हेलन की आत्मकथा (भाग – 1)

 

मेरा जीवन बड़ी विचित्रताओं से भरा है. इसीलिए इस कथा में ‘रस’ मिल सकता है.

संयोग देखिए – मेरे पिता यूनानी, मां ईरानी और पति हिंदुस्तानी हैं. मुझे संतान-सुख नहीं मिला यानी मेरी अपनी संतति नहीं है. अतः मेरी कथा का अंत है. भारतीय संस्कृति में पुत्र की कामना इसी कारण की जाती है कि खानदान की कथा आगे बढ़ती रहे.
लेकिन मेरी…

मैं अपने पिता सेल्यूकस को बाबा कहती थी. बाबा की कही हुई कथाएं आपके लिए इतिहास हैं, मेरे लिए वे जीवंत इतिहास हैं. उन्होंने ही मुझे बताया कि अपने यश के लिए और यूनान के साथ अपनी पहचान बनाने के लिए सिकंदर महान ने फारस पर हमला किया. बड़ी वीरता से युद्ध लड़कर उसने फारस की शीतकालीन राजधानी सूसा और बसंत की राजधानी बेबीलोन पर अधिकार कर लिया. वह समारोहों की राजधानी पर्सीपोलस पहुंचा, जहां के खजाने को देखकर उसकी आंखें चुंधिया गईं. पूरा खजाना बीस हजार खच्चरों और पांच हजार ऊंटों पर लाद कर हटाया गया. नशे में धुत्त होकर उसने राजमहल में आग लगाने की आज्ञा दे डाली. फारस में सिकंदर की विजय का एक कारण बाबा यही मानते थे कि तत्कालीन राजा दारा तृतीय अपने पूर्ववर्ती की हत्या कर राजगद्दी पर बैठा था. अतः जनता उससे नाराज थी. उसका सहयोग उसे नहीं मिला. राजा स्वयं भी बहादुर न था.

विजयी सिकंदर फारस के पराजित सम्राट दारा की पत्नी और दो पुत्रियों को देखकर उन पर मोहित हो गया. इसके पूर्व वह सोग्डियाना (समरकंद) की राजकुमारी रोक्सेना से विवाह कर चुका था. यद्यपि उसके गुरु अरस्तू ने उसे नारी से सदा दूर रहने के लिए कहा था. इस उपदेश के पीछे उनके अपने अनुभव रहे होंगे. कहा जाता है कि उनका अपना वैवाहिक जीवन अत्यंत कटु था. कदाचित् नारी-गरिमा के विरुद्ध होने के कारण वे तर्क बाबा ने मुझे नहीं बताए. रोक्सेना से विवाह के पूर्व तक भले ही नारी से दूर रहकर सिकंदर महान स्वयं को पक्षी की तरह स्वतंत्र, शरद ऋतु की भांति पवित्र, कमल-पत्र के समान निर्लिप्त समझते रहे हों परंतु फारस में रूप, सौंदर्य और मनीषा की देवी – ईरानी राजपुत्री – की कामना उनके मन में ऐसी उमड़ी कि वे पैर में शूल गड़े सिंह की तरह अपनी भावनाओं से अवश हो गए.

गुरु के उपदेश की उपेक्षा को छिपाने और दूसरे विवाह का औचित्य सिद्ध करने के लिए राजनीतिक कारणों की आड़ में सिकंदर ने फारसी राजकन्या से विवाह किया. धर्म, जाति, राष्ट्र, संस्कृति के आधार पर उनके विवाह का विरोध न हो इसलिए उन्होंने अपने अस्सी उच्च अधिकारियों को कुलीन फारसी कन्याओं से विवाह करने के लिए बाध्य किया. इस सामूहिक विवाह में मेरे बाबा भी
दूल्हा बने.

बाबा ने विवाह यद्यपि राजाज्ञा से बाध्य होकर किया था परंतु मेरी सौंदर्यमयी माता ने अपने शालीन व्यवहार से उनका हृदय जीत लिया. मां को देखकर मुझे तो लगता है कि बाबा माता के सौंदर्य के स्वर्ण-पाश में बंध गए होंगे. विवाह के एक वर्ष बाद जब मैं बाबा की गोद में आई तो मेरे जैसा मुकुलित पुष्प पाकर वे मां के उपकृत हो गए. सिकंदर महान की जब मृत्यु हुई, उस समय मैं तीन वर्ष की थी और मां के साथ ईरान में ही रहती थी. बाबा ने हमें यूनान बुला लिया. विकट राजनीतिक हलचल का वह समय था. बाबा युद्ध में व्यस्त हो गए और मैं बड़ी होती रही. जब मैं दस वर्ष की हुई तब तक बाबा ने सीरिया में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर दिया था. बेबीलोन और बैक्ट्रिया प्रदेश विजित कर उन्होंने पर्याप्त ख्याति भी अर्जित कर ली थी. मैं यूनान से सीरिया आ गई.

बाबा यूनानी संस्कृति-सभ्यता में रचे-बसे थे परंतु उनका दृष्टिकोण उदारवादी था. यूनान में त्रियों के लिए सार्वजनिक जीवन निषिद्ध था परंतु घर में उनकी सार्वभौम सत्ता होती थी. छह वर्ष की आयु के बाद लड़कियां लड़कों से अलग कर दी जाती थीं. लड़के स्कूल जाने लगते और लड़कियां घर में रहकर, गृहस्थी का काम सीखतीं.

यूनान में त्री-शिक्षा का प्रचलन नहीं था. कदाचित् इसका कारण यह रहा हो कि कहीं भी स्थाई स्कूल-भवन नहीं थे और अध्यापकअपने विद्यार्थियों को गलियों में पढ़ाया करते. पढ़ने के लिए अभिभावक अपनी लड़कियों को गली में भेजना उचित नहीं समझते थे. पढ़ने-लिखने के साथ कविता, संगीत और गणित का विशेष आग्रह रहता था. शिक्षा के लिए बच्चों पर माता-पिता का कठोर अनुशासन होता था. सत्रह-अठारह वर्ष तक के युवक अपने सेवकों के साथ निजी विद्यालयों में जाते और बांसुरी बजाना और ठीक से लिखना सीखते. सरकार ने शिक्षा अनिवार्य कर रखी थी पर विडंबना यह थी कि सरकारी विद्यालय कहीं नहीं थे.

बाबा स्वयं उच्च शिक्षित थे, अतः शिक्षा का महत्त्व समझते थे. अपने राज्य में उन्होंने विद्यालय बनवाए और शिक्षा का प्रसार किया. त्री शिक्षा पर कोई प्रतिबंध नहीं था. बाबा की इसी उदारवादी दृष्टि के कारण मेरे ऊपर प्रारंभ से ही कोई बंधन नहीं रखा गया. बचपन में मैं लड़कों के साथ खूब खेलती थी. गेंद खेलना और पतंग उड़ाना मुझे सबसे अधिक प्रिय था.

मेरी शिक्षा का बहुत अच्छा प्रबंध किया गया था. मैंने चित्रकारी सीखी. मानव, जंतु और प्रकृति का चित्रांकन मेरे प्रिय विषय थे. मां मेरी शिक्षा में बहुत रुचि लेती थीं. वे मुझे सर्वगुणसंपन्न सुंदरी के रूप में विकसित करना चाहती थीं. हमेशा कहा करतीं, “पुत्री कार्नी (बाबा ने मेरा नाम कार्नेलिया रखा था), सत्ता और ऐश्वर्य प्राप्त करने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, अपनी मानसिक शक्तियों का विकास.” उनकी इस शिक्षा से मेरे मन में मानव-विवेक की शक्ति के प्रति आस्था जाग्रत हुई और इससे व्यक्तिगत प्रेरणा को स्वतंत्र रूप से कार्यशील करने की आकांक्षा ने
जन्म लिया.

एक दिन मैंने बाबा से पूछा, “आप सिकंदर के देश मकदूनिया के मूल निवासी हैं परंतु आपके आचरण से ऐसा क्यों लगता है जैसे आप यूनानवासी हैं ?”

बाबा पहले तो थोड़ा हंसे. फिर पता नहीं कहां अतीत में खो गए. मैंने भी उन्हें इस स्थिति से बाहर लाने की कोई चेष्टा नहीं की – चुप बैठी रही. अपने अतीत से हर किसी को मोह होता है और जब अतीत सेल्यूकस जैसे सिकंदर के सेनापति का हो, तो पता नहीं मन कहां-कहां अटके !

कुछ देर बाद बाबा प्रकृतस्थ हुए. देर तक मुझे प्रतीक्षारत रखने का उन्हें किंचित अपराध-बोध भी हुआ पर मेरे धैर्य और संयम पर आश्चर्य भी ! भरपूर दृष्टि से देखा जैसे तौल रहे हों कि कहीं मेरी कैशोर्य-उच्छृंखता का स्थान नवागत यौवन-गांभीर्य ने तो नहीं ले लिया है.

पिता की गरिमा से आपूरित, बिना किसी भूमिका के उन्होंने कहना प्रारंभ किया, “मेरी पितृभूमि मकदूनिया एक अर्ध-सभ्य राज्य था. शिक्षा, नीति, सदाचार के लिए वह यूनान पर आश्रित रहा. अतः मेरी शिक्षा-दीक्षा यूनान में ही हुई. सिकंदर का गुरु अरस्तू यूनानी था. विवेकशीलता, मानववाद और नागर-गुण यूनानियों में भरपूर थे पर उनमें संगठन-क्षमता का अभाव था. इसका कारण उनकी लड़खड़ाती नैतिकता और परस्पर सद्भावना की
कमी थी.”

“आप ठीक कहते हैं बाबा,” मैंने उनकी आंखों में झांकते हुए कहा, “मैंने भी वहां ऐसा ही अनुभव किया था.”

“क्या कह रही हो कार्नी ! कहां की बात है ?” मेरी गंभीर वाणी से बाबा कुछ उद्विग्न हो उठे.

“पिछले वर्ष जब हम यूनान गए थे तो आपने मुझे कई देवस्थान दिखाए थे.”

“हां, मुझे याद है. हम लोग देव-स्थानों पर गए थे.”

“उन देव-मंदिरों में स्थापित यूनानी देवताओं की संगमरमरी प्रतिमाओं को देखने पर मुझे ऐसा लगा जैसे उन पर एक प्रकार की उदासी का भाव विद्यमान है. जैसे वे मूर्तियां कहना चाहती हों कि वे सतत आनंद और चिरंतन सुख में रहने वाले यूनानियों में से एक हैं, फिर भी उदास हैं; उनके पास महिमा, स्वर्गिक सौंदर्य, अनंत यौवन, शाश्वत आनंद सब कुछ है फिर भी वे सुखी नहीं हैं. बता सकते हैं बाबा, ऐसा क्यों लगा था मुझे ?”

“इसका कारण था कि यूनानियों ने सिर्फ अपने लिए जीना सीखा. औरों के लिए उनके पास केवल प्रताड़ना थी, वंचना थी. वे भले नहीं थे, इसलिए उन्हें विनष्ट होना पड़ा.”

“क्या यूनान इसीलिए पददलित
होता रहा ?”

“हां ! देखता हूं, प्राचीन इतिहास में तुम्हारी रुचि बढ़ती जा रही है. जब मैं इंडिका में था…”

“बाबा, बात यूनान की हो रही थी !”, मैंने उन्हें बीच में टोक दिया. जानती थी कि उन्होंने विषयांतर इसलिए किया कि वे यूनान पर कोई आक्षेप नहीं करना चाहते थे.

बाबा ने धीरे से सिर हिलाया जैसे कहना चाहते हों कि यह लड़की तो बहुत चतुर-चालाक हो गई है. इस अव्यक्त प्रशंसा-भाव से आपूर्त बाबा ने कहना प्रारंभ किया, “यूनान का विकास वास्तव में ‘पौलिस’ यानी नगर का विकास था. नगरों के समूह थे पर यूनान का प्रत्येक नगर एक स्वाधीन, पृथक राज्य था. ये नगर परस्पर युद्ध करते रहते थे और नगरों के भीतर भयानक वर्ग-संघर्ष होते रहते थे. यूनानियों को नगर-राज्यों और उनमें व्याप्त निरंकुशता को व्यवस्थित करने के नियम नहीं मालूम थे. यूनानी राष्ट्र की बात वे नहीं सोच सके और न ही संग्रहित होकर राज्य का निर्माण कर सके.”

“अभी आपने इंडिका का नाम लिया था,” मैंने बाबा को अवसाद से बाहर निकालना चाहा.

“इंडिका यानी हिंदुस्तान ! उसकी भी न्यूनाधिक यही स्थिति है. उस देश की सभ्यता अति प्राचीन है पर राजनीति बिखरी हुई है. केंद्रीय शासन का अभाव है.”

“इसी कारण सिकंदर महान वहां विजय प्राप्त कर सके ?”

मेरे प्रश्न को बाबा ने मेरा वक्तव्य समझा, इसलिए वे उठे, मेरे सिर पर हाथ फेरा और चले गए.

मुझे नए-नए स्थानों पर घूमने, उनका इतिहास जानने में बहुत आनंद आता था. बाबा मुझे प्रोत्साहित भी करते थे. मुझे घुड़सवारी और शिकार का शौक बाबा से ही लगा था. मां इसका विरोध करती पर मैं उनसे लाड़-लड़ाकर अपना शौक पूरा करती रहती. यूनान और मकदूनिया मैं घूम ही चुकी थी, सीरिया भी खूब घूमी.

साहित्य तो जैसे मेरा प्राण था. हिंदुस्तान की अनेक बौद्धकथाएं, श्रुतिकथाएं, पौराणिक कथाएं तथा सांस्कृतिक विचारधाराएं हमारे सीरिया आने से पहले ही वहां पहुंच चुकी थीं. कई सीरियाई जातियां हिंदुस्तान के सांस्कृतिक प्रभाव-क्षेत्र में थीं. हमारा साम्राज्य भी हिंदुस्तान की पश्चिमी सीमा तक फैला था जहां यूनानी बस्तियां विकसित हो चुकी थीं.

हिंदुस्तानी सभ्यता और संस्कृति में मेरी गहन रुचि देखकर, बाबा ने मेरी सम्मति से, वहां से दो शिक्षक बुलाकर मुझे पढ़ाने के लिए नियुक्त कर दिए. मां को संतोष हुआ कि दोनों शिक्षक वृद्ध हैं. उनके परामर्श पर मैंने पहले संस्कृत भाषा सीखी. धर्मग्रंथों और कथा-साहित्य का अध्ययन साथ ही प्रारंभ हुआ. यह क्रम दो वर्षों तक बड़ी गंभीरता से चला.

हमारे महल में सेवक बहुत थे पर दास कोई नहीं था. बाबा को दास-प्रथा से घृणा थी. अरस्तू के इस कथन से वे सहमत नहीं थे कि कुछ लोग नैसर्गिक रूप से कमजोर हो जाने के कारण दास हो जाते हैं, इसलिए दास-प्रथा उचित है. बाबा का तर्क था कि सभी कमजोर लोग तो दास नहीं होते.

दास-प्रथा का प्रसंग अचानक ही मेरे मन में नहीं उभरा. किसी संदर्भ में मेरे हिंदुस्तानी शिक्षकों ने बताया कि कई सौ वर्ष पूर्व यूनान की त्रियां और कन्याएं वहां से लाकर सिंध उपत्यका में बेची जाती थीं. मैंने जब गहराई से तथ्य पता किए तो बात सही निकली. वास्तव में यूनान के क्रीट द्वीप के क्रोनस, टायर और ट्राय नगर यह धंधा करते थे. महिलाएं उत्तरी यूनान की होती थीं. अंततः उत्तरी यूनान जब जागा तो विरोधस्वरूप उसने क्रीट-सभ्यता को ही नष्ट कर दिया.

शिक्षकों ने मुझे राम और कृष्ण के चरित्र से परिचित कराया. वास्तव में यूनानी और हिंदुस्तानी संस्कृति के तुलनात्मक अध्ययन में मेरी रुचि थी. यूनानी देवता अपोलो और कृष्ण में मुझे सादृश्य प्रतीत हुआ. कई समानताएं तो आश्चर्य में डालने वाली थीं. अपोलो प्रकाश का देवता है; कृष्ण भी गीता के माध्यम से ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं. अपोलो कलाओं का अधिष्ठाता देवता माना जाता है. उसकी साथी ‘म्यूज’ नामक देवियां हैं, जो नृत्य, संगीत और काव्य की संरक्षिकाएं हैं. कृष्ण की वेणु (कभी-कभी अपोलो को बांसुरी लिए भी दिखाया जाता है) संगीत का चरम थी और गोपियां ही उनकी ‘म्यूज’ थीं, जो नृत्य और गायन में पारंगत होती थीं. पाइथन नामक सर्प अपोलो के हाथों मारा जाता है; कृष्ण कालिया नाग का दमन करते हैं. दोनों देवताओं की छवि सुंदर और मोहक मानी गई है.

इसी प्रकार जुपिटर और इंद्र समान हैं. दोनों लंपट हैं और पर-त्री पर दृष्टि रखते हैं. जुपिटर बिजली हाथ में लेकर मेघों पर शासन करता है. इंद्र के हाथ में वज्र है और वे भी मेघों के देवता हैं.

एंपीडोक्लीज, पाइथागोरस, प्लेटो आदि दार्शनिक यूनान के पैगंबर और गुरु आर्फियस से प्रभावित थे. इनके विचार और सिद्धांत हिंदुस्तान के वैदिक विचारों से मेल खाते हैं. वे पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानते हैं; जीवन-प्रणाली में तप-साधन को महत्त्व देते हैं; आत्मानुशासन से मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग दिखाते हैं; तप-योग द्वारा आत्मा की सात्विकता और परमानंद की अति उच्च स्थिति तक पहुंचने की बात करते हैं. मेरा मन वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन करने को उत्सुक हो उठा. लेकिन वैसी सुविधाएं यहां उपलब्ध नहीं हैं. पहली बार मन में आकांक्षा जागी कि काश, मैं हिंदुस्तान जा पाती और वहां कुछ समय व्यतीत
कर पाती.

ज्ञानार्जन के गांभीर्य ने मेरे व्यवहार में परिवर्तन कर डाला. उच्छृंखलता सौम्यता में बदल गई. मां ने इस परिवर्तन को देखा, पर समझा कि यह सब मेरी बढ़ती आयु के कारण है. मैं बीसवां वसंत देखने वाली थी. यूनान में लड़कियों की शादी चौदह वर्ष की होते ही कर दी जाती थी. इस परंपरा की जड़ें कदाचित उस काल में पड़ी हों, जब यूनानी लड़कियों को बाहर ले जाकर बेच दिया जाता था. मुझे तो बीस की हो जाने पर भी नहीं लगता कि मेरा विवाह हो जाना चाहिए. सपनों के राजकुमार के बारे में सोचने का तो जैसे मेरे पास अवकाश ही नहीं था.

एक दिन मां ने मुझे कई फारसी परिधान दिए. साथ में आभूषण भी थे. मैंने उनकी भेंट अपूर्व उत्साह से स्वीकार की. मां की आंखों में एक ऐसी दुश्चिंता झलक रही थी, जो सांसारिक अनुभव का परिणाम होती है. मैंने अतिरिक्त स्नेह दिखाते हुए उनकी चिंता का कारण पूछा तो अचानक उनका मन क्षुब्ध हो उठा. मुझे लगा जैसे वन का पुराना पेड़ तेज हवा के झोंके से भरभराकर गिर पड़ा हो. मैं मां के हृदय से लगकर उन्हें मूक सांत्वना देने लगी. अनुराग में ऐसी अपरिभाषित शक्ति और अव्यक्त सुगंध होती है, जिससे हम एक दूसरे के मन की बात सूंघ लेते हैं.

शांति के कुछ क्षण बीते. मां वैसे भी मितभाषी थीं पर मुझे लेकर व्यथित थीं. बोलीं, “तेरे बाबा राजकाज में व्यस्त रहते हैं और तू अपने अध्ययन में ! तेरी पढ़ाई को मैं बुरा नहीं समझती. बस, मेरी एक सीख याद रखना कि कुछ भी करना पर अपने भीतर का रस कमल सदैव खिलाए रखना.”

मां के इस सारगर्भित कथन पर मैं मुग्ध
हो गई.

मेरी मुग्धता पर प्रसन्नता का अभिषेक करने के लिए लंबे-लंबे डग भरते सम्राट सेल्यूकस को हमने अपने प्रकोष्ठ की ओर आते देखा. राजमहल में हम तीन प्राणियों – मैं, बाबा और मां – के बीच राजकीय औपचारिकताएं न थीं. कोई किसी के भी प्रकोष्ठ में, कभी भी जाने को स्वतंत्र था. लंबे-लंबे डग भरते चले आ रहे बाबा की क्षिप्र गति को देखकर मैं समझ गई कि वे किसी युद्ध-अभियान का समाचार देने आ रहे हैं.

मैंने अपने देवता मनाए, “देव, यह अभियान हिंदुस्तान की ओर हो.”

देव जैसे तत्काल प्रसन्न हो गए हों, बाबा ने आते ही कहा, “कार्नी, हम हिंदुस्तान की ओर प्रयाण कर रहे हैं. हिरात से मेगस्थनीज ने सूचना भेजी है कि कंधार, काबुल और मकराना में विद्रोह के बादल छा रहे हैं, जो शत्रु के घात से कभी भी बरस सकते हैं. अतः समय रहते उपाय करना ठीक रहेगा. तुम्हारी भी यात्रा हो जाएगी. चलने की तैयारी
कर लो.”

उल्लास में मेरा रोम-रोम सिहर उठा. बाबा जानते हैं कि उनकी राजनीति से मैं सरोकार नहीं रखती. वे यह भी जानते हैं कि युद्ध मुझे प्रिय नहीं है, फिर भी युद्ध के माध्यम से अपने उत्कर्ष की ओर गतिशील पिता के पांवों की बेड़ी मैं कभी नहीं बनीं. पर इस बार पता नहीं क्यों हृदय के एक कोने से अव्यक्त चाह उठी कि बाबा हिंदुस्तान की भूमि पर युद्ध
न करें.

मुझे बाबा के साथ युद्ध-अभियानों पर जाते देख मां का हृदय कितना अकुलाता होगा, यह मैं जानती थी. फिर भी उनकी ओर से, जननी के अधिकार से, विरोध का कोई स्वर कभी नहीं सुना. मां ने चुपचाप मेरी तैयारियां प्रारंभ कर दीं. इस बार उनकी तैयारियां पता नहीं क्यों, बहुत कुछ वैसी ही थीं जैसी शादी के समय बेटी को विदा करने से पूर्व माताएं करती हैं. कभी-कभी नियति हमें ऐसे संकेत देती है, जिन्हें हम उस समय नहीं समझ पाते पर समय उनकी संगति बिठा देता है. एक बार मन में आया कि बाबा से कहकर, इस बार मां को भी साथ ले चलें. पर मैं जानती थी कि बाबा भले ही स्वीकृति दे दें, मां चलने को कभी तैयार न होंगी.

ज्ञात हुआ कि शत्र-विद्या में निपुण लगभग सौ युवतियां भी मेरी रक्षा के लिए साथ जाएंगी. कई सहेलियों ने भी साथ चलने का प्रस्ताव रखा, जिसे मानकर मुझे प्रसन्नता हुई. मां से मैंने स्पष्ट कह दिया कि दूसरा कुछ मेरे साथ चले या न चले, अन्य ग्रंथों के अतिरिक्त इनीड और इलियड मेरे साथ जरूर जाएंगे. अपोलो की एक नन्हीं स्वर्ण प्रतिमा भी मेरे व्यक्तिगत सामान में सम्मिलित हो गई.

विदा होते समय मां से लिपटकर मैं बहुत रोई. बाबा धैर्य धारण किए, कुछ दूर खड़े मेरी प्रतीक्षा करते रहे. पता नहीं क्यों, इस बार मां से बिछुड़ने की अव्यक्त पीड़ा हृदय में गहरे उतर गई.

चलने से पहले पुरोहितों ने बाबा को आशीर्वाद दिया, “सम्राट ! देश की एकता, श्रीसिद्धि के लिए आपका अभियान सफल हो! देवता आपके सहायक रहें ! युद्ध की विभीषिका में विनाश फलता-फूलता है लेकिन उसके बाद देश और समाज की संरचना अधिक चेतन और उर्ध्वगामी होती है. देव सहायता करें. आपका नाम मिटाए न मिटे; आपका यशःपोत काल के समुद्र में अनंत काल तक चलता रहे. देवता सदा आपके साथ रहें.”

बाबा ने मंदिर के लिए दान दिया. पुरोहित चले गए.

यात्रा प्रारंभ हुई.

सुरक्षा की दृष्टि से हमारा छोटा-सा महिला-दल सेना के बीच में चल रहा था. मैं अपने रथ में आराम से लेटी थी. मेरी सहेली सारा मेरे निकट बैठी थी. सारा यूनान की थी और मुझसे दो वर्ष बड़ी थी. यूनानी कन्याओं की विडंबना के विपरीत, उसके भाग्य में शिक्षा लिखी थी. उसका पिता अध्यापक था, जिसने उसे अति उच्च शिक्षा दी. 15 वर्ष की आयु में उसका विवाह हो गया परंतु दो वर्ष बाद ही पति ने उसे त्याग दिया. अपनी प्रेमिकाओं के लिए यूनानी पति अपनी पत्नी त्यागने तक को तैयार रहते थे और मजा यह कि समाज में इसे बुरा नहीं माना जाता.

सारा वास्तव में विदुषी थी. यूनान में विवाह-विच्छेद के बाद पच्चीस वर्ष तक की त्री ‘कन्या’ कहलाती है. परित्यक्ता भी किसी से प्रेम-निवेदन कर सकती है, पर सारा ने ऐसा नहीं किया. उसने अपने जीवन की दिशा ज्ञानार्जन की ओर मोड़ दी. किसी के माध्यम से सारा हमारे राजमहल में नौकरी करने आई और मेरी सहेली बन गई. उसके राजमहल में आने से मेरी ज्ञान-पिपासा और भी बढ़ी.

हमारी यात्रा जारी थी. बीच-बीच में पड़ाव आते रहे. कहीं झरने मिलते तो हम उन्मुक्त स्नान का आनंद लेते. आसपास वन में भ्रमण करते. नए वृक्ष और पुष्पों के नामों से अनजान हम उसके नए नाम रखते. एक महिला सैनिक टुकड़ी सदा हमारी सुरक्षा को सन्नद्ध रहती. अंततोगत्वा हम हिंदुस्तान की सीमा पर पहुंच गए. एक सुरक्षित स्थान पर स्थाई पड़ाव डाला गया. बाबा सेना लेकर युद्ध करने चल पड़े. एक दिन बाद सूचना मिली कि बाबा ने कपिशा दुर्ग जीत लिया है और अब तक्षशिला की ओर अग्रसर हैं…तक्षशिला – ज्ञान की पीठ! अब वहीं युद्ध होगा? मेरा मन विचलित होने लगा…मैं अनजाने ही उदास हो गई. सारा ने मुझे बहलाना चाहा पर असफल रही. अंत में उसने यूनानी कवि हेसिअड की गीतमय नीतिकथा गाकर सुनाई. गीत का केंद्रीय भाव कुछ इस प्रकार था ः एक बाज अपने पंजों में चमकीली आंखों वाली बुलबुल दबाकर बड़ी तेजी से आकाश में उड़ रहा था. उसके तीखे पंजों में फंसी बुलबुल करुण क्रंदन कर रही थी. बाज ने सदर्प कहा कि अरी अभागिन, तू क्यों चीं चीं करके रो रही है ! तेरा तड़पना भी व्यर्थ है क्योंकि मेरे शक्तिशाली पंजों से तू मुक्त नहीं हो पाएगी. तू कुछ भी कर, मैं तो जहां चाहूं, तुझे ले जा सकता हूं. वैसे तो मेरा निश्चय तुझे खाने का है, पर चाहूं तो तुझे छोड़ भी सकता हूं.

गीत समाप्त करने के पश्चात मौन सारा मेरी प्रतिक्रिया भांप रही थी. मुझे लगा गीत की बुलबुल मैं ही हूं. पर यह बाज कौन है ?

तभी अचानक बाबा ने शिविर में प्रवेश किया. उनके अंगरक्षक बाहर ही रुक गए थे. बाबा उस समय मुझे एकदम बूढ़े-से दिखाई दे रहे थे. उनके कांतिहीन मुख को देखकर मेरे शरीर में अदृष्ट भय की सिहरन दौड़ गई.
त्री के हृदय में प्रेम और भय साथ-साथ
पलता है.

तक्षशिला में बाबा युद्ध हार चुके थे. साथ ही उन्हें यह सूचना भी मिली कि उनके पुराने शत्रु एंटीगोनस ने सीरिया की ओर फिर प्रयाण किया है. अतः बाबा का अपने राज्य पहुंचना अति आवश्यक था. कारण जो भी रहे हों. यहां पराजय तो हो ही चुकी थी. अगले दिन संधि की शर्तें निश्चित होनी थीं और संधिपत्र पर हस्ताक्षर होने थे. संधि करते यानी एक बार और पराजित होते मैं अपने बाबा को कैसे देख पाऊंगी ?

रात में बाबा ने हिंदुस्तान के बारे में, जिसे यहां के लोग गर्व से ‘भारत’ कहते हैं, बताते हुए कहा कि भारत अब पहले वाला बिखरा हुआ देश नहीं रहा है. मैं समझ ही नहीं पाया कि पिछले आक्रमण से अब तक सिंधु नदी में कितना पानी बह चुका है. एक केंद्रीय शासन के अंतर्गत आ जाने के कारण अब भारत एक सशक्त राष्ट्र बन गया है. भारत के चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य हैं, जो वीर, बलवान और सुदर्शन होने के साथ न्यायप्रिय भी हैं. उसके गुरु कौटिल्य, जिनका प्रचलित नाम चाणक्य है, एक निस्पृह संत की तरह हैं, पर विद्या, बुद्धि में अद्वितीय हैं. राज्य के महामंत्री हैं पर उन्हें राष्ट्र का भाग्य-विधाता ही समझो. उन्होंने यहीं तक्षशिला में शिक्षा पाई, यहीं अध्यापन कार्य भी किया. राजनीति के इस धुरंधर के दिशा-निर्देश में चंद्रगुप्त ने मगध के शक्तिशाली सम्राट को पराजित किया, अपना राज्य स्थापित कर देश को एक सूत्र में बांधा. वह जितना वीर है, उतना ही उदार भी. अपने गुरु चाणक्य का परम भक्त है.

उस समय मुझे ज्ञात नहीं था कि चंद्रगुप्त के गुणों का वर्णन करने में बाबा का क्या निहितार्थ था. ज्ञात होता तो कदाचित समझ पाती कि अपना कथन समाप्त करने के बाद बाबा चिंता से अव्यवस्थित क्यों हो उठे थे. इस सृष्टि में ऐसा कौन है जो अपनी बुद्धि की विशेषता से या बल-पौरुष से होनी को मिटा सके ? अंध अमोघ नियति को तो भोगना ही पड़ता है. बाबा को लेकर निराशा के काले पक्षी मन में उतरने लगे तो मैं ठीक से सो भी न पाई. बाबा भी सोने का बहाना किए पड़े रहे.

हमारे शिविर के बाहर दिवस का मणि की तरह उद्घाटन हो चुका था. सुगंध से छककर शांत वायु बह रही थी. दूर फैले वन-प्रांतर मंदिर उल्लास में विहंसते-से लगे. मैंने चारों दिशाओं में दृष्टि फेरी, जैसे उन्हें पहली बार देख रही होऊं.

हमारा छोटा-सा दल एक सैनिक शिविर में पहुंचा. भारत-सम्राट की गरिमा के अनुरूप पट-मंडप अत्यंत विशाल था, सुरुचिपूर्ण संक्षिप्त सज्जा थी.

वहां हमारा यथोचित स्वागत किया गया और श्रेष्ठ आसन दिए गए. कुछ ही क्षणों पश्चात दो पुरुष पधारे. आचार्य चाणक्य कृशकाय होते हुए भी तेजपुंज थे. उनका मुंडित शीर्ष देखकर लगा कि वे संसार से विरक्त हो, लोक-कल्याण की भद्र-भावना से ओतप्रोत हैं और दूसरा व्यक्ति, चंद्रगुप्त, मुझे अपोलो की प्रतिमूर्ति लगा – शौर्य, बल, तेज से युक्त प्रियदर्शन पुरुष ! मैंने उन पर एक ही दृष्टि डाली थी पर ऐसा लगा कि वे आंखों में भर गए हों.

बाबा ने संधि का प्रस्ताव किया. चंद्रगुप्त ने स्वीकारात्मक दृष्टि से आचार्य चाणक्य की ओर देखा. आचार्य ने सम्राट सेल्यूकस और चंद्रगुप्त को युद्ध-संधि में बंधने के नियम बताए. उनके इंगित पर प्रज्ज्वलित अग्नि-पात्र और जल-पात्र प्रस्तुत किए गए. दोनों सम्राटों ने अग्नि और जल के समक्ष एक-दूसरे का हाथ पकड़कर सत्य की शपथ लेते हुए सह-घोषणा की, “अब से हम दोनों परस्पर मिल गए हैं – संहितौ स्वः ।”

आचार्य चाणक्य ने मेरी ओर देखते हुए कहा, “सम्राटों के अपने राजनीतिक स्वार्थ संधि-पत्र से प्रबल होते हैं. अतः उनमें की गई घोषणाएं युद्ध के घोष को रोकने में समर्थ नहीं हो पातीं. मेरे मत से दो सैकत कगारों के मध्य एक निर्मल सदानीरा का रहना आवश्यक है. मेरा प्रस्ताव है कि सम्राट सेल्यूकस अपनी कन्या का विवाह सम्राट चंद्रगुप्त से करने पर विचार करें. इस वैवाहिक संबंध से मित्रता के स्वर्ग-प्रासाद निर्मित होंगे.”

इस अप्रत्याशितता से समय जिस पल था, बलात् वहीं रुक गया. मैं विविध भावनाओं के सम्मिलित उद्रेक से जड़वत हो गई. फिर भी मैंने मन और बुद्धि को भरसक एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ने दिया.

बाबा कुछ क्षण मौन-चिंतन में लीन रहे. उन्होंने कठिनाई से मेरी ओर पराजित-दृष्टि से देखा. उनकी दृष्टि का दैन्य मेरा हृदय बींधता चला गया. संध्या के समय क्षितिज पर उतरने वाली हल्की कालिमा की तरह निराशा उनके मुख पर छा गई. बाबा पर मेरा अथाह प्रेम था. अछोर श्रद्धा थी. मुझे लगा, प्राणोत्सर्ग करके भी इस समय अपने बाबा को बचा लूं तो मेरा जीवन सार्थक हो जाए.

मैंने बाबा के उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की. उनका मौन मुझसे कह गया कि बेटी कार्नी, अब सब कुछ तुम्हारे हाथ में है.

आश्वस्त रहो बाबा – मैंने मन-ही-मन कहा कि मैं आपको और टूटने नहीं दूंगी.

मैं अपने आसन से उठ खड़ी हुई. मुझे जैसे नैतिक साहस प्रदान करने के लिए बाबा भी खड़े हो गए. ऐसा लगा, मैंने खड़े होकर अपराध किया हो – सम्राट चंद्रगुप्त और आचार्य चाणक्य ने भी आसन त्याग दिए. फारस में मेरे भारतीय गुरुओं ने ठीक ही कहा था कि भारत आचरण की सभ्यता में सब देशों में अग्रगण्य है. मैंने कोमलता से बाबा का हाथ अपने हाथ में ले लिया. ऐसा लगा, आश्वस्ति की एक लहर उनके संपूर्ण शरीर में प्रवाहित हो गई हो. उनकी मुखमुद्रा सामान्य हो गई.

बाबा का हाथ छोड़कर और मस्तिष्क से विचारों की भीड़ हटाकर मैं दो पग आचार्य की ओर बढ़ी, बद्ध-अंजलि से उन्हें प्रणाम किया. उनकी आशा के विपरीत मैंने भारतीय भाषा में कहा, “गुरुदेव ! आपकी वाणी कामधेनु का पय और कल्पवृक्ष का फल है. आपके कथन का कोई निरादर कैसे कर सकता है. आपके देश की त्रियों की तरह हमें भी स्वतंत्रता प्राप्त है. मैं इस विवाह-संबंध के लिए सहमत हूं. अंतिम सहमति मेरे पूज्यपाद पिता देंगे.”

“साधु पुत्री, साधु ! तुम तो भारतीय भाषा, आचरण और संस्कृति में पारंगत हो. तुम्हें पाकर सम्राट चंद्रगुप्त धन्य हो जाएंगे, तुम्हारे पिता गौरवशाली होंगे और मुझे परम सुख मिलेगा. जैसे सत्य से कीर्ति मिलती है, उसी प्रकार सहयोग से मित्र अपनाए जाते हैं. सम्राट चंद्रगुप्त….” आगे के शब्द छोड़कर आचार्य ने चंद्रगुप्त की ओर दृष्टिपात किया.
सम्राट अपने गुरु का आशय समझकर
बोले, “देवी….”

बाबा ने जोड़ा, “कार्नेलिया !”

चंद्रगुप्त ने फिर सूत्र पकड़ा, “हां, देवी कार्नेलिया से विवाह कर मैं स्वयं को सौभाग्यशाली समझूंगा. गुरुवर की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए मैं इस संबंध के लिए स्वतंत्र सहमति देता हूं.”

चंद्रगुप्त की गुरु गंभीर वाणी सुनकर मुझे ऐसा लगा कि साक्षात अपोलो मुझसे मेरा हाथ मांग रहा हो. लज्जावश मैं चंद्रगुप्त की ओर देख भी न सकी. संकोच से सिकुड़कर बाबा के अति निकट खड़ी हो गई. अप्रत्याशित आघात लगाने की सबसे अधिक शक्ति भाग्य में ही होती है.

बाबा मेरा हाथ थामकर चंद्रगुप्त के पास पहुंचे. सम्राट का हाथ पकड़, उस पर मेरा हाथ रखा… पूरे देश को विजित करने वाले, खड्ग को धारण करने वाली लौह मुष्टिका में रखा मेरा हाथ मृदुल स्पर्श का अनुभव कर रहा था. पर-पुरुष का पहला स्पर्श पाकर मैं आपादमस्तक झंकृत हो, रोमांचित हो उठी. मन पुलकित हो गया. हृदय की गति तीव्र हो गई. मेरे नए जीवन का आरंभिक क्षण कितना अप्रत्याशित था. जब घर से चली थी, तब मैं ऐसी मुकुलित कलिका थी, जिसने अपने विकास को हठात रोक लिया हो और आज उस समय अपने भावी पति के क्षणिक स्पर्श के पुष्प-भार से लदी डाली के समान हो गई.

“हे देवताओं,” बाबा का स्वर गूंजा, “इन दोनों को अपनी छत्रछाया के नीचे रखना. इस विवाह पर यही मेरी मंगलकामना है.”

हमारे हाथ छोड़कर, बाबा कुछ दूर हटकर खड़े हो गए. उनकी आंखों में अश्रु छलछलाते मैंने पहली बार देखे. अश्रु दुःख के थे या आनंद के, मैं कह नहीं सकती, पर लगता था मेरे भावी जीवन की चिंता उनके मुख पर स्पष्ट रूप से लक्षित हो रही थी.

आचार्य चाणक्य से बाबा की चिंता छिपी न रह सकी. उन्हें आश्वस्त करते हुए वे बोले, “सम्राट सेल्यूकस, आप चिंतित हो रहे होंगे कि यहां अपरिचित लोगों के बीच, अप्रत्याशित ही बेटी को सदा के लिए छोड़कर जाना पड़ेगा. आपकी चिंता स्वाभाविक है पर आप निश्चिंत रहें, आपकी बेटी के कल्याण का दायित्व मैं लेता हूं. आपकी कार्नेलिया आज से, इसी क्षण से, मेरी पुत्री हुई और मैं इसका तात ! हां,
एक स्वतंत्रता मैं
लेना चाहूंगा….”

आचार्य कुछ क्षण रुके. कदाचित् जान लेना चाहते हों कि इस संदर्भ में उनकी अधिकार-सीमा कहां तक जाती है.

“हां, हां, अवश्य; आप जो भी करेंगे हितकर ही होगा. निःसंकोच कहें,” बाबा ने अपनी सहमति प्रकट की.

“मैं पुत्री कार्नेलिया का नाम परिवर्तित करना चाहता हूं. यह हमारी अपनी परंपरा है. फिर भी चाहूंगा कि यह नाम-परिवर्तन आपके घरेलू परिवेश, सामाजिक परंपराओं, जातीय गौरव से आपको विच्छिन्न न कर दे. नया नाम आपकी संस्कृति का प्रतीक तो हो पर उच्चारण में सरल हो.”

आचार्य की इस समन्वयवादी प्रवृत्ति पर मैं मुग्ध हो गई.

बाबा ने मेरा नाम नया नाम ‘हेलन’ रखा.

आचार्य ने मेरी ओर देखा. मैंने बताया हेलन यूनानियों के प्रधान देवता जीयस की पुत्री मानी जाती है.

आचार्य ने ‘साधु’ कहकर नए नाम को स्वीकृति प्रदान की. वैदिक-रीति से मेरा विवाह राजधानी पाटलिपुत्र में संपन्न होने की बात निश्चित हुई. सामाजिक स्वीकृति के लिए यह आवश्यक भी था. बाबा ने हेरात, काबुल, कंधार, बलूचिस्तान आदि प्रदेश चंद्रगुप्त को उपहार में दिए और संधि-पत्र में इसका उल्लेख किया गया. मेरे विवाह-संबंध का भी उल्लेख हुआ पर आचार्य के अनुरोध पर, मेरा यानी भारत की साम्राज्ञी का नाम उसमें अंकित नहीं किया गया. हेरात स्थित राजदूत मेगस्थनीज को मगध की राजसभा में नियुक्त कर दिया गया.

चंद्रगुप्त को ज्ञात था कि बाबा को यहां से शीघ्र ही ऐंटीगोनस से युद्ध करने जाना है. उन्होंने सेनानी चंडविक्रम के नेतृत्व में पांच सौ हाथियों की सेना उपहार में दी, जिसकी सहायता से बाद में बाबा ने वह युद्ध विजित कर लिया और शत्रु को सदा के लिए समाप्त कर दिया.

बाबा ने चलते समय मुझे अमूल्य हीरे-जवाहरातों का उपहार दिया. वे सब मेरे लिए एक तरह से व्यर्थ थे. बाबा जानते थे कि मुझे आभूषण या द्रव्य से जरा भी प्रेम नहीं था. उनका मन रखने के लिए मैंने वह सब सहर्ष स्वीकार कर लिया. देखते-देखते उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली. मन में उठ रहे झंझावात से वे पूरी शक्ति से लड़ रहे थे, लेकिन अंततः विकल होकर उन्होंने मुझे अपने वक्ष से लगा लिया. मेरी किशोरावस्था से ही बाबा ने मेरा स्नेहालिंगन करना छोड़ दिया था. उनके अपने नैतिक मानदंड थे. परंतु आज आसन्न चिर-विछोह की विक्षुब्ध धारा ने मर्यादा के बांध तोड़ दिए थे.

हृदयस्पर्शी विगलित वाणी में बाबा ने कहा, “कार्नी, यह तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम इतने बड़े देश की महारानी बन गई हो. तुम्हारा विवाह कहीं भी होता, माता-पिता को छोड़कर तो जाना ही पड़ता. यह न समझना कि मैंने तुम्हारा राजनीतिक इस्तेमाल किया है. तुम्हें मांगने का साहस चाणक्य ने तभी किया जब मैंने अपनी मौन स्वीकृति दी. तुम्हारे लिए चंद्रगुप्त जैसा वर अन्यत्र दुर्लभ है. सिकंदर के आक्रमण के समय हुई भेंट में चंद्रगुप्त ने मुझे बताया था कि वह विवाहित है और उसके एक पुत्र भी है. वह राजपुत्र तो इस समय बीस वर्ष का युवा होगा. तुम भी तेईस वर्ष की हो चुकी हो. इस प्रकार राजकुमार तुम्हारा समवयस्क है. उससे पुत्रवत संबंध न रख सको तो उसे मित्र समझना. पहली महारानी को अपनी ज्येष्ठा समझना और अपने स्नेह, आदर, सम्मान से उन्हें अपने वश में रखना. उनकी अधिक अवस्था तुम्हारे लिए वरदान है.”

“बाबा, आप बिल्कुल चिंता न करें. मैं जानती हूं कि भारत में राजपुरुषों के लिए बहुपत्नीत्व की प्राचीन परंपरा है. आपके उपदेशों का मैं अक्षरशः पालन करूंगी. मुझे भास होता है कि राजमहल में मेरा कोई विरोध न होगा. विदेशी कन्या से विवाह भारत के वर्तमान सामाजिक जीवन में एक क्रांतिकारी घटना है. इससे भारतीयों के मस्तिष्क की उदारता का परिचय मिलता है. भारतीय संस्कृति और सभ्यता से मैं पूर्णतया परिचित हूं, उनकी भाषा बोल सकती हूं, समझ सकती हूं. आप मेरे सुखी भविष्य के प्रति पूर्णतया आश्वस्त रह सकते हैं.”

बाबा ने आश्वस्ति का एक दीर्घ निःश्वास छोड़ा. लगा, मेरी बातें वे श्वास साधे सुन रहे थे.

“परंतु…..”

बाबा ने तत्काल प्रश्नपूरित आंखें मेरी ओर उठाईं. उनका संभ्रमित मुख किसी अन्य भाव को पकड़ पाए, इसके पूर्व ही मैंने आतुर होकर अपना कथन पूरा किया, “परंतु बाबा, मां से कैसे मिलना हो पाएगा ? जब वे आपके साथ मुझे न देखेंगी तो उन पर तो जैसे आसमान ही टूट पड़ेगा. मेरे अप्रत्याशित विवाह से उन्हें यही लगेगा कि उनकी पुत्री युद्ध की भेंट चढ़ा दी गई है.”

“बेटी कार्नी, तुम चिंता न करो. तुम्हारी मां को मैं समझा लूंगा. देखो, बाहर प्रयाण-नाद होने लगा है. अब हमें अपने भीतर का कोलाहल शांत करके एक-दूसरे से विदा
लेनी चाहिए.”

बाबा के नेत्रों में जमा जल पिघलने लगा.

बाबा कभी न मिलने के लिए चले गए. मैं चेतनाशून्य हो जाती, इसके पूर्व ही तात चाणक्य ने मुझे संभाल लिया. मूक सांत्वना दी. मैंने देखा, बाबा से विदा के समय आचार्य की निग्रही आंखों में भी अश्रु छलछला आए थे. संसार में हर कहीं शादी की वेदी पर खड़ी बेटियां अभिभावकों को अश्रु-दान करती हैं.

श्रश्रश्र

बाबा अपनी सेना के साथ वापस चले गए थे. मागधी सेना को राजधानी की ओर प्रयाण करने का आदेश दिया जा चुका था. मैं विश्वप्रसिद्ध तक्षशिला विद्यापीठ देखना चाहती थी. पर किससे कहूं, यह समझ में नहीं आया. सारा ने समझाया कि अब मुझे अपनी कामनाओं के पंख समेट लेने चाहिए. तक्षशिला में अब कोई कार्य शेष नहीं रहा था.

एक सुसज्जित रथयान में समारोहपूर्वक मुझे बिठाया गया. मेरी सहेली सारा के अतिरिक्त उसमें एक कन्या और आकर बैठी. वह हमारी समवयस्का थी. उसने अपना नाम चंद्रिका बताया. उसका वर्ण चंद्र-ज्योत्स्ना-स्नात प्रतीत होता था. वह कुछ ही समय में हमसे घुल-मिल गई. चंद्रिका का स्वभाव अद्भुत परिहासपरक था.

हमारे रथ दिन भर चलते. संध्या होने पर हम लोग कहीं शिविर में विश्राम करते. शिविर पहले से ही तैयार मिलते. भोजन के पश्चात हम थोड़ा भ्रमण करते. हमारे साथ यूनानी लड़कियों का एक सुरक्षा-दल भी चल रहा था. सम्राट के विश्वस्त हमारी प्रत्येक आवश्यकता का ध्यान रखते.

चंद्रगुप्त हमारे साथ तो नहीं चल रहे थे परंतु प्रत्येक शिविर में हमारी कुशल-क्षेम पूछने आ जाते. यात्राजन्य कष्टों के विषय में चिंतित होते तो मैं उन्हें बताती कि सैन्य-दल के साथ असमतल मार्गों पर यात्रा करने का मुझे अभ्यास है. चंद्रगुप्त ने बताया कि इस यात्रा के अंतिम बिंदु तक राजपथ प्रशस्त और सुविधाजनक मिलेगा.

शिविरों में यूनानी भोजन की विशेष व्यवस्था रहती. साथ में भारतीय व्यंजन भी रहते. यदा-कदा चंद्रगुप्त भी हमारे साथ भोजन करते. मुझे भारतीय भोजन भी रुचिकर
लगने लगा.

सारा ने एक बात की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया कि अवसर सुलभ होने पर भी सम्राट न तो मेरे साथ एकांत में वार्ता करते हैं और न ही कहीं आसपास भ्रमण पर निकलते हैं. मुझे लगा, कदाचित यूनानी-रीति से संपन्न हमारे विवाह को सम्राट तब तक अपूर्ण समझते रहेंगे, जब तक वैदिक-विधि से हमारा विवाह न हो जाए. लज्जावश मैं उनसे कुछ पूछ भी न सकी.

चंद्रिका ने भी यह लक्ष्य किया कि चंद्रगुप्त मुझसे एकांत में मिलने से संकोच करते हैं. मैं इसे उनकी चारित्रिक दृढ़ता मानती पर इसी बात को लेकर दोनों सहेलियां मेरे ऊपर व्यंग्य-बाण छोड़तीं. सारा मेरे मनोभाव जानती थी. उसने चंद्रिका को उनसे अवगत करा दिया.

चंद्रिका ने मुझे घेरते हुए कहा, “आप कहती हैं कि जब तक वैदिक-विधि से विवाह न हो जाएगा, चंद्रगुप्त आपके निकट नहीं
आ सकते.”

“मैंने ऐसा तो नहीं कहा,” मैंने तत्काल प्रतिवाद किया.

“रानी जी, यह तो आप मानती होंगी कि प्रेम सान्निध्य का विषय है. फिर आप क्यों तटस्थ रहती हैं ?”

“मैं तो नहीं रहती,” हठात् मेरे मुंह से निकल गया. मैंने जिह्वा को दांतों से
दबा लिया.

मुझे विकल देखकर दोनों हंस दीं.

चंद्रिका ने विषयांतर करते हुए पूछा, “आपकी पिटारी में एक लंबा, वंशी जैसा वाद्य-यंत्र है. उसका नाम क्या है ?”

“उसे लीरा कहते हैं.”

“आप साथ ले जा रही हैं तो अवश्य बजा भी लेती होंगी.”

“हां ! हमारे देश में प्रत्येक संभ्रांत कन्या को नृत्य, गायन और लीरा बजाने की शिक्षा दी जाती है.”

“तात्पर्य यह कि आप नाच-गा भी
लेती हैं.”

“तू बड़ी दुष्ट है चंद्रिका. अनजाने ही मन की बातें उगलवा लेती है,” मैंने कृत्रिम क्रोध प्रदर्शित किया.

“काश, बातें उगलवाने का मेरा यह गुण आपकी प्रथम मधुरात्रि के भोर तक बना
रहे,” मेरे ऊपर बंकिम कटाक्ष फेंककर
चंद्रिका मुस्कुराई.

“सारा, इसे तत्काल रथ के नीचे फेंक दो,” मैंने कृत्रिम क्रोध प्रदर्शित करते हुए कहा.

“महारानी जी ! यदि आप अपने कर-कमलों से मुझे फेंकें तो मरकर यह अधम जीव स्वर्ग में जा विराजेगा.”

मैंने दुःखी होने का दिखावा करके हाथ जोड़ दिए. मुझे तो क्षमा कर.

उसने तत्काल अपना सिर मेरे पैरों पर
रख दिया.

कंधे पकड़कर मैंने उसे उठाया तो उसकी आंखें अश्रुपूरित थीं.

“यह क्या चंद्रिका,” मैंने उसके अश्रु पोंछते हुए कहा.

“महारानी जी, क्षमा करें ! कदाचित मैंने अपनी सीमा का अतिक्रमण किया और आपको मानसिक वेदना पहुंचाई.”

उसके दैन्य पर मेरा हृदय द्रवित हो उठा.

“नहीं चंद्रिका, जैसे मैं सारा को अपनी बहन समझती हूं, तुम भी मेरे लिए वैसी ही हो. आज से तुम सदैव मेरे साथ रहोगी.”

“सत्य ?… क्या सदैव ही ?”

“हां, हां, सदैव.”

“क्या ‘सदैव’ में दिवस के साथ रात्रि भी सम्मिलित है ?”

कितना भेदक था उसका परिहास !

“महारानी जी….”

“क्या तुम मुझे नाम से नहीं बुला सकती? ‘महारानी’ का संबोधन मुझे सह्य नहीं है.”

चंद्रिका ने अपने दोनों कान पकड़कर गरदन थोड़ी भींच ली. मुझे उसकी इस मुद्रा पर हंसी आ गई.

“हां, तो मैं कह रही थी कि क्या आपकी सेवा में मुझे एक गीत प्रस्तुत करने की
आज्ञा है.”

गीत का नाम सुनते ही मेरा मन प्रफुल्लित हो गया. काव्य-पाठ, गीत-गायन तो दूर, कितने दिनों से इन विधाओं के नाम तक कान में नहीं पड़े थे. फिर मुझे लगा कि अयाचित ही गीत प्रस्तुत करने के पीछे चंद्रिका की कुशाग्र बुद्धि ने कोई नया प्रपंच न रचा हो. अतः सोचने का नाटक करते हुए कहा, “आज्ञा तभी दी जाएगी, जब मुझसे गायन के लिए नहीं
कहा जाएगा.”

“सत्य ही, मैं आपसे गायन के लिए नहीं कहूंगी क्योंकि भारत-भूमि पर आपका प्रथम गायन सम्राट के लिए होना चाहिए.”

चंद्रिका का गीत भाव-प्रवण था. भाव थे- “काले घने मेघों से आकाश जब तिमिरमय हो जाए, जीवन न दिखे, चहुंदिशि जब विपत्तियां-ही-विपत्तियां हों और आशा की क्षीण रेखा तक दृष्टिगत न होती हो तब हमें स्वयं को किसी प्रेमिल पुरुष के हाथों में छोड़ देना चाहिए.”

गीत मर्मस्पर्शी था. मैंने चंद्रिका की
प्रशंसा की.

अनुचर ने सूचना दी कि आगामी शिविर आने ही वाला था. ऐसी सूचनाएं यात्रा के प्रथम दिन से ही दी जा रही थीं.

“मेरा मन होता है कि रथ से बाहर निकल कर मैं अश्वारोहण करूं,” मैंने चंद्रिका से कहा.

“कम-से-कम पाटलिपुत्र पहुंचने तक आपकी यह अभिलाषा पूर्ण न होगी,” चंद्रिका ने गंभीर होकर कहा.

अचानक मेरी और सारा की दृष्टि मिली. मुझे लगा, मेरी तरह सारा को भी मां की याद आई होगी. अश्वारोहण के लिए वे भी निषेध करती थीं. सारा की स्मृतियों में कदाचित् बाबा भी आ गए. बोली, “बाबा तो अब तक देश पहुंच गए होंगे.”

मुझे अपने आप पर लज्जा हो आई. कितने दिन व्यतीत हो गए थे पर बाबा को एक बार भी स्मरण नहीं किया. विस्मरण मन की एक दुर्लभ स्थिति होती है. बाबा की याद आते ही मेरी स्मृतियों का सरोवर एकदम विक्षुब्ध हो उठा. प्राणों से प्रिय बाबा को मैं कई दिनों से विस्मृत किए बैठी थी. यह सब चंद्रिका के कारण है. प्रातः मेरे उठने से पूर्व तैयार हो जाती, रात्रि में मेरे निद्रा की गोद में जाने के बाद ही सोती और दिन भर अपनी बातों के उहापोह में उलझाकर, सांस लेने तक का अवसर भी कठिनाई से देती है. पर इसमें उसका दोष भी क्या ? करती तो सब मेरे ही रंजन के लिए न !

रथ से उतरकर जब हम पदस्थ हुए तो अस्तंगत होते सूर्य पर मेरी दृष्टि पड़ी. आर्यजन सूर्य की पूजा करते हैं. उसे देवता मानते हैं. हमारे यहां – नहीं, अब कहना चाहिए यूनान में अपोलो को प्रकाश का देवता कहा जाता है. बात एक ही है. सूर्य ही तो प्रकाश का अक्षुण्ण स्रोत है. समस्त संसार में मानव प्रारंभ से ही प्राकृतिक शक्तियों की पूजा करता
आया है.

हमारा शिविर पुष्पों से सजी एक वाटिका में स्थित था. वाटिका में विविध रंग के पुष्प अपना सौंदर्य विकीर्ण किए दे रहे थे. उन पुष्पों के नामों से मेरा परिचय नहीं था, फिर भी पश्चिम दिशा की ओर उन्मुख शिथिल सूर्य की शेष रश्मियों से उद्भाषित अनाम पुष्पों को देखकर मैं अंतश्चेतना के स्पंदनों में डूब गई. कुछ चैतन्य हुई तो दूर आकाश में पुष्पहार की भांति उड़ते पक्षियों वाली संध्या मुझे कहीं और लेकर चली गई. लौटी तो देखा सामने शाश्वत जीवन के पक्षधर वटवृक्ष अपनी शाखाएं फैलाए जैसे किसी वार्ता के लिए आमंत्रित कर रहे हों.

प्रकृति में डूबी मेरा चेतना को देखकर सारा या चंद्रिका किसी ने मेरा ध्यान भंग नहीं किया. सारा जानती थी कि प्रकृति-निमग्नता से अचानक बाहर आकर मैं अप्रसन्न ही होती हूं, पर वृक्ष पर बैठे चीत्कार कर रहे उस पक्षी पर उनका वश कहां था. मैं अपने कल्पना-लोक से वापस आ गई. देखा, दोनों सखियां चार नयनों में प्रतीक्षा-दीप जलाए मेरी बाट जोह रही थीं. मैंने उन पर दृष्टि डाली तो उनका विमल स्नेह पारदर्शक हो उठा.

दिन भर यात्रा, रात्रि को विश्राम; उसके बाद फिर उसकी पुनरावृत्ति. सूर्य-चंद्र के उदय-अस्त जैसी नित्य की घटना हो गई. प्रति रात्रि तंद्रा में कामनाओं के पुष्प विकसित होते. हृदय के भीतर स्वागत के द्वार खुलते. पुष्प अर्पित होते और किसी का अदृश्य स्पर्श मेरे सर्वांग पर आनंद से सहस्र मयूरपंख फेर जाता. सुखानुभूति में तंद्रा टूट जाती और जाग्रत होने पर भी अनुभव होता कि स्पर्श-सुख जैसे जाते-जाते गुदगुदा रहा हो. मन की जो दशा होती है, आंखों को वैसा ही दिखाई देता है, चाहे वे बंद ही क्यों न हों.

प्रातः जब शिविर से बाहर आई तो देखा कि बाल-सूर्य की विहंसती किरणें चारों ओर उन्मुक्त बिखरी पड़ी हैं. मन हुआ, उन आकारहीन किरणों को पकड़कर
सहेज लूं.

सौभाग्य !!! किरणों का पूंजीभूत रूप साक्षात मेरे सामने आ खड़ा हुआ. मैंने जैसे ही नेत्र ऊपर उठाए. चंद्रगुप्त बोल उठे, “देवी, लंबी रथयात्रा से शिथिल-गात हो गई हों तो यहां पूरे दिन विश्राम किया जा सकता है. पाटलिपुत्र पहुंचने के लिए मात्र दो दिन की यात्रा शेष है.”

कभी-कभी अज्ञान में बड़ा सुख होता है. मैं तो यही समझ रही थी कि अभी आधा मार्ग ही पार किया है.

“मेरा निवेदन है कि यात्रा रोकें नहीं. मैं क्लांत नहीं हूं, मुझे भी ऐसी यात्राओं का अभ्यास है. हां, मेरे कारण आप अवश्य
बंधे हैं.”

“हां देवी, बंधने वाली बात आपने ठीक कही. मैं आपके कारण ही आपसे बंधा हूं. इस बंधन से ही भावगंधित सहयोग, साहचर्य और सानिध्य प्राप्त होगा.”

मैं लज्जा से आरक्त हो उठी. अनायास चंद्रिका आ गई. महाराज को देखकर क्षिप्रता से लौटने लगी तो चंद्रगुप्त ने टोक
दिया, “चंद्रिका !”

चंद्रिका रुकी और घूमकर उनके पास जाकर खड़ी हो गई. चंद्रगुप्त ने चंद्रिका का हाथ अपने हाथ में ले लिया. कुछ क्षण बाद बोले, “देवी, यह मेरी धर्मभगिनी है. अति वाचाल है. इसने आपको व्यर्थ ही उत्पीड़ित तो नहीं किया ?”

“नहीं महाराज, यह तो पूरे मार्ग-भर एक शब्द तक नहीं बोली.”

मेरी वक्रोक्ति सुनकर चंद्रगुप्त जोर-से हंस पड़े. फिर कदाचित् अपने सम्राटत्व का ध्यान आते ही चहुंओर देखा, जैसे जानना चाहते हों कि कहीं उन्हें उन्मुक्त हंसते किसी ने देखा-सुना तो नहीं. स्वर को सायास संयमित कर चंद्रिका से बोले, “अरी ओ ऊंटनी, अब आई है तू पहाड़ के नीचे !”

चंद्रिका की वाचालता का रहस्य खोलकर चंद्रगुप्त चले गए. अनायास चपल चंद्रिका मुझे और भी प्रिय लगने लगी. चंद्रगुप्त द्वारा छोड़ा गया उसका हाथ थामकर मैं शिविर के भीतर चली गई. सारा को दुःख हुआ कि वह चंद्रगुप्त को हंसते हुए नहीं देख पाई.

चंद्रगुप्त यात्रा की अंतिम भेंट करने के पश्चात तीव्र गति से नगर की ओर अग्रसर हो गए. हम लोगों को भी कुछ अंतराल के बाद पहुंचना था.

चंद्रगुप्त की अनुपस्थिति के कारण सुरक्षा का प्रबंध और कठोर हो गया.

“ओ सम्राट की ऊंटनी, आज क्या मौन-व्रत ले रखा है ?” प्रतिक्षण वाचाल रहने वाली चंद्रिका को अनालाप देखकर मैंने कुरेदा.

“नहीं तो महारानी जी, आप आज्ञा करें.”

“अब भी ‘महारानी’ कहोगी ? सम्राट की धर्मभगिनी हो, उस संबंध से मैं तुम्हारी
क्या हुई ?”

चंद्रिका ने गंभीर बनते हुए कहा, “राजप्रासाद में संबोधनों का निर्धारण पद की गरिमा के अनुरूप होता है. वहां संवेदनाएं औपचारिकताओं का रूप धारण करती हैं. आपकी गरिमा को, आपके पद को दृष्टि में रखते हुए पूरे मार्ग भर मैं उचित संबोधन का अभ्यास करती रही. मुझमें इतना साहस नहीं है कि इस परंपरा के विपरीतजाऊं.”

“सामर्थ्य तो है.”

“……”

“मानोगी कि सामर्थ्य से ही साहस निःसृत होता है.”

सारा ने वर्जित करते हुए कहा कि मैं ऐसी व्यर्थ की वार्ता में न पडूं. मुझे उसका मंतव्य उचित लगा और मैंने तत्काल विषयांतर करते हुए चंद्रिका से पाटलिपुत्र नगर के विषय में बताने को कहा.

चंद्रिका ने कृतज्ञ दृष्टि सारा पर डालते हुए पूर्ववत उत्फुल्ल वाणी में बताना प्रारंभ किया. “मौर्य-राजधानी पाटलिपुत्र, गंगा और शोण नामक सरिताओं के संगम पर स्थित है. नगर अस्सी स्टेडिया लंबा तथा तीस स्टेडिया चौड़ा है. इसके चारों ओर एक गहरी परिखा है, जिसमें जल शोण से आता है. नगर की रक्षा के लिए ईंट, पत्थर तथा लकड़ी से निर्मित सुदृढ़ प्राचीर है, जिसमें चौसठ द्वार तथा सत्तर बुर्ज हैं. सौध-श्रेणी, राजमार्ग, सुव्यवस्थित पण्यवीथिकाओं से नगर परिपूर्ण है. पाटलिपुत्र नगर का निर्माण महाराज अजातशत्रु ने कराया था. नगर का निर्माण पूर्ण हो जाने पर महात्मा बुद्ध को भोजन के लिए निमंत्रित किया गया था. इसी अवसर पर बुद्ध ने पाटलिपुत्र के महान उत्कर्ष की भविष्यवाणी की थी. जैसे आप के तो दो ही नाम हैं, कुसुमों से पूर्ण रहने वाले इस नगर के कुसुमपुरी के अतिरिक्त कई नाम हैं. गंगा के कूल में बने हुए सुंदर राज-मंदिर में सम्राट रहते हैं और आपके पदार्पण से उस राजमंदिर की शोभा द्विगुणित होने
वाली है….”

सहसा हमारा रथ रुक गया. हमें सूचना दी गई कि नगर का प्रवेश-द्वार आ गया है. आगे का कार्यक्रम हममें से किसी को ज्ञात न था. तत्समय एक सुंदर सुसज्जित, भव्य रथ हमारी सेवा में उपस्थित हुआ, जिसमें ऊपर स्वर्णिम छत्र था. रथ चारों ओर से खुला था. कदाचित नगरवासियों को नई महारानी के दर्शन कराने की योजना हो. योजनानुसार मैंने अंतिम शिविर में नए परिधान धारण कर लिए थे. कई ब्राह्मण हमारे रथ के पास खड़े स्वस्तिवाचन कर
रहे थे.

जैसे ही मैं नए रथ पर आरूढ़ हुई, उसकी स्वर्ण घंटिकाओं की क्वणन ध्वनि के अतिरिक्त विविध वाद्यों की सम्मिलित ध्वनि सुनाई पड़ने लगी. मैंने चंद्रिका की ओर देखा तो मेरा आशय समझकर उसने बताया कि नगाड़े, तुरही, मृदंग, शंख, आनक, गोमुख, डिंडिम आदि वाद्य मेरे स्वागतार्थ बजाए जा रहे हैं. इसी बीच, अन्य रथों से घिरा, मेरा रथ चल पड़ा.

कौशलपूर्ण उत्साह के साथ नगर की सज्जा की गई थी. स्थान-स्थान पर बहुरंगी पताकाएं फहरा रही थीं, जैसे कोई विजयोल्लास हो. आम्र-शाखाओं से निर्मित स्वागत द्वार और उन पर बंधे नव किसलय के बंदनवार हृदय में पूत-भावना का उद्रेक कर रहे थे. नगर के सभी प्रशस्त चौक सरोजिनी, यूथी, शिरीष, वनज्योत्स्ना, मौलसिरी, नवमल्लिका के पुष्पहारों से सुसज्जित थे. नगर-जनों ने स्वगृह के समक्ष अशोक और आम्रवृक्ष के पत्रों और उनकी शाखाओं से निर्मित बंदनवार सजाए थे. प्रत्येक द्वार पर जल से परिपूर्ण कलापूर्ण कलश रखे थे. ललनाओं ने गृह का अग्रभाग केशरमिश्रित जल से आलेपित कर, उन पर विचित्र अल्पनाएं चित्रित की थीं. भवनों के उच्च सौध पर नगर वनिताएं नई रानी की एक झलक पाने को एकत्र हो गई थीं. स्वागतार्थ वर्षा करने के लिए उनके पास अनंत, पारिजात, बकुल, चंपक के पुष्प प्रभूत मात्रा में थे.

अलौकिक वातावरण ने मुझे सम्मोहित-सा कर लिया था. चंद्रिका का वस्तु-ज्ञान अद्भुत था. पुष्पों, वाद्ययंत्रों, सज्जा के उपकरणों का वह विस्तार से परिचय दे रही थी क्योंकि इन वस्तुओं के प्रति मेरी गहन रुचि से वह
परिचित थी.

हमारा रथ धीरे-धीरे नगर पार कर राजप्रासाद के सम्मुख जा पहुंचा.

मंगलगीतों और बकुल के नन्हें पुष्पों की वर्षा के मध्य तात् चाणक्य और चंद्रगुप्त ने राजप्रासाद के ‘मंगलद्वार’ नामक मुख्य द्वार पर मेरा भव्य स्वागत किया. राजकुल की त्रियां अति उत्साहित थीं और मेरी एक झलक पाने के लिए उनमें होड़-सी लगी थी. शंखध्वनियों से संपूर्ण वातावरण संस्कार की आभा से परिवेष्ठित हो उठा था. इस समय का एक शब्द-चित्र चंद्रिका ने बाद में प्रस्तुत किया था, “महारानी जी, आपके अनिंद्य पावन सौंदर्य की उज्ज्वल शोभा देखकर उपस्थित सभी जन सम्राट के भाग्य की सराहना करने लगे. आपके अंग-अंग से दिव्य कांति विकीर्ण हो रही थी. तेजोमय मुख पर यात्रा-जन्य क्लांति के कोई चिह्न नहीं थे क्योंकि यौवन का प्रकाश कभी मलिन नहीं होता. महाराज कुछ क्षणों के लिए आपके पृष्ठ भाग पर आ गए थे. उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इस अस्पर्शित यूनानी सौंदर्य से पराभूत हो, भारतीय वैभव और विक्रम दास बनकर अनुगत हो गया हो.”

मैंने उसकी अतिशयोक्ति को हठात रोका.

उस अभिभूतपरक स्वागत-समारोह को देखकर मेरे मन में विचार आया कि तक्षशिला में यूनानी-विधि से विवाह के समय मेरे हाथ पर अपना हाथ रखते समय चंद्रगुप्त ने अपनी अनुरागमयी दृष्टि से मुझे जो वरदान दिया था, यह आयोजन उसी का अमृत-फल है. उस समय संकल्पों के अश्वों से जुते मनोमय-रथ मुझे कामना के जिस दिव्यलोक में ले जाने लगे थे, वह साक्षात उपस्थित हो गया है. चंद्रगुप्त को अपने सम्मुख देखकर यह सत्य लगने लगा कि कामना के साथ कभी झूठ का संयोग नहीं होता.

स्वागत समारोह संपन्न हो जाने के पश्चात मुझे अपने भवन में पहुंचाया गया. स्वल्पाहार के पश्चात पूर्ण विश्राम के लिए मुझे एकांत मिला. मेरा भवन भव्यता, गौरव और ऐश्वर्य की सामग्रियों और साधनों से संपन्न था. निद्रा ने मुझे अपने क्रोड में समेट लिया.

(क्रमशः)

फरवरी  2005

 

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