सीधी चढ़ान (ग्यारहवीं क़िस्त)

दूसरे दिन जीजी मां और बहू बम्बई के लिए रवाना हुई. उनके उत्साह की सीमा नहीं

थी. वे बम्बई के नये घर में आकर रहीं. ‘भाई’ को मानपत्र मिलते देख कर वे हर्ष से फूली न समायी.

हम सब पुनः भड़ौच आये. टेकरे पर फिर से चमक आयी. परिवार के नाई से हंडे साफ करवाये गये. तख्तों की गंदगी दूर करवायी गयी. गलीचे झड़वाकर बिछवाये गये. पहले की तरह लोग मिलने के लिए आने लगे. हार, गुलदस्ते, चाय-पानी, मानपत्र का तांता लग गया. ‘आखिर कनु ने पिता की इज्जत रखी. कहीं आज इसके पिता जी जीवित होते तो!’ जीजी मां के जीवन की यह एक अभिलाषा पूर्ण न हुई. उस वर्ष जीजी मां ने अंकित किया-

‘जीवन के इन उनसठ वर्षों का निरीक्षण किया. इनमें सुख और दुख दोनों निरंतर आते हैं और जाते हैं. मनुष्य उत्पन्न होता है और मरता है. वर्षा आती है और शीत ग्रीष्म भी आते हैं, क्षण में सुख और क्षण में दुख. क्षण में चिंता और क्षण में संतोष. हर्ष और शोक की इस रचना के सिवा मैंने और कुछ भी नवीनता नहीं देखी. फिर मन के इस मिथ्या भ्रम में डूबकर अशांति क्यों भोगते रहें? अतः शांति! शांति’

जोनी जीव तुं जागी रे, आ मोह नी माया;

मिथ्या माया दे त्यागी रे, आ मोह नी माया.

(यह सब मोह माया है, तू जागकर जीवन बिता, इस मिथ्या माया का त्याग कर दे)… चित्त में माया ने अत्यधिक प्रवेश किया है, इससे सारे जीवन में इसका अनुभव हुआ. पश्चात पार्वतीबाई माता (बढवान की एक भक्त वृद्धा) मिलीं. विह्वल मन को कहीं शांति मिले, इसके लिए भटकना शुरू किया. इस प्रकार करते हुए सम्वत 1966 में तिलोत्तमा और रसिक का जन्म हुआ…

1968 के वैशाख में हम हजीरे गये, 1969 की फाल्गुन सुदी में सीमंत लेकर कुमुद आयी. दस दिन का स्नान किया… भादों सुदी पूर्णिमा को बोलते-बोलते स्वर्गवासिनी हुई- पंद्रह दिन का छोटा बच्चा छोड़कर. मायावी दृष्टि से देखते हुए उसमें रूप-गुण की कमी नहीं थी. मैं, अति, रसिक, सरला देवी बम्बई आये हुए हैं…’

इस अंकन में अपने जीवन पर लिखी हुई कविता भी थी, जिसकी कुछ पंक्तियां उनकी मनोदशा व्यक्त करती हैं-

रमतां जमतां कूदतां करतां झाझां लाड,

माणेक आभूषण पहेरी ने करतां केसर आड.

नाहतां निर्मल जलथकी तापी जे केहवाय,

स्वर्ग समुं सुख माणतां आनंद अंग न माय.

गगने ऊंचे देखतां तारागण चमकार,

मन रेखा त्यां ओपती ईश्वर नो उपकार.

जोत जोता मां त्यांतो जड़ी अलभ्य वस्तु एक,

 ईश्वर नी सत्ता थकी करता चमन कलोल.

निर्भय थई ने महालतां दया लावता मन,

घनश्याम मूर्ति आवी रही, दिवस थयो त्यां धन्य.

सूर्य समोवड वदन ने सविता जेवुं रूप,

आ समे ते जाणता सघली बात अनूप…’

(खेलते, खाते, कूदते और बड़े लाड़ करते ‘माणिक’ का आभूषण पहन कर केसर की बिंदी लगाते, जो तापी कहलाती थी, उसके निर्मल जल से नहाते, स्वर्ग के समान सुख भोगते, आनंद की सीमा नहीं थी. ऊपर गगन पर तारों का चमत्कार देखते, वहां मन की रेखा ईश्वर के उपकार से दीप्त हो जाती थी. देखते-देखते इतने में एक अलभ्य वस्तु प्राप्त हुई ईश्वर की सत्ता से वाटिकाएं कल्लोल कर उठती हैं. निर्भय होकर घूमते हुए मन में दया लाते हुए, वह धन्य दिन आया, जिस दिन घनश्याम की मूर्ति आयी. सूर्य के समान उसका बदन और सविता के समान रूप था. इस समय यह सारी बात अनुपम मालूम होती है…)

इस प्रकार जीजी मां ने सारे जीवन का सार अंकित किया. और अंत में कहती हैं-

‘हवे लक्ष्मी अति घणी, आवी छे घर मांय,

स्वप्नु एक पूरुं थयुं ने बीजो दिवस त्यांय.’

(अब घर में अत्यधिक लक्ष्मी आ गयी है. एक स्वप्न पूर्ण हुआ और दूसरा दिन आया.)

बाद में इस अंकन में जीवन-मुक्ति खोजने वाला एक भजन लिखा है.

जीजी मां के हृदय में भी सुधारक पुत्र का उत्साह उत्पन्न हो गया. जो किसी भार्गव स्त्री ने नहीं किया था, वह उन्होंने किया. लाडले बेटे की बहू के सीमंत का भोज अपनी खुशी से रोक दिया. लोग तड़पे. समधिन ने गालियां निकालीं. ‘मेरे बेटे ने दस वर्ष तक इस सुधार के लिए प्रयत्न किये हैं. किसी ने नहीं माना. आज मैं ही इसे अमल में ला रही हूं.’

जीजीमां के पास आध्यात्मिक या व्यावहारिक-ज्ञान प्राप्त करन के लिए अनेक विधवाएं आया करती थीं. उन सबको वैधव्य की दासता की एक ही प्रथा कष्ट देती थी- प्रति सप्ताह नाई के आगे सिर झुकाने की. अट्ठावन वर्ष की आयु में जीजीमां ने उन्हें सांत्वना दी, स्वयं इस दुष्ट प्रथा को बंद किया और सिर पर बाल रखने आरम्भ किये.

शिष्टाचारी बुद्धिमानों को आघात पहुंचाने वाले कार्य करने की आदत मुझे जीजीमां से वसीयत में मिली है.

पुत्र और बहू का ठिकाना हो जाने पर, जीजी मां के हृदय में जो अड़सठ तीर्थों की यात्रा करने की लालसा थी, उसे पूर्ण करने की उनकी इच्छा हुई. उन्होंने ठाकुर भाई से कहा, ठाकुर भाई ने भाभी से कहा, भाभी ने अपनी मां से कहा. चारों व्यक्ति अड़सठ तीर्थ करने के लिए निकल पड़े- जिस प्रकार छोटे बच्चे मौज करने निकल पड़ते हैं, उसी प्रकार. उस यात्रा का हिसाब और रोज-रोज लिखी हुई डायरी आज मेरे सामने पड़ी हुई है. पुराण की कथा से सराबोर उनकी स्मरण-शक्ति ने इन तीर्थ-स्थानों के परिचय से पौराणिक जीवन को मूर्तिमान किया. जीजी मां को नयी प्रेरणा मिली. इसके बाद वे बम्बई आयी. वहां भी जीजी मां ने आस-पास की स्त्रियों को आकृष्ट किया और अपनाया. ‘उसमें की एक चतुर, परंतु अनपढ़ स्त्राr, चंचल पति के अत्याचार से पिसकर आत्म-घात करने का विचार कर रही थी. जीजी मां ने उसे बचा लिया, उसे घर सम्भालने वाली और भजन गाने वाली बनाया. इस विषय में उनके पत्रों में अंकित है.’

जीजी मां इसके लिए यथाशक्ति प्रयत्न करती रहती थीं कि ‘भाई और उसकी बहू का सम्बंध आपस में सुंदर और प्रेम-पूर्ण हो जाय.’

श्रावणी पूर्णिमा का दिन था. हठ करके जीजी मां ने बहू को मेले में ले जाने के लिए ‘भाई’ से कहा. मां की बात मानकर ‘भाई’, बहू और सरलादेवी को साथ लेकर मेले में गया.

विक्टोरिया में बैठकर जाना उस समय बड़ा मंहगा पड़ता था. बोरीबंदर के सामने मेला था. वहां ‘भाई’ और उसकी बहू गाड़ी से उतरकर सरलादेवी के लिए गुड़िया खरीदने गये. भीड़ में किसी बदमाश ने उसके हाथ से सोने का कड़ा निकाल लिया. उदास मुख, सौ रुपये का कड़ा गंवाकर, छह आने की गुड़िया लिये बेटा-बहू वापस घर आये.

परंतु अब जीजी मां को थोड़ा संतोष मिला था. सरलादेवी के आने के बाद से बहू पर ‘भाई’ की ममता बढ़ गयी थी. बहू भी उसे रिझाने के प्रयत्न करती रहती थी.

बहू बुद्धिमान, सयानी, कम बोलने वाली और हुंसमुख थी, परंतु पढ़ने की अशक्ति स्वाभाविक थी. पति की परिचर्या में वह मग्न रहती, परंतु उसके कार्य में उसे दिलचस्पी नहीं थी. वह कम बोलती, नाम-मात्र को पढ़ती थी.

जीजी मां को प्रतीत हुआ कि ‘भाई’ के स्वभाव की आवश्यकता तो भिन्न ही थी. उसे तो किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो उसके विचारों और कार्यों में दिलचस्पी लेता रहे. साठ वर्षों की आयु में यह कमी पूरी करने का उन्होंने प्रयत्न किया. जीजी मां ने पुत्र के त्रैमासिक में लेख लिखना शुरू किया. ‘कोई स्त्री नहीं लिखती. इसलिए मैंने लिखने का संकल्प किया है, उन्होंने अंकित किया. अपने अनुभव-भंडार से वे माताओं, पत्नियों और सासों को शिक्षा देने लगीं.’

‘अर्धांगिनी कौन है? तुम पति का आधा अंग हो, फिर आधे अंग को भूखा रखकर दूसरा स्वाद से कैसे खाए? एक का स्वाद भिन्न और दूसरे का स्वाद भिन्न? आधे मुख पर शिष्टता और आधे मुख पर अशिष्ट भाषा? आधे अंगे से सदाचरण और आधे अंग से पापाचरण? आधे चित्त में देश, जाति, घर, परिवार और माता-पिता के लिए सद्भाव और दूसरे चित्त में परिवार, घर, और पति के माता-पिता के लिए दुर्भाव? ज्ञान की बातें कहां रहीं? एक तो ज्ञान में गहन कार्य करे, दूसरा ज्ञान-अज्ञान क्या है, यह समझने का कष्ट भी न उठाये, क्या यह अर्धांगिनी है? इससे तो बेचारे पुरुष को तुम पक्षाघात का रोगी बनाती हो. आरम्भ से उन्होंने वेदोच्चारण किया और पांचवां, जो गंधर्व मुख था, उससे भों-भों शब्द हुआ. हमारे महादेवजी को जानती हो न? उन्हें बड़ा क्रोध आया और उसी समय उन्होंने ब्रह्मा का वह सिर काट डाला.’

और उनका मन पुनः-पुनः परशुराम की माता रेणुका की ओर झुका. उस पर उन्होंने कविता रची. 1-4-15 को उन्होंने सास के कर्तव्य पर लेख लिखा. त्रैमासिक के लिए स्त्रियों को परामर्श देती हुई और ज्ञान-तृषा के लिए प्रेरित करती हुई कविताओं की रचना की. जाति के अंतर्विभागों में विवाह-सम्बंध जारी कराने का आग्रह ‘भाई’ किया करता था, उन्होंने उसका समर्थन किया और साथ ही दो-तीन अंतर्विभागीय विवाहों का आयोजन करा कर उन्होंने पुत्र को यश दिलवाया.

1916 में दुख का बादल घिरता मालूम हुआ और जीजी मां के प्राण होठों पर आ गये. ‘भाई’ को हमेशा पेट में दर्द हुआ करता था. डॉक्टर ने कहा कि इसका कारण ‘एपेंडिसाइटिस’ का रोग है. बम्बई के डाक्टर पर विश्वास नहीं हुआ, अंतः डाक्टर वानलेस के द्वारा उसकी शल्य क्रिया कराने के लिए दलपतराम सहित सब मिरज गये. पैसे की दृष्टि से स्थिति खराब, एकमात्र लड़के का ऑपरेशन परंतु जीजी मां ने सोचा कि हर तीन महीने बाद लड़का कष्ट पाये, इसकी अपेक्षा रोग निकलवाना ही अच्छा है.

मिरज जाने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए ‘भाई’ ने एक मित्र से पांच सौ रुपये लिये. ऑपरेशन कराने के लिए टेबल पर सोने से पहले ‘भाई’ को एक चिंता थी कि यदि वह इस ऑपरेशन से न बचा, तो जीजी मां और लक्ष्मी का क्या होगा? जीजीमां ने हिम्मत बढ़ायी- ‘भाई! महादेव जी बैठे हैं, वे हमें कैसे भूल जाएंगे?’

मिरज से वापस आने पर पैसे की बड़ी तंगी रहने लगी. स्पीशी बैंक के टूटने से वहां रखी हुई पूंजी चली गयी थी. ‘भाई’ चिंता किया करता. मित्रों से उधार लेता, व्यापारी से पैसे लेता. ‘अब क्या होगा’ की चिंता जीजी मां को हमेशा हुआ करती.

जीजी मां ने बहू को प्राचीन सती बनाया था. किसी पर-पुरुष को वह अपने हाथ से पानी भी नहीं देती थी, देना होता तो प्याला भूमि पर रख देती थी… अब उन्होंने उसे अर्वाचीन बनाने का प्रयत्न आरम्भ किया. इच्छा बहन बहू को ले जातीं और उनके संसर्ग से कुछ सुधार हो रहा था. परंतु अभी वह ‘भाई’ के मित्रों के साथ नहीं हिल-मिल सकती थी.

‘भाई’ के राजनीतिक क्षेत्र में आने पर वे भी उसमें दिलचस्पी लेने लगीं. अखबार में उसका नाम छपता , तो वह अंश काटकर सम्भाल कर रख लेती थीं. ‘होमरूल’ के विषय में जानकारी प्राप्त करके उसे अंकित किया, भड़ौंच में आंदोलन के सिलसिले में स्त्रियों की सभाएं कीं. 1918 में जब लोकमान्य तिलक आये और सारा शहर उलट पड़ा, तब भड़ौंच की स्त्रियों की ओर से उनका स्वागत करने के लिए वे गयी थीं. इस प्रकार ‘भाई’ की प्रवृत्ति के साथ जीजी मां ने तादात्म्य किया और उसे सहायता देने के लिए सींग तुड़वाकर बछड़ों में शामिल हुई.

1918 में जब जगदीश उत्पन्न हुआ, तब जीजी मां बड़ी प्रसन्न हुई. सरला देवी और जगदीश दोनों ने जीजीमां को जगत के साथ नये तंतु में बांध लिया. उनके आने से ‘भाई’ भी बदल गया. उसका और उसकी बहू का सम्बंध अधिक स्नेह-पूर्ण हो गया.

दोनों बच्चे भाग्यशाली थे. एक के आने पर ‘भाई’ पास हुआ, दूसरा पैसे लेकर आया, वह आया और पहली अलमारी खरीदी गयी. बहू ने पहला आभूषण देखा.

आमदनी बढ़ी कि तुरंत अस्सी रुपये किराये के मकान में हम रहने के लिए गये. पर बाद में पता लगा कि वह घर अशुभ था. ठीक हवादार भी नहीं था. रोज रात को जगदीश चीख पड़ता. घर बदलने का विचार किया. ‘भाई’ दो सौ रुपये किराये का घर ठीक कर आया- सुघड़, सुंदर, हवा और रोशनी वाला. सवेरा होते ही बाबुलनाथ के शिखर के वहां से दर्शन होते थे.

अब पैसे की तंगी दूर हो गयी, ऋण चुका दिया गया, आवश्यक चीज़ें लेने के लिए हाथ बढ़ाया जा सकता था. महम्मद को बारह रुपयों की जगह पच्चीस रुपये देने आरम्भ किये, वह भी दुख-सुख का भागी था, उसे कैसे भूला जा सकता था? इस प्रकार ‘भाई’ के हाथ में पैसे आते, पर टिकते नहीं थे.

भड़ौंच में ‘गुजरात-शिक्षा सम्मेलन’ हुआ. ‘भाई’ लगभग पंद्रह मेहमानों को ले आया. टेकरे पर धूम-धाम मच गयी. मास्टर की पत्नी तारा देवी और उनकी बहनें भी साथ थीं. उनके स्वतंत्र रहन-सहन से भार्गवों में हलचल मच गयी. चंद्रशंकर था विनोदी, उसके विनोद की सीमा नहीं थी. सम्मेलन में जीजी मां जिस समय उपस्थित हुई, उस समय महात्मा गांधी अध्यक्ष थे.

उस समय जीजी मां ने अनुभव किया कि अब हवेली में गुजारा नहीं हो सकता, और अर्वाचीन जमाने की सुविधाएं भी वहां नहीं थीं. कसनदास मुनशी ने हवेली बनवायी थी, तो उनका वंशज क्यों न बनवायें? ‘भाई’ से कहा, उसने स्वीकार कर लिया. नक्शे बने, औसत निकाली गयी और जीजी मां हवेली बनवाने के लिए भड़ौंच में रहने लगीं. भड़ौच में रुखीबा भी थीं. अब एक रसोइयन खाना बनाने वाली रखी और एक ऊपर काम करने वाली भी रखी पैसा आता और खर्च हो जाता. ठाकुर भाई और महम्मद सहायता के लिए थे ही. भड़ौंच में इतने बड़े घर के सिवा लड़के का परिवार कैसे समाता?

उस समय भड़ौंच में एक आदर्श ब्राह्मण था- दुर्गाशंकर दवे. 1897 में जब परिवार का विभाजन हुआ, तब जीजीमां ने युवक दवे को कुल-ज्योतिषी निश्चित किया था. वह अथर्ववेदी था और उसी समय काशी से पढ़कर आया था, इसलिए जीजीमां को उस पर श्रद्धा थी.

जीजीमां जब भड़ौंच जातीं, तब दवे जी को बुलाती. वे भागे हुए आते, बैठते और गीता, योगवासिष्ठ, और पंचदशी की बातें करते. जीजी मां जानती थीं कि दवे जी के कठिन व्रतों के कारण कभी-कभी उन्हें खाने को भी नहीं मिलता था. ‘भाई’ से पूछ कर जीजी मां ने उन्हें पंद्रह रुपये देने की बात कही. परंतु उस विप्र ने इनकार करते हुए कहा-

‘जब तक आप भड़ौंच रहेंगी, मैं रोज आऊंगा, कुछ पढ़ा करूंगा, परंतु आध्यात्मज्ञान की बातें करने के लिए पैसे नहीं लूंगा.’

दवेजी पैसे किस प्रकार स्वीकार कर सकते हैं, यह एक प्रश्न था. सीधा भेजा जाय, तो वह ठीक समझेंगे तभी लेंगे.

उस समय जीजी मां ने स्वास्थ्य पर एक विचार लिखा था.

‘ज्ञानी जन कहते हैं कि जहां दृष्टि डाले वहां ताव ही है, यह कथन झूठ नहीं है. प्रत्येक पदार्थ के प्रति ऐसी तन्मयता प्राप्त कर लें, तो उसका स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है. जहां एक बार ऐसी तन्मयता सिद्ध हुई, कि उस मार्ग पर तुम दौड़ते चले जाओगे, कभी तुम्हें पांच क्षण के लिए कोई रोक ले तभी रुकोगे, अन्यथा चलते रहोगे. कारण कि तुम्हारा लक्ष्य-ज्ञान प्राप्त करना हो, चाहे पढ़ाई का ज्ञान, जहां भी जाओ, ज्ञान-प्राप्ति के लिए सबसे पहले तन्मयता का उपयोग करना, जिससे उच्च जीवन बिताया जा सके.’

धीरे-धीरे दवेजी ने दुष्कर व्रत रखने आरम्भ किये. सबेरे दस बजे तक ध्यान लगाकर बैठते, दोपहर से रात तक जीजी मां के समान किसी से मिलने जाते या देव-दर्शन के लिए बाहर निकलते. ज्योतिष का व्यवसाय भी उन्होंने बंद कर दिया.

जब मैं भड़ौंच जाता, तब वे मुझसे मिलने आते. मैं भी उनसे मिले बिना नहीं रहता था.

कुछ वर्ष पहले मैं भड़ौंच गया और दवेजी का हाल पूछा. वे अपने घर के ऊपरी खंड पर सारा दिन पूजा-पाठ में बिताया करते थे. उनकी पत्नी दो बार भोजन कराने ऊपर जाया करती थीं. दो बार वे स्वयं रेवाजी-स्नान के लिए जाया करते थे. इसके अतिरिक्त बाहर न निकलते थे. मैं दूसरे दिन बम्बई वापस जाने वाला था.

उनकी स्त्री ने उनका ध्यान भंग करते हुए कहा- ‘कनुभाई आये हैं.’

तब उन्होंने खिड़की खोली. कौपीन पहने, हाथ में माला लिये. दवेजी मृग-चर्म पर बैठे थे. व्रत कर-करके उनका शरीर हड्डियों के पिंजर के समान बन गया था. मैंने उनके स्वास्थ्य का हाल पूछा. दवेजी ने कहा- ‘जब तक चोला है, तब तो मुझे ब्राह्मण-धर्म का पालन करना ही पड़ेगा. भगवान मेरे समीप हैं, फिर और मुझे क्या चाहिए!’

इन शब्दों में दम्भ नहीं था. भार्गव ब्राह्मणों में इस अल्प-परिचित, परंतु शुद्ध ब्राह्मण को मैंने अंतःकरण से प्रणिपात किया. नीचे उतरकर मैंने उनकी पत्नी के हाथ पर पच्चीस रुपये रखे. वे ऊपर जाकर पूछ आयी. दवेजी ने कहा- ‘कनुभाई ने दिये हैं, इसलिए पांच रख लो, बाकी वापस कर दो.’

मैं विचार करता हुआ घर आया. यह है ब्राह्मण, जिसने विद्या प्राप्त की, पर बेची नहीं. दान लिया, पर यजमान की कृपा से नहीं, अपनी कृपा के मार्ग से, जिसने अपनी आत्मा को एकनिष्ठ ब्राह्मणत्व की अटलता से प्रभु के चरणों पर रख दिया. ऐसे लाखों व्यक्तियों के आत्म-बल से ही आज हजारों वर्षों से ब्राह्मणों की संस्कृति टिकी हुई है, मुझे ऐसा विचार आया.

जीजी मां ‘भाई’ के हृदय के एकाकीपन को समझती थीं और उसे दूर करने के अनेक प्रत्यन कर रही थीं. जब वह बच्चा था, तब उसका स्वभाव जैसा विशुद्ध था, आज भी वैसा ही था. जीजी मां पूछतीं और ‘भाई’ अनेक बातें करता. कोर्ट की, न्यायाधीशों की और राजनीति की, वीसेंट और तिलक की, दास और गांधीजी की. अपनी पिछली लिखी हुई कहानी या निबंध पढ़कर सुनाता. पिछली प्रकाशित हुई कहानी पर कहीं टीका निकली होती, तो वह भी सुनाता. गीता और योगसूत्र की अपनी कठिनाइयों के विषय में भी चर्चा करता, और जीजी मां प्रसन्न होतीं. ‘भाई’ के हृदय में उठती तरंगों और भावनाओं में भी वे दिलचस्पी लेतीं.

1920 में ‘भाई’ अपनी बहू के साथ घूमने-फिरने लगा. इससे उसका असंतोष अदृश्य हो गया हो, ऐसा प्रतीत हुआ.

उसी वर्ष उषा का जन्म हुआ और जीजी मां ने लक्ष्मी से कहा- ‘सरला और जगदीश मेरे, और यह लड़की अब तेरी है, इसे तू पालना.’

अनेक बार जीजी मां ‘भाई’ को देखती रहती- सोफे पर पड़कर ब्रीफ पढ़ते हुए, और उसकी छाती पर होती थी गोल-मोल श्वेत रूई की तरह सुकोमल उषा. वह न बोलती थी न रोती, समझदारी से बाप की ओर वह टुकुर-टुकुर ताकती रहती, शांति और स्थिरता से, मानो पूछ रही हो- ‘पिताजी, तुम कैसे मूर्ख हो?’ और जब उसे उस सिंहासन से उतरना होता, तब अपने-आप उतरती और चढ़ना होता, तब फिर चढ़ जाती.

सरला का जन्म होने पर मैंने अंकित किया-

‘मैं पिता बन गया. एक कर्तव्य बढ़ गया. एक जिम्मेदारी अधिक हो गयी. निस्त्रीगुण्य होने के लिए अधिक प्रयत्न करने पड़ेंगे. प्यार के योग्य बने, तो अच्छा.’

निस्त्रीगुण्य होने की बात अंकित तो की, पर सरला जब से पैदा हुई, तभी से मेरी लाड़ली बन गयी. और इससे आगे जाकर लक्ष्मी का और मेरा सम्बंध नये स्वरूप में बंध गया. मैं उस समय निस्त्रीगुण्य होने के लिए बच्चों के-से प्रयत्न कर रहा था.

मेरा भगवद्गीता का अध्ययन विचित्र था. उसके एक श्लोक का जप कर-करके आवश्यकता मनोदशा का पोषण करने की तो मुझे कभी से आदत पड़ी हुई थी. ‘हो मने भूली गयो छे मारो छेलडो रे’ (‘मेरा प्रियतम मुझे भूल गया है’) बोल-बोलकर मैंने प्रणय-विह्वलता पोषित की थी. ‘मैं पगली या दुनिया पगली, गा-गाकर मैंने क्रंदन किया था.’

तुं जाता हुं नहिं रहुं,

जीवन नो लोभी नथी हुं कदी,

तूं स्वर्गे कर वास,

के समजजे आ दास ऊभो त्यहीं.

और-

प्रिय क्यां हशे जल वन विषे?

नथी जल गगन नी दश दिशे,

प्रिय ज्यां तुं हो त्यां प्होंचजो,

मुज प्रेम पूर्ण प्रणाम आ.

(तेरे जाने पर मैं नहीं रहूंगा, मैं कभी जीवन का लोभी नहीं, तू स्वर्ग में निवास कर और समझना कि मैं वहीं खड़ा हूं.)

(प्रिय कहां होगा जल वन में? जल गगन की दसों दिशाओं में नहीं है. प्रिय, तू जहां भी हो, वहीं तुझे मेरा यह प्रेम-पूर्वक प्रणाम पहुंचे.)

इन पंक्तियों को रट-रटकर मैं ‘देवी’ के प्रति अपनी आतुरता को सजग रखता. रोग बढ़ाने के इस तरीके को मैंने जिस प्रकार हस्तगत किया था, उसी प्रकार उसे वश में करने का नुस्खा भी मेरे हाथ लग गया. जब मुझे पेट-दर्द होता, तब ‘तांस्तितिक्षस्व भारत, जप-जपकर मैं अपना दुख भूलता था. जब कठिनाइयां मुझे बहुत घबराहट में डालतीं, तब घंटा-दो घंटा चौपाटी पर घूमता और-’

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्म चेतसा।

निराशीर्निममो भूत्वा युद्धयस्व विगत ज्वरः।।

बोलता रहता और जब उदासीनता में डूब जाता तब-

प्रसादे सर्व दुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि पर्यवतिष्ठते?

की रट लगाता और जब हताश होता, तब-

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्य त्यक्वोत्तिष्ठ परन्तप।।

का जप करता.

इस प्रकार इच्छित मनोदशा उत्पन्न होने तक श्लोकों का जप करते रहने से एक विशिष्ट नियम मेरी समझ में आ गया.

जो मनोदशा मुझे प्राप्त करनी होती, वह प्राप्त हो गयी है, ऐसा मंत्र बोलते रहने से वह मुझे सचमुच प्राप्त हो जाती.

जप को मैं जैसी जड़-विधि समझता था, वैसी वह नहीं थी. जपयज्ञ के पीछे ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’ वह महा प्रभावशाली शक्ति छिपी हुई मैंने देखी.

और भी एक अन्य प्रयोग मैंने किया. 1907, 8, 9 के उद्वेगपूर्ण वर्षों में मुझे ऐसी धुन लगी थी कि यदि मैं एकाग्रता से ‘देवी’ का ध्यान करूं, तो वह अवश्य आकर मुझसे मिलेगी. योगशास्त्र की मान्यता है कि जो ज्योतिष्मती पर ध्यान करता है, उससे सिद्ध आकर मिलते हैं. नाटक करने से ज्योतिष्मती का कुछ प्रकाश मुझे दिखने लगा था, इससे अपनी धुन में मुझे पागलपन नहीं मालूम हुआ. जब मैंने ‘वेरनी वसूलता’ लिखा, तब मुझे इसका खयाल आया कि एकाग्रता से कल्पना में प्रयत्न करके देखा हुआ व्यक्ति शब्दों में कैसे सजीव होता है और जीवित मनुष्य पर किस प्रकार प्रभाव डालता है.

इस खयाल से नयी बात सूझी. यदि एकाग्रता से अनेक गुणों का आरोपण दूसरे व्यक्ति पर किया जाय, तो वे गुण उसमें अवश्य विकसित हो सकते हैं. यह नियम योग की दृष्टि से सच्चा तो है, परंतु यह मैं भूल गया कि उसे व्यवहार में लाने की मेरी शक्ति बहुत ही मर्यादित थी.

सरला के जन्म के बाद मैंने यह प्रयोग आरम्भ किया. लक्ष्मी की सरलता में अपने इच्छित गुणों का समावेश करके मैंने ‘रमा’ का निर्माण था. अब उन गुणों को पुनः लक्ष्मी में आरोपण करके उसे ‘रमा’ बनाना था. ‘रमा’ के नाम पर पत्र लिखकर लक्ष्मी को उसके प्रति दिलचस्पी लेनेवाली बनाया. कहानी के उससे सम्बंधित परिच्छेदों को मैं उसे पढ़कर सुनाता. कविता मैं नहीं लिख सकता था, पर एक बार तो वह भी लिख गया, और यह मानने के लिए मैं योग करने लगा कि यह ‘रमा’ ही है.

लक्ष्मी के आत्म-समर्पण की सीमा नहीं ंथी, परंतु उससे पढ़ाई नहीं होती थी. उसकी ऊर्मिया बालक के समान, ठंडी, मीठी और आर्द्रता से रहित होती थीं, हृदय के भाव शब्दों या व्यवहार में व्यक्त करने की उसकी शक्ति भी सीमित थी. मैं था विद्या का भूखा स्वभाव का कथनात्मक और दूसरे का कथन सुनने का प्यासा, अविर्भाव का रसिक तथा अंकुश-रहित तादात्म्य पर रचित प्रणय-भावना का पोषण करने वाला मूर्ख.

अपने प्रयत्न की सफलता देखने के लिए उत्सुक मेरे हृदय को जरा-जरा बात से आघात पहुंचता और उसका डंक निकालने के लिए मैं तितिक्षा का जप करता.

आज अपनी इस निर्बलता पर हंसी आती है और फिर साथ ही अपनी अनगिनत निर्बलताओं को जीतने और जगत के साथ समाधान करने के लिए अकुलाते हुए इस मूर्ख युवक के करुण जीवन का खयाल आता है.

1918 से लक्ष्मी में बड़ा परिवर्तन हो गया. कुछ अंश में इस प्रयोग से और बहुत अंश में अपनी नैसर्गिक शक्ति से. नौकर, रसोइये, पैसे, साहबी, सब की व्यवस्था वह करने लगी. इच्छा बहन के साथ वह सब जगह जाती, मित्रों और मित्र-पत्नियों से मेल-जोल रखती, परंतु मेरी परिचर्या के अतिरिक्त और किसी बात में उसे आनंद न आया.

मैं उदासीन होता, तो उसका कारण पूछना उसे उचित न मालूम होता. वह समझ लेती कि मुझे पर्याप्त सुविधा नहीं मिली. मैं क्या करता हूं, क्या तूफान मचाता हूं, किस प्रकार कमाता हूं, मेरे विचार कैसे हैं, मेरे आदर्श क्या हैं- इसकी उसे लेश-मात्र भी परवाह नहीं थी. जब मेरी कहानियां छपतीं, तब वह उन्हें पढ़ती परंतु विशेष उत्साह के बिना ही. जब मैं लिखने बैठता, तब मेरी लिखाई के प्रति उसे बड़ी से बड़ी दिलचस्पी यह होती थी कि दवात में स्याही है या नहीं, कागज है या नहीं, बच्चे रोकर गड़बड़ तो नहीं मचा रहे हैं.

गीता और योगसूत्र को व्याकरण या कोष की दृष्टि से मैंने नहीं पढ़ा. मैं विद्यार्थी की दृष्टि से उन्हें नहीं पढ़ता था और टीकाएं पढ़ने से तो मुझे बहुत ही उकताहट होती थी. इन दोनों का पारायण और मनन मैं केवल प्रेरणा प्राप्त करने और जप करके शक्ति पाने के लिए किया करता था. उस समय अपनी निर्बलता और हृदय से उठती हुई अशांति को वश में करने के लिए मैंने प्राणायाम का भी थोड़ा-थोड़ा प्रयोग आरम्भ किया.

1913 से 1922 तक, वर्ष में दो-तीन बार मैं माथेरान जाया करता था. इस समय के अंतर्गत, केवल 1917-18 और 19 को छोड़कर, शेष वर्षों में गर्मी की डेढ़ महीने की छुट्टी भी वहीं बितायी थी.

जब मैं वहां होता, तब सवेरे किसी पहाड़ी पर खड़ा होकर, नीचे खाई में शक्ति के सागर के विस्तारित होने की कल्पना किया करता. फिर उस शक्ति का जल श्वास में लेकर मैं अपने अंदर खींच रहा होऊं, ऐसी कल्पना करता और श्वास तथा निःश्वास के साथ ‘ॐ शक्तो।़हम् और ॐ शांतो।़हम्’ धीरे-धीरे बोलता.

इस प्रयोग से मुझमें स्वस्थता आती और काम करने का नया उत्साह उत्पन्न होता.

1912 से 1914 तक योगाभ्यास करने का मुझे बड़ा उत्साह था. मैं नियमित रूप से ध्यान करने बैठता. पहले बुद्ध की तस्वीर सामने रखता. घूमते-फिरते इस ध्येय को दृष्टि के आगे लाने के प्रयत्न करता. रोज योगसूत्र का पाठ करता, ॐ कार का जाप भी करता और त्राटक करने का प्रयोग भी करता था.

कोर्ट का काम-काज, कहानी लिखने का मानसिक श्रम और अन्य प्रवृत्तियों के कारण ध्यान करना मेरे लिए सुविधाजनक नहीं रहा. सारा दिन सिर दर्द करता और रात को नींद न आती. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं उल्टे मार्ग पर जा रहा था. मैंने बड़ी देर तक किसी अनंतानंद के मिलने की प्रतीक्षा की. अंत में थककर मैंने अरविंद घोष को पत्र लिखा- ‘यदि मेरे भाग्य में योग्य-सिद्धि लिखी हो, तो उत्तर दीजियेगा. यदि उत्तर न आया, तो मैं समझ लूंगा कि वह मेरे भाग्य में नहीं है.’ उस समय योगाभ्यास करने में बड़ा उत्साह था. उत्तर की एक महीने तक प्रतीक्षा की. उत्तर न आने पर मैंने योगी बनने की नादान आकांक्षा को छोड़ दिया. मेरे भाग्य में यह सिद्धि नहीं लिखी थी.

अंत में मैं और सब छोड़कर ‘निस्त्री गुण्यो भवार्जुन’ का जप करने लगा और इस विधि से अपने विकास की साधना आरम्भ की. ‘निस्त्री गुण्य’ का शास्त्री य अर्थ मैंने ग्रहण नहीं किया था. सत्व, रज और तुम- मैंने यह अर्थ ग्रहण किया था कि शांत, प्रवृत्तिमय और शैथिल्यमय, इन तीनों गुणों में से जो गुण प्रसंगानुकूल व्यक्त करने के योग्य हो, उसे जो जान सके और उस गुण के अनुसार आचरण कर सके, वही ‘निस्त्री गुण्य’ है और इसके अनुसार मैंने बड़ी-बड़ी योजनाएं बना डाली.

(क्रमशः)

सितम्बर  2014 

 

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