(मुक्तिबोध का पत्र नेमिचंद जैन के नाम)
सरस्वती प्रेस,
बनारस कैन्ट
26-10-45
प्रिय नेमि बाबू,
आपका पत्र नहीं. समय का अभाव नित्य से अधिक ही होगा. पर, याद आपकी आती रहती है. आजकल धूप बहुत अच्छी खिलती है और मन तैर-तैर उठता है, और आपकी याद भी इसी सुनहले रास्ते से उतर आया करती है.
गो मैं यह सोचता हूं कि यह सब गलत है. दिन के बंधे हुए कार्य को अधिक बांधकर करने के पक्ष में रहते हुए भी कामचोरी से दिली मुहब्बत टूट नहीं पाती. मैं मानता हूं कि कर्त्तव्य ही सबकुछ है. पर उसके न करने का उत्तरदायित्व मानों मैं अपने ऊपर नहीं लेना चाहता. क्या ज़रूरी है कि कर्त्तव्य किया ही जाय, और उस समय आनेवाली आपकी याद को बाहर ही खड़ा रख मन के दरवाज़े को बंद कर दिया जाय. कर्त्तव्य के फ़लस़फे की बात ज़्यादा समझ में नहीं आती.
इसी कर्त्तव्य ने तो लोगों को पंगु कर दिया है, उनके हृदय के पंख तोड़कर उसे अधिक सामान्य बना दिया है. सरदी की पारदर्शिनी, हल्की-हल्की चोटें करनेवाली यह धूप और उसका उष्ण स्पर्श मानो मुझे जगा देता है. मन दैनिक नींद से जाग उठता है. वृक्षों के पत्र-संभार पर फल कर उनके गाढ़े हरियाले अंतराल में छाया-प्रकाश उत्पन्न करनेवाली यह धूप मन में सपने जगा देती है. कोई विलास-स्वप्न नहीं वरन् विजय-स्वप्न. जिन्हें देख लें पुराने मकान की जीर्ण मुंडेर पर बैठकर दूसरे के आंगन में ताकनेवाले लोग- कर्त्तव्य के पुराने मुहल्ले के बाशिंदे.
सचमुच अब सारे कर्त्तव्य से आज़ादी चाहता हूं. चाहता हूं मात्र कार्य, अपने अनुकूल. यह नहीं कि Petit-bourgeois कर्त्तव्य चलते ही चले जायें और मैं उसमें फंसता हुआ ही चला जाऊं.
अब मैं ज़िंदगी के प्रति उदास नहीं हूं. पहले उसकी शिकायत थी. अब तो उससे तकाज़ा है, मांग है.
रोज़ लिखने की सोचता हूं. लिखता भी हूं, पर बहुत थोड़ा. आप विश्वास नहीं करेंगे, एक कविता को दुरुस्त करने के लिए छह घण्टे लगते हैं. मैंने कई सुधार भी दी हैं. कई तो सुधारने की प्रक्रिया में परिवर्तित हो गयी हैं. पता नहीं कब तक मैं कविताओं को यों सुधारता बैठूंगा.
आपसे बड़ी-बड़ी शिकायतें हैं. पर अभी इस समय नहीं. बाहर बहुत नरम धूप खिली है और इस समय सोचने का कोई उत्साह नहीं. यदि आप यहां होते तो आपको पकड़कर मैं रेस्तरां में ले जाता और काम की और अपनी ऐसी-तैसी करता.
यह बतलाइए कि आपने इधर कुछ लिखा? लेकिन फुरसत तो आपको भी नहीं मिलती होगी, जो भी आपका समय खूब मज़े से कट जाता होगा.
वाकई अब बनारस छोड़ने की इच्छा हो रही है. दो दिन के लिए ही सही. कुछ ज़रूरी मालूम होता है. मैंने भी शादी क्या कर ली, अपने को धोखा दे दिया, आज़ादी का मुहताज हो गया. और अब शक्ति होते हुए भी शक्तिहीन और सामर्थ्यहीन मालूम होता हूं, खुद को ही बेवक़ूफ-सा लगने लगता हूं. घर-गिरस्ती भी एक बला है. सचमुच उज्जैन में मैं क़ाफी आज़ाद था. (जो भी यहां सुखी अधिक हूं) ईश्वर करे कोई लेखक अब शादी न करे, और करे तो घर-गिरस्ती के चक्कर से खुदा उसे मुआ़फ रक्खे. घर-गिरस्ती भी एक बला है, जिसके दो सींग हैं, जो गधे के होते हैं. बाल-बच्चेदार आदमी सोलह-आना गधा होता है. इसमें शक नहीं.
दुनिया के करोड़ों गधों में से मैं भी एक हो गया हूं, लेकिन अभी नया हूं. दुलत्तियां झाड़ देता हूं. और अभी पूरे तौर से गधे का फ़लस़फा- उसका बौना आदर्शवाद- आत्मसात् नहीं कर सका हूं. पर इससे तकल़ीफ तो होती ही है.
डॉक्टर साहब के क्या हाल हैं? उनसे भेंट होती है? मैं उन्हें अभी तक लिख नहीं सका. वे नाराज़ तो होंगे ही.
मेरे कविता-संग्रह की भूमिका के बारे में क्या सोचा? आप क्यों नहीं लिख देते? अब तक बड़े-बड़े लोग ही लिखा करते हैं, अब यह बात भी सही. उत्तर जल्दी दीजिए. पुस्तक के नाम-वाम के चक्कर में नहीं पड़ता. कुछ तो भी रख दूंगा. पर छायावादी नाम नहीं रक्खूंगा.
मेहनत करूं तो लेखन से पैसे मिल सकते हैं. इसमें संदेह नहीं. पर साहित्यिक श्रम जितना अधिक आवश्यक है उतना ही अभाव है समय का. दुनिया के सारे कार्यों से निवृत्त हो, थकी हुई पीठ और बोझिल मस्तिष्क ले, टिमटिमाते कंदील के धुंधले प्रकाश में कलम चलने तो लगती है पर खुद को कोसती हुई. इस मेहनत को देखते हुए, मुझे हर कविता के पांच रुपये प्रकाशक से charge करना चाहिए.
पर अब साहित्यिक श्रम मुझे करने ही पड़ेंगे. हिंदी सुधारने की कोशिश शुरू हो गयी है. छोटी-सी phrase कोई चुस्त जबान-बंदी झट नोट कर लिया करता हूं, बिल्कुल शॉ के लेडी ऑ़फ दि डार्क के शेक्सपियर की भांति.
इसके पहले, मैं हिंदी के साहित्यिक प्रयासों के सिवाय, कभी भी लिखा नहीं करता था. मेरे अत्यंत आत्मीय विचार मराठी या अंग्रेज़ी में निकलते थे; जिसका तर्जुमा, यदि अवसर हो, तो हिंदी में हो जाता था. इसीलिए जानबूझकर यह पत्र हिंदी में लिख रहा हूं. मेरा खयाल है कि मेरी भाषा सुंदर न भी हो सके वह सशक्त होकर रहेगी, क्योंकि उसके पीछे, अंदर का ज़ोर रहेगा. बतलाइए, क्या मेरा सोचना गलत है? इसके बारे में आप ज़रूर लिखिए. मुझे साज-संवार की प्रतिष्ठित बोली पसंद नहीं. चाहता हूं कि इसके विषय में आप मत-प्रदान करें. क्या मैं अपनी हिंदी सुधार सकता हूं? उसे सक्षम, सप्राण और अर्थ-दीप्त कर सकता हूं?
पत्र आप लम्बा लिखें; देखिए, मैं आपके बारे में कुछ भी नहीं जान रहा हूं, और अभी साल कटना है जिसके बाद आप मुझे मिलेंगे. यह भी लिखें कि पत्र की भाषा कैसी है. और… और… सब लिखें. मेरे लिए किसी भी तरह से दो घण्टे निकाल लें, शीघ्र ही.
शांता स्कूल जाया करती है. शायद मैं उसे अब अधिक प्यार करता हूं. कुछ, आप-ही-आप अंदर से तब्दीली हो गयी है. मुझमें और उसमें भी. परन्तु, मेरी आंखों के सामने घर-गिरस्ती को देखकर काले सपने आया करते हैं! मैं वज़न सम्हाल नहीं पाया; और हर महीने की बीस तारीख के बाद दिवालियापन सताता रहता है- क्रुद्ध प्रेत-सा. और अब सरदी आ गयी है.
बबन साहब ने स्कूल छोड़ दिया है, और वह वकालत करने लगे हैं. दादा (हमारे पिता) के पत्र नित्य आते रहते हैं. बड़े ही विह्वल पत्र. सचमुच वात्सल्य भी आपत्ति है. ईश्वर करे, मुझे न सताये यह रोग. बेरुखी सबसे अच्छी. श्रीपत रायजी जयपुर गये हुए हैं; उन्तीस तक वापस आ जायेंगे. अज्ञेयजी को एक पत्र लिखा था अर्थहीन nonsensical पत्र. जिसका उत्तर था कि मैं कलकत्ते पर जानेवाली ट्रेन पर उन्हें मिलूं. मिला था. देख भर लिया. बातचीत होती
ही क्या!
श्रीमती रेखाबाई की क्या स्थिति है? और आगे का कार्यक्रम क्या? क्या ही विवेक-बाह्य (irrational) तृषा है कि जिन-जिन लोगों से आपको लगाव है उन्हें मैं भी जानूं-पहचानूं और निकट आऊं. यही कारण है कि भारत भूषणजी के प्रति नित्य से अधिक उत्सुक रहता हूं.
आजकल कुछ उर्दू कविताएं मन में ठहर गयी हैं. उसके कुछ शेर…
फ़कीराना आये सदा कर चले
मियां, खुश रहो हम दुआ कर चले
व’ क्या चीज़ है आह जिसके लिए
हरयक चीज़ से दिल उठाकर चले
कोई नाउम्मेदाना करके निगाह
सो तुम हमसे मुंह भी छिपाकर चले
दिखाई दिये यूं कि बेखुद किया
हमें आपसे भी जुदा कर चले
जबीं सिज़दे करते ही करते गयी
हकेबंदगी हम अदा कर चले
परस्तिश की यां तक कि ऐ बुत मुझे
नज़र में सभों की खुदा कर चले
गयी उम्र दर बंद ]िफक्रेगज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हमसे ‘मीर’
जहां में तुम आये थे क्या कर चले।
हकेबंदगी अदा करते हुए,
आपका सस्नेह
ग.मा.मु.
(जनवरी 2016)