एक पंडित थे, बड़े स्वाध्यायी. शास्त्रार्थ करने के लिए उन्होंने कई ग्रंथों से सामग्री उतार ली, और शास्त्रार्थों में उनकी धाक जम गयी. ऐसे ही एक दिन उन्हें कुछ चोरों ने मार्ग में घेर लिया.
पंडितजी ने पास जितनी भी सामग्री थी, सब दे दी, परंतु वह कागजों का पुलिंदा अपने हाथ में उठाये रखा. जब एक डाकू ने वह भी लेना चाहा, तब अनुनय करते हुए बोले- ‘इन कागजों से शास्त्रार्थ करने में मुझे बहुत सहायता मिलती है, इनमें मैंने धर्म लिख रखा है.’
डाकुओं का सरदार इस पर बोला- ‘अरे पंडित, धर्म तो जीवन में उतारने की चीज़ है. कागज में लिख रखने की चीज़ थोड़ी है. तुमने सारा समय यों ही गंवा दिया.’ उसने कागज लौटाते हुए कहा.
पंडितजी सलज्ज भाव से बोले- ‘यह पहला शास्त्रार्थ है, जिसमें मैं पराजित हुआ हूं. अब से मैं धर्म को जीवन के पन्नों पर लिखूंगा.’
( फरवरी 1971 )