किताबों के देश में  –  शंभुनाथ

आकलन

याज्ञवल्क्य ने स्त्राr गार्गी के लगातार सवाल करने से गुस्सा होकर कहा था– ‘इससे आगे कुछ पूछा तो तुम्हारे सिर के टुकड़े हो जायेंगे.’ याज्ञवल्क्य किताबों के देश से बहुत दूर थे. किताबें सवालों से जन्मती हैं. इसलिए किताबों की ज़रूरत तब तक बनी रहेगी, जब तक समाज के लोगों में प्रश्न करने, संदेह करने का जज्बा है. दुनिया में जब पहली बार किताबें छपनी शुरू हुईं, सबसे ज़्यादा वे घबराये, जिनका ज्ञान पर एकाधिकार था. किताबों के 500 सालों के इतिहास ने दुनिया में अनगिनत बहसों को जन्म दिया. आज़ादी की नयीनयी मंजिलों के स्वप्न दिये और परिवर्तन का बिगुल बजाया. पुस्तकें हैं तो तर्क हैं, अनुभूति है और आज़ादी की बाकी लड़ाई है.

पुस्तकसंस्कृति मनुष्य की कल्पनाशीलता और विचारशक्ति को बचाने के लिए ज़रूरी है. व्यापारिक बुद्धि की गुलामी और दुःस्वप्नों से बाहर आने के लिए पढ़ना ज़रूरी है. ज़िंदगी के बारे में गहराई से कुछ जानने के लिए पढ़ना ज़रूरी है. उस समाज के लोगों के लिए पढ़ना और ज़्यादा ज़रूरी है, जहां अन्याय और दमन के अनगिनत मायावी रूप हैं. पढ़ना लड़ना है. पढ़ना स्वाधीन होना है. जिसका कोई विकल्प नहीं है. 21वीं सदी की एक बड़ी लड़ाई पुस्तकसंस्कृति और इसके ज़रिये मनुष्य की कल्पनाशीलता, संवेदनशीलता और विचारशक्ति को बचाने की है.

एक अच्छे लेखक की किताब पढ़ना, इस जीवनविरोधी माहौल में, जीवन में लौटना है. यह पराजय और साहस के बीच पुल बनाना और किसी ऊंचे मानवस्वप्न में साझा करना है. लग सकता है कि पुस्तकों की जगह अब टीवी, ब्लाग और ट्विटर ने छीन ली है. उदाहरण दिया जाता है कि अरब प्रिंगट्विटर क्रांति का ही नतीजा था. सलमान रुश्दी ने कहा– ‘अब लेखक की आवाज़ असर पैदा नहीं करती. लेकिन क्या नतीज़ा हुआ अरब प्रिंग का? मिस्र में एक कट्टर गया, दूसरा कट्टरवाद आया. खुले दिमाग के लोग फिर हाशिये पर चले गये. ट्विटर से जो क्रांति आयेगी, उसमें कोई ऊंचा मानवस्वप्न नहीं होगा. दो दशकों में जो सूचना क्रांति आयी है, इसने समाज में विपन्नता, बौद्धिक उथलेपन और व्यक्तिवाद को कितना बढ़ावा दिया है, यह कहने की ज़रूरत नहीं है. इंटरनेट निश्चय ही उपयोगी है, पर सूचनाक्रांति बहुत जल्दी सूचना भ्रांति में बदल गयी. क्यों?’

समाज के समाज बने रहने के लिए पाठक का होना ज़रूरी है. पुस्तक का पाठक होने का अर्थ है चेहराहीन भीड़ से बाहर आना. यह इतिहास में प्रवेश करना है. हमें पाठ्य माध्यम की विलक्षणता को समझना होगा. पढ़ते समय व्यक्ति का स्वहमेशा जाग्रत और सक्रिय रहता है जबकि टीवी देखते समय आदमी टीवी के सामने बुद्धूसा बैठा रहता है, निठल्ला! वह पढ़ते समय पाठ के किसी बिंदु पर ठहर कर सोच सकता है. कल्पना कर सकता है जबकि टीवी के धारावाहिक और विज्ञापन के सामने वह एक निक्रिय, विमुग्ध और वेध्य दर्शक होता हैविज्ञापनदाताओं के हाथों बेच दी गयी एक वस्तु!

किताबें दर्शक को पैसिव से एक्टिव बनाती हैं, उसे स्तब्ध से आत्मसक्रिय करती हैं. उसके भोक्तृत्व पर कर्तृत्व की प्रतिष्ठा करती हैं. दर्शक का पाठक बनना, कुछ सोचना शुरू करना है. पाठक को महज पॉप संगीत का श्रोता या टीवी दर्शक बना देना उसके अंतःकरण का संहार है. इसलिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बावजूद किताबों का कोई विकल्प नहीं है, जैसे कोल्ड ड्रिंक्स के बावजूद पानी का विकल्प नहीं है.

हिंदी के पाठकों को लेकर अक्सर रोनाधोना होता है. वे जो ज़्यादा पढ़लिख लेते या हुनरमंद हो जाते हैं, वे अंग्रेज़ी किताबों की तरफ चले जाते हैं. पश्चिमी देशों की तुलना में उन देशों में अंग्रेज़ी के पाठकों की संख्या ज़्यादा बढ़ी है, जहां लम्बे समय तक उपनिवेशवाद था. आज भारत में अंग्रेज़ी प्रकाशकों के फेस्टिवल ही फेस्टिवल हैं. इस बौद्धिक उपनिवेशवाद से निकलकर भाषायी पुस्तकसंस्कृति को विकसित करने का अर्थ है आत्मविसर्जन को रोकना, राष्ट्रीय आत्मपहचान की रक्षा करना और अपने स्वत्व को समझना.

हिंदी पट्टी के लोग नकली, रंगीन और चमत्कारपूर्ण चीज़ों की तरफ ज़्यादा आकर्षित होते रहे हैं. यही वजह है कि जड़ता को तोड़ने के लिए सबसे अधिक विद्रोह हिंदी क्षेत्र में हुए. ऋषियों, कवियों, विद्वानों और कलाकारों ने समयसमय पर आवाज़ उठायी. हिंदी क्षेत्र में महान भारतीय ग्रंथ रचे गये. अभी भारी पूंजी पर खड़ेबढ़े मनोरंजन उद्योगों का बहुत बड़ा निशाना हिंदी क्षेत्र है. सस्ती लोकप्रियतावादी चीज़ों का चारों तरफ बोलबाला है. सच्ची चीज़ों की यह एक ऐसी चुनौती है, जिसका सामना उन नागरिकों, लेखकों और पाठकों को करना है, जो अभी भी पुस्तकसंस्कृति के अंग हैं. हिंदी क्षेत्र में रूढ़िवादी संकीर्णता और अमेरिकी संस्कृति एक साथ दोनों इसलिए छाती जा रही हैं कि पढ़ने की संस्कृतिको केंद्र में रखकर वैसा कोई आंदोलन नहीं है जैसा पर्यावरण, एड्स आदि मुद्दों पर है.

मनुष्यता, मनुष्य की तर्क करने की प्रवृत्ति और उसकी आलोचनात्मक दृष्टि हाशिए पर जायेगी तो पुस्तकें भी महत्त्वहीन होती जायेंगी. आशय ऐसी पुस्तकों से है, जो सूचनाओं के डिब्बेसे अधिक हैं. आज हमला पुस्तकों पर ही नहीं है, मनुष्यता, मनुष्यों की तर्क करने की प्रवृत्ति और उसके विवेक पर भी है. इसलिए पुस्तकसंस्कृति को नवयौवन देने का अर्थ है, उस मनुष्य को फिर उद्बुद्ध करना जो तेज़ी से भोगपशु होता जा रहा है. किताबों के देश में होना थोड़ा और मनुष्य हो उठना है. किताबें हमें हमेशा नयी यात्रा में ले जाती हैं. वे हमें स्वाधीन मनुष्य बनाती हैं, सच्चा आनंद देती हैं. यह किताबों का देश उनका है, जो शब्द से प्यार करते हैं.

यह खुलासा करने की अधिक ज़रूरत नहीं है कि पुस्तकसंस्कृति के तीन मुख्य अंग हैंलेखक, प्रकाशक और पाठक. प्रकाशकों की भूमिका पुस्तकसंस्कृति को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण है. यह ज़रूरी है कि पुस्तकों की पाठकों तक पहुंच बनाने और लेखकों से रिश्ता दुरुस्त रखने के लिए कुछ नियमों और आदर्शों पर आम राय बनायी जाये. प्रकाशक बदलती दुनिया को देखते हुए बदलें और आपस में सहकारिता विकसित करें. भाषायी पुस्तकसंस्कृति में जान फूंकने के लिए पुस्तकों का व्यापक प्रचार ज़रूरी है. इसके अलावा एक ब्रांड के तहत हिंदी पुस्तकों की खुदरा बिक्री की एक पारदर्शी राष्ट्रीय शृंखला ज़रूरी है. बड़ी सरकारी खरीद की बाईपास सर्जरी से पुस्तक संस्कृति की ज़िंदगी ज़्यादा लम्बी नहीं होगी, वैकल्पिक उपाय करने होंगे. किताबों के देश के प्रथम नागरिक आम पाठक हैं.

साहित्य का पाठक किसी खास अस्मिता का प्रतिनिधित्व नहीं करता. वह इकहरी अस्मिता का आदमी भी नहीं होता. लेखक ऐसा हो भी, मगर पाठक ऐसा नहीं होता. यही वजह है कि लेखक किसी अनजाने कोने में यह दबाव झेलता है कि उसकी रचना में कहीं ऐसा स्पेसहो, जहां दूसरी अस्मिता या विचारधारा वाले लोग भी उसके अनुभव को बांट सकें. एक अच्छे लेखक में यह आकांक्षा स्वाभाविक है कि वह विशिष्टके साथ सार्वभौमको भी छू ले.

हर जीवित समाज में पाठक होते हैं. हमें जितना अंदाज़ा है, दरअसल उससे कहीं बहुत अधिक हिंदी पाठक हैं. वे किताबें पढ़ते हैं. वे घरों, मेलेठेलों, शिक्षासंस्थानों, शहरचौराहों और यात्राओं में कभी नज़र आते हैं कभी छिपे होते हैं. अब शिक्षा के प्रसार से नयीनयी जगहों से पाठक रहे हैं. दर्शक अपनी मूकता में छटपटा रहे हैं. दर्शक की मुक्ति है किताबों के देश में!

मई 2016

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *