साहित्य समय का अतिक्रमण करता है

♦   डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित   >

मानवीय चेतना की बहुअर्थी अभिव्यक्ति है शब्द. शब्द का प्रत्यक्ष उसके प्रयोक्ता की अंतश्चेतना- मानसिक ऊर्जा, बौद्धिक तर्क-वितर्क, मनोद्वेग तथा संवेदन आदि के बाह्य प्रकाशन के रूप में होता है. ज्ञान-विज्ञानात्मक वाङ्मयीन विधाओं की अपेक्षा साहित्य में प्रयुक्त शब्द ऊर्जा आदि अपनी समस्त शक्तियों के साथ उपस्थित होता है. अपने इसी व्यापक सामर्थ्य के सहारे साहित्यिक शब्द विशेष प्रभावशाली तथा व्यक्ति एवं समाज के लिए प्रेरक सिद्ध होता है.

दिक्काल में घटित, घट्यमान अथवा घटनीय कोई भी घटना या स्थिति साहित्य के लिए अस्पर्श्य नहीं है. लेकिन काल या समय के साथ साहित्य का रिश्ता कहीं अधिक गहरा और व्यापक है. एक सजग और जीवंत रचनाकार की रचना में उसका वर्तमान ही प्रतिबिम्बित होता और रूपाकार ग्रहण करता है. यही वर्तमान उसको नवीनता प्रदान करता है, अतीत को अर्थवान बनाता है.

मनुष्य की समय की संकल्पना नक्षत्रों के उदयास्त अथवा ऋतु परिवर्तन के ज्ञान पर ही नहीं, बल्कि उसकी पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि देशीय-विदेशीय परिस्थितियों तथा गतिविधियों पर निर्भर करती है. मनुष्य जाने-अनजाने इन परिस्थितियों से प्रभावित रहता है. उनमें होते रहने वाला सामान्य परिवर्तन जब असामान्य या असाधारण रूप धारण कर लेता है तब मनुष्य और समाज उस परिवर्तन का संज्ञान करके उसके अनुकूल या प्रतिकूल आचरण करने लगता है. इसी क्रिया-प्रतिक्रिया की स्थिति में वह नयी सम्भावनाओं की तलाश भी करता चलता है. परिणामतः उसकी चेतना अखंड काल-प्रवाह को भूत या अतीत, वर्तमान तथा भविष्य जैसे खंडों में बांटकर देखने लगती है. एक प्रकार से यह मनुष्य की चेतना का खंडित होना भी है.

सच तो यह है कि एक सच्चे और अच्छे रचनाकार की यही परीक्षा-भूमि भी है. विशेषतः कवि, उसमें भी प्रबंधकार कवि, की. क्योंकि उसे प्रायः अतीत कथाओं और घटनाओं पर निर्भर रहकर उन्हें वर्तमान के संदर्भ में साधना और सर्जनात्मक कौशल के बल पर अपनी रचना के भविष्य के लिए उपयोगी बनाये रखना होता है. वह वर्तमान में जीता है, अतीत को संस्कार देता है और अपने अनुभव सत्य के आधार पर भविष्य के लिए कुछ उपयोगी दिशा-संकेत छोड़ जाता है. काल की इस त्रिआयामिता को साधने की शक्ति गद्यकारों में से किसी-किसी उपन्यासकार अथवा निबंधकार में ही होती है. केवल अतीत का गौरवगान करने वाले अथवा वर्तमान का यथावत चित्रण करके रह जाने वाले रचनाकार शीघ्र ही हाशिये पर चले जाते हैं और आश्चर्य नहीं कि कुछ काल बाद विस्मृत कर दिये जाते हैं. वर्तमान को भुला कर केवल भविष्य के सपने देखने वाले रचनाकार की गति भी इससे कुछ विशेष भिन्न नहीं होती. रचनाकार की कल्पक दृष्टि और ऊर्जस्विता का प्रमाण तभी मिलता है, जब वह अपने समय की विषमता और विद्रूपता के विरुद्ध द्वंद्व की स्थिति में खड़ा होता है.

हमारा वर्तमान बड़ा विषम और विकट है. लगभग अंधकारमय और अराजक. आशा की गयी थी कि लोकतंत्र में आपसी सदाशयता, सहयोग और निर्भयता का वातावरण पनपेगा, किंतु आपसी डाह-द्वेष, असहयोग और भय का ऐसा साम्राज्य छाया हुआ है कि लोकतंत्र की चूलें हिल गयी हैं. शासक और शासित, दोनों किसी न किसी से भयभीत हैं. फलतः प्राथमिकता क्रम से शासक वर्ग की सुरक्षा को अनिवार्य मानकर सुरक्षा बलों को उनकी सेवा में इस तरह तैनात कर दिया गया है कि सामान्य जनता की सुरक्षा खतरे में पड़ गयी है. जाति-उपजाति, वर्ग, धर्म, सम्प्रदाय आदि को आधार बनाकर राजनीति-कुशल छोटे-बड़े नेताओं ने इतने दल बना लिये हैं कि बिना गठबंधन के राज्यों या/और केंद्र में सरकार बनाना और फिर उसे बचाये रखना असम्भवप्राय हो गया है. स्वाभाविक है कि देश में अस्थिरता, चालबाजी, धोखाधड़ी का वातावरण और दबाव की राजनीति का पसार हो गया है. प्रादेशिक दलों की सहायता पर पल-पल निर्भर रहने वाली केंद्रीय सरकार अंतरराष्ट्रीय मामलों तक में अपने निर्णय के लिए स्वतंत्र नहीं रह गयी है. विदेशी पूंजी, वैश्विक बाज़ार, उदारतावादी नीति, बनते-बिगड़ते वैदेशिक सम्बंधों और भाषाई नीति की कथा तो सर्वथा अलग ही है. कुल मिलाकर जो दृश्य उभरता है वह, बावजूद कुछ तथाकथित जनहितकारी योजनाओं और अंतरिक्ष तथा मंगलयान के प्रक्षेपण के, निराशाजनक न भी हो, तो भी चिंताजनक अवश्य है. इसलिए भी कि हमारा साहित्यिक क्षेत्र भी इसके दुष्प्रभाव की चपेट में आ चुका है और आये दिन स्वयं बहुत-से रचनाकार इस बात की शिकायत कर रहे हैं कि साहित्य में भी माफिया काम कर रहा है; पक्ष-विपक्ष, अपने-पराये के आधार पर लेखकों को स्वीकृत और सम्मानित अथवा उपेक्षित किया जा रहा है. प्रकाशकीय और लेखकीय सम्बंधों में दरार कुछ और बढ़ गयी है.

सवाल उठता है कि घनघोर स्वार्थ, लिप्सा, छल और आचरण भ्रष्ट शब्दों के तुमुल कोलाहल के इस समय में संयम, शील, सौहार्द्र, समानता, संस्कारशीलता तथा मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले साहित्यिक शब्द क्या अब कहीं सुने और पढ़े जाएंगे या साहित्य और उसके रचयिता को निर्वासन का दुख भोगना होगा? क्या साहित्य हमें इस माहौल से उबार लेगा? साहित्यकार की रचनाशीलता का चरित्र और साहित्यकार की भूमिका क्या होगी?

याद रहे कि साहित्य समय की कोख से जन्म लेकर भी उसी की गोद में खेलता नहीं रहता. वह समय का अतिक्रमण करता है और नयी जीवनी-शक्ति के साथ उभकर नया विहान लाता है. घोर अंध तमस में भी कहीं कोई न कोई एक विशिष्ट द्रष्टा ऐसा रहता है जिसकी अंतःज्योति का प्रकाश हमारे पथ को आलोकित कर देता है.

प्रश्न किया जा सकता है कि समय प्रबल होता है कि साहित्य. सामान्य धारणा ‘समै पलटै सबै’ की ही है और साहित्य को समय की देन मानने से भी संकेत यही मिलता दीखता है कि समय ही प्रबल या बलवान है. कुछ अंशों में यह सत्य भी है, परंतु यही पूर्ण सत्य नहीं है. माना कि समय-प्रवाह में बह जाने वाले साहित्यकारों की संख्या कम नहीं है, लेकिन इसके विपक्ष में सत्य यह भी है कि अनुकरणशील और समय के चारणी साहित्य को दरकिनार करके धार के विरुद्ध भी साहित्य चलता है, और काल पर अपनी जीवंतता, सशक्तता की अमिट छाप छोड़ जाता है. यही वह साहित्य है जो कालजयी कहलाता है. जन चेतना में युग-युगों तक यही निवास करता है. समय स्थायी नहीं रहता, परिवर्तनशीलता ही उसका गुणधर्म है, परंतु साहित्य, काल को चुनौती देता हुआ, दीर्घकालजीवी होता है. वास्तविकता यह है कि काल की सामान्य अथवा ऐतिहासिक कही जाने वाली धारणा से साहित्यिक काल धारणा भिन्न होती है.

साहित्य में भी वे पल आते हैं जब वह कभी समय-गति के स्वीकार की मुद्रा में होता है, कभी वर्तमान से निराश/हताश होकर अतीत में शरण लेता है, परंतु उसके जीवंत क्षण वही हैं जब वह विषम समय के विरुद्ध ताल ठोंक कर खड़ा हो जाता है. यही उसके विद्रोह का क्षण भी है और यही जन-मन के संस्कार का पल भी. विद्रोह का यह स्वर कभी प्रत्यक्ष होता है और कभी आपातकालिक स्थितियों में अप्रत्यक्ष अर्थात मौन के रूप में होता है. वह मौन भी निष्फल नहीं होता, अंधेरे की सनसनाहट का भयकारी आगाज कराने वाला होता है.

विद्रोह साहित्य का मूल स्वभाव नहीं है. मूल स्वभाव है संस्कृत अथवा परिष्कृति की भावना का प्रसार करना, मनुष्य को सुसंस्कृत बनाना. हीनता, द्वेष, निराशा आदि जैसे नकारात्मक पक्ष की उपेक्षा करके वह जीवन-विकास, एकता, समानता, सद्भावना आदि सकारात्मक पक्ष की स्थापना करता है. नकारात्मक पक्ष का उपयोग भी साहित्य करता है, किंतु उसके स्वीकार के लिए नहीं, बल्कि उससे सम्भावित हानिकर या विनाशकारी कर्मों के कुपरिणामों को दिखाकर उनकी त्याज्यता सिद्ध करने के लिए. हमें विश्वास है, नयी पीढ़ी इस गहनांधकार के विकट समय में इस मशाल को जलाये रखेगी और त्रस्त जनता को दिग्भ्रमित होने से बचा लेगी.

(फ़रवरी, 2014)

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