सात स्वरों की स्वर्ग-सृष्टि

⇐  डॉ. सुरेशव्रत राय  ⇒  

 बंगले का पोर्टिको लांघकर मैं बरामदे में पहुंचा ही था कि सामने के कमरे का परदा हिला, और एक सज्जन ने बाहर आकर मुझसे पूछा- ‘कल आपने ही सिद्धेश्वरीजी से मिलने का समय लिया था न? आइये.’ और बड़ी शिष्टता से बगल के कक्ष में ले गये.  श्वेत परिधान पहने, सफेद चादर पर श्रमती सिद्धेश्वरीदेवी संगीत की अधिष्ठात्री देवी  ‘सर्वशुक्ला सरस्वती’ की भांति विराजमान थीं. मेरे हाथ अनायास जुड़ गये और तभी मेरे कानों में ये स्नेहसिक्त शब्द प्रविष्ट हुए- ‘आवा बचवा आवा, तोहार सनेस मिलल, संगीत-चर्चा के लिए जौन समय निश्चित कइले रहली, ओकर बाट जोहत बैठल हई.’  मैं ठगा-सा रह गया. पहले कभी देखा-सुना नहीं, पर भोजपुरी के इस एक वाक्य में मुझे आत्मीय बना लिया! मैंने भोजपुरी का अपना सारा ज्ञान बटोरकर बड़े परिश्रम से कहा- ‘आपके संगीत रेडियो पर, अउर काफ्रेंस में तो बहुत सुनीला, बाकी एतने नगीच से वार्ता करै के न साहस भयल अउर न अवसर मिलल! संगीत के साथ संगीत-ज्ञान के बारे में अउर ओनकर संगीत के विषय में जाने की इच्छा के कारण आज भेंट वार्ता के ढिठाई कइली.’     उसी स्निग्ध स्वर में उत्तर मिला- ‘अरे बचवा, अपने घरे आवे में कइसन संकोच अउर कइसन ढिठाई? संगीत साक्षात नाद ब्रह्म हो, अउर संगीत-प्रेमी तो बस समझा भगवान से बढ़कर ओनकर भक्त हउअन. अइसन चर्चा बड़े भाग से होला. लेकिन उतनी दूर से आएल हउआ, पहिले कुछ जलपान करा, तब कुछ चर्चा होई.’ और कैसा ममत्व था उनके मुखड़े पर!     मैंने कैफियत दी की अभी-अभी भोजन करके आया हूं, तनिक भी गुंजाइश नहीं है. मगर कहीं-न-कहीं मुझे उनका दिया प्रसाद लेना ही था. अपनी चांदी की डिबिया से पान के दो बीड़े निकालकर मेरी ओर बढ़ाती हुई बोली- ‘पान घुलावे में तो कोई हर्जा हौ नाहीं, बनारसी मगही पान के बीड़ा मुंह में रख के ध्यान से संगीत सुना, चर्चा करा. फिर देखा पान के रस मुंह में घुलत हौ अउर ओकरे संग संगीत के रस रोम-रोम में समात हौ.’     मैंने श्रद्धापूर्वक पान लेकर बैग में रख लिया. उनकी आत्मीयता ने मन में मिस्री घोल दी थी. परंतु मुझे यह भय भी सता रहा था कि अपनी टूटी-फूटी भोजपुरी के सहारे बातचीत की गाड़ी चलाना कठिन है. आखिर मैंने हिचकिचाते हुए यह बात कह दी. इस पर वे बच्चों की तरह खिल-खिलाकर हंस पड़ीं ओर बोलीं- ‘हमार खड़ी बोली के परिच्छा लेना हौ, चला एही में सही.’  बातचीत बचपन की स्मृतियों और संगीत के प्रति अनुराग अंकुरित होने की कथा से आरंभ हुई. वे बताने लगीं- ‘जिसने मां का प्यार जाना ही नहीं, उसका बचपन क्या हो सकता है! जब मैं डेढ़ वर्ष की थी, तो मां का देहांत हो गया और जब ग्यारह वर्ष की हुई, तो पूज्य पिताजी भी परलोक सिधार गये. परंतु मेरी मौसी राजेश्वरी जी ने मेरा न केवल लालन-पालन किया, बल्कि मुझे मां का प्यार भी दिया. आज अगर मैं कुछ हूं, पूज्य मौसीजी की बदौलत हूं.’ जैसे वे मौसीजी के महत्त्व से मुझे पूरी तरह परिचित करा देना चाहती थीं. ‘मेरी मौसीजी को हिंदी, उर्दू और थोड़ा बहुत अंग्रेजी, बंगला का भी ज्ञान था. मुझे शिक्षा-दीक्षा उन्होंने घर पर ही दी और संगीत में मेरी रुचि देखकर संगीत-शिक्षा आरंभ की. उनकी माताजी अपने युग की श्रेष्ठ गायिकाओं में से थीं और काशी में ‘बड़ी मैना’ के नाम से प्रसिद्ध थीं. लोग बतलाते हैं, उनकी आवाज बहुत मधुर होते हुए भी इतनी बुलंद और तेज थी कि वे ‘बुढ़वा-मंगल’ के मेले में गातीं शीतला या चौसट्टी घाट के पास, तो सुनाई देंती रामनगर के पास तक.’     राजेश्वरी मौसी अपनी मां से बढ़कर ही निकलीं. वे और उनकी बहन विद्याधरी अपने समय की श्रेष्ठ गायिकाएं थीं. काशीदरबार की संगीत महफिल इनके बिना सूनी रहती. राजेश्वरी मौसी ‘हुस्ना’ और विद्याधरी ‘महफिले रोशन’ के नाम से प्रसिद्ध थीं. खयाल हो चाहे ठुमरी, ये विशुद्ध बनारसी अंग ही गाती थीं. यही नहीं, मेरे नाना बदरीरामजी राजा बलवंत सिंह और चेतसिंह के समय के श्रेष्ठतम तबला-वादक थे. इस तरह हमारे परिवार की संगीत-परंपरा कई सौ वर्ष पुरानी हो चली.’     और आगे की संगीत-शिक्षा? ‘लगभग आठ-नौ वर्ष की आयु में श्री सियाजी महाराज मिश्र के चरणों में मेरी संगीत-शिक्षा आरंभ हुई. वे अपने समय के चोटी के सारंगी-वादक थे और ध्रुवपद, खयाल तथा ठुमरी के सबसे बड़े जानकारों में से थे. गुरुजी को देने के लिए मेरे पास सिवा श्रद्धा के था ही क्या? मगर गुरुजी निस्संतान थे, उन्होंने मुझे कला दी, पिता का स्नेह और संरक्षण भी दिया. अंतिम सांस तक वे मुझे अपनी बेटी मानते रहे. पंचगछिया स्टेट में गुरुजी ने आफताबे-मौसीकी उस्ताद फैयाज खां के सामने स्टेज पर पहली बार मेरा गायन कराया. अपने उस केदार के खयाल-गायन को मैं आज भी भूल नहीं सकी हूं. और तब से बस चला जा रहा है. गुरुजी के देहांत के पश्चात स्वर्गीय बड़े रामदासजी से संगीत सीखने का सौभाग्य मिला.’ श्रीमती सिद्धेश्वरीदेवी जिस खूबसूरती से खयाल की अदायगी करती हैं, उसी अदा और भावपूर्णता से ठुमरी प्रस्तुत करती हैं. कारण है उनकी तन्मयता. खयाल में स्वर-विस्तार प्रधान है, जबकि ठुमरी में भाव प्रमुख होता है. परंतु सिद्धेश्वरीदेवी की गायन-शैली में दोनों का मिश्रित रूप प्रतिबिंबित होता है, जिससे उनकी गंगा-जमुनी शैली में सजीवता आ जाती है. ठुमरी को खयाल अथवा अन्य गायन-शैलियों की तुलना में सरल और हीन मानना उनकी दृष्टि में निरा अविवेक है. और वे ऐसा नहीं मानतीं कि श्रेष्ठ गायक के लिए ध्रुवपद, खयाल, ठुमरी, टप्पा आदि समस्त गायन-शैलियों में पारंगत होना आवश्यक है.  उनकी तो मान्यता है- ‘एक शैली में भी सिद्धि प्राप्त करके श्रेष्ठ गायक संगीत को दिशा दे सकता है. कहा भी है- एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय. संगीत की डिग्री-डिप्लोमा ले लेना, आकाशवाणी या सम्मेलनों में प्रोग्राम मिलना, संगीत की नौकरी मिलना, बीच की सीढ़ियां हो सकती हैं, लेकिन आखिरी मंजिल तो अनहद नाद की अनुभूति है.’ बातचीत की धारा न जाने कब अतीत की ओर फिर मुड़ गयी थी. वे पुराने दिनों का चित्र खींचने लगीं. ‘तुलसी का एक पद है- वसुधा पै वसुधारस जात बहा है. काशी में बहते उस सुधारस का पान करते-करते हर काशीवासी के गले में अमृत बस गया था. चाहे कजरी हो, चाहे चैती, यहां के जीवन का कण-कण संगीतमय था. एक तो साल-भर मेलों और त्योहारों के कारण गाने-बजाने का बराबर सिलसिला लगा रहता, दूसरे काशी में पग-पग पर बसे मंदिरों में आये दिन संगीत की महफिलें होतीं. कार्तिक मास में जाड़ऊ मंदिर, चैत्र में शितल मंदिर, मसान बाबा, किनाराम बाबा, फागुन में रामनगर (दुर्गा-मंदिर), गोपाष्टमी को पुराने विश्वनाथ, आदि विशेश्वर, बड़ा गणेश, बटुक मंदिर के प्रांगण राग-रागिनियों से गूंजते रहते. सावन में सारनाथ और दुर्गाजी के मंदिरों में महफिलें जमतीं. श्रद्धा और शौक के कारण दूर-दूर से सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ आते और बिना किसी पारिश्रमिक के,मंदिरों में अपनी कला के फूल चढ़ा कर अपने जीवन और अपनी कला को धन्य समझते.’  ‘होली समाप्त होते-होते फिर बुढ़वा-मंगल का संगीत-जश्न सात दिन दिन-रात चलता और फिर ‘गुलाब बाड़ी’ उत्सव. रईसों की हवेलियों में महफिलें होती और उन महफिलों में गजरा, झूमर और दंगल होते. गायिकाओं में अपनी कला के प्रदर्शन की होड़ लग जाती और अजीब समां बंध जाता. हर महफिल का अपना निराला रंग. अलावा इनके ‘जुमागी’ होती, जिससे रियाज और भी पक्का होता जाता.’ मेरे मुख के भाव से जैसे ताड़ गयीं कि ‘जुमागी’ शब्द मेरे पल्ले नहीं पड़ा है. वे समझाने लगीं- ‘इसे बस यों समझिये कि गाने-बजाने वालों का शुक्रवारी क्लब, जो अक्सर किसी गाने-बजाने वाले के घर पर होता था. इन गोष्ठियों में गुरु-शिष्यों के समेत, हर श्रेणी के संगीतज्ञ भाग लेते थे. एक ही बोल या तान की अदायगी अलग-अलग ढंग से करने की होड़ तो होती ही थी, साथ में संगत की लडंत भी बड़ी बेमिसाल होती.’ ‘जुमागियों में संगत करने के लिए सुर-सहाय, सियाजी महाराज, सुमेरु, पनारू, शंभू खां, नज्जू,खां, कल्लन खां जैसे सारंगी-वादक, सोनाजी जैसे हारमोनियम-वादक और वीरू महाराज, वाचा मिश्र, हरिजी, मौलवी राम, अनोखेलाल, कंठे महाराज जैसे महारथी तबला-वादक पधारते थे. कभी-कभी महफिलें संगीत-प्रेमी रईसों के घर भी होती थीं.’ ‘संगीत-कला के पारखियों की उस महफिल का नाम सुनते ही बड़े-बड़े कलाकारों को पसीना आने लगता. मगर इसमें नये गाने बजाने वालों को सीखने-समझने का काफी मौका मिलता और बुजुर्ग संगीतज्ञ सीखने वालों का बड़े प्यार से मार्गदर्शन करते थे.’     फिर सिद्धेश्वरीजी एक ठंडी सांस लेकर बोलीं- ‘अब कहां रहे वे दिन और उस समय की काशी! वैसी महफिलें और उनका माहौल तो बस एक यादगार बनकर रह गया है.’ उनके स्वर में पीड़ा थी.     मैंने विषय बदला- ‘चैती कजरी को आप इस खूबसूरती से पेश करती हैं कि सुनने वाले जैसे सावन की फुहार में झूला झूलने लगते हैं.’ उनका उत्तर था- ‘इसका श्रेय मुझे नहीं, बल्कि काशी को है. काशी की माटी में लोटकर मैंने जीवन का अधिकांश भाग बिताया है, गंगाजी को स्पर्श करती हुई हवा में मैंने सांस ली है. आजकल मुझे ठुमरी की शिक्षा देने के सिलसिले में जरूर दिल्ली में रहना पड़ रहा है, लेकिन काशी मेरे रोम-रोम में बसी है.’ फिर बोलीं- ‘आप पूछ रहे थे, कजरी मैं इतनी भावना के साथ कैसे गाती हूं? कजरी का नाम लेते ही जैसे मैं पहुंच जाती हूं काशी के ‘बाहरी अलंग’ में, जहां किसी बाग में या जंगल में झरने के किनारे भांग-बूटी छन रही है, ‘साफा लगाया’ जा रहा है, और गाना-बजाना हो रहा है. या फिर मुझे लगता है कि रंग-बिरंगी साड़ियां पहने सारनाथ के मेले  में कजरी गाती हुई गंगा की लड़कियों के झुंड में मैं भी चली जा रही हूं. जगह-जगह बन रही दाल-बाटी , दुकानों पर बन रही जलेबियों, अनरसे की सोंधी महक में, सावन की फुहार और झूले पर लगती ठंडी बयार में मेरा मन हिलोरें लेने लगता है. फिर मैं क्या गाती हूं, यह मुझे स्वयं पता नहीं रहता. मैं तो सिर्फ इतना जानती हूं कि उन झूलों और कजरी के बीच मैं खो जाती हूं.’  जब सिद्धेश्वरीदेवी तुलसी या कबीर के पद गाती हैं, तो भक्तिरस की गंगा बहने लगती है. मैंने कहा- ‘सुना है, डॉ. राजेंद्र प्रसादजी आपके भजनों के बड़े प्रशंसक थे!’ बोली- ‘वे तो संत थे, उन्होंने हमारे संगीत की प्रशंसा की. नहीं तो हमारे पल्ले क्या है? वैसे भी भाई, राम को रिझाना ही तो संगीत का लक्ष्य है. ‘ओम, तोम, हरि’ के साथ जब मैं अलाप आरंभ करती हूं, तो मुझे सुध-बुध नहीं रहती. कभी ‘मन लागो मेरो यार फकीरी में’ भजन मुंह से निकलने लगता है,तो कभी सूर-तुलसी का दूसरा कोई भजन, और फिर मुझे इसका बिलकुल पता नहीं रह जाता कि कौन गाने वाला दूसरा ही कोई है. या यों कहूं कि मैं साज बन जाती हूं, जिस पर सुर कोई और ही छेड़ रहा होता है. मुझे तो बस लगता है, ऊपर से संगीत-रस की वर्षा हो रही है, मैं भीग रही हूं. और इच्छा होती है, भीगती रहूं, अपने जीवन की अंतिम सांस तक…’ और बोलते-बोलते न जाने कब वे भजन गाने लग गयीं- ‘शिव-शिव के मन शरण हो, तो प्राण तन से निकलें.’ भक्तिभाव में पगे उस नाद-प्रवाह में गायिका और श्रोता का अस्तित्व जैसे विलीन हो गया था. केवल गेय का साम्राज्य था…‘शिव-शिव के मन शरण हो…’

( फरवरी 1971 )

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