ज़िद मैंने पिता से सीखी थी

बड़ों का बचपन

 नेल्सन मण्डेला  >   


Nelson Mandelaमेरे जन्म के समय पिता ने एक ही चीज़ दी थी मुझे-मेरा नाम. रोलिहलहला. वैसे तो इसका मतलब होता है- ‘पेड़ की शाखा को खींचना’ पर समाज में इसका
प्रचलित अर्थ है गड़बड़ी करने वाला. मैं नहीं मानता कि नाम हमारी नियति होते हैं, पर बाद के सालों में, मेरे मित्र-परिजन उन सब तूफानी बातों के लिए मेरे इस नाम को उत्तरदायी ठहराते थे जो मैंने की थीं, या झेली थीं. मेरे जन्म का साल था- 1918. मेरे पिता कबीले के मुखिया थे. ‘मदीबा’ नाम था हमारे कबीले का. हालांकि मैं ‘शाही परिवार’ का सदस्य था पर मैं उन भाग्यशालियों में से नहीं था, जिन्हें शासन करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था. मेरे लम्बे-चौड़े पिता काफी कड़क प्रकृति के थे और बच्चों पर अंकुश रखना जानते थे. ज़िद्दी भी बहुत थे, यह भी एक गुण है जो मुझे पिता से मिला.

मेरे पिताजी को प्रधानमंत्री कहा जाता था जो वे थे नहीं, पर काम वही करते थे. वे हमारी जाति के राजाओं के सलाहकार थे. इतिहास में मेरी रुचि भी पिता की ही देन है. वे पढ़े-लिखे नहीं थे, पर बहुत अच्छा भाषण देते थे.

मेरे जन्म के कुछ अर्सा बाद एक विवाद के चलते मेरे पिता को मुखिया पद से हटना पड़ा था. पर मेरे पिता का विद्रोही स्वभाव और उचित के पक्ष में ज़िद के साथ खड़ा होने की प्रवृत्ति उनसे कोई नहीं छीन पाया. मुझमें भी यदि यह गुण कुछ मात्रा में है तो उन्हीं की देन है. एक विवाद में मेरे पिता को अपना पद और सम्पत्ति दोनों खोना पड़ा. तब हमें गांव भी छोड़ना पड़ा था. और हम ‘क्यूनो’ नामक गांव में जाकर बसे. मेरी बचपन की यादें इसी जगह से जुड़ी हैं. तब दक्षिण अफ्रीका में ज़मीन पर सरकार का कब्ज़ा होता था. ज्यादातर अफ्रीकी सरकार को वार्षिक किराया देते थे. वहां दो छोटे-छोटे प्राथमिक स्कूल थे. एक दूकान और एक छोटा-सा तालाब. हम लोग ज्यादातर मक्का खाया करते थे क्योंकि वह सस्ता होता था. चाय-कॉफी, चीनी गांव के कुछ धनी परिवारों के ही नसीब में थी. गांव में ज्यादातर औरतें और बच्चे ही थे, पुरुष वर्ग दूर खेतों-खानों में कमाई करने जाया करते थे. साल में शायद दो बार लौटते थे वे अपने खेतों को जोतने के लिए. बहुत ही कम लोग गांव में लिखना-पढ़ना जानते थे. हमारे पास तीन झोपड़ियां थीं. तीनों पर मेरी मां का शासन चलता था. मुझे याद है इन झोपड़ियों में हमारे रिश्तेदारों के बच्चे ही भरे रहते थे. बचपन में मैं शायद ही कभी अकेला रहा. अफ्रीकी संस्कृति में चाचाओं के बच्चे भाई-बहन ही माने जाते थे. चचेरे भाई-बहन नहीं. मेरी मां की बहन मेरी मां है, मेरे चाचा का बेटा मेरा भाई. मेरे भाई का बच्चा मेरा बच्चा.

मां की तीन झोपड़ियों में से एक रसोई थी. दूसरी सोने के काम आती थी और तीसरी सामान रखने के. हम चटाई पर सोते थे और ज़मीन पर ही बैठते थे. तकिया तो बहुत बाद में जाकर देखा मैंने. अपना उगाया अनाज ही खाते थे हम. हां गायों, बकरियों का दूध बहुत होता था हमारे घर में. मेरे बचपन में मेरा गज्यादातर समय खेलने और गांव के बच्चों के साथ झगड़ने में बीतता था. रात को उन्हीं बच्चों के साथ मैं खाता-सोता था. पांच साल की उम्र में ही मैं भेड़-बकरियों को चराने जाने लगा था. ये जानवर हमें खुशी के स्रोत लगते थे जो ईश्वर ने हमें वरदान में दिये थे. खेतों में ही मैंने एक ही वार से चिड़ियों को नीचे गिराना, शहद, फल, कंदमूल जुटाना सीख लिया था. मैं सीधा गाय के थनों से दूध पिया करता था. तैरना, मछली पकड़ना भी मैं बचपन में ही सीख गया था. खुले मैदानों, प्रकृति के सौंदर्य और क्षितिज के दृश्यों से मेरा नाता भी बचपन में ही जुड़ गया था.

हम अपने ही बनाये खिलौनों से खेलते थे. मिट्टी के जानवर और चिड़िया बनाते थे. प्रकृति की गोद में नाचते-फिरते थे. क्यूनू की पहाड़ी-चट्टानों पर फिसलना हमारा शगल था. हम तब तक फिसलते जब तक पीठ छिल न जाती या दुखने न लगती.

एक बार एक गधे ने मुझे एक पाठ सिखाया. हम बारी-बारी से उस पर चढ़-उतर रहे थे. बारी आने पर जब मैं उसकी पीठ पर बैठा, वह तेज़ी से एक कंटीली झाड़ी में जा घुसा. उसने अपना सिर मोड़कर मुझे गिराने की कोशिश की. मैं गिरा भी, पर उससे पहले कांटे मेरे सारे मुंह पर चिपक गये थे. दोस्तों के सामने मेरा अच्छा मज़ाक हो गया. पूर्व के लोगों की तरह अफ्रीकी भी अपनी इगज्ज़त के बारे में बहुत जागरूक रहते हैं. दोस्तों के सामने मेरा काफी मज़ाक बन गया था. हालांकि मुझे एक गधे ने नीचे गिराया था, पर मुझे एक सीख मिल गयी थी कि किसी को अपमानित करने का अर्थ उसे अनावश्यक क्रूर नियति से पीड़ित करना है. जब मैं लड़का ही था, तब भी, अपने विरोधियों को मैं उन्हें अपमानित किये बिना ही हराता था.

खेल-खालकर जब मैं घर लौटता था तो मां खाना बना रही होती. पिता हमें एक्सहोसा लड़ाकों की कहानियां सुनाते और मां पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही लोककथाएं. अक्सर इन कथाओं में कुछ शिक्षा हुआ करती थी. मुझे मां की सुनायी एक लोककथा याद है जो एक यात्री के बारे में थी. एक बूढ़ी औरत ने उस यात्री को अपनी दुखती आंख दिखाकर कुछ मदद करने के लिए कहा, पर यात्री आंख बचाकर निकल गया. दूसरा यात्री आया तो उसे भी उस औरत ने अपनी विपदा सुनायी. उस यात्री ने बुढ़िया की गंदी आंखें धोकर बुढ़िया को राहत पहुंचाई. तभी अचानक वह बुढ़िया एक सुंदर युवती में परिवर्तित हो गयी. उस व्यक्ति ने युवती से शादी कर ली और बहुत सारा धन कमाकर धनवान बन गया. यह कहानी सीधी-सादी है पर इसका संदेश बहुत सुंदर है – सद्गुण और विशाल हृदयता न जाने किस रूप में हमें उपहार दे दे.

हमारे कबीले के अन्य बच्चों की तरह ही मैंने भी देख-देखकर ही ज्ञान प्राप्त किया. हमें देखकर नकल करके ही सीखना होता था, सवाल पूछकर नहीं. जब मैं पहली बार गोरों के घरों में गया तो अक्सर यह देखकर हैरान होता था कि वे बच्चे कितने सवाल पूछते थे अपने मां-बाप से और मां-बाप हमेशा उनकी जिज्ञासा शांत किया करते थे. मेरे परिवार में सवाल परेशानी का सबब माने जाते थे. घर के बड़े वही जानकारी देते थे, जो कि समझते थे कि देनी ज़रूरी है. मेरे जीवन को रिवाज़ों, कर्मकांडों और निषेधों ने ही आकार दिया था. कबीले के बाकी बच्चे भी ऐसे ही पलते थे. पुरुष उन्हीं राहों पर चलते, जो उनके पिताओं ने बनायी थीं और औरतें माताओं की बतायी हुई राहों पर. बिना बताये ही मैं त्री-पुरुष के सम्बंधों को संचालित करने वाले नियम सीख गया था.

मैंने देखा कि पुरुष उन घरों में नहीं जाते थे, जहां किसी त्री ने बच्चे को जन्म दिया हो और नवविवाहिता बिना रीति-रिवाज के नये घर में प्रवेश नहीं करती थी. मैंने यह भी सीखा कि अपने पूर्वजों का अपमान करने से जीवन में विफलता और दुर्भाग्य ही मिलता है. यदि किसी से पूर्वजों का अपमान हो जाए तो कबीले के बड़ों से सलाह लेनी होती थी, वही पूर्वजों से ‘सम्पर्क’ करके क्षमादान की राह सुझाते थे. यह सब विश्वास मुझे स्वाभाविक लगते थे.

क्यूनो में मुझे गोरे लड़के नहीं दिखे. स्थानीय मजिस्ट्रेट ज़रूर गोरा था और नज़दीक वाला दुकानदार भी. कभी-कभी गोरे यात्री या पुलिस वाले उधर से गुज़रते थे. गोरे मुझे भव्य लगते थे- देवता. मुझे पता था कि इनसे भय और इगज्ज़त से पेश आना होता है. पर मेरे जीवन से उनका रिश्ता दूर का ही था और मैं गोरों के बारे में या उनसे हमारे रिश्तों के बारे में शायद ही कभी सोचता था.

हमारी छोटी-सी दुनिया में सिर्फ़ एक्सहोसा और एमफेंगू लोगों के बीच ही झगड़ा होता. एमफेंगू बाहर से आये थे और गोरों के नज़दीक थे. वे उन्हीं के खेतों में काम करते, इसलिए एक्सहोसा उन्हें नीची निगाह से देखते थे. पर वे मेहनती थे और गोरों से सम्पर्क के कारण ज्यादा शिक्षित थे और बाकी अफ्रीकियों से ज्यादा पश्चिमी भी.

ईसाई भी सबसे पहले यही लोग बने थे. उनके घर भी बेहतर होते. खेती में वैज्ञानिक तरीकों को पहले उन्हीं ने अपनाया और वे ज्यादा धनवान भी थे. वे मिशनरियों की इस बात को प्रमाणित करते थे कि ईसाई होने का मतलब सभ्य होना होता है और सभ्य होने का मतलब ईसाई होना होता है. अब भी कबीलों में कुछ वैर-भाव दिखता है पर मुझे इसका कारण ईर्ष्या गज्यादा लगती है. बचपन में जो कबीलावाद मैंने देखा था, वह अपेक्षाकृत कम हानिकारक था. तब मैंने कबीलों में वह शत्रुता नहीं देखी थी जो बाद में दक्षिण अफ्रीका के शासकों ने पैदा की और बढ़ायी.

मेरे पिता एमफेंगू के लोगों से शत्रुता नहीं रखते थे. दो एमफेंगू भाई  जॉर्ज और बेन उनके दोस्त थे. वे पढ़े-लिखे थे और ईसाई थे. पर मेरे पिता ईसाइयत से दूर ही रहे. उनका विश्वास अपने पूर्वजों के देवताओं में था. मेरे पिता कबीले के अनधिकृत पुजारी थे. फसल बुआई-कटाई, जन्म, शादी, मरण के अवसर पर परम्परागत काम वही कराते. एक्सहोसाओं के परम्परागत धर्म में पवित्र और सेक्युलर, प्राकृतिक और पराप्राकृतिक में कोई गज्यादा भेद
नहीं था.

मेरे पिता पर तो ईसाइयत का प्रभाव नहीं पड़ा पर मेरी मां अवश्य ईसाई बन गयीं. उनका नाम, फेनी, भी उन्हें चर्च में ही मिला था. पिता के ईसाई मित्रों के प्रभाव से ही मुझे भी ईसाई बनाया गया और स्कूल भेजा गया. वे ईसाई-बंधु अक्सर मुझे भेड़ें चराते, खेलते देखा करते. अक्सर वे आकर मुझसे बातें करते. एक दिन उनमें से एक मेरी मां के पास आया और बोला, “तुम्हारा बेटा होशियार है, उसे स्कूल जाना चाहिए.” मेरी मां चुप रही. हमारे परिवार में कभी कोई स्कूल नहीं गया था और मां मुझे स्कूल भेजने के लिए तैयार नहीं थी. पर जब मां ने यह बात पिता को बतायी तो वे इस बात के लिए तत्काल तैयार हो गये कि उनके सबसे छोटे बेटे को स्कूल जाना चाहिए. शायद इसका कारण यह भी था कि स्वयं उन्हेंने कोई शिक्षा नहीं
पायी थी.

क्यूनो की पहाड़ी के दूसरी ओर एक कमरे का स्कूल था. मैं तब सात बरस का था जब पिता मुझे वहां ले गये. पर इससे पहले उन्होंने मुझसे कहा कि स्कूल जाने के लिए मुझे ठीक-ठाक कपड़े पहनने होंगे. तब तक बाकी बच्चों की तरह मैं सिर्फ एक कम्बल ओढ़ा करता था, जिसे कंधे पर डालकर कमर में बांध दिया जाता था. मेरे पिता ने अपनी एक पैंट घुटनों तक काटकर मुझे दी. जब मैंने उसे पहना तो वह ठीक ही लग रही थी, हालांकि कमर से बहुत चौड़ी थी. मैं ज़रूर जोकर लग रहा होऊंगा, पर और कोई चारा नहीं था.

स्कूल में पहले दिन हमारी टीचर ने हम सब बच्चों के अंग्रेज़ी नाम रखे और कहा, अब हमें इन्हीं नामों से पुकारा जाएगा. तब यही परम्परा थी. जो शिक्षा मैंने पायी वह ब्रिटिश शिक्षा थी, जिसमें ब्रिटिश विचार, ब्रिटिश संस्कृति हमें परोसी गयी. मान लिया गया था कि ब्रिटिश संस्थान ही सर्वोपरि होते हैं. अफ्रीकी संस्कृति जैसी कोई चीज़ नहीं थी.

उस दिन मेरी टीचर ने मेरा नाम रखा- नेल्सन. उन्होंने मुझे यह नाम क्यों दिया, पता नहीं. शायद इस नाम का रिश्ता महान ब्रिटिश कप्तान लॉर्ड नेल्सन से हो. पर यह मेरा अनुमान भी हो सकता है.

(जनवरी 2014)

 

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