इरोम शर्मिला  –  सुदाम राठोड़

मराठी कविता

नाबालिग लड़की की मानिंद
बलात्कार कर

दफ्न किये गये प्रजातंत्र के
पार्थिव को उलीचते हुए
शवों का लेखा-जोखा
मांग रही हो तुम इरोम
और यहां यह कमीनी व्यवस्था
इंतज़ार कर रही है
तुम्हारे शव का.

इरोम, उस भवन में भुतहा खौफ है
और वहां कत्ली कानून
पारित किये जाते हैं
उन्हीं से गुहार लगा रही हो तुम
आज़ादी की?

इरोम, आज़ादी की तुम्हारी भूख ने
जबसे दाना-पानी छोड़ दिया
तभी से कुपोषण के मसले ने
तूल पकड़ ली
और दिल्ली के तख्त-ए-ताऊस
की गवाही से
बदरंग हुआ जीर्ण तिरंगा
भूख के मारे तिलमिला रहा है.

सालों से
तुम्हारी नाक में नली घुसेड़कर
धड़कनें ज़िंदा रखी जा रही हैं
और तुम्हारी बूढ़ी मां
अश्कों के घूंट पी-पी कर
हर पल खुद ढो रही है
तुम्हारी मौत को
तुम दिनोंदिन क्षीण होती जा रही हो
पर क्रमशः नाकाम होते जा रहे
एक-एक अवयव से
चेत रही है ज्वाला
धुंधुआ रहा है आसमान
व्यवस्था ने न सही
पर इस युग ने ज़रूर
तुम्हारा लोहा मान लिया है.

इरोम, आज़ादी के धर्म की
दुहाई देनेवाली दरवेश हो तुम
जीत यकीनन तुम्हारी ही होगी…

अनुवाद – प्रकाश भातम्ब्रेकर 

मार्च 2016

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