स्मृतिचित्र

⇐  डॉ. भगवतशरण उपाध्याय  ⇒  

 घटनाएं पुरानी हैं, प्रायः सत्ताईस साल पुरानी. घटीं वे पटना और बक्सर में. जब सन 1943 के सितम्बर में सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे पत्नी को लेकर लखनऊ से पटने के लिए चला, तब वास्तव में उसकी लाश ही लेकर निकला था. विदा करते समय पं. शुकदेव बिहारी मिश्र ने कहा था- ‘जाइये, देखें अब कब मुलाकात होती है! जीवन की सांझ अवध में बिता रहा हूं. सांझ सुहावनी है, पर कितनी लम्बी हो पाती है, देखना है.’ और पत्नी को, जिसे वे ‘बहू’ कहकर पुकारा करते थे, आंसू भरी आंखों से उन्होंने निहारा था. फिर मुलाकात नहीं हुई. काल की गणना में दोनों ही घट गये- पत्नी भी और स्वयं मिश्रजी भी.

    पर पटना तो जाना ही था. आशा की किरण चाहे सांझ की ही थी, पर किरण तो आखिर किरण ही होती है. आशा बांधे चला, यद्यपि तब सूझा नहीं कि पश्चिम से सांझ को पूरब चलता हुआ किरण पीठ पर ले रहा हूं.

    जमाने से भगवान में विश्वास का भार दिमाग से उतार चुका था. इससे सक्रियता को शक्ति मिली थी, और ‘चरैवेति चरैवेति’ की परंपरा को अनायास निबाह लेता था.

    पटना पहुंचा, मन मारे इलाज कराता रहा. कलम भी घिसता रहा. पत्नी के जीवन के कुल चार ही महीने शेष थे, जनवरी की 26 को वे भी शेष हो गये. अरथी के लिए बांस कटे, अरथी बनी. एक बांस अधिक हो गया, बच गया. उन्नीस साल के छरहरे कसी देह के नौजवान अभिलाष ने उछलकर उस बांस को पास की नीम की डालों में अटकाते हुए कहा- ‘वहीं पड़े रहो, किसी के काम आ जाओगे.’

    बात मन में खटकी, अंतराल में पैठ गयी. शायद सभी के मन में खंटकी, जो वहां खड़े-बैठे थे, पर सभी के मन में शायद टिक नहीं पायी. मेरा मन जिंदगी और मौत के झूले पर चढ़ा डोल रहा था, महाभारत के यक्ष के सवाल और युधिष्ठिर के जवाब के ‘आश्चर्य’ को गुन रहा था.

        अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरम् ।

         शेषास्थिरत्वमिच्छन्तिकिमाश्चर्यमितःपरम्।

    दाह-कर्म के बाद लौटा, नीम के नीचे बैठ गया. अनायास नजर ऊपर चली गयी. बांस नीम की डालों में अटका पड़ा था. नजर उधर से हटा ली, पैड पर लिखा- ‘लाश पर!’ और लिखता चला गया. कलम दो घंटे चलती रही थी, कहानी पूरी हो गयी थी, रुग्णा-मृता पत्नी की कहानी.

    साल बीता. पत्र आया, ढाई साल के बच्चे का जिगर बढ़ गया है, वह पटने में अस्पताल में है. पिलानी से पटने पहुंचा. अस्पताल से अपने ठहरने की जगह लाते हुए बच्चे को घुटनों पर ही दम तोड़ दिया. मां की ही जगह, पटने में गंगा के तीर बच्चे की लाश भी जला दी.

    ठहरने की जगह लौटा. अनेक मित्र खड़े थे, जिनमें से कई पिछले साल मेरी पत्नी के दाह-कर्म में भी शामिल हुए थे. नीम के पैड़ के नीचे बैठ गया. सहसा कुछ याद आया. अनायास नजर नीम की ओर ऊपर उठी और मैंने बगैर किसी खास व्यक्ति को लक्ष्य किये पूछा- ‘अभिलाष कहां है? नहीं दिखाता.’ एक साथ कई आवाजें, मिली-जुली सुनाई पड़ीं- ‘अभिलाष पिछले हैजे में गुजर गया.’

    विश्वास नहीं हुआ. रामचंदर बाबू की ओर देखा. वे बोले- ‘हां, गुजर गया अभिलाष, पिछले हैजे में.’ कुछ रुककर वे फिर बोले- ‘उसी बांस से, जिसे उसने इस नीम पर अटका दिया था, उसकी अरथी बनी.’     याद आती रही उस अभिलाष की सालभर पहले कही बात, नीम की डालों में जायद बांस अटकाते हुए जो उसने कही थी- ‘वहीं पड़े रहो, किसी के काम आ जाओगे.’

            -दो-

    पटना से बक्सर आया. मनोरमा पांडेय के पास ठहरा. मेरी साली हैं, जो बाद में बिहार में मंत्री हुई. उनके पिता पं. रमाकांत पांडेय संबंधी से अधिक मित्र हैं. वकील, जो मकान के सामने बरामदे में बैठते, मुवक्किलों का काम लिया करते थे. और जब काम न होता, मुवक्किल भी पास न होते, तब भी वे वहीं बैठ जाते बरामदे में ही, जहां मैं भी बैठ जाता. कुछ बोलता, कुछ चुप रहता. जब चुप रहता, तब सामने  से गुजरनेवाले इक्कों के चक्के निहारता रहता.

    चाय तब मैं बहुत पीता था. कुछ गम गलत करने के लिए भी. और ताकि मेरे सम्बंधियों को बार-बार चाय बनवाने की परेशानी न हो, सामने की दुकान से बनी-बनायी चाय मंगवा लिया करता था.

    सामने की चाय की दुकान एक बड़े दो-मंजिले मकान के बरामदे में थी. चाय की दुकान क्या थी, एक  अंगीठी थी, एक केतली और कुछ सासर-प्याले थे. एक-दो बेंचें, एक-दो कुर्सियां पड़ी थीं. इक्के-दुक्के लोग आते, बैठते, बीडी पीते हुए चाय की चुस्कियां लेते और चले जाते. मुस्तकिल चाय पीने वाला फक्त मैं ही था.

    और वह चाय बनाने वाला क्या था! सुंदर-सलोना नौजवान, करीब बाईस साल का. जैसे दुकान नहीं चलाता था, मन मारने की दवा करता था. जब कोई चाय पीने वाला आता, वह केतली आंच से उतारकर चाय बना देता, फिर विरक्त हो बैठता- ग्राहक से भी, चाय से भी, उस केतली से भी जो सदा आंच पर चढ़ी रहती.

    पर उसकी चाय का स्वाद बड़ा था. मैं रीझ गया था उसकी चाय पर और अक्सर दिन में उससे चाय मंगा लिया करता.

    फिर लगा कि चाय से ज्यादा उसके बनाने वाले के विषय में सोचने लगा हूं. उसका साफ-सुथरा जिस्म, चाय में एक अजब मस्ती-भरा विराग! मुझे लगा कि जैसा वह दिखता है, वैसा है नहीं.

    शाम को जब पांडेय कचहरी से लौटे और हम दोनों चाय पीने लगे, तब मैंने उनसे पूछा- ‘यह लड़का इस चाय की दुकान का मालिक है, या मालिक का नौकर? अपने काम से वह इतना अधिक निर्लिप्त क्यों दिखता है?

    पांडेयजी पहले तो क्षण-भर चुप रहे, फिर जैसे अपने से ही बोले- ‘जामाना कैसे बदलता है!’

    मैं चुपचाप रहा, सोचता हुआ कि शायद बात कुछ और आ रही है. बात आयी. पांडेयजी बोलते गये- ‘आपने पूछा, यह लड़का इस चाय की दुकान का मालिक है, या मालिक का नौकर? यह लड़का इस चाय की दुकान का ही मालिक नहीं, इस विशाल अटारी का मालिक भी है. इस अटारी को इस लड़के के दादा ने इसकी कानछिदाई में कान छेदने वाले सुनार को इनाम दे दिया था. अब यह लड़का इस मकान का बरामदा सुनार से किराये पर लेकर उसमें चाय बेचता है.’

( फरवरी 1971 )

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