एक अद्भुत व्यक्तित्व थे डॉ. श्रीकांत –  होमी दस्तूर

स्मरणांजलि

एक अद्भुत सर्जक प्रतिभा का नाम था डॉ. मनेश श्रीकांत जो 16 नवंबर 2015 को अचानक हमें छोड़कर चले गये. भारतीय विद्या भवन परिवार ने अपना सर्वाधिक प्रतिभाशाली सदस्य खोया है. एस.पी.जैन इन्टीच्यूट आफ मैनजमेंट एण्ड रिसर्च (SPJIMR) के ऑनरेरी डीन के रूप में उन्होंने लगभग तीन दशक तक ‘भवन’ की सेवा की.

शैक्षणिक एवं प्रबंधन के क्षेत्र में डॉ. श्रीकांत का अपना एक अनोखा स्थान था. हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल से जनरल मैनेजमेंट में डॉक्टरेट प्राप्त करने वाले डॉ. श्रीकांत ने कार्नेल विश्वविद्यालय से फाइनेंस एण्ड इकॉनामिक में एमबीए किया था और मिशिगन और इलिनायिस विश्वविद्यालयों से क्रमशः बी.एस. और एम.एस. की डिग्री प्राप्त की.

डॉ. श्रीकांत मुकुंद आयरन के चीफ एक्जीक्यूटिव थे. भूतपूर्व केंद्रीय इस्पात मंत्री श्री मोहन कुमारमंगलम के सलाहकार रहे और तत्कालीन वाणिज्य मंत्री श्री चिदम्बरम के मातहत वे ‘एक्सट्रीम फोकस ग्रुप’ के चेयरमैन थे. ‘सेल’ तथा विश्वेश्वरिया आयरन एण्ड स्टील लि. समेत अनेक कम्पनियों के वे डायरेक्टर थे. कई भारतीय और अमेरिकी कम्पनियों को वे सलाहकार के रूप में सेवाएं देते थे.

डॉ. श्रीकांत के व्यक्तित्व का एक और पक्ष भी था, जो बहुत से लोग नहीं जानते. वे गरीबों, वंचितों और दलितों के हितचिंतक थे. SPJIMR की ‘अभ्युदय’ प्रायोजना इसका एक उदाहरण है. झोपड़पट्टियों में रहने वाले गरीब बच्चों के जीवन को सुधारने का यह एक अनोखा प्रयास है. यह डॉ. श्रीकांत की सृजनात्मक कल्पनाशीलता और उनके हृदय की करुणा का प्रमाण और  परिणाम है.

गरीबों की सेवा की परम्परा उन्हें अपने परिवार से विरासत में मिली थी. गरीब आदिवासियों के लिए उनके पिता लक्ष्मीदास मंगलदास श्रीकांत द्वारा किये गये कार्यों को आज भी आदर से याद किया जाता है. जवाहरलाल नेहरू ने लक्ष्मीदासजी को परिगणित जातियों और जनजातियों के राष्ट्रीय आयोग का पहला अध्यक्ष नियुक्त किया था. गुजरात के दामोह में उन्होंने ठक्कर बापा और मामा फड़के के साथ मिलकर अति पिछड़ों के लिए बहुत काम किया था.

एस.पी. जैन इंस्टीच्यूट की बात करें. 1986 में जब डॉ. श्रीकांत ने इस संस्थान का निदेशक पद संभाला तो इसका स्तर मध्यम श्रेणी का था. लेकिन कुछ ही सालों में इस संस्थान की गणना देश के दस शीर्षस्थ प्रबंधन शैक्षणिक संस्थानों में होने लगी. यह वही समय था जब देश में आई.आई.एम. की संख्या तेज़ी से बढ़ रही थी. यह चमत्कार उन्होंने कैसे किया? इस प्रश्न का उत्तर काम करने के उनके मौलिक एवं निपुण तरीके में निहित है. मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा.

जब डॉ. श्रीकांत ने काम संभाला तो SPJIMR मुंबई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था. दो-तीन साल में ही उन्हें लगने लगा कि विश्वविद्यालय के नियम और वातावरण कुछ नया करने के मार्ग में बाधा बने हुए हैं. उन्होंने संस्थान को विश्वविद्यालय में से असम्बद्ध करने का निर्णय ले लिया ताकि वह खुली हवा में सांस ले सके और सृजनात्मक नवाचार एवं प्रयोगों का मार्ग प्रशस्त हो सके. यह एक क्रांतिकारी कदम था और ‘भवन’ के एक्जीक्यूटिव बोर्ड के कुछ सदस्यों को, स्वाभाविक था, यह रास न आता. यह 1990-91 की बात है. तब भारतरत्न सी. सुब्रह्मण्यम ‘भवन’ के अध्यक्ष थे. वे इस प्रस्ताव की दूरदृष्टि को तुरंत भांप गये. तत्कालीन कार्यकारी सचिव एवं मैं भी इसके पक्ष में थे. पर अपने अन्य सहयोगियों को कैसे मनाते?

डॉ. श्रीकांत का सोच सही था, पर वे ज़बानी बातचीत से कतराते थे. इसीलिए लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिलकर उन्हें समझाने में भी हिचकिचा रहे थे. वस्तुतः वे एकाकी व्यक्तित्व थे. इसलिए हम लोग बाकियों से मिलकर इस बारे में बातचीत करने लगे. अंततः बैठक बुलायी गयी. डॉ. श्रीकांत ने अपना प्रस्ताव एवं उसके तर्क प्रस्तुत किये. मुझे जिस बात ने प्रभावित किया वह यह थी कि न तो उन्होंने किसी को मनाना चाहा, न समझाना. वे एक निश्चित दृढ़ता से अपनी बात रख रहे थे. उनकी प्रस्तुति में एक सृजनात्मक कलाकारी थी. निर्णय हो गया. डॉ. श्रीकांत मानद डीन बना दिये गये. मैं तो उस लम्बे कद के प्रभावशाली व्यक्तित्व का मुरीद बन गया, जिसकी मुस्कान में गज़ब का आकर्षण था और जिसकी घुड़की से डर लगता था.

यह एक ऐसे रिश्ते की शुरुआत थी जो असामान्य भी था और अद्भुत भी. यह रिश्ता अलग ही किस्म का था, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता. एक हैरानगी का तत्व इसपर हमेशा छाया रहा. यह ऐसा रिश्ता था जिसे आधार बनाकर कोई काफ्का या गार्सिया मार्क्यूज़ कमाल की कहानी लिख सकता. इस अपरिभाषणीय प्रकृति ने इस रिश्ते को सुंदर और रहस्यपूर्ण बना दिया था.

शुरू-शुरू में इस रिश्ते को निभाना आसान नहीं था. डॉ. श्रीकांत ‘एकला चलो रे’ में विश्वास करने वाले व्यक्ति थे. अपने मन की बात वे बड़ी कंजूसी से उजागर करते थे. मैं इसका बिल्कुल विलोम था. पर धीरे-धीरे, लेकिन मुश्किल से तार जुड़ने लगे. मैंने अपनी पीठ थपथपायी. मुझे लगा था मेरे प्रयास सफल हो गये. वस्तुतः यह कोशिश चुनौतीपूर्ण और स्फूर्तिदायक थी. हम दोनों के बीच सही केमिस्ट्री जुड़ने में बस एक ही कदम की दूरी थी.

मेरा मानना है, हो सकता है मैं गलत होऊं, अंतिम कड़ी तब जुड़ी जब डॉ. श्रीकांत ने मुझे एक गुजराती स्तम्भ पढ़ने के लिए कहा. यह स्तम्भ ‘कूपमंडूक’ नामक व्यक्ति का लिखा हुआ था. उन्होंने ‘कूपमंडूक’ के कुछ विचारों के बारे में मुझसे बातचीत की- उन्हें लगा था वे बातें काफी प्रभावकारी हैं. मैं तत्काल समझ गया कि मेरा मित्र और कुछ भी हो सकता है, पर प्रभुवर्ग का नहीं है. उसका कदम सही जगह पर था. विश्व के प्रति उसका दृष्टिकोण समग्रतावादी है और उसके हृदय में करुणा है. वह उनके प्रति सहानुभूति रखता है जिन्हें टेगौर ने ‘सबसे अधम, दीन-हीन तथा हारा हुआ’ कहा था. कुछ दिन बाद डॉ. श्रीकांत को यह पता चला कि वह ‘कूपमंडूक’ मैं ही था तो उन्होंने मुझे बुलाकर बड़े प्यार और स्नेह के साथ मेरा अभिनंदन किया- ऐसा वे कम ही करते थे.

भले ही उन्होंने कभी इस बात का दिखावा न किया हो, पर थे वे पूरे ‘भवन’ वाले. उन्हें ‘भवन’ पर अभिमान था, पर ‘भवन’ के प्रबंधन के कुछ हिस्सों के वे आलोचक भी थे. मैंने उन्हें यह समझाने की कोशिश की थी कि ‘भवन’ जैसा एक बड़ा आंदोलन संघीय प्रक्रिया से ही चलाया जा सकता है, जिसमें केंद्रों के अध्यक्षों तथा कार्यकारी परिषदों को पर्याप्त स्वतंत्रता देनी पड़ती है. मुख्यालय-प्रबंधन का काम आदेश देना नहीं, सहायता करना, प्रेरित करना और समन्वय स्थापित करना है. अन्यथा केंद्रों के स्तर पर होने वाली मेहनत और पहल पर विपरीत प्रभाव ही पड़ेगा. कई कारक हैं ‘भवन’ की शानदार प्रगति के. एक बड़ा कारण ‘भवन’ की संघीय प्रणाली है. हां, अपने वैयक्तिक हितों को देखते हुए कुछ लोग स्वतंत्रता का गलत उपयोग कर सकते हैं. ऐसे में मुख्यालय को हस्तक्षेप करके स्थिति संभालनी पड़ती है, जिसमें काफी समय और ऊर्जा व्यय हो जाती है, पर यह सब तो इस काम के साथ जुड़ा हुआ है.

मैंने उन्हें उनका ही उदाहरण दिया था. SPJIMR और भवन के अंधेरी कैम्पस के काम में वे काफी स्वतंत्रता लेते थे और अच्छे परिणाम भी होते थे. सच तो यह है कि डॉ. श्रीकांत को जितनी स्वतंत्रता मिली हुई थी, उतनी भवन-परिवार के किसी भी सदस्य को नहीं मिली. वे अक्सर सीमा लांघ जाते थे, पर उनके किये को मंजूरी दिलाने के लिए मैं था. कभी-कभी तो मुझे बहुत परेशानी भी हो जाती थी, पर मैंने उन्हें पूरी स्वतंत्रता देने की हमेशा वकालत की, क्योंकि वे सचमुच असाधारण थे. एकबार ‘भवन’ एक्जीक्यूटीव बोर्ड की बैठक में उन्होंने, गलत ही थी, पर यह शिकायत की कि मुख्यालय उनके काम में रुकावट डाल रहा है. जब मैंने उनका ध्यान इस बात की ओर दिलाया कि वे स्वयं पहले यह स्वीकार चुके हैं कि उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता मिलती है, तो उन्होंने बड़ी शिष्टता से मेरी बात मान ली और साथ ही यह भी जोड़ा कि ‘इसीलिए पिछले सालों में SPJIMR इतनी प्रगति कर सका है.’ ऐसे थे डॉ. श्रीकांत. शिष्टता और शालीनता उनकी विशिष्टता थी.

मेरा यह मानना था कि डॉ. श्रीकांत की सृजनात्मक कल्पनाशीलता SPJIMR तक सीमित नहीं रहनी चाहिए. मैंने ‘भवन’ के तत्कालीन अध्यक्ष श्री प्रवीणचंद्र गांधी से अनुरोध किया कि डॉ. श्रीकांत को ‘भवन’ के पूरे अंधेरी कैम्पस का, वहां स्थित सभी संस्थाओं का चेयरमैन बना दिया जाये.

मैंने डॉ. श्रीकांत को ही यह काम सौंप दिया कि वे अंधेरी कैम्पस के चेयरमैन के अधिकारों और कर्त्तव्यों को परिभाषित करने वाले नियुक्ति-पत्र का प्रारूप बनाये. पर उन्होंने मुझसे ही यह काम करवाया, और प्रारूप में कुछ भी परिवर्तित नहीं किया. कागज़ी कार्रवाई को वे ज़्यादा महत्त्व नहीं देते थे, और न ही उनमें इस सबके लिए धैर्य था. उन्होंने कई परम्पराएं तोड़ीं, नियम तोड़े. कमेटियों के प्रति उनमें एक स्वस्थ अवमानना का भाव था. पर उन्होंने कैम्पस का तो रूपांतर ही कर दिया था, वहां के सभी संस्थानों का स्तर उन्होंने बढ़ा दिया था. वे जनतंत्रवादी नहीं थे. जितने प्रतिभाशाली वे थे, उसे देखते हुए यह सम्भव भी नहीं था. उनके जैसे सक्रिय और सृजनशील व्यक्ति में धैर्य नहीं होता. अपनी अधिनायकवादी शैली के कारण उन्होंने असंतोष की लहरें उठायीं, पर मुख्यालय ने हमेशा उनका साथ दिया. हालांकि मैं अक्सर उन्हें कहा करता था कि अति आत्मविश्वास और घमंड के बीच बहुत पतली रेखा होती है और सत्ता के सिक्के के सिर्फ दो पहलू होते हैं- दायित्व और विनम्रता. यह देखना सचमुच रोचक था कि धीरे-धीरे कैम्पस में सब लोग कैसे उनकी कार्य-शैली के कायल होते गये और उस वट-वृक्ष को स्वीकार लिया जो उन्हें शरण भी देता था और ऊष्मा भी और जिसने सारी सत्ता और दायित्व अपने ऊपर ओढ़ लिये थे.

मैं उनसे इतना प्रभावित था कि यह जानते हुए भी कि उनकी कार्य-शैली कठिनाइयां उत्पन्न कर सकती है, मैंने एक बार ‘भवन’ के एक्जीक्यूटिव सेक्रेटरी पद के लिए उनका पक्ष लिया था. वह ‘भवन’ के इतिहास का बहुत ही नाजुक समय था और मुझे लगा था कि उन जैसा दृढ़निश्चयी, निडर और अति आत्म-विश्वासी व्यक्ति उस समय की ज़रूरत है. पर उन्होंने बड़ी विनम्रता से मेरा प्रस्ताव ठुकरा दिया. शायद उन्होंने सोचा हो कि अंधेरी जैसे सुगठित कैम्पस के लिए भले ही उनकी कार्य-शैली ठीक हो, पर देश भर में फैले ‘भवन’ के समूचे तंत्र के लिए वह उपयुक्त नहीं होगी. शायद वे जानते थे कि जिन्हें वे मूर्ख समझते हैं  उन्हें सहना उनके बस का नहीं होगा. ‘भवन’ जैसे विशाल संगठन के लिए जिस बात की ज़रूरत है उसे जे.आर.डी. टाटा ने बड़े अच्छे ढंग से व्याख्यायित किया था. उन्होंने कहा था, ‘यदि मुझमें कुछ योग्यता है तो वह यह कि मैं लोगों के तरीकों और व्यक्तित्वों के अनुसार स्वयं को ढाल सकता हूं… कई बार इसके लिए स्वयं को दबाना पड़ता है. यह पीड़ादायक है, पर ज़रूरी है… नेता बनने के लिए आपको प्यार से लोगों का नेतृत्व करना होता है.’

वे दिन ‘भवन’ पर संकट के थे. व़फादार पुराने लोगों को इस संकट से लड़ना पड़ता था, भवन को इससे उबारना था. उस समय डॉ. श्रीकांत ने बड़े शानदार तरीके से स्थिति को संभाला. उनकी निष्ठावान सहभागिता ने संघर्ष को अतिरिक्त ताकत दी थी. मैं उन दिनों को हमारे ‘धंसक दिन’ कहा करता था. हम दोनों अक्सर दक्षिण मुंबई में मिलते, विचार-विमर्श करते. हमारी बैठक अक्सर नाना चौक के ‘बाइ दि वे’ में होती या ताड़देव के ‘स्वाति’ रेस्तरां में. जब मैं डॉ. श्रीकांत के घर जाता तो उनके लिए यह व्यंजन अवश्य ले जाता.

जब यह संकट मिटा तो वह समय आया जिसमें केंद्रीय ‘भवन’ और SPJIMR ने अपने इतिहास का अधिकतम विकास किया. ईश्वर और देवी मां की अनुकम्पा रही. ‘भवन’ के अध्यक्ष सुरेंद्रलालजी मेहता ने डॉ. श्रीकांत को एक्जीक्यूटिव कमेटी एवं बोर्ड की बैठकों के लिए स्थायी निमंत्रित नियुक्त किया. डॉ. श्रीकांत इन बैठकों में नियमित रूप से आते थे.

बहुत कम लोग जानते हैं कि डॉ. श्रीकांत की संगीत नें भी रुचि थी. वे सरोद बजाया करते थे, जिसकी गणना हिंदुस्तानी शास्त्राrय संगीत के सबसे मुश्किल वाद्यों में होती है. डॉ. श्रीकांत के अमेरिका में बिताये छात्र-जीवन के दिनों के उनके मित्र डॉ. अशोक गांगुली उनके सरोद-वादन की बात बताया करते हैं. परफार्मिंग आर्ट्स का शायद ही ऐसा कोई रूप होगा जिसमें उनकी रुचि नहीं थी. अंधेरी में ‘भवन कल्चरल सेंटर’ की कल्पना उन्हीं की थी, उन्होंने ही इसे साकार भी किया.

जब SPJIMR तथा ‘पारिवारिक व्यवसाय पाठ्यक्रम’ से सम्बंधित डॉ. श्रीकांत की दो प्रायोजनाओं को स्वीकार नहीं किया गया तो वे चुपचाप पद छोड़कर चले गये. उन्हें मनाने की हमारी सारी कोशिशें विफल रहीं. मैं अबतक नहीं समझ पाया कि एक्जीक्यूटिव बोर्ड और उनके अपने वरिष्ठ प्राध्यापकों की असहमति के बावजूद वे अपने प्रस्तावों पर क्यों अड़े हुए थे. मुझे लगता है कि निहित स्वार्थों वाले कुछ व्यक्तियों ने डॉ. श्रीकांत की बढ़ती उम्र एवं पार्किन्सन की बीमारी का लाभ उठाते हुए उन्हें किसी तरह भरमाया होगा. पर वे आसानी से मान जाने वाले व्यक्ति तो नहीं थे. ईश्वर ही जानता है, यह क्यों हुआ और कैसे हुआ.

लेकिन उनकी शिष्टता, प्रांजलता एवं भद्रता कभी कम नहीं हुई. जब मैं उनसे मिलने उनके घर गया तो सबकुछ पहले जैसा था. भावभीना स्वागत, समझदारी भरी बातचीत, आकर्षक विनम्रता. वे जानते थे कि उस दिन मेरा पेट ठीक नहीं था. इसलिए उन्होंने मेरे लिए बहुत सादा खाना बनवाया था- बाकी दिनों के विपरीत. जब मैंने कैम्पस के प्रबंधन के बारे में पूछा तो उन्होंने मुझे अनुभवी तथा बहुमूल्य सलाह दी. संस्थानों के बारे में, वहां के लोगों के बारे में उन्होंने अपनी बेबाक राय से मुझे अवगत कराया. उन्होंने बार-बार मुझे अपने खंडाला स्थिति बंगले में आकर कुछ दिन रहने का निमंत्रण दिया. मुझे इस बात का दुख रहेगा कि मैं वहां जा नहीं पाया.

मैं सितम्बर में वहां जाने का कार्यक्रम बना रहा था. पर दुर्भाग्य से मुझे मुंबई से बाहर जाना पड़ गया. 16 अक्टूबर 2014 को डॉ. श्रीकांत के बहनोई डॉ. मनु कोठारी का अचानक देहांत हो गया था. डॉ. श्रीकांत के लिए यह वैयक्तिक त्रासदी थी. मनुभाई के प्रशंसकों ने उनकी स्मृति में एक पुस्तक प्रकाशित की है. 16 अक्टूबर 2015 को इस पुस्तक का लोकार्पण होना था. कार्यक्रम में मुझे डॉ. श्रीकांत से मिलना था. हम मिले तो सही उस दिन पर तब डॉ. श्रीकांत अचानक यह दुनिया ही छोड़ गये. 16 तारीख की सुबह, मनु के देहांत के ठीक एक साल बाद डॉ. श्रीकांत का देहांत हो गया. नियति कितनी क्रूर हो सकती है. अक्टूबर के तीसरे सप्ताह में मुझे डॉ. श्रीकांत से मिलने जाना था. वह भी नहीं होना था. समय इतना निर्दयी है कि यह सामाजिक दायित्व निभाने और सुंदर वैयक्तिक सम्बंधों के निर्वहन के बीच आ जाता है.

मैं अबतक यह स्वीकार नहीं कर पाया हूं कि डॉ. श्रीकांत नहीं रहे. उनकी यादें मुझे घेरे हुए हैं. हमारा अनगिनत बार मिलना, उसके निवास पर भोजन हमारे धंसक वाले दिन, हमारे मतभेद और तर्क-वितर्क, उनकी अमूल्य सलाहें, उनका संवेदी परिहास, व्यक्तियों तथा विषयों के बारे में उनकी बेबाक टिप्पणियां, कार्यालयीन विषयों के अलावा सब विषयों पर हमारी गुजराती में बातचीत, उनका मेरी घटिया लिखावट की तुलना गांधीजी की लिखावट से करना. (एकबार उन्होंने लिखा था, ‘इतनी घटिया लिखावट वाला व्यक्ति कैसे इतना अच्छा लिख सकता है.’), उनका मुझे ‘ग्रेट कम्युनिकेटर’ की उपाधि देना और मेरा उन्हें ‘क्रियेटिव जीनियस’ कहना… सब बार-बार याद आ रहा है.

जब उनकी दोनों बेटियों ने चिता को अग्नि दी, तो मुझे लगा मेरे जीवन से कुछ सुंदर और महत्वपूर्ण निकल गया है. मनेश एक अनूठा व्यक्ति था. असामान्य योग्यता एवं सृजनात्मकता वाला व्यक्ति. कोई मान सकता है कि वह दुनिया से अलग-थलग अपने टावर में जीता था, पर विश्वास करें, उनके पास एक विश्व-दृष्टि थी. ‘भवन’ के एक कार्यक्रम में एकबार अनंतमूर्ति ने कहा था कि विश्व में घूमकर सामरसेट मॉम अच्छे लेखक बन गये. काफ्का अपने छोटे से कमरे में बैठकर विश्व को अपनी उंगलियों पर नचाते थे. श्रीकांत सामान्य व्यक्ति नहीं थे वह एक अद्भुत प्राणी थे!  

फरवरी 2016

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