष भी हुआ कि इतनी गम्भीर चीज यों गड़बड़ी में हो गयी.

      राष्ट्रपति लेब्रुन ने रात को लगभग 11 बजे पेतां को मंत्रिमंडल बनाने को कहा. पेतां ने तुरंत जेब से मंत्रियों की सूची निकालकर पेश कर दी. इससे स्पष्ट है कि कोई उसकी पीठ के पीछे बैठा राजनीति का खेल खेल रहा था.

      द गोल को इंग्लैंड से फ्रांस पहुंचते ही इन सारी बातों की जानकारी मिल गयी थी और उन्होंने अगले दिन ही फ्रांस से चले जाने का निश्चय कर लिया था. पेतां की नियुक्ति से वेगांद ने चैन की सांस ली कि चलो मेरे कंधों पर बोझ कम हुआ. द गोल को भय था कि वेगांद उन्हें गिरफ्तार न करवा दें. उन्होंने रात एक होटल में गुजारी और वेगांद को धोखे में रखने के उद्देश्य से कई लोगों से दिन में मिलने का समय नियुक्त किया. फिर वे हवाई अड्डे पर गये, और वहां से ब्रिटिश जनरल स्पीयर्स के साथ उसके विमान में लंदन भाग गये.

      चर्चिल ने लिखा है कि द गोल ‘इस छोटे-से विमान में फ्रांस की इज्जत’ को लाये थे. पेतां तो पिछली (16 जून) संध्या को संधि का प्रस्ताव शत्रु के सामने रख ही चुका था.

      पेतां ने लवाल को विदेश-मंत्री नहीं बनाया. इस पर दोनों में तनातनी हो गयी. बात यह थी कि वेगांद नहीं चाहता था कि लवाल को विदेश-मंत्री बनाया जाये, यद्यपि पेतां इसके लिए राजी हो गया था.

      18 जून को द गोल ने बी.बी.सी. लंदन से फ्रांस के नाम संदेश प्रसारित किया. उसमें उन्होंने पेतां की सरकार की भर्त्सना की और कहा कि युद्ध समाप्त नहीं हुआ है. उन्होंने बाद में बताया कि उस समय उन्हें लग रहा था कि वे नया जीवन शुरू कर रहे हैं, जिसका अब तक के जीवन से कोई सम्बंध नहीं है. पेतां सरकार ने द गोल को पदच्युत कर दिया.

      18 जून तक जर्मनी ने पेतां के संधि-प्रस्ताव का कोई उत्तर नहीं दिया था. उस दिन फ्रांसीसी सरकार को अफ्रीका स्थानांतरित कर देने की कोशिशें होती रही, परंतु पेतां फ्रांस छोड़ने को तैयार न था. आखिर यह तय हुआ कि राष्ट्रपति लेब्रुन एवं कुछ मंत्री 20 जुन को अफ्रीका चले जाये और रीजेंट के रूप में पेतां एवं उसके कुछ साथी फ्रांस में रहे.

      लेब्रुन जहाज पर जाने के लिए मोटर में सवार हो रहा था कि टेलिफोन पर एसे सूचना दी गयी कि पेतां ने तुरंत मंत्रिमंडल की बैठक बुलायी है. अतः सबका प्रस्थान स्थगित हो गया. बैठक में पेतां के मंत्रिमंडलीय सचिव आलिबेर ने झूठमूठ ही कहा कि फ्रांसीसी सेना ने जर्मन सेना की प्रगति रोक दी है, अतः राष्ट्रपति आदि को अफ्रीका जाने की ज़रूरत नहीं. लेकिन लेब्रुन ने कहा कि हम तो जायेंगे ही.

      वास्तव में आलिबेर इस सारी योजना को ही असफल करने पर तुला था. उसने मार्शल पेतां के निजी लेटर-हेड पर उसकी मोहर लगाकर और जाली दस्तखत करके सब मंत्रियों को यह आज्ञा भेज दी कि अगले दिन सुबह आठ बजे के पहले वे किसी भी कारण से नगर के बाहर न जायें. सरकार को अफ्रीका स्थानांतरित करने की राष्ट्रपति लेब्रुन और अन्य व्यक्तियों की अंतिम आशा इस तरह झूठ और जालसाजी के कारण नष्ट हो गयी.

      एदुअर्द हैरिआते ने सरकार को अफ्रीका स्थानांतरित कराने की बहुत कोशिश की थी. वह लिओन का महापौर था, पिछले 354 वर्षों से. पर 17-18 जून की रात को उसने जब सूचना ली कि जर्मन सेना लिओन की ओर बढ़ रही है, वह भयभीत हो गया. नगर की रक्षा के लिए केवल 3,000 सैनिक थे, जो जर्मनों का मुकाबला करने और रास्ते के 31 पुलों को नष्ट कर देने के लिए कृत-संकल्प थे. परंतु यह भी निश्चित था कि लिओन की ईंट से ईंट बज जायेगी. हेरिआते ने रात के 1 बजे पेतां को जगाकर प्रार्थना कि कि लिओन को बचाया जाये.

      संधि-प्रस्ताव के लिए जबर्दस्त विरोधी के मुंह से यह प्रार्थना सुनकर पेतां को कुछ आश्चर्य हुआ, तथापि उसने प्रार्थना स्वीकार करके लिओन को ‘खुला नगर’ घोषित कर दिया और 3 बजे सेना को आज्ञा भेज दी कि एक भी गोली न चलायी जाये और न कोई पुल नष्ट किया जाये.

      इस पर अन्य नगरों के महापौरों ने भी यही आग्रह किया कि उनके नगरों में भी कोई युद्ध-कार्यवाही न हो और न कोई पुल या सार्वजनिक इमारत नष्ट की जाये. पेतां सरकार ने उनका यह आग्रह परंतु स्वीकार कर लिया.

      ‘खुले शहरों’ की घोषणा का परिणाम जो होना था वही हुआ. इस पर कोढ़ में खाज की तरह युद्ध-मंत्री जनरल कोल्स ने यह आज्ञा जारी कर दी कि कोई सैनिक और नागरिक अधिकारी अपना स्थान न छोड़े, शत्रु वहां तक पहुंच जाये तब भी नहीं.

      इस आज्ञा का अर्थ यही था कि शत्रु के आने पर उसे आत्मसमर्पण कर दो. कई जगह चैन की सांस लेकर इस आज्ञा का तुरंत पालन किया गया. दसवीं फ्रांसीसी सेना के सैकड़ों अधिकारियों ने अकेले एक जर्मन कोर्पोरल को आत्मसमपर्ण किया. जनरल द लेक्लोस और उनके मातहत अधिकारियों ने उत्सुकता से जर्मनों के आने का इंतज़ार किया और आत्मसमर्पण किया.       लवाल की मंत्री बनने की बेहद लालसा थी, अतः 23 जून को वह किसी भी विभाग का मंत्री बनने को तैयार हो गया. पेतां उसे मंत्रिमंडल में ले तो लिया, तथापि विदेश-विभाग के मामलों में हस्तक्षेप न करने पाये. बौदूईं इस नियुक्ति पर बिगड़ा, तो पेतां ने उसे यह कहकर शांत किया कि बाहर रहकर लवाल षड्यंत्र करेगा, जो कि खतरनाक होगा, अतः उसे मंत्रिमंडल में ले लेना ही श्रेयस्कर है.

      30 जून को बौदूई और मार्सेल बौथिलियार ने पेतां को सुझाव दिया कि वह संसद को छह महीनों के लिए निलंबित करके प्रशासन-सूत्र अपने हाथ में ले ले. पेतां को यह मंजूर था. परंतु लवाल और आलिबेर का मत था कि इस तरह के आधे-अधूरे कदमों से काम नहीं चलेगा. पराजित फ्रांस में ऐसा प्रशासन स्थापित होना चाहिए, जो जर्मनी से वार्तालाप कर सके. चूंकि हिटलर गणतांत्रिक सरकार से वार्ता करने को तैयार नहीं होगा. अतः संसद का अधिवेशन बुलाकर संसद से ही सारी सत्ता और नया संविधान बनाने का पूर्ण अधिकार पेतां को दिलाया जाये.

      बौदूई का मत था कि संसद के अधिकांश सदस्य यह ‘आत्महत्या’ करने को राजी न होगे. पेतां टालमटूल कर रहा था और कोई निर्णय नहीं कर पा रहा था. उसने बहाना बनाया कि इसके लिए राष्ट्रपति से सलाह करनी पड़ेगी. लवाल ने कहा कि राष्ट्रपति को मैं पदत्याग के लिए मना लूंगा. वह तुरंत गया, संविधान को बदलने के लिए लेब्रुन की रजामंदी लेकर घंटे-भर में लौट आया. लवाल ने गणतंत्र की समाप्ति का श्रीगणेश कर दिया.

      और इसमें उसे सोशलिस्ट पार्टी का भी समर्थन मिला, जिससे उसे स्वयं आश्चर्य हुआ. फासिस्ट तानाशाही के विरोधी सोशलिस्ट संसद-सदस्य फ्रांस्वा शेसीन ने आग्रह किया कि संसद पूर्णतया पेतां के अधीन हो जाये. एक और सोशलिस्ट नेता जोर्जेस मोने ने भी यही मांग की. मोने को तो यह भय भी था कि पेतां को कुछ हो गया गया, तो उसका उत्तराधिकारी कौन होगा? लवाल ने सुझाया कि पेतां स्वंय ही अपना उत्तराधिकरी नामजद कर दे. और इसकी कोशिश उसने पहले ही शुरू कर दी थी कि पेतां उसी को मानजद करे. परंतु पेतां ने इसमें कोई उत्साह नहीं प्रकट किया, तब लवाल ने यही उचित समझा. कि पहले गणतांत्रिक व्यवस्था को समाप्त करके पेतां को डिक्टेटर बनाया जाये. उसे पूरा विश्वास था कि इस प्रकार वह पेतां पर अपना प्रभाव जमा लेगा और फिर अपना स्वार्थ उससे सिद्ध करवा लेगा. इसके लिए उसने काम भी शुरू कर दिया.

      28 जून को मोटर-दुर्घटना में काउंटेस पोर्तस की मृत्यु हो गयी और पाल रेनोद घायल हुआ. उससे आशा थी कि वह गणतंत्र को बचाने का प्रयत्न करेगा, परंतु 9 जुलाई को वह डाक्टर की सलाह के विरुद्ध विशी गया भी तो अपने दो साथियों का बचाव करने के लिए, जो काउंटेस के सामान में छिपाये गये धन और आभूषणों के साथ पकड़े गये थे. वास्तव में दूसरे सब संधि-विरोधियों की तरह उसने भी हथियार डाल दिये थे और गणतंत्र की समाप्ति के लिए तैयार हो गया था.

      10 जुलाई की शाम को 5 बजे राष्ट्रीय असेंबली की बैठक यह निश्चय करने के लिए हुई कि देश को पेतां और लवाल के हाथों में सौंपा जाये या नहीं. दोनों सदनों के सदस्य हिम्मत हार चुके थे. लवाल के समर्थक मतदान की मांग कर रहे थे. असेंबली के अध्यक्ष जीनेनी ने किसी तरह शांति-स्थापित करके सदस्यों को अवसर दिया कि वे अपने-अपने विचार प्रकट करें. यही एक उपाय था, जिससे संधि-विरोध अपने विचार प्रस्तुत कर सकते थे. परंतु संधि-समर्थकों ने चिल्लाकर बहस समाप्त करने और मतदान की ही मांग जारी रखी.

      जीनेनी ने भी तब हार मान ली और मतदान करने को कहा. सभी जानते थे कि गणतंत्र के लिए यह मौत की घंटी है. 80 के विरुद्ध 569 मतों से तीसरे गणतंत्र ने आत्महत्या कर ली. 4 सितम्बर 1870 को प्रशिया से पराजित होने पर अचानक तीसरे गणतंत्र की स्थापना हुई थी. 70 वर्ष बाद अचानक ही उसका अंत हो गया. तीसरा गणतंत्र मर गया, उसे दफनाना भर बाकी रह गया था.

      लवाल और वेगांद तथा उनके समर्थकों के उकसाने पर पेतां ने प्राचीन एकछत्र राजाओं की तरह घोषणा की- ‘हम, फ्रांस के मार्शल फिलिप पेतां फ्रांसिसी राज्य के सारे कार्यकलाप अपने हाथ में लेते हैं और आज्ञा देते हैं कि…’

      उसने गणतांत्रिक संविधान की समाप्ति की आज्ञा जारी कर दी और ‘कानून बनाने तथा उनका पालन कराने’ का पूरा अधिकार अपने हाथ में ले लिया.

      दूसरी आज्ञा से उसने लवाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. अब केवल राष्ट्रपति लेब्रुन को पदच्युत करना शेष रह गया था. 13 जुलाई को पेतां ने लेब्रुन पास जाकर उससे कहा- ‘कष्टकर घड़ी आ गयी है. अपने देश की बहुत सेवा की है. परंतु राष्ट्रीय असेंबली मतदान ने नयी परिस्थिति उत्पन्न कर दी है. मैं आपका उत्तराधिकारी नहीं हूं, क्योंकि यह प्रशासन व्यवस्था ही नयी है.’

      लेब्रुन ने उत्तर दिया- ‘मेरी ओर से निश्चिंत रहें. कानून के प्रति नैतिक निष्ठा न होने पर भी जीवन-भर मैं उसका वफादार सेवक रहा हूं. फिर उसका पालन करने में मुझे कोई कठिनाई नहीं होगी. राष्ट्रीय असेंबली ने अपना मत व्यक्त कर दिया है. तमाम फ्रांसीसियों को उसे शिरोधार्य करना चाहिए.’

      लेब्रुन ने पदत्याग कर दिया और तीसरा गणतंत्र इतिहास की विषय-वस्तु बन गया.

(मार्च 1971)

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