सीधी चढ़ान (नौवीं क़िस्त)

मुहम्मदअली जिन्ना और मैं इस समय एक दूसरे से भिन्न दुनिया में घूम रहे थे. एक समय हम खूब निकट थे.

मेरे पास होने के पश्चात उनका प्रथम दर्शन मुझे 1913 के नवम्बर की पहली तारीख को हुआ. मैंने अंकित किया-

‘मि. जिन्ना आज विलायत से आये. वास्तव में बड़े ही अद्भुत मनुष्य हैं. हिंदुस्तानी एडवोकेटों में ये सबसे आकर्षक हैं- कैसे स्पष्ट और कैसे सावधान!’

जिन्ना का रोब हमेशा अधिक था. वे फक्कड़ भी थे और अक्खड़ भी. उनके कपड़ों के समान सुंदर कपड़े और कोई नहीं पहनता था. उनके बेन्ड्स जितने चमकीले बेन्ड्स और किसी के पास नहीं थे. उनके बाल सदा सफाई के साथ संवारे हुए होते, उनकी प्रस्तुति नाटकीय और जोशीले होती. उनका अंग्रेज़ी बोलने का ढंग निराला और अचूक था. उनके उच्चारण हमेशा भावपूर्ण और दर्द भरे होते थे. किसी समय व्याकरण की भूल हो भी जाती, पर बोलने की अदा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था.

वे आकर कोर्ट में बैठते, मानो फोटो खिंचवाने बैठे हैं. वे खड़े होकर कमर पर हाथ रखकर कोर्ट को नाटकीय छटा से सम्बोधित करते.

उनके अक्खड़पने की सीमा नहीं थी. अभिमान तो ज़रा-ज़रा-सी बात से टपकता था.उनका स्वाभिमान बड़ा कोमल था, उसे क्षण-क्षण में ठेस पहुंचती थी. सालिसिटर को वे थर-थर कंपाते थे.

एक बार स्ट्रैंगमेन ने उन्हें कोई अपमान जनक बात कह दी. जिन्ना ने बोलना बंद कर दिया और यह चीज बीस बरस तक चली. जिस सालिसिटर को स्ट्रैंगमेन और जिन्ना दोनों को साथ-साथ बैरिस्टर बनाने की आवश्यकता होती, उसे दोनों से अलग-अलग मिलना पड़ता. यदि दोनों का सामना होता, तो जिन्ना ‘मि. स्ट्रैंगमेन’ कहकर उल्लेख करते, न ‘विद्वान मित्र’ कहते और न ‘एडवोकेट जनरल.’

परंतु जब वे हंसते, तब विपक्षी का हृदय तुरंत जीत लेते. निर्भयता भी उनका एक प्रधान गुण था. उनकी गर्विष्ठता दुर्भेद्य थी. बड़े-बड़े न्यायाधीशों को भी वे धमकी दे देते. कोई ज़रा भी अनुचित बोलता कि तुरंत उसे फटकार देते.

एक न्यायाधीश के साथ उनकी नहीं बनती थी. जिस दिन वे न्यायाधीश पद से निवृत्त होने वाले थे, उस दिन उनकी बिदाई पर दो शब्द कहने के लिए एडवोकेट जनरल आये. उसे सुनने के लिए हम लोग इकट्ठे हुए थे. उक्त न्यायाधीश के लिए प्रसिद्ध था कि उनके कोर्ट में इन्वेरारिटी जो कहते, वह सोलह आने ठीक होता था. इस व्यवहार के विरुद्ध सारे बैरिस्टर लायब्रेरी में बड़-बड़ करते, परंतु जिन्ना कोर्ट में भी इसका उल्लेख करने से नहीं चूके थे. उस दिन के अंतिम समन्स में एक ओर जिन्ना और दूसरी ओर इन्वेरारिटी थे. न्यायाधीश ने इन्वेरारिटी के पक्ष में फैसला किया.

‘मैं जानता था,’ कठोरता से जिन्ना ने कहा, ‘इस कोर्ट में इन्वेरारिटी ही हमेशा सच्चे होते हैं.’

यह छोटा-सा वाक्य उन्होंने इतनी कठोरता से कहा कि न्यायाधीश लाल-सुर्ख होकर चला गया और उसकी बिदाई के भाषण बिना दिये ही रह गये.

जिन्ना कानून की अपेक्षा दूसरे पक्ष की त्रुटियों को पकड़ने में अधिक निपुण थे. वे राह देखते रहते, हिम्मत से बोलते रहते और ज्योंही विपक्ष का एडवोकेट ज़रा-सी भी भूल करता, कि वे शेर हो जाते. अपना अभिप्राय मज़बूती से बैठाते और छटापूर्वक या हंसकर अथवा प्रभावित करके न्यायाधीश से अपना सोचा हुआ काम करवा लेते.

मेरे प्रति उन्हें बड़ा सद्भाव था. आगे जाकर जब मैं ‘होमरूल लीग’ का मंत्री, बना तब वे उसके प्रमुख थे, इससे हमारा सम्बंध अधिक प्रगाढ़ हुआ. परंतु इस परिचय का अन्य स्थान पर वर्णन करूंगा. मैत्री में से निजी सम्बंध के तत्त्वों को वे नितार देते थे. चाहे कितना भी परिचय बढ़ जाता परंतु वे कभी अपनी निजी बात नहीं करते थे और न मित्र को ऐसा करने को मौका देते थे. उनकी शक्ति की भावना दुर्भेद्यता पर रची गयी थी.

एक दिन एक कांफ्रेन्स के बाद हम दोनों इधर-उधर की बातें करने बैठे थे. उस समय उनपर पारिवारिक कष्टों के बादल मंडरा रहे थे. मैंने पूछा- ‘जिन्ना, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है?’ उन्होंने अपने मोहक ढंग से माथे पर आये हुए बाल ऊपर किये और कहा- ‘मुंशी, तुम्हें पता नहीं कि मुझ पर क्या बीत रही है?’

इसके बाद उन्होंने होंठ दबा लिये और हृदय की व्यथा पर तुरंत परदा डाल दिया.

हाईकोर्ट की लायब्रेरी एक अजीब-सी जगह है. वहां दो सौ के लगभग विद्वान पैर लम्बे करके पड़े रहते- अनेक व्यवसाय के शिखर पर, अनेक ब्रीफ पाने के लिए अधीर, अनेक गप्पों की तरंग में. वहां दुनिया की सारी बातें होती हैं, सबकी निंदा होती है, प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को ईर्ष्या की दृष्टि से देखता है और एक दूसरे के साथ भ्रातृभाव भी अनुभव करता है.

ड्यूमा की जगदविख्यात कहानी में मस्केटियर चार थे, पर कहलाते तीन थे. व्यवसाय में भी हम ‘थ्री मस्केटियर’ संख्या में चार थे- मोतिलाल सीतलवाड, हरिलाल कणिया, मंगलदास देसाई- सर्वानुमत से मंगल और मैं.

मोतीलाल 1911 में, एडवोकेट हुए. जब मैं सम्मिलित हुआ, तब वे अलग-अलग रहते, कम बोलते और लायब्रेरी में बैठकर पढ़ना-पढ़ाना करते रहते. तब मेरी और उनकी अच्छी तरह पहचान नहीं थी.

1915 में कणिया एडवोकेट हुए और तभी से हम मित्र बने. मैं मुरारजी गोकुलदास की चाल में रहता था, वे बगल में विल्सन हाईस्कूल के सामने रहते थे. श्रीमती कणिया और लक्ष्मी का मेल-जोल बढ़ा. बहुधा रविवार को इकट्ठे बैठकर हम अपने भविष्य का विचार करते थे. वे कांगा के ‘भूत’ हुए. कणिया का स्वभाव एकमार्गी था. जो काम करना होता, उसे पूरी तरह करते. हाईकोर्ट में वकालत करने आते, अतः वहां उसे ही निभाते- दृढ़ता से, निश्चयात्मकता से, इधर-उधर देखे बिना.

मंगल का और मेरा परिचय अधिक पुराना था. 1911-12 में ‘कपोल छात्रालय’ के गृहपति और मेरे मित्र खुशालदास पारिख मुझे छात्रालय के वाद-मंडल में भाषण करने के लिए बुला ले गये थे. वहां मंगल और उसके बड़े भाई मुझे मिले. मंगल का मुझे किसी ने परिचय दिया- ‘ये विल्सन कालेज के बर्क हैं.’ प्रथम दर्शन में प्रेम होने की तरह हमारी मैत्री हुई. जब वह विलायत गया, तब जो समारम्भ हुआ था, उसमें विदाई के दो शब्द बोला था, ऐसा स्मरण है.

1914 में मंगल बैरिस्टर होकर बम्बई आया और भूलाभाई के गुरुकुल में शामिल हो गया. मंगल के बड़े भाई माधुभाई का मुझ पर बड़ा प्रेम था. थोड़े समय में मंगल का विवाह हुआ और वह संवनन करते समय उसके हृदय में जो भाव उत्पन्न होते, वे जब हम भूलाबाई के चेम्बर के छज्जे पर खड़े होते, तब मुझे सुनाता. उसके विवाह के बाद उसके ससुर तुलसीदास भी मुझे घर के सदस्य की तरह मानने लगे, रोज़ शाम को भूलाभाई के चेम्बर के छज्जे पर खड़े-खड़े हवा खाते रहते और गप्पें लड़ाया करते. मंगल की विनोदवृत्ति अद्भुत थी. अपने उन दिनों की अनेक कठिनाइयों को उसके हास्य-विनोद के द्वारा हमने हल्का किया है.

हम रोज़ चिंता करते कि पेट भरने लायक कमाई हो सकेगी या नहीं. मंगल मेरी तरह धनहीन नहीं था. उसके सगे-सम्बंधी पैसे वाले थे. मेरी रोज़ की चिंता की सीमा नहीं थी. जब मुझे खूब चिंता होती और मैं कुछ कह देता, तब मंगल मुझे हमेशा आश्वासन देता. गुरु की ओर से कुछ बुरा लगता, तो मंगल एक चुटकले में गुस्सा उतार देता. उस छज्जे पर एक छोटी-सी बात मैं उससे कहा करता था, वह याद आती है- च

‘मंगल, दस वर्ष मैं चाहे जिस प्रकार निकाल लूंगा. जी-तोड़ मेहनत करूंगा. 15 मार्च 1923 को यदि मुझे मालूम होगा कि मैं हार गया, तो मैं अपने सालिसिटर मित्रों को खाने पर बुलाऊंगा. दूसरे दिन मेरा शव मेरी साक्षी देगा.’

मंगल हमेशा कहता- ‘उस दिन अगर मुझे बुलाया, तो देख लेना!’

उसकी पत्नी लीला बहन सुकुमारता और संस्कारिता की लजीली मूर्ति थीं. वे भी मुझे मंगल का भाई समझने लगीं.

मोतीलाल बड़े आदमी के लड़के थे. निर्धनता का शूल उन्हें नहीं चुभता था, इसलिए वे खूब मेहनत करते, परंतु आगे बढ़ते झिझकते थे.अंत में चिमनभाई के कहने से वे भूलाभाई के गुरुकुल में आ गये और अपने छज्जे पर खड़े होकर हम जो तपश्चर्या किया करते थे, उसमें शामिल हुए. मोतीलाल में स्वस्थता होना स्वाभाविक था. बड़ों के लड़के थे, इसलिए हाईकोर्ट की दुनिया में उन्हें जरा भी लोभ नहीं होता था. उनमें निश्चयात्मकता भी बड़ी थी. उनके अक्षर ऐसे थे मानो मोती के दाने. ऊंचे, विशाल वक्ष वाले, स्वस्थ, चिमनभाई के आत्मविश्वास के वे कुछ अंशों में वारिस थे.

भूलाभाई ने ‘होमरूल लीग’ से इस्तीफा दे दिया. हमारे निजी और व्यावसायिक सम्बंध को देखते हुए, स्वाभाविक रूप से उन्होंने यह चाहा कि उनके पीछे मुझे भी इस्तीफा दे देना चाहिए. मैं अपने राजनीतिक आचार को और निजी या व्यावसायिक सम्बंध को परस्परावलम्बी बनाना नहीं चाहता था.

दिसम्बर की अंतिम तारीखों में कोर्ट बंद होने वाला था, उस शाम को भूलाभाई ने अपना अभिप्राय व्यक्त किया. वे कहने वाले थे, मैं सुनने वाला था. उनके कहने का तात्पर्य यह था कि मुझे लीग में और उनके गुरुकुल में एक साथ स्थान नहीं मिल सकता.

क्रोध के उद्वेग से भरा हुआ मैं घर पहुंचा. चोट खाये हुए स्वाभिमान से मेरा मन उबल रहा था. भूलाभाई के विश्वासपात्र ‘भूत’ से पदभ्रष्ट होने पर मेरी थोड़ी बंधी हुई कमाई भी जाती रहेगी, इस विचार से मैं कांप रहा था.

जब ऐसा विषादयोग आता है, तब मेरा मन उचाट हो जाता है. तीन दिन से अधिक अन्न जिस ब्राह्मण के पास हो, उसके लिए आर्यावर्त में स्थान नहीं है, यह सूत्र याद आ जाता है.

कांग्रेस के दिल्ली में होने वाले अधिवेशन में जाने के लिए मित्र लोग मुझ से कह रहे थे, परंतु मैं नहीं जाना चाहता था.

बाद में मैंने संकल्प बदल दिया-

‘न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धाम्

वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौसमर्थः।’

मैं स्टेशन पर गया और दिल्ली का टिकट लिया.

नाताल की छुट्टियों के बाद कोर्ट खुला और उसी दिन जिन्ना को पता लगा- ‘मुंशी, तुम्हें नोटिस टू क्विट मिली है, आज शाम से मेरा चेम्बर तुम्हारे लिए खुला है.’

मैंने उपकार माना और इनकार करते हुए कहा- ‘व्यवसाय में वे मेरे गुरु हैं. मेरा स्थान उन्हीं के चेम्बर में है.’

भूलाभाई के समान अनेक शक्तियों के पुंज के समागम से मुझे जो लाभ हुआ था, उसके ऋण को मैं कैसे भूल सकता था? शाम को मैं उनके चेम्बर में ह़ाजिर हुआ. वे कुछ न बोले, पर थोड़े दिनों मुझे अच्छी तरह सहन करना पड़ा. मैं नियमित रूप से रोज जाता और वापस आता. कुछ महीनों बाद वह बात हम भूल गये और गुरु-शिष्य का सम्बंध फिर जुड़ गया.

परंतु मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि इस सम्बंध को बनाये रखना है, तो मुझे स्वतंत्र होना चाहिए.

मंगल और मैं रोज शाम को चेम्बर में मिलते और साथ-साथ घर जाते. गुरु के चेम्बर में रोज जाना हमने छोड़ दिया.

पहले भूलाभाई अपने मुकदमे चलाने के लिए मुझे देते, अब मोतीलाल उन्हें चलाने लगे.

इसी वर्ष के अक्टूबर-नवम्बर में ‘नाइन ड्रेगन’ जापानी लांगक्लाथ का बड़ा सट्टा चला था. व्यापारी समझते थे कि यूरोप का युद्ध और दो-चार वर्ष चलेगा, इसलिए रोज लांगक्लाथ का भाव चढ़ता, हजारों गांठों की हड्डियां हुआ करतीं और व्यापारी कागजों पर हजारों रुपये रोज कमाकर घर जाते.

नवम्बर में लड़ाई खत्म हो गयी. लांगक्लाथ का भाव गिर गया. लेने वाले ने माल उठाने से इनकार कर दिया. परिमाण में तो माल नाम-मात्र को ही था. सब बेचने वालों ने माल उठा लेने का नोटिस दिया और तुरंत नुकसानी दावे होने लगे. वर्ष में हाईकोर्ट में बारह सौ दावे की अरजियां बनाने में मुझे काफी अच्छा भाग मिला. बहुत दिनों तक मैं प्रतिदिन चार-पांच अरजियां लिखा करता. हाईकोर्ट में पैसे की लहरें आनी शुरू हो गयीं.

1920 में यह दावे सुनवाई पर आये. त्वरित-गति मेक्लाउड प्रतिदिन पंद्रह-बीस दावों को रद्द कर देता. अधिकतर एक ओर भूलाभाई और दूसरी ओर कांगा होते. भूलाभाई उस समय शिखर पर पहुंचे. शायद ही कोई ब्रीफ ऐसी होती थी, जो पहले उनके आगे न रखी जाती हो. उन्होंने भी असीम कार्यदक्षता से काम निबटाना शुरू किया. उसी समय कांगा न्यायाधीश बने और काणिया हमारे गुरुकुल में शामिल हुए.

1921 की फरवरी में बढ़े हुए काम का अंत लाने के लिए सात कोर्ट बन गये. अभी तक तीन कोर्ट थे. हाईकोर्ट में पहले से ‘होल्डिंग’ का तरीका अंग्रेज़ी ‘बार’ के तरीके पर चला आ रहा था. उसका अनुसरण करके भूलाभाई जिस मुकदमे में स्वयं न आ सकते, उसकी ब्रीफ हमें ‘होल्ड’ करने के लिए देते. अतः यदि सालिसिटर को एतराज न हो, तो हम मुकदमा चलाते. फीस भूलाभाई को मिलती, हमें अनुभव और ख्याति मिलती.

यह पद्धति नये बैरिस्टरों के लिए बड़ी उपयोगी है. अनेक युवक बैरिस्टरों ने आशा की थी कि जब तीन कोर्ट से सात कोर्ट होंगे, तब उन्हें काम मिलेगा. कुम्भाराणा ने तो एक मीरा से चार मीरा ही देखी थीं, परंतु सात कोर्ट होने पर हाईकोर्ट ने एक भूलाभाई से सात भूलाभाई देखे. स्वयं भूलाभाई, मोतीलाल, थानावाला, इन्द्रवदन मेहता, मंगल, काणिया और मैं- सात थे.

अधिकतर ब्रीफें पहले भूलाभाई के आगे रखी जातीं. वे जितनी हो सकतीं, उतनी लेते. एक कोर्ट में वे खुद काम चलाते और जिस कोर्ट में हमें थोड़ा-बहुत काम होता, उसमें उनकी ब्रीफ हम ‘होल्ड’ करते. सारे बार में धूम मच गयी.

जिस प्रकार हिमालय का सारा पानी गंगा-द्वार में इकट्ठा होता है, इसी प्रकार प्रतिदिन की दर्जनों ब्रीफों के प्रवाह का आधे से अधिक भाग हमारे गुरुकुल में इकट्ठा होकर बहने लगा. इस ठेके के विरुद्ध स्वाभाविक रूप से प्रकोप हुआ. आशावान बैरिस्टर लोग भिन्न-भिन्न कोर्ट में बैठ गये और किस-किस केस में हम लोग उपस्थित होते हैं, इसे नोट करने लगे.

एक महीने तक इस प्रकार चला और अंत में स्ट्रैंगमेन के पास फरियाद पहुंची. उसने इन्वेरारिटी से सहायता मांगी और उसने हम पर आरोप लगा दिया. द्वेष का सागर उमड़ पड़ा. ‘बार’ की सभा हुई. हमारे आगे आरोप की सूची पेश की गयी. हमने एक दूसरे की ब्रीफें ‘होल्ड’ करने से अपनी शक्तियों को एकत्र करके नफा करने का इकरार किया था. कानून के अनुसार यह इकरार हिस्सेदारों का था, और इसे हमने व्यवसाय में अनुचित व्यवहार किया था.

स्ट्रैंगमेन, बहादुरजी और कोयाजी की जांच-समिति बैठी. मार्च की 21 तारीख को ‘बार’ की सभा मे निश्चय किया कि कोई बैरिस्टर दूसरे की ब्रीफ ‘होल्ड’ न करे, किसी के स्थान पर कोई दूसरा काम न करे.

 दूसरे दिन चमत्कार हुआ. जो ब्रीफें भूलाभाई के हाथ में आती थीं और हम ‘होल्ड’ करते थे, वे अब हमारे हाथ में हमारी बनकर आ गयीं. मेरी कमाई इससे लगभग ढाई गुना बढ़ गयी.‘थ्री मस्केटियर्स’ के भाग्य जाग उठे.

‘मारो मारो आ सम्भलाय,

धरणी लागी ध्रूजवा ने ऊथल पाथल थाय.’

पुराने कवि की इन पंक्तियों का मुझे नया अनुभव हुआ. आज इसे व्यवसाय से उखाड़ फेंकेंगे और कल उसे स्ट्रैंगमेन, एडवोकेट जनरल के लिए भी न्यायवृत्ति रखना कठिन हो पड़ा. अप्रैल के आरम्भ में जबर्दस्ती अधिक फीस लेने के लिए भूलाभाई पर इलजाम लगाया गया. हम पर इलजाम लगाने वाले एक भाई यह समझते थे कि मैं सालिसिटरों को कमीशन देता हूं. वे सीधे और टेढ़े-मेढ़े तरीकों से खोज कर आये. पर इसमें उन्हें सफलता नहीं मिल सकी. कारण, कि मैंने पहले से ही यह नियम बना रखा था कि जरूरत पड़ने पर मुफ्त काम करूंगा, परंतु किसी को कमीशन नहीं दूंगा.

‘मेरा, मेरा’ बहुत समय तक सुनाई देता रहा, हम कमाई करते रहे. जांच के काम को मैंने अंग्रेज़ी इतिहास का मशहूर ‘ट्रायल ऑफ दि बिशप्स’ नाम दिया. दूसरे पक्ष ने हमारा नाम ‘बासुदी क्लब’ रखा. कौन जाने व्हिस्की-सोडे में ही सज्जनता हो.

स्ट्रैंगमेन की न्यायवृत्ति के विषय हमें बड़ा भय था, परंतु मामला दीपक की तरह था. हमारी कोई हिस्सेदारी नहीं थी. हम निर्दोष ठहराये गये. भूलाभाई पर लगाया गया इलज़ाम एकदम झूठा साबित हुआ. ‘बासुदी क्लब’ विजय का डंका बजाता बाहर आया.

‘सात बिशप’ की जांच के द्वेष का धुंआ वर्षों तक दीखता रहा.

1922 में मोतीलाल, कणिया, मंगल का और मेरा पारस्परिक सम्बंध निकटतर और स्नेहपूर्ण हो गया. ‘थ्री मस्केटियर्स’ जो कि चार थे, व्यवसाय में अग्रस्थान प्राप्त करने लगे.

उसी समय से विकाजी तारपुरवाले के साथ मैत्री हुई. परंतु मैत्री के विकास का समय 1922 के बाद का है.

राजाबहादुर शिवलाल मोतीलाल का, जो दक्षिण हैदराबाद के धनाढ्य थे, स्वर्गवास हो गया, और उनके पुत्र राजाबहादुर बंसीलाल और उनके दो पौत्रों में झगड़ा शूरू हो गया. राजाबहादुर की करोड़ों की मल्कियत थी. वह हाईकोर्ट के रिसीवर के हाथ में आयी.

काका के भतीजे नरुभाई, (नर्मदाशंकर) राजाबहादुर, बंसीलाल के बालिग पुत्रों के सालिसिटर थे. प्रतिवादी- राजा बंसीलाल और बालिग पुत्रों की ओर से दावे की तैयारी करने का भार नरुभाई के हिस्सेदार मंचेरशा पर पड़ा.

मंचेरशा एक दृष्टि से मेरे अनुभव में बड़े-से-बड़े सालिसिटर थे. उन्होंने सालिसिटर की कला को अपूर्वता प्रदान की है. मंचेरशा जब दावा हाथ में लेते, तब वस्तुस्थिति, कानून, जांच-पड़ताल, प्रत्येक अंग की सम्पूर्ण तैयारी करते. इसकी वे परवाह नहीं करते थे कि दावा कितनी रकम का है. उससे कितनी कमाई होगी, इसकी भी चिंता नहीं करते थे. 1915-16 से उन्होंने मुझे रगड़ना शुरू किया और राजाबहादुर के मुकदमें में उन्होंने मुझसे खूब काम लिया.

उन दिनों के बाद से मंचेरशा का और मेरा सम्बंध केवल सालिसिटर का या मित्रता का नहीं रहा. आज भी वे मेरे प्रति ऐसा सद्भाव प्रदर्शित करते हैं मानो मैं उनका पुत्र हूं. मैं जब असहयोग आंदोलन के सम्बंध में जेल जाने को तैयार हुआ, तब उनकी वृद्ध आंखों से टप-टप आंसू गिरते मैंने देखे थे.

राजाबहादुर की मल्कियत में अपार सम्पत्ति थी. और अनेक पक्ष-कर्ताओं में ज़िद भी अपार थी. परिणामस्वरूप ज़रा-ज़रा-सी बात पर अरजियां होतीं, बड़ी-बड़ी फीसें दी जातीं. अरजी बड़े-बड़े दिनों तक चलतीं, अपीलें होतीं, कानून के विषयों की छान-बीन होती और सैकड़ों गिनियों के प्रोत्साहन से वे कोर्ट में उपस्थित होतीं.

इन अरजियों में राजा बंसीलाल की ओर से जमशेद कांगा हाज़िर थे और 1921 में बालिग पुत्रों की ओर से मैं उपस्थित हुआ. यह दावा 1922 के अक्टूबर या नवम्बर में न्यायमूर्ति प्रेट के पास आया. जिन्ना और भूलाभाई वादी पुत्रों की ओर से थे. कांगा राजा बंसीलाल की ओर से, काणिया और मैं बालिग पुत्रों की ओर से थे. प्रेट हमेशा हमारा मज़ाक करते. जब इस दावे की बात आती और हम अपने नाम लिखवाते, तभी वे ऐनक चढ़ाकर पूछते-

‘वेअर इज़ दि रेस्ट ऑफ दि बार?’

इस दावे में मुख्य विषय यह था कि हिंदू-शास्त्र के अनुसार पिता दो पुत्रों के साथ अविभक्त रह सकता है या नहीं? मंचेरशा की तैयारी में कोई कमी नहीं होती थी, पर मिताक्षर और व्यवहार मयूख के अंग्रेज़ी तरजुमे से बाहर जाने की उनमें शक्ति नहीं थी. काणिया और मैंने भी खूब मेहनत की थी. ऐसे बड़े केस में उदीयमान धाराशास्त्री के अग्रस्थान पर खड़े हुए हम अग्रगण्य धाराशास्त्रियों की गणना में आने के लिए तत्पर हुए. मंचेरशा की जानकारी से बाहर एक शास्त्री की मदद से मैं भी वेदकाल से हिंदू पिता के अधिकार क्या हैं, इसका अनुसंधान कर रहा था.

केस निकला. इस विषय पर पहले हमें बोलना था. धारपुर जैसे धर्मशास्त्र के ज्ञाता विपक्ष की सहायता में थे. कांगा ने निर्णय पर आधार रखा, मैंने पिता के अधिकार के विषय में वेद से लेकर अब तक के आधारों द्वारा अपने मंतव्य का प्रतिपादन किया. मैं दो ढाई दिनों तक बोला हूंगा. जब मैं बैठ गया तब मेरी कठिन प्ररीक्षा करने वाले भूलाभाई ने मुझ से जो प्रेमपूर्ण शब्द कहे, उनसे मुझे प्रतीत हुआ कि व्यवसाय की सीधी चढ़ान के ऊपरी सिरे को मैंने पार कर लिया था.

1922 के अक्टूबर, नवम्बर और दिसम्बर की मेरी आमदनी इतनी अधिक थी कि वह विशुद्ध ब्राह्मण को रौरव नरक का अधिकारी बना देती.

(क्रमशः)

जुलाई  2014 

 

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