खिलौना

♦  नारायण गंगोपाध्याय    

      खोजते-खोजते वेणु उस दुकान पर भी आ पहुंची. सांझ गहरी होती जा रही है. पास के सिनेमा-हाल के सामने मोटरें खड़ी हैं. सामने होटल की दीवार पर नियोन की निर्लज्ज घोषणा- ‘लेट्स गो टु…’

     बुश शर्ट, सेलर शर्ट, ट्राउजर, कंबिनेशन शू, सलवार, साड़ी. दो विदेशी नाविकों के साथ रास्ते पर ही दोस्ती करने की कोशिश कर रही है एक शीर्णदेह एंग्लोइंडियन लड़की.

     वेणु यहां, इस परिवेश में एकदम नहीं जंचती.

     मीरा काउंटर पर झुककर ‘कैश मेमो’ काट रही थी. अस्पष्ट आंखे उठाकर ओंठों के किनारे एक अभ्यस्त मुस्कान लाते हुए उसने कहा- ‘वन मिनिट प्लीज.’

     वैरा पैकेट बाहर की गाड़ी में रख आया. अब मीरा ने आंखे उठाते हुए कहा- ‘वेल मैडम, ह्वाट कैन आइ डू फार यू?’

     किंतु मैडम नहीं, वेणु! एक ओर खड़ी-खड़ी वह राकिंग-हार्स देख रही थी, अब पास आयी.

     ‘अरे तू?’ एकदम मातृभाषा में विस्मय छलक पड़ा. सचमुच, वेणु को मैडम नहीं कहा जा सकता. शरीर पर सावधाण-सी डोरिया साड़ी और मैलें छींट का ब्लाउज. पैरों में पुरानी मैली सैंडल. कंधे पर एक बड़ा थैला.

     उज्वल स्वस्थ हंसी हंसते हुए वेणु ने कहा- ‘बहुत दिनों बाद तेरी खबर लेने आयी हूं.’

     बहुत दिन! हां, सचमुच बहुत दिन हो गये. कॉलेज छोड़ने के बाद, चार वर्ष पहले रास्ते में उससे एक दिन मुलाकात हुई थी. कैसी है, कहां रहती है आदि पूछने के पहले ही सामने की ट्राम पर चढ़ गयी थी वेणु. उसने कहा था- ‘आज तो समय नहीं है मीरा, आफिस जा रही हूं. बाद में मुलाकात होगी.’

     उसके बाद मुलाकात फिर आज हुई, चार वर्षों के बाद.

     निरर्थक संकोच से साड़ी के आंचल को सम्भालते हुए मीरा ने कहा- ‘बैठ, बैठ!’

     मगर अनुरोध करने की ज़रूरत नहीं थी. उसके पहले ही लोहे की एक कुर्सी खींचकर वेणु बैठ गयी थी, बोली- ‘बड़ी अच्छी जगह नौकरी मिली है तुझे, खिलौने की दुकान में!’

     ‘नौकरी सब जगह एक-सी होती है. खिलौने की दुकान में हो, या जहाज कम्पनी के आफिस में.’

     कोई प्रतिवाद नहीं किया वेणु ने- ‘हां, सही कहा तूने. लेकिन फिर भी परिवेश का पार्थक्य तो है ही. ढेर-सी फाइलों से रंग-बिरंगे खिलौने कहीं बेहतर हैं- आंखों को अंततः आनंद तो देते हैं.’

     आनंद नहीं, आंखों में दर्द होता है. कभी-कभी पागल की तरह सब तोड़-फोड़ डालने की इच्छा होती है उसकी सेल्युलायड और प्लास्टिक के खिलौनों को टुकड़े-टुकड़े कर देने की इच्छा होती है- फेंक देने की इच्छा होती है मैकेनिक सेटों को, मैजिक कलर की किताबों को फाड़ डालने की आकांक्षा होती है- और एक अद्भुत कल्पना में वह सोचती है, यदि वह ‘कार्क-गन’या ‘शाट-गन’ होती…

     किंतु घुटन और अवसाद की ये बातें वेणु को नहीं कही जा सकतीं. वेणु के चमकते दांतों में स्वस्थ मुस्कान है, आंखों में आनंद की झिलमिलाहट है.

     मीरा ने पूछा- ‘तू अब भी नौकरी करती है क्या?’

     ‘हूं, बिना नौकरी के गुजारा कैसे होगा.’

     ‘कहां? वही रिहेबिलिटेशन?’

     ‘नहीं, नहीं. वह नौकरी तो कब की खत्म हो चुकी.’

     ‘छोड़ दी तूने?’

     ‘अपनी इच्छा से आजतक कोई नौकरी छोड़ता है?’ वेणु की हंसी फीकी-फीकी लगती है- ‘और फिर अच्छे वेतन की नौकरी? उन लोगों ने जवाब दे दिया भाई!’

     ‘क्यों?’ प्रश्न करने के बाद ही मीरा ने सोचा, यह पूछने की कोई आवश्यकता नहीं थी. नौकरी क्यों चली जाती है, सोचने का आजकल कोई अर्थ नहीं होता. नौकरी क्यों रहती है, शोध का विषय तो यही है. इन चार वर्षों में खुद उसे तीन बार नौकरी बदलनी पड़ी.

     लेकिन वेणु ने जवाब दिया- ‘ओवर स्टाफ और राजनीति.’

     अंतिम शब्द सुनते ही मीरा चौंक पड़ी. वेणु क्या अब भी कालेज की आदत नहीं छोड़ सकी है? क्या अब भी वह राजनीति में भाग लेती है? इस दुकान के मालिक मिस्टर पालिस राजनीति के डर से हरदम सहमे-से रहते हैं.

     ‘ओ.’ निरुत्ताप एकाक्षर जवाब दिया मीरा ने. साड़ी उसके कंधे से फिसलने की कोशिश कर रही है.

     उसकी एकदम कहने की इच्छा हुई कि तू आज जा वेणु, मैं बहुत व्यस्त हूं. किंतु कहने के पहले ही एक नये खरीदार के भारी जूतों की आहट मिली.

     ‘वेल सर, ह्वाट कैन आइ डू फार यू?’

     वही स्वर, वही सुर. ठीक इसी लहजे में उसने वेणु को सम्बोधित किया था- ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह पुनरावृत्ति. सिर्फ सर और मैडम का पार्थक्य.

     वेणु से दो हाथ दूर काउंटर पर झुका है वह आदमी. उम्र 40-45. पाउडर, पसीना और स्पिरिट जैसी एक गंध पंखे की हवा से सारे कमरे में फेल गयी. पीकर आया है वह.

     एक बार उसे देखकर मुंह घुमा लिया वेणु ने. सामने की शेल्फ में हैं- मिकी माउस, डोनाल्ड डक…

     रास्ते पर से आता बैंजो का स्वर- एक लम्बा, अंधा आदमी चला जा रहा है, एक फूलों की माला बेच रहा है- वेणु की तरह अस्वाभाविक.

     म्यूजिक के रिकार्ड की तरह मीरा बोलती जा रही है. वेणु कुछ-कुछ सुन पा रही है.

     ‘मैकेनिकल सेट… बच्चों की इंटेलिजेंस बढ़ाते हैं.’

     ‘नो, नो, वह नहीं’- शराब पिये गले की भरी-भरी आवाज- हाउंड की आवाज की तरह- ‘नया कुछ चाहिए, दोस्त के लड़के का जन्मदिन है.’

     ‘यह ‘कैट एंड द बाल’ देखिए. चाबी देते ही यह बिल्ली बाल से खेलने लगेगी. जापानी है. कलकत्ते में सिर्फ हमारी दुकान में मिलती है, वेरी चीप- सिर्फ बीस रुपये.’

     वेरी चीप- सिर्फ बीस रुपये! वेणु सोच रही थी- दो एक पसे का खिलौना कितने लोग अपने बच्चों के लिए खरीद पाते हैं! यह सियालदह, रथ के मेले का कलकत्ता नहीं है. यह दूसरा ही कलकत्ता है. सामने नियोन जल रही है- ‘लेट्स गो टू…’ एक रात में कितना खर्च होता होगा यहां? रास्ते में वह आदमी अब भी फूलों की माला बेच रहा है. इन मालाओं की कीमत हां कितनी होगी? दस रुपये? पांच रुपये? क्या मालूम? 

     अन्यमनस्क हो गयी थी वेणु. हठात उसने देखा, एक तीक्ष्ण हंसी हंस रही है मीरा- प्रतिदिन की अभ्यस्त हंसी. उस ओर एक बार देखकर ही वेणु को मिकी माउस की ओर नजरें घुमा लेनी पड़ी. अधेड़ उम्र के उस आदमी की आंखों में थी आदिम क्षुधा की नग्न छाया. मीरा के कंधे से साड़ी कब की फिसल चुकी थी.

     मिकी माउस की हंसी में तीव्र व्यंग्य था. मीरा के लिए एक कोमल सहानुभूति से वेणु का दिल भर उठा. नौकरी! इस नौकरी के लिए कितना भयंकर मूल्य चुकाना पड़ रहा है उसे.

     नोट गिनने की खच-खच-कैश मैमो की खसखस- तीखी मुस्कान की एक झलक, मीठे स्वर से ‘थैंक यू’- और उसके बाद, एक पैकेट लेकर भारी जूतों की वह आवाज चली गयी. पंखे की हवा में एक बार और फैल गयीं पसीना, पाउडर और स्पिरिट की वह मिली-जुली गंध.

     ‘वेणु!’ मीरा की आवाज आयी.

     वेणु ने मुंह घुमाया- ‘बोल!’

     ‘अब अपनी खबर तो सुना. क्या कर रही है आजकल?’

     ‘एक आश्रम बनाया है, रेफ्यूजी लड़कियों के लिए,’ वेणु ने स्वाभाविक होने की कोशिश की- ‘कुछ काम तो करना ही होगा, और फिर मेरा अपना संसार.’

     ‘ठहर-ठहर.’ मीरा मानो भूत देखकर चौंक पड़ी- ‘अपना संसार? ब्याह किया है तूने?’

     ‘हां, किया है.’ वेणु के ओठों पर मुस्कान तैर गयी.

     ‘किससे रे?’ अद्भुत उत्तेजना में सारस की तरह गला बढ़ा दिया मीरा ने, आंखों के ऊपर सेलोफेन कागज-सा कुछ चमक उठा- ‘कौन है वह?’

     ‘बहुत साधारण आदमी है, गांव के स्कूल का मास्टर.’ वेणु के ओंठों में मुस्कराहट, जैसे गिरफ्तार हो गयी है- ‘दो बार बड़े घर की हवा खा चुका है.’

     मीरा को फिर भी तसल्ली नहीं हो रही है. मन की आह को मन में ही दबाये फांसी की सज़ा सुनाने की तरह धीरे-धीरे उसने पूछा- ‘और, और बच्चा है?’

     है, दो वर्ष का बेटा! खूब नटखट है. वेणु के सांवले चेहरे पर लज्जा की तरंग दौड़ गयी.

     टेबल से छिटककर पेंसिल नीचे जा गिरी. उसे खोजने के लिए काउंटर के नीचे डूब गयी मीरा. वेणु के सामने फिर से खड़े होने में उसे दो मिनट लगे. ‘तब तो तू बड़े मजे में है. एकदम गृहणी! बड़ी खुशी हुई.’ काउंटर से हट गयी मीरा, सेल्फ से एक बाल ले आयी- ‘यह ले जा, बच्चे को देना.’

     ‘नहीं, रहने दो.’

     ‘क्यों? रहने क्यों दूं? तेरे बेटे को मैं दे रही हूं.’

     ‘नहीं भई, बुरा न मानना, ऐसा नहीं हो सकता.’

     ‘मौसी के नाते क्या मेरा इतना भी अधिकार नहीं कि मैं तेरे बच्चे को एक खिलौना दूं?’

     ‘तू मुझे गलत समझ रही है. सिर्फ मेरा ही बच्चा नहीं, वहां और भी बीस बच्चे हैं. लेना हो तो सबके लिए लेना चाहिए. हम सभी एक ही आश्रम में रहते हैं न.’

     ‘ओ!’

     फिर चुप्पी. बाहर रिकार्ड पर कोई धुन बज रही है. चौरंगी की मंदिर संध्या गहरी होती जा रही है. एक अधेड़ उम्र कि एंग्लोइंडियन महिला ने दुकान में प्रवेश किया.

     ‘इतनी देर कर दी तुमने मिस पार्कर? तुम्हारे कारण एक कप चाय तक मैं न पी सकी.’

     ‘खेद है. अब तुम जा सकती हो. तुम्हारी छुट्टी.’ मिस पार्कर मीरा के पास आकर खड़ी हुई.

     मीरा ने अपना बैग हाथ में लिया. पाईथन के नकली चमड़े का बैग. फिसलती साड़ी को उसने फिर से सम्भाला- ‘चल वेणु!’

     वेणु शायद बाहर ही जाना चाहती थी. वह साथ-साथ उठ खड़ी हुई और मीरा के पहले ही बाहर चली गयी.

     आंखों से इशारा किया मिस पार्कर ने, कौन है वह?

     ‘मेरी दोस्त.’

     ‘उसे भी बर्बाद कर रही हो.’ एक तीखी-सी मुस्काहट दिखाई दी पार्कर के ओंठों पर.

     ‘बेकार की बातें मत करो!’ धीरे-से धमकी दी मीरा ने.

     थोड़ी ही दूरी पर था रेस्तरां और बार. मीरा ने कहा- ‘चल चाय पियें.’

     ‘यहां?’ वेणु संकुचित हुई. ‘स्पोर्ट्स मेन’ की भावना वाली दुस्साहसी वेणु घबरा उठी. मीरा को खुशी हुई उसकी घबराहट देखकर.

     ‘डर लग रहा है तुझे?’

     ‘नहीं, डर नहीं कहा जा सकता है.’ वेणु ने थोड़ा ठहरकर फिर कहा- ‘ऐसे रेस्तरां में चाय आदि पीने का अभ्यास नहीं है न!’

     ‘चाय पीने में अभ्यास-अनभ्यास का कोई प्रश्न नहीं उठता. चल!’ कांच के दरवाजे को ठेलकर दोनों ने अंदर कदम रखा. एक बार वेणु ने चारों ओर निगाह दौरायी. इधर-उधर जो देशी-विदेशी नारी-पुरुष बैठे हैं, सबके सामने रंगीन ग्लास रखे हुए हैं. और फैली हुई है चारों ओर प्रिट और चुरुट की एक मिश्रित गंध.

     वेणु इस परिवेश में नहीं जंचती- एकदम नहीं. जो बैरा उनकी ओर आ रहा है, उसकी आंखों में विस्मय छलक रहा है.

     सिर झुका लिया वेणु ने. इसी अवसर पर मीरा की आंखें बैरे से मिलीं- ‘नहीं नहिं, वह सब नहीं!’ वेणु को सुना-सुनाकर मीरा कह रही थी दो चाय और कटलेट!’

     वेणु ने सिर उठाया- ‘कटलेट क्यों? चाय ही काफी है.’

     ‘सिर्फ चाय पियेगी? इतने दिनों बाद मुलाकात हुई है मुझसे…’

     वेणु ने बात नहीं बढ़ायी! सिर झुकाये बैठी रही. एक अपरिचित कलकत्ता. मीरा की दुकान में ही नहीं, यहां भी चारों ओर खिलौने नजर आ रहे हैं. रंगीन, चटकदार. रंगीन ग्लासों के सामने जो बैठी हैं, वे भी खिलौने-सी लग रही हैं. सचमुच वेणु यहां एकदम नहीं जंचती- एकदम नहीं.

     वेणु सिर झुकाये कार्पेट की ओर देख रही है चुपचाप. उसे याद आ रहा था, कालेज में यही मीरा ‘नटीर पूजा’ में श्रीमती की भूमिका में स्टेज पर उतरी थी. उस दिन कितनी शुचि-स्मित लग रही थी- आज भी वेणु के कानों में गुंज रहा है- ‘बुद्ध, खमतु में, खमतु में.’ किंतु आज सब बदल गया है.

     ‘तुम्हारा वह महिला आश्रम कहां है? कलकत्ते में?’ मीरा ने पूछा.

     ‘नहीं, कलकत्ते से बाहर. बेलगछिया से जाना पड़ता है.’

     ‘गांव में? असुविधा नहीं होती?’

     ‘थोड़ी-बहुत असुविधा तो होती ही है. कलकत्ते की सुविधाएं तो वहां नहीं मिल सकतीं. रेफ्यूजी लड़कियों के साथ काम करती हूं. सब किस्म की बाधाओं से गुजरना पड़ता है?’

     चाय ले आया बैरा.

     ‘ले पी.’… ‘क्या हुआ?’

     ‘कुछ नहीं.’ हठात एक अशोभन प्रश्न कर बैठी वेणु- ‘अच्छा, इस चाय का बिल कितने का होगा?’

     नकली, अंकित भ्रू दोनों जुड़ गये मीरा के- ‘ये सब व्यर्थ के प्रश्न क्यों?’

     ‘यों ही पूछ रही थी. कितने का होगा?’

     ‘कितने का? यही ढाई-तीन रुपये.’

     ‘ढाई-यीन रुपये!’ ढाई-तीन रुपये में तो मेरे आश्रम के बच्चों के लिए एक वक्त का दूध आ जाता.’

     मीरा के शरीर पर मानो चाबुक पड़ा. वेणु क्या उसे आघात पहुंचाना चाहती है? व्यंग्य करना चाहती है? क्रोध से, अपमान से मीरा गुम होकर बैठी रही. फिर सेलोफोन कागज की तरह उसकी आंखे चक-चक कर उठीं.

     ‘संसार में करने के लिए बहुत अच्छे काम हैं. लेकिन सब कोई, सब काम नहीं कर सकता.’

     ‘ठीक कह रही है तू.’ वेणु ने बुझे स्वर से कहा, प्रतिवाद नहीं किया. उसके बाद चाय को जल्दी-जल्दी पीकर उसने कहा- ‘तू धीरे-धीरे पी मीरा. मैं जाती हूं.’

     ‘ऐं! क्या हुआ तुझे?’ पूछा मीरा ने.

     ‘सात बज गये हैं. आठ बजे की ट्रेन पकड़नी होगी. वहां बहुत काम-काज हैं. फिर मेरा बच्चा भी रोना शुरू कर देगा.’

     मीरा का मुंह काला हो गया- ‘अच्छा, जा तू.’

     ‘गुस्सा मत होना.’ वेणु कहने लगी- ‘क्या करूं भई, कोई उपाय नहीं है. सिर्फ एक बात कहने आयी थी. तू तो अच्छे वेतन की नौकरी कर रही है. कुछ सहायता कर न गरीब शरणार्थियों की.’

     थोड़ी देर पहले ही वेणु ने उस पर चोट किया था, अब उसकी बारी है.

     ‘इस महीने में कुछ नहीं कर सकूंगी.’ मीरा कहने लगी- ‘दो नयी साड़ियां खरीदनी हैं. न्यू मार्केट में देख रखी हैं.’

     मैला ब्लाउज और डोरिया साड़ी पहने हुई वेणु ने कहा- ‘ठीक है, तो बच्चों के लिए कुछ खिलौने ही ‘डोनेट’ कर दे.’

     गले के स्वर में यथासम्भव तिक्तता मिलाकर मीरा ने कहा- ‘दुकान मेरी नहीं, मिस्टर पालिया की है. उनकी चीजों को लेकर चैरिटी करने का अधिकार मुझे नहीं है.’

     बड़ी निर्लज्ज है वेणु, फिर भी नहीं टली- ‘ठीक है, तो अगले महीने कुछ रुपये ही दे देना. मैं फिर आऊंगी.’ दरवाजे की ओर जाती हुई मुड़कर उसने फिर कहा- ‘बुरा मत मानना मीरा,मुझे आठ बजे की ट्रेन पकड़नी ही होगी.’

     तनिक देर के लिए हिंस्र कुटिल आंखों से मीरा दरवाजे की ओर ताकती रही. चाय ठंडी हो गयी है. अद्भुत तीक्ष्ण कंठ से मीरा ने पुकारा- ‘ब्याय!’

     वेटर के आने के पहले ही न जाने कहां एक पंजाबी युवक आ टपका. वेणु की परित्यक्त कुर्सी पर बैठ गया वह, मीरा को पहचानता था. उसकी ओर देखकर मीरा के ओंठों के किनारे एक हिंस्र रक्तिम मुस्कान फूट पड़ी. यह मुस्कान दुकान के खरीदारों ने कभी नहीं देखी थी- वेणु ने भी नहीं.

     और डेढ़ घंटे बाद.

     सिर्फ चारों ओर नियोन ही दप-दप करके नहीं जल रही है- मीरा के खून में भी आग जल रही है, आंखें भी जल रही हैं- किंतु उधार ली हुई उज्वलता नहीं है इन आग लगी आंखों में. ये आंखें वेणु ने नहीं देखी हैं- देखने की हिम्मत भी नहीं है उसमें.

     सहसा मीरा को जोर से हंसने की इच्छा हुई. आश्रम! बेलगछिया! अंधेरे रास्ते पर पुरानी काबुली सैंडल को घसीटती-घसीटती वेणु अब भी चल रही होगी. दूर से अपने बच्चे के रोने की आवाज सुन पा रही होगी वह. और यहां, यहां कितनी रोशनी है- कितनी रोशनी! इतनी रोशनी में तो खोयी सूई भी मिल जाती है. लेकिन, लेकिन- मीरा के गले में जैसे एक कांटा बिंध रहा हो- इतनी रोशनी होने पर भी एक परिचयहीन शिशु किस अनाथश्रम में खो जाता है, वह किसी को भी मालूम नहीं.

     हठात चौंककर रुक गयी मीरा. सामने ही उसकी दुकान है. अब बंद हो गयी है. केवल शो-केस की उज्वल रोशनी में जगमगा रहे हैं कुछ खिलौने- एक डॉल, दो मैकेनिक सेट, कुछ प्लास्टिक के छोटे-छोटे खिलौने, एक कार्क-गन.

     खिलौनों की ओर देखकर न जाने क्यों मीरा का दम घुटने लगा. वेणु के लिए ये खिलौने नहीं हैं. किंतु जो शिशु किसी अनजान अनाथश्रम में बढ़ रहा है, उसका भी क्या कुछ अधिकार नहीं है इन पर?

     एक गूंगी यंत्रणा से चिल्ला उठने की इच्छा हुई उसकी. उसका मन आर्तनाद कर उठा. बेलगछिया जाने की अब भी कोई  ट्रेन है क्या? अब भी क्या आशा कर सकती है वह? अब भी दौड़कर वह क्या वेणु को कह सकती है…

     नहीं, नहीं कह सकती. बहुत अंधेरा है वहां. उस अंधकार में वेणु चल सकती है- यह रोशनी उसके खून में शराब के नशे की तरह खेल रही है. इसके हाथ उसे मुक्ति नहीं मिल सकती. मृत्यु को आत्म-समर्पण करने के पहले इसी तरह, इस रोशनी के चारों ओर चक्कर काटते पतंगे की तरह परिक्रमा करते रहना होगा उसे.

     उस अंधकार के अंत में एक आश्रम है. और इस रोशनी के अंत में? इस उज्वल निर्लज्जता के अंत में क्या है मीरा के लिए?

     अभी तो वह सिर्फ कांच के शो-केस को फोड़ सकती है, चकनाचूर कर सकती है कार्क-गन को. किंतु उसे यह भी मालूम है कि इससे केवल धुंआ और आवाज निकल सकती है, और कुछ नहीं-कुछ नहीं…

 (अप्रैल 1971)

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