इतने पास… पर कितने दूर (सम्पादकीय) अप्रैल 2016

संविधान-सभा की आखिरी बैठक में प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने अपने भाषण में एक खतरे की ओर इशारा करते हुए चेतावनी दी थी कि राजनीतिक आज़ादी पाने के बाद यदि हमने सामाजिक आज़ादी की स्थापना नहीं की तो हमारी आज़ादी न केवल अधूरी रहेगी, बल्कि उस पर अर्थहीन होने का संकट भी गहराता रहेगा. क्या अर्थ होता है इस सामाजिक आज़ादी का? उत्तर स्पष्ट है, समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के आधार पर एक ऐसे समाज की रचना जिसमें व्यक्ति को यह अहसास हो सके कि वह उस समाज का हिस्सा है जिसमें मनुष्यता के नाते सब समान हैं, सबको बराबर के स्तर पर जीने का हक है; जिसमें हर नागरिक को आगे बढ़ने के लिए समान अवसर मिलेगा. वस्तुतः यह सामाजिक आज़ादी एक ऐसे समाज की संकल्पना को साकार बनाने की गारंटी है, जिसमें हर व्यक्ति को मनुष्य समझा जाता है. मनुष्य समझने का अर्थ है- धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग, भाषा आदि के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव से मुक्ति. एक ऐसे समाज की रचना जिसमें रवींद्रनाथ ठाकुर के शब्दों में व्यक्ति बिना किसी भय के सिर ऊंचा करके जी सके… सामाजिक आज़ादी सिर ऊंचा करके जीने का अधिकार देती है- वह भी भय-रहित होकर. राजनीतिक आज़ादी के अड़सठ साल बाद भी क्या हमारे देश में हर नागरिक को यह अधिकार प्राप्त हो सका है?

काश, इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होता! हकीकत यह है कि जाति-प्रथा की कुरीतियों से उबरने की सारी घोषणाओं और समानता के सारे दावों के बावजूद वर्ष 2016 में भी एक बड़ा सरकारी अफसर अपने कार्यालय में आयी एक सरपंच की कुर्सी को इसलिए धुलवाता है कि वह सरपंच तथाकथित नीची जाति की थी. यह वास्तविकता जितनी बड़ी विडम्बना है, उससे कहीं बड़ी त्रासदी है. बाबासाहेब आम्बेडकर जब स्कूल में पढ़ते थे तो उनके सहपाठी इस बात की सावधानी बरतते थे कि कहीं वह ‘नीची जाति वाला’ उनके खाने के डिब्बे को छू न ले. वर्ष 2016 के भारत में भी अखबार में इस आशय की खबर छप रही है कि एक स्कूल से कथित सवर्णों ने अपने बच्चों को इसलिए निकाल लिया कि वहां ‘मिड डे मील’ बनाने वाली महिला उस जाति की थी जिसे आज भी हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा नीची जाति समझता है!

संविधान ने देश के हर नागरिक को समानता का अधिकार दिया है, पर हमारे सामाजिक व्यवहार और वैयक्तिक सोच में यह समानता कितनी दिख रही है? मनुष्य के नाते हम सब बराबर हैं, सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, एक-दूसरे के पास हैं, लेकिन कितनी दूरी है इस निकटता में? इस सामाजिक विषमता के चलते हमारा भारतीय समाज उन शर्मनाक टुकड़ों में बंटा दिख रहा है, जो मनुष्यता को कलंकित करते हैं. आखिर क्यों है यह स्थिति? आखिर क्यों उस चेतावनी को याद रखना हमने ज़रूरी नहीं समझा जो आम्बेडकर ने संविधान सभा की आखिरी बैठक में दी थी? क्यों हमारे राजनेताओं को, हमारे जनतांत्रिक शासकों को सामाजिक आज़ादी की लड़ाई को जारी रखने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई? लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि समता और बंधुत्व के आदर्शों की दुहाई देने वाले संविधान की कसमें खाने वाला इस देश का नागरिक, अर्थात मैं और आप, अपने दकियानूसी सोच को बदलने के प्रति जागरूक क्यों नहीं है? सामाजिक समता के बिना हमारी राजनीतिक आज़ादी अधूरी है. इसे पूरा करने की लड़ाई अनवरत चलती रहनी चाहिए.

अप्रैल 2016

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