चिराग तले

मैंने बहुत ज़्यादा थक कर किताबों पर से नज़रें उठायां. अपनी जलती आंखों को दोनों हाथों से धीरे-धीरे मलकर एक जोरदार जम्हाई ली. उफ! इस पढ़ाई, इस परीक्षा से कितनी थक चुकी हूं. हर वर्ष परीक्षा देते-देते थक गयी हूं, लेकिन यह चस्का ऐसा नहीं, जो आसानी से छूट जाये.

    कुछ फ्रेश होने के लिए मैंने किताबों पर से नज़रे उठायीं, तो जैनब का मुस्कराता चेहरा मेरे सामने था. गुलाबी रंग, चमकदार चेहरा, बड़ी-बड़ी आंखें, चमकता ललाट और अधरों पर मचलती मुस्कराहट. जब मैंने जैनब का हसीन चेहरा देखा, तो अल्लाह मियां बेहद मेहरबान लगे कि दुनिया में ऐसी-ऐसी शक्लें मौजूद हैं.

    घर-भर के शोर से बचकर मैं सबसे अलग पिछले बरामदे के कोने में बैठी परीक्षा की तैयारी कर रही थी, इस भयंकर गर्मी में इस बरामदे के इस कोने में, जहां लाल फूलों वाली घनी बेल नीचे तक झुक आयी थी. इस भयंकर गर्मी में जबकि आसमान पर सूरज का राज था और कहीं धूप से पनाह नहीं थी, इस कोने में अंधेरा छाया रहता था. और मैंने यहीं पर डेरा डाल रखा है. एक आराम कुर्सी, एक साइड टेबुल और किताबों का एक ढेर.

    इस बरामदे से दो सीढ़ियां उतरकर छोटा-सा आंगन है, और फिर हमारे घर का पिछला दरवाजा, जो मासी और मेहतरानी के अलावा घर के धोबी के लिए खास तौर से था.

    सो मेरी पढ़ाई में अड़चन डालने वाली आवाजें मुझ तक नहीं पहुंच सकतीं, सिवा इसके कि सुबह दस बजे धड़ाम से दरवाजा खुलता, मेहतरानी अपना टोकरा और झाडू लिये प्रवेश करती, मेरी खैरियत पूछती, फिर मुझे और मेरी किताबों को अजिब नज़रों से देखकर आंगन की सफाई में जुट जाती. साढ़े दस बजे मासी और उनकी लड़की जैनब आतीं और चुपचाप रसोई की ओर चली जातीं. हफ्ते में एक दिन धोबी आकर परेशान करता, बस. इनके अलावा पूरी शांति थी.

    मैं इस आरामदेह और पुरसुकून कोने में उस समय तक पढ़ा करती, जब तक अम्मा कमरे की खिड़कियां खोलकर दोपहर के खाने की सूचना न देतीं और साथ-ही-साथ मेरी नवाबी और मुई पढ़ाई पर दो-चार प्रहार न करतीं.

    उठिये शहजादी साहिबा, खाना नोश करें- अम्मा जब भी व्यंग्य से यह कहतीं, मुझे बहुत मजा आता और मैं सचमुच शाहाना अंदाज में उठती और आहिस्ता-आहिस्ता कदम रखती हुई चलती, तो अम्मा के होठों की मुस्कराहट बिखर जाती और मैं अम्मा से लिपट जाती.‘दूर हो बला, मुझसे ऐसा मत चिपट,’ अम्मा चिल्लातीं और मुझे ऐसा महसूस होता कि इन नर्म-नर्म सायों में जिंदगी बिताने वाली मैं कितनी खुशनसीब हस्ती हूं. और अम्मा की मुहब्बत का साया इन घनी बेलों से कहीं अधिक सुखदायक है.

    मैं खाना खाकर फिर अपने पुरसुकून कोने तक आ पहुंचती, आरामकुर्सी पर लेटकर, आंखें मूंद लेती, आराम करने के बाद फिर पढ़ाई में जुट जाती. यहां तक कि सूरज ढलने लगता और अंधेरा गहरा हो जाता. फिर मैं थके-थके कदमों से अगले बरामदे में पहुंचती, जहां तख्त पर  अम्मा चाय, शर्बत, समोसे और पकौड़े शोर मचाते हुए बच्चों में बांट रही होतीं. मुझे देखकर उनकी खीज और बढ़ जाती. घर की बड़ी बेटी और निकम्मी. मेरी पढ़ाई की खबर ली जाती- ‘अभी तो खैर इम्तहान है, लेकिन और दिनों में भी तूने कौन-सा सुख मुझे दिया. हर समय औंधी-सीधी किताबों में मुह दिये रहती है.’

    अम्मा ने कुछ गलत नहीं कहा. इम्तहान न हों और छुट्टियां हों, तब भी मैं ज़्यादा समय इसी कोने में गुजारती. हर मौसम में मुझे इसमें बैठना अच्छा लगता है. सर्दियों में भैया से कह कर, या मैं खुद ही कैंची लेकर इस घनी बेल को थोड़ा-सा छांट देती हूं, तो यह कोना सूरज के प्रकाश से चमक उठता है. मैं आंखें मूंदकर आरामकुर्सी पर लेट जाती हूं, तो आरामदेह गर्म किरणें मेरे ठंडे शरीर को पुरसुकून गर्माहट से भर देती हैं. आंखें बंद किये ख्वाबों में डूबी रहती हूं.

    बारिश के मौसम में जब यही बेल मेरे ऊपर हल्के-हलके मोती बरसाती है, तो मुझे यह दुनिया बहुत ज्यादा खूबसूरत व रंगीन लगने लगती है. पतझड़ में एक-एक करके पत्ते मेरे ऊपर बरसते रहते हैं और मैं अनजाने दुखों में डूब जाती हूं. फिर बहार आती है और यह बेल मुझे सुर्ख फूलों का उपहार भेंट करती है…

    मुद्दतों से इसी ढंग से कभी गम और कभी खुशियों से दो-चार होती रहती हूं. लेकिन अम्मा अभी तक आदी नहीं हुइं. दिन के अतिरिक्त रातों को भी जब मैं छोटा-सा टेबुल लैंप जलाकर यहां किताबों पर झुक जाती हूं, तो उनकी बड़बड़ाहट और बढ़ जाती है. वैसे उन्हें यह सब कुछ ज्यादा बुरा नहीं लगता, लेकिन मां वाली आदत से मजबूर हैं कि औलाद की हर बात में मीन-मेख निकालें. इस पुरसुकून कोने से मेरा इश्क सारे परिवार में प्रसिद्ध होता जा रहा है. यहीं पढ़कर मैंने बहुत-सी परीक्षाएं बिना रोक-टोक पास कर लीं. यहीं बैठकर मैंने अपनी सबसे पहली कहानी लिखी. एक दिन मैं आंखें मूंदे लेटी थी कि भैया ने मेरी आंखों पर एक पत्रिका रख दी. पृष्ठ खुला था और खुले पृष्ठों पर छपी थी मेरी कहानी. मेरे शौक में वृद्धि हुई, किताबों और पत्र-पत्रिकाओं की संख्या में वृद्धि हुई और मैं कहानी लिखने लगी. इनके अलावा सबसे बड़ी बात, यहीं से मेरी और जैनब या जैनब और किताबों की दोस्ती हुई.

    जैनब हमारे घर बर्तन मांजने वाली मासी की रौशन-सूरत बेटी है, जिसे देखकर हमेशा मुझे ‘गुदड़ी में लाल’ वाली कहावत याद आ जाती है. मैंने इतना हसीन चेहरा बहुत कम देखा है. जैनब को देखने के बाद अगर मैं कभी गलती से आईना देख लूं, तो मुझे अपने आप पर तरस आने लगता है.

    रसोईका का काम करके जैनब को इस पिछले दरवाजे से वापस होना था और उस दिन धूप इतनी तेज थी कि वह मुझे इस ठंडे अंधेरे कोने में बैठा देखकर मारे ईर्ष्या के सीढ़ियां उतरना भूल गयी, और वहीं मेज पर टिक गयी. जब मैंने थक कर किताबों पर से नजर उठायी, तो मेरे सामने उसका मुस्कराता हुआ दमकता चेहरा था. वह किताबों के ढेर को अजीब नजरों से देख रही थी.

    मैंने मुस्कराकर उसकी तरफ देखा और फिर उसकी खनकती हुई आवाज़ सुनने के लिए बोली-‘क्या इन कितबों को पढ़ोगी जैनब?’ और जब उसने हैरान होकर, अपनी काली आंखें मेरी ओर उठायीं, तो मेरा जी चाहने लगा कि मैं बस अचंभे में डालने वाली बात ही करती चली जाऊं.

    ‘बीबीजी, मैं तो एक अक्षर भी नहीं पढ़ सकती.’ लेकिन उसकी नजरें किताबों पर फैल रही थीं और हाथ किताबों से खेल रहे थे. चिकने और खूबसूरत   कागज पर छपी हुई किताबों के जिल्द खूबसूरत रंगों के थे, उनमें ऐसी बातें लिखी थीं, जिनको पढ़कर मेरे जेहन की बुलंदियां आसमान ही छूने लगती हैं.

    मैं देख रही थी कि अक्षर अपरिचित थे, लेकिन जैनब किताबों में दिलचस्पी ले रही थी. मैंने फिर कहा-‘जैनब, मैं तुम्हें पढ़ना सिखा दूंगी. फिर तुम इन किताबों को पढ़ना.’ (उस क्षण शायद मेरे मस्तिष्क में उन्हीं किताबों के सुंदर अक्षर थे.)

    जैनब उन चिकनी और खूबसूरत किताबों के जादू में खोयी हुई थी. उसने हैरान होकर मेरी ओर देखा और बोली-‘क्या आप मुझे पढ़ना सिखा देंगी? क्या मैं यह सब कुछ पढ़ने लगूंगी?’

    ‘क्यों नहीं, तुम सब कुछ पढ़ने लगोगी. बस मेहनत करनी पड़ेगी.’ मुझे यों लगा कि मैं अपने छोटे भाई को पढ़ने का आसान तरीका बता रही हूं.

    इस पर वह कहने लगी-‘अच्छा बीबीजी, फिर मुझे पढ़ना सिखा दो!’ (गोया जैनब ने अपने लिए दुख खुद ही चुने थे.) जैनब बड़ी अच्छी शिष्या साबित हुई.

    धीरे-धीरे मेरे सिर पर तनी हुई बेल घनी होती गयी, किताबों के ढेर के साथ-साथ मेरी डिग्रियों में भी वृद्धि होती गयी और साथ ही जैनब ने कई किताबों को समाप्त कर डाला. विद्या लाल फूल वाली घनी बेल की तरह हमारे ऊपर साया कर रही थी, ऐसा साया, जिसमें सुखदायक अंधेरा और प्रातःकाल का ठंडा उजाला मौजूद था.

    मासी को जैनब की पढ़ाई से पहले दिन ही शिकायत हो गयी. जैनब बजाय काम करने के मेरे पास बैठी अलीफ से अनार, बे से बिल्ली वाली पहली पुस्तक पढ़ रही थी, तो मासी को गुस्सा आ गया-‘अरे, तू क्या करेगी इसे पढ़कर. तू बस इतना सीख ले कि बर्तन कैसे चमकाये जाते हैं.’

    जैनब को मासी का यह ताना बुरा लगा ही, पर मैंने इसे बहुत महसूस किया.

    ‘मासी मैं तुम्हारी जैनब को इतना पढ़ा दूंगी कि वह तुम्हारी तरह बर्तन धोने के बजाय किसी स्कूल में मास्टरनी हो जायेगी,’ मैंने कहा. इस पर मासी ने मेरी ओर चोर नजरों से देख, जैनब का हाथ पकड़ा और सीढ़ियां फलांगती हुई बाहर निकल गयी.

    लेकिन इसके बाद मासी अपने साथ जैनब को न ले जा सकी. उसने रो-धोकर मासी को राजी कर लिया था, और फिर वह नियम से हमारे यहां आने लगी. घर का काम करती और फिर पढ़ने बैठ जाती. शुरू में तो मैंने जैनब की पढ़ाई में ज्यादा ध्यान नहीं लगया. लेकिन फिर जब मैंने उसके शौक और उसकी बुद्धि की तीव्रता को देखा, तो मेरा दिल खुद-ब-खुद उसे पढ़ाने को हुआ. पढ़ने के साथ पढ़ाने का शौक भी मेरी जान को लगा था. जैनब के इस शौक ने मासी की आलोचनाओं में भी कमी कर दी थी. वह बाल-हठ के आगे मजबूर हो गयी.

    और धीरे-धीरे जैनब का मस्तिष्क सफर करता रहा, उसका व्यक्तित्व विशाल होता गया और उसके अंदर आत्म-विश्वास की भावना जागृत होने लगी. शूरू में जब जैनब ने पढ़ाई शुरू की थी, तो बरामदे में एक भीड़ लग गयी थी. बच्चे, अम्मा और कभी-कभी अब्बा भी यह तमाशा देखने आ जाते. फिर बच्चों ने अपनी किताबें लाकर दी, किसी ने पेंसिली भेंट की, तो किसी ने कुछ. गरज ये कि सबने जैनब की पढ़ाई में दिलचस्पी ली. लेकिन धीरे-धीरे भीड़ कम होने लगी. कभी-कभी कोई खिड़की में से झांककर जैनब को लगन से पढ़ता देख मुस्करा उठता था, बस.

    एक बात जरूर हुई कि बरामदे में भैया कि कुर्सी बढ़ गयी. जब तक जैनब पढ़ती रहती, वह समाचार पत्रों में  लीन रहते. फिर तो यह एक नियम-सा बन गया कि जैनब जब पढ़ती, भैया ज़रूर पाये जाते. इंटर से लेकर एम.ए. तक मेरा किताबों और जैनब का साथ रहा.

    जैनब ने इतने समय में बहुत कुछ सीख लिया-विदेशी किताबों के विषय उसे पसंद नहीं थे, बल्कि उसकी समझ में देश के पीले कागज की किताबें अच्छी  थीं, उनके विषय अच्छे थे. इन किताबों ने उसके मस्तिष्क के बंद किवाड़ खोले थे. विद्या की रोशनी ने उसके मस्तिष्क में जो प्रकाश फैलाया था, उसकी रोशनी में अपने चारों ओर फैले हुए अंधेरे उसे और अधिक गहरे नज़र आने लगे-सिर्फ वह उजाले में थी, और हर तरफ अंधेरा.

    जहालत बहुत-सी हालतों में एक नियामत है और ज़िंदगी के दुख झेलना मुश्किल नहीं. जैनब अब व्यक्तित्व में विद्या की रोशनी समेटे एक हस्ती बन चुकी थी, जो बेचैन और अपने वातावरण से ऊबी हुई थी. वह खुद अपने लिए एक उलझन थी. उसकी समझ में नहीं आता कि वह अपने आस-पास के, अपने घर के वातावरण में और खुद में किस तरह सामंजस्य स्थापित करे. और मुझे इसका आभास हुआ कि यह सब कुछ मेरा किया-धरा है।

    मैं जो कोने में बैठी अपनी किताबों से सर फोड़ा करती हूं, जीवन की हकीकतों से किसी हद तक अपरिचित थी. भैया का जैनब के समीप बैठ समाचार पत्र पढ़ना भी मैं न समझ सकी. इस अखबार की आड़ में वह जैनब की कोयल की तरह कूकती आवाज़ को सुनते, उसकी एक-एक अदा को देखते. उन्होंने जैनब के हाथों में लरजते कलम को भी देखा, और फिर आत्मविश्वास के साथ कलम को चलते हुए भी महसूस किया.

    अखबार हटाकर भैया ने बड़ी गहरी नज़रों से जैनब को उस रोज देखा, जब वह किताबों को आगे रखे लगातार रो रही थी. वह अपनी मां से लड़कर आयी थी. उसने अपने मंगेतर से शादी करने से  इन्कार कर दिया था, क्योंकि वह जाहिल था. मासी ने अपना सिर पीट लिया. पहले शायद जैनब को इसका एहसास न होता, लेकिन विद्या की रोशनी ने उसके जीवन को बेचैन कर दिया था.

    जैनब लगातार रोये जा रही थी. भैया बड़ी देर तक इस बरसात में भीगती जैनब को देखते रहे, और मैं सोचती रही थी कि काश मैं जैनब की कुछ सहायता कर सकती.

    मैं यह ज़रूर चाहती थी कि जैनब के दुखों का इलाज हो, लेकिन मुझे याद नहीं कि मैंने कभी इस मामले में भैया की मदद मांगी हो. इसलिए जब भैया ने जैनब को इस तरह लगातार रोते हुए देखा, और एक दिन मुझसे कहा कि वह मेरी शिष्या की हर तरह सहायता करने को तैयार हैं, तो मेरा दिल चाहा कि मैं इन सारी किताबों को फलांगकर कहीं दूर भाग जाऊं.

    मुझे यह स्वीकार है कि मैंने जैनब या भैया की कोई मदद नहीं की. अब्बा का गुस्सा, अम्मा के आंसू मेरे लिए दीवार बन गये. लेकिन भैया ने वही किया, जो वह चाहते थे, और जैनब? जैनब भी यकीनन खुश होगी भैया के साथ.

    भैया की तो अब इस घर में कोई चर्चा ही नहीं करता. पूरे घर में ऐसा सन्नाटा-सा छाया रहता है कि मैं अगले बरामदे में या कमरों में, जहां चाहूं बैठकर सारा दिन पढ़ती रहूं. बच्चे सहमे-सहमे फिरते हैं, अब्बा अपने कमरे तक होकर ही रह गये हैं, और अम्मा की ऊंची आवाज़ सुनने को कान तरस गये हैं.

    भैया मुझे अपने घर का सबसे ज़्यादा रौशन-ख्याल (ऊंचे विचारोंवाला) व्यक्ति समझकर, मेरे कॉलेज के पते पर दूसरे शहर से नियमित खत भेजते हैं. मैं बेदिली से उसे खोलकर पढ़ती हूं, लेकिन अधिकतर जवाब देना भूल जाती हूं.

    कभी-कभी मैं सोचती हूं कि आखिर मैंने भी तो पढ़ा था-‘हां, बेशक तुम्हारा भगवान एक है और तुम्हारा ‘बाप’ एक है. किसी भी रंग में, किसी भी हालत में, कोई किसी से बड़ा, या छोटा नहीं है.’ फिर आखिर मेरी विद्या में कौन-सी कमी रह गयी है, जो मैं भी अम्मा और अब्बा की तरह भैया को माफ न कर सकी?

    इसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं है.

– अनीसा जलाल

                          (जनवरी 1971)

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