अभावों और असुविधाओं से जूझते हुए अपने व्यक्तित्व को अपने हाथों गढ़ना और जीवन-पथ पर अविचल भाव से आगे बढ़ते जाना आदमी के आत्मबल को सूचित करता है. मेरे मित्रों और सहकर्मियों में श्री गिरिजाशंकर त्रिवेदी आत्मबल के मामले में असंदिग्ध रूप से धनी थे. किशोरावस्था से निकलने के साथ ही पढ़ाई बंद करके जीविकोपार्जन में जुट जाना उनके लिए ज़रूरी हो गया था. परिवार के बड़े बेटे के रूप में अपने कंधों पर आ पड़े कर्तव्यों को उन्होंने धीरता के साथ निभाया. साथ ही अपनी महत्त्वाकांक्षा और उसे पूरा करने के संकल्प को भी उन्होंने जिलाये रखा, जो कि शायद कम आत्मबल वाले व्यक्ति के लिए सम्भव न होता.
कई जगह काम करने के बाद 1960 में वे हमारे सम्पादक श्री सत्यकाम विद्यालंकार के निजी सहायक के रूप में ‘नवनीत’ के स्टाफ में शामिल हुए. उनकी क्षमताओं को देखकर एक-डेढ़ साल बाद उन्हें सम्पादकीय विभाग में स्थान दिया गया. क्रमेण पदवृद्धि पाते हुए अंततः वे सम्पादक के पद पर पहुंचे और दीर्घकाल तक उस पर आसीन रहे. विशेष बात यह भी कि दफ़्तर के कामकाज और पत्नी एवं पांच बच्चों के परिवार के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी निभाते हुए उन्होंने प्राइवेट विद्यार्थी के तौर पर इंटरमीडिएट, बी.ए. और अंततः एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की, जो कि कम आत्मबल वाले व्यक्ति के बूते की बात नहीं थी. स्वभाव से श्री त्रिवेदी स्थिरचित्त थे. काम का बोझ उन्हें कभी उद्विग्न नहीं करता था. वे भरोसेमंद साथी और सहृदय सहकर्मी थे. इन खूबियों ने उन्हें नवनीत-कार्यालय का एक सुदृढ़ स्तम्भ बना दिया था.
साथ ही वे एक सार्वजनिक व्यक्ति भी थे. मुम्बई के हिंदी भाषी जगत में उनका अपना विशिष्ट स्थान था. वे हिंदी कविता के रसिक थे और स्वयं कवि थे. मुम्बई में बचपन से पलने के कारण मराठी और गुजराती अच्छी तरह जानते थे. उनका मित्र-वृंद विशाल था. यह सोचकर दुःख होता है कि दृढ़ काया और नियमित दिनचर्या वाले श्री त्रिवेदी को जीवन के अंतिम दौर में जिगर के कैन्सर से जूझना पड़ा. योग्य चिकित्सकों के इलाज और अच्छी सुश्रुषा के बावजूद 87 वर्ष की उम्र में उनका देहावसान हो गया. उनकी पत्नी श्रीमती विद्यादेवी कुछ वर्ष पहले ही चल बसी थीं.
उन्हें नवनीत-परिवार के अंतिम प्रणाम!
– नारायण दत्त