संस्कृति क्या है? इस प्रश्न का सीधा-सा उत्तर हैः वह सब जो मानवीय जीवन को उच्चतर मूल्यों-आदर्शों से जोड़ता है, उसे संस्कारित करता है, वही सब संस्कृति को भी परिभाषित करता है. संकीर्णताओं से उबरकर एक व्यापक फलक पर जीवन की सार्थकताओं को समझने की कोशिश ने ही मनुष्य को संस्कारित किया है और यही संस्कारित स्थिति संस्कृति है. लेकिन संस्कृति यह स्थिति मात्र नहीं है, यह जीवन के बेहतर होने, उसे बेहतर बनाने की प्रक्रिया भी है और साधन भी.
हमारे आधुनिक जीवन की एक विसंगति यह भी है कि हम कुल मिलाकर एक आस्थावान जीवन जीने के बजाय एक यांत्रिक-सा जीवन जी रहे हैं और इसी के चलते जीवन में एक अनास्था और अर्थहीनता घर करती जा रही है. एक उपभोक्तावादी अपसंस्कृति हावी होती जा रही है हम पर. यही है वह सांस्कृतिक संकट जो मनुष्य को, मनुष्य-जीवन को मानवीय मूल्यों से विरत कर रहा है. अपने अपने टापू बना लिये हैं हमने. वैयक्तिकता और सामूहिकता दोनों ही के अर्थों में हम अपने इन टापुओं की सीमाओं के बंदी बनते जा रहे हैं. यदि इस समूह की परिभाषा में मनुष्य मात्र आ जाते, तब तो कोई संकट नहीं था, लेकिन विडम्बना यह है कि स्वयं को मनुष्य कहते हुए भी हम जातियों, वर्णों, वर्गों में बंटकर एक विभाजित जीवन जीने के लिए जैसे अभिशप्त हो रहे हैं.
कुलपति उवाच
व्यक्तित्व का विकास
कनैयालाल माणिकलाल मुनशी
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आनंद गहलोत
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संस्कृति के आयाम
विजय किशोर मानव
सभ्यताओं के संकट, संस्कृति की बलि
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